राजाराम भादू संस्कृति पर लिखने वाले प्रखर आलोचक हैं. उनका संस्कृति-बोध समाजिक विकास और राजनीतिक स्थितियों को ध्यान में रखते हुए विकसित हुआ है और सीधे वर्तमान में हस्तक्षेप करता है.
सत्ताएं अंतत: नियन्त्रण का ही कार्य करती हैं. धर्मसत्ताओं का ढांचा जहाँ सामंती है वहीँ आधुनिक राज्य सत्ताएं कमोबेश लोकतान्त्रिक हैं. दोनों में टकराव विश्व में होता रहा है. और अब भी यह जारी है. इस टकराव पर यह वैचारिक आलेख आपके लिए.
धर्मसत्ता बनाम राज्य सत्ता
राजाराम भादू
विश्व भर में एक बार पुनः राज्य सत्ता और धर्मसत्ता के मध्य समीकरण बदल गये हैं. वैश्वीकरण का स्वागत फ्रांसिस फुकोयामा ने बाईबिल के उस ‘शुभ संदेश’को याद करते हुए किया था जिसमें ईसाइयत की विश्व-विजय की बात कही गयी थी. सेमुअल इटिंगटन की थ्योरी ‘सभ्यताओं का संघर्ष’ वस्तुतः धर्म-संस्कृतियों के द्वंद्व का ही पर्याय है. न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर पर हमले के बाद अमेरिकी राष्ट्रीयता का निहितार्थ यह हो गया था कि ईसाई बनाम अन्य. अमेरिका ही नहीं यूरोप में भी गैर-ईसाइयों के प्रति ‘अन्यता’ को दर्शाने वाले अनेक उदाहरण सामने आ चुके हैं. दूसरी ओर उदार इस्लामी राष्ट्रों को अपने देशों में कट्टर मुस्लिम संगठनों का कोपभाजन होना पड़ रहा है. भारत में भी हिन्दू कट्टरवादियों ने ‘अन्यों’ के विरुद्ध अपने लक्ष्य को बदलकर उसे मुस्लिमों पर केन्द्रित कर दिया है, ईसाइयों पर प्रत्यक्ष आक्रमणों में गत वर्षो से कमी आयी है.
यह विडम्बनाजनक स्थिति है कि प्रबोधन के युग में जिन देशों ने राज्य सत्ता को धर्मसत्ता से मुक्त करने के लिए लम्बी लड़ाई लड़ी और धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को जनतत्र की पूर्व-शर्त के रूप में जोडा, अब उन्ही देशों में धर्मसत्ता से परोक्ष सहमेल का नजारा दिख रहा है. इससे अखिल इस्लामवाद के विचार को और अधिक बल मिल रहा है. एक ध्रुवीय नव-साम्राज्यवादी आक्रामक वर्चस्व ने मुस्लिम राष्ट्रों में आंतकवादी प्रवृत्तियों को हवा दी है. भारत में इस परिघटना ने हिन्दू राष्ट्रवाद की मुहिम को उर्वर जमीन प्रदान की. इस ‘उर्वरता’ के दो कारक दिख रहे थे. एक, धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा धुंधली और कमजोर पड़ गयी, उस पर आक्रमण करना सरल हो गया. दूसरे, ‘मुस्लिम’ जो कट्टर हिन्दुवादियों के लिए ‘अन्य’ रहे हैं, उनके प्रति घृणा भाव और शत्रु भावना फैलाने के लिए वैश्विक संदर्भ मिल गया. भारतीय जनतंत्र के लिए यह भयानक संकेत था.
जनतंत्र के समक्ष खड़ी इस विकट चुनौती से कैसे जूझा जा सकता है, इस प्रश्न का समाधान आसान और सरलीकृत नहीं हो सकता. तथापि इस दिशा में गंभीर चिन्तन-मनन की आवश्यकता है. इस संदर्भ में हमें धर्मसत्ता और राज्य सत्ता की मूल प्रकृति पर भी पुनर्विचार करना होगा. कबीले से राज्य तक की विकास यात्रा में धर्म की संलग्नता बरकरार रही है. लम्बे समय तक राजा अपने को ईश्वर का प्रतिनिधि मानता रहा है. असल में राज्य-सत्ता एक शक्ति केन्द्र है. राज्य ने अपनी दीर्घकालीन विकास यात्रा में बल के आधार को व्यापक वैधता हासिल करने के आधार में बदला है. शासक को वैधता प्रदान करने का एक केन्द्र धर्मतंत्र भी रहा है बल्कि अनेक बार यह एक मात्र केन्द्र रहा है. शासन करने की पद्धतियों और नियमों के विकास के साथ शासक की शक्तियां इन पद्धतियों व नियमों में समाहित होती गयी हैं. धर्मतंत्र ने इन पद्धति व नियमों को आधुनिक काल से पूर्व अक्सर प्रभावित किया है.
धर्म सत्ता में भी अपनी ही तरह से शक्ति विद्यमान रही है. अपनी शक्ति का उपयोग धर्मसत्ता ईश्वरीय अथवा दैवी आदेशों और आचार के नियमों के नाम से करती है. इस तरह हम देखते हैं कि राज्य सत्ता राजनीतिक शक्ति से संचालित है जो भौतिक जीवन के सभी क्षेत्रों में हस्तक्षेपकारी है. धर्मसत्ता धार्मिक शक्तियों से संचालित है और उनका क्षेत्र अपने अनुयायियों का आभ्यन्तर जगत अथवा आध्यात्मिक क्षेत्र है. चूंकि यह क्षेत्र अलौकिकता तक जाता है इसलिए अतिविस्तारित है. दोनों सत्ताएं अपनी अर्जित शक्ति का उपयोग अधीनस्थों के नियंत्रण और नियमन में करती हैं. अपनी अन्तर्निहित शक्ति के अनुपात में इनके प्रभाव क्षेत्र घटते-बढ़ते रहते हैं. दोनों सत्ताएं अपने आधिपत्य विस्तार और निहित स्वार्थो के चलते कई बार टकराती हैं तो अक्सर यथास्थिति बनाये रखने के लिए सहमेल कर लेती हैं.
अक्सर हिन्दू धर्म की संरचना को अन्य वैश्विक धर्मो, यथा-इस्लाम और ईसाई से अलगाया जाता है और तुलनात्मक रूप से इसे आधिक लचीली ठहराया जाता है. यह भी कहा जाता है कि हिन्दू धर्म एक संस्थाबद्ध सम्प्रदाय से परिचालित नहीं है बल्कि यह एक विश्वास है जिससे आम हिन्दुओं की जीवन-प्रणाली अनुप्राणित होती है. हिन्दू धर्म के ऐतिहासिक विकास क्रम को देखें तो इस धारणा में आंशिक सत्यता दिखायी देती है. निश्चय ही यह इस्लाम या ईसाईयत की भांति रूढ़ अर्थ में संस्थागत नहीं रहा है. इसमें वैष्णव, शैव, शाक्त और सनातनी मत और सम्प्रदाय रहे हैं. उपासना के लिए सैंकडों देवी-देवता रहे हैं और उतनी ही भिन्न-भिन्न उपासना की पद्धतियां रही हैं. किन्तु ध्यान से देखें तो पायेंगे कि ये सभी मत-सम्प्रदाय हिन्दू धर्म की अन्तर्धाराएं हैं. बेशक, विभिन्न युगों में इनमें पारस्परिक द्वंद्व और टकराहटें भी रही हैं. किन्तु कुछ सामान्यताएं हैं जो इन सभी धाराओं को एक सूत्र से जोड देती हैं. कुछ विशिष्ट सामान्यताएं हैं अवतारवाद, वर्ण व्यवस्था और पुनर्जन्म. ये सामान्यताएं हिन्दू परिवार में जन्मे शिशु को अपने दायरे में ले लेती हैं और वह मृत्यु-पर्यन्त बल्कि मृत्यु के बाद भी ऐसे चक्र में घूर्णन करता है जो धर्म की रीति-नीति से निर्धारित है.
वर्ण-व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर जीवन बसर करने वाले लोगों को अमानवीय स्थितियों में रहना होता है. इसी भांति स्त्रियां दोहरे-तिहरे दलन और उत्पीडन का शिकार होती हैं. उत्पीडितों का शोषण और दलन पूर्व के जन्म का कर्मफल ठहराया जाता है. विडम्बना यह है कि उत्पीडित भी इस धारणा में विश्वास करते हैं और अपनी नारकीय स्थितियों को सहज स्वीकार कर लेते हैं. यह मान्यताएं समाज के वर्चस्वशील तबके की शीर्ष स्थिति को तो निरापद बनाती ही हैं बल्कि राज्य सत्ता की निरंकुशता को भी कभी प्रश्नित नहीं होने देतीं. शासक होना भी इस मान्यता के अनुसार उसके पूर्व जन्मों के पुण्यों का फल है. अन्याय को सहते रहना पुण्य कार्य है जिसका उत्पीडित को किसी आने वाले जन्म में सुफल मिलना है और यदि वह इसका प्रतिकार करता है तो उसे इस पाप का फल भोगना पडे़गा. ब्राह्मण-पुरोहित वर्ग धर्मशास्त्रों की मदद से इन मान्यताओं को निरंतर प्रचारित-पोषित करता रहा है और इस तरह से वह निरंकुश सामंती राज्य सत्ता का हित-साधन करता रहा है. इसका नतीजा हम सदियों तक एक ऐसी यथास्थितिमूलक जड़ता और ठण्डी क्रूरता में देखते हैं जो सामाजिक ढांचे को जर्जर कर देती है.
मुस्लिम आंक्रान्ताओं और ब्रिटिश सत्ता की सफलताओं के पीछे हिन्दू धर्म के प्रवक्ता अक्सर धार्मिक मूल्यों और कथित मर्यादाओं के क्षरण को प्रमुख कारण बनाते हैं. जबकि ऐसा कोई वाक्या उस समय तक देखने में नहीं आता कि लोगों ने धर्म के प्रति विद्रोह किया हो अथवा ईसाई प्रोटेस्टन्टों की तरह धर्म सुधार का उग्र आन्दोलन चलाया हो. हिन्दू धर्म के प्रतिरोध की जो प्रमुख धाराएं हैं उनमें चार्वाक, जैन और बौद्ध प्रमुख हैं. तत्पश्चात देश के दक्षिण और उत्तर में चलाया भक्ति-आन्दोलन है. किन्तु हम देखते हैं कि चार्वाक तो हिन्दू धर्म संरचना में एक चिकोटी काटने से ज्यादा उपक्रम नहीं कर पाते. जबकि जैन और बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म की भांति ही संस्थाबद्ध हो जाते हैं और विभिन्न सामंती राज्य सत्ताओं से गठजोड स्थापित कर लेते हैं. उनके भव्य मठों के वर्चस्व-कलश चमचमाने लगते हैं और दीनहीनों से उनकी दूरी बढ़ती जाती है. यही प्रक्रिया भंक्ति आन्दोलन के दौरान उभरे पंथ-सम्प्रदायों के साथ घटित होती है. अन्ततः हिन्दू धर्म का सर्वसमावेशी ढ़ांचा ही सबसे व्यापक और निर्णायक साबित होता है. किन्तु यह ढ़ांचा अपने आन्तरिक निम्न-संस्तरों के ऊपर जितना वर्चस्वशील और दमनकारी था उतना बाह्य शक्तियों से रक्षण अथवा प्रत्याक्रमण में अक्षम था. जिन सामंती राज्य सत्ताओं की यह प्रशस्ति करता था, वे अनपेक्षित परिस्थितियों में एक-एक कर ढ़हती गयीं.
भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा ऐसा रहा है जो हिन्दू धर्मतंत्र से विलग रहा. इनमें मुख्यतः आदिवासी समुदाय हैं जिनकी अपनी ही आध्यात्मिक प्रणालियां थीं. ये लोग सामान्यतः प्रकृतिपूजक (animists) कहे जाते हैं. विश्व स्तर पर धर्म के स्वरूप को मुख्यतः दो भागों में बांटकर देखा जाता रहा है – प्रोफेटिक, जिसमें कोई एक पैगम्बर है और जो कठोर संरचनाबद्ध है; तथा पैगन, जिसमें कई देवी-देवताओं अथवा प्राकृतिक प्रतीकों की उपासना की जाती है और जिसका ढ़ांचा लचीला है. आदिवासियों के धार्मिक विश्वासों को पैगन परम्परा में रखा जा सकता है. देश के नहीं वरन् दुनिया के आदिवासी समुदायों में धार्मिक मान्यताओं व रीति-नीति का पैगन स्वरूप एक व्यापक सामान्यता की भांति उपस्थित है जबकि इनकी उपासना पद्धतियों और अनुष्ठानों में परस्पर खासा वैविध्य रहा है. भारत में यह हिन्दू धर्म की परिधि से परे का क्षेत्र है जिसमें इन समुदायों ने सदियों तक अपनी विशिष्टता बनाये रखी है. इनमें बाह्य हस्तक्षेपों का हम प्रसंगवश आगे जिक्र करेंगे. यहां यह उल्लेख आवश्यक है कि इन समुदायों में भी धार्मिक अनुष्ठानों-कृत्यों को अंजाम देने वाला एक खास तबका रहा है जिसकी हैसियत पुरोहित-पुजारियों जैसी ही थी और कबीले के सरदार या समुदाय के शक्ति-केन्द्रों से इनका सम्बन्ध भी बहुत गहरा रहा है.
शूद्र कहे जाने वाले जाति समुदायों के भी अक्सर भिन्न लोक-देवता और उपासना-अनुष्ठान रहे हैं क्योंकि ये समुदाय हिन्दू धर्म के व्यवहारों से हाशियाकृत थे. मंदिरों और मठों में सामान्यतः इन जाति-समुदायों का प्रवेश वर्जित था. इन्हे धार्मिक कार्य-व्यापारों में हिस्सा लेने का कोई अधिकार नहीं रहा. तथापि ये लोग हिन्दू देवी-देवताओं तथा धार्मिक मूल्य-मान्यताओं के प्रति श्रद्धा और आस्था व्यक्त करते रहे.
मंदिर और मठ हिन्दू धर्म सम्प्रदायों की ऐसी संस्था रहे हैं जो उनकी शक्ति का प्रतीक और केन्द्र दोनों थे. यह एक प्रकार से राजसत्ता के समानान्तर सत्ता थी जिसके प्रति राज सत्ता को भी सम्मान प्रदर्शित करना होता था. मन्दिर और मठों के आधिपत्य से सम्बद्ध वर्ग ऐतिहासिक रूप से विशेषाधिकार सम्पन्न वर्ग रहा है. यहां तक कि कुछ शुरूआती झटके खाने के बाद मुस्लिम शासकों और ब्रिटिश राज के शताब्दियों लम्बे काल में भी उन संस्थाओं ने अपनी विशिष्ट स्थिति कायम रखी है.
इस संक्षिप्त अवधारणात्मक और ऐतिहासिक संदर्भ के उपरान्त हम वर्तमान में राजसत्ता और धर्मसत्ता के द्वंद्व और सहमेल का किंचित विश्लेषण करना चाहेंगे. भारतीय संविधान धार्मिक स्वतंत्रता और धार्मिक संस्थाओं की स्वायत्तता को मान्यता देता है. लेकिन धर्मनिरपेक्षता को संवैधानिक रूप से सुनिश्चित करने वाले प्रावधान धार्मिक कार्य-व्यापार और धर्म-संस्थानों को राज्य के कार्य-व्यापार और संस्थानों से अलगाते हैं. इस संदर्भ में उल्लेख है कि धर्म-संस्थानों, यथा- मंदिर, मठ, चर्च, मस्जिद और गुरूद्वारों एवं इनके द्वारा संचालित प्रवृत्तियों के नियमन और नियंत्रण को लेकर संवैधानिक प्रावधान लगभग न्यूनतम हैं. संविधान लागू होने से अब तक ऐसे विधान बनाने के खास उपक्रम नहीं हुए हैं. फलतः धार्मिक संस्थान अपनी सम्पदा का अकूत विस्तार करते रहे हैं. यही नहीं, अनेक धर्मगुरू और उनके आध्यात्मिक केन्द्र अस्तित्व में आये हैं जो अपने वाणिज्यिक विस्तार के चलते कारपोरेट सैक्टर से होड़ ले रहे हैं. इनके आय-व्यय के हिसाब-किताब की रस्म-अदायगी भर होती है जबकि इन्हें आयकर से मुक्त ही नहीं रखा गया बल्कि इन्हे दान देने वालों को आयकर से छूट मिलती रही है. धर्म सत्ता से जुडा यह अर्थ-चक्र अभी तक सार्वजनिक विमर्श के दायरे से बाहर रहा है.
जैसा कि हमने आंरभ में कहा, राज सत्ता और धर्मसत्ता दोनों ही अन्ततः नियामक सत्ताएं हैं तथा मुनष्य को कुछ नियमों और संहिताओं के जरिये नियंत्रित करती हैं. इन नियंत्रणों का मानवीय विकास की प्रक्रियाओं से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है. यहां हम धर्म सत्ता द्वारा लागू किये गये दो निषेधों की चर्चा करना चाहेंगे. एक जमाने तक चर्च व्यापारिक गतिविधियों से मुनाफे और तद्तजनित साधन-सुविधाओं के अर्जन को निषिद्ध करता था. बाद में प्रोटेस्टेंट चर्च ने इंग्लैंड में इन निषेधों को उठा लिया जोकि उस समय बहुत प्रभावी था और राज सत्ता से उसका गहरा रिश्ता था. इससे इंग्लैंड में और तद्नन्तर यूरोप में पूंजीवाद के निर्बाध विस्तार का मार्ग-प्रशस्त हुआ. इसी भांति हिन्दू धर्म की एक प्रबल धारा अपने अनुयायियों की समुद्री यात्रा को निषिद्ध करती थी. अनेक इतिहासकार मानते हैं कि इससे भारत के अन्तर्राज्यीय व्यापार का विकास अवरूद्ध रहा. ब्रिटिश काल में जब सिविल सेवा के दरवाजे भारतीयों के लिए खोले गये तो लम्बे समय तक इसके लिए अध्ययन करने और परीक्षा देने के लिए इंग्लैंड जाना होता था. उक्त निषेध अनेक मेधावी भारतीय युवाओं के लिए इसमें अवरोध सिद्ध हुआ. ऐसे अनेक निषेध अभी भी बरकरार हैं.
राज सत्ता के नियमन और नियंत्रण का परिप्रेक्ष्य लोगों का दुनियावी जीवन है जबकि धर्म सत्ता के नियंत्रण का परिक्षेत्र कहीं ज्यादा विस्तारित है. यह लोगों के विचारों को ही नहीं बल्कि कल्पना जगत को भी नियंत्रित करती है. हम देखते हैं कि प्राचीन काल में लोगों की कल्पना-शक्ति मिथक और पुराणों में व्यक्त हुई है. धार्मिक प्रवक्ता इनकी नयी-नयी प्रासंगिक किन्तु तर्काधार विहीन व्याख्याएं करते रहते हैं. मनुष्य की अमूर्त चिन्तन क्षमता एक जबर्दस्त अन्तर्निहित शक्ति है जो बौद्धिकता के रूप में प्रकट होती है. धर्म स्वतंत्र बौद्धिकता और चिन्तन पर निरन्तर आघात करता रहा है. चूंकि धर्म आस्था और स्वीकार्यता पर बल देता है, इसमें प्रश्नाकुलता को अच्छा लक्षण नहीं माना जाता. इस तरह यह विचार-प्रक्रिया को ऐसी जड़ता के घेरे में ला खदेड़ता है जहां पूर्व-निश्चित अवधारणाओं के समक्ष समर्पण के सिवाय कोई विकल्प नहीं बचता. धर्म मानवीय अनुभवों और जीवन स्थिति जनित चेतना को आध्यात्मिकता में गड्डमड्ड कर देता है एवं इस पर एकाधिकार का दावा करता है. परालौकिक शक्तियों की फन्तासी के सहारे यह लौकिक जीवन पर वर्चस्व स्थापित कर लेता है. दूसरी ओर जो शक्तियां वर्तमान को नियंत्रित करती हैं (इनमें राज सत्ता सर्वोपरि है) उनसे भविष्य (परलोक, अगला जन्म) के ठेकेदार समझौता करते हैं. यह ‘अपवित्र गठबंधन’ यदि बहस के दायरे में आता है तो और अधिक मजबूत तथा आक्रामक हो उठता है.
पारम्परिक (सामंती) राज सत्ताओं के पतन और जनतांत्रिक प्रणालियों के स्थापन काल में पूंजीवादी शक्तियों ने निर्णायक भूमिका निभायी थी. इन्होने न केवल प्रबोधन का प्रोत्साहित किया बल्कि विज्ञान का समर्थन किया. जनतांत्रिक शासन प्रणालियों के उभार से पूंजीवादी शक्तियों को गहरा सहमेल रहा है. यह सहमेल समाजवादी क्रान्तियों तक बरकरार था. 1917 में रूसी क्रान्ति के बाद हम यूरोप में पूंजीवादी शक्तियों को चर्च की शरण में जाता हुआ देखते हैं. दुनिया भर में संकटग्रस्त पूंजीवाद ने धर्मतंत्र से समझौता कर लिया है क्योंकि प्रबोधन की चेतना को एक सीमा से आगे बढ़ने से रोकने के मामले में दोनों शक्तियां एकमत हैं. यह विडम्बनाजनक है कि जो धर्मनिरपेक्षतावाद राज्य को धर्मतंत्र से अलगाने के लिए एक समाधान की तरह लाया गया था, पूंजीवादी शक्तियों के विपरीत ध्रुवीकरण से उसे क्षति पहंुची और इसके परिणामस्वरूप जनतांतिक ढ़ांचा कमजोर हुआ.
भारत में आधुनिक काल में हुए धर्म सुधारों- यथा ब्रह्म समाज, आर्य समाज, रामकृष्णन मिशन और थियोसोफीकल सोसायटी आदि के उपक्रमों- ने धर्म सत्ता के मूल पर प्रहार नहीं किया बल्कि धर्म के नवीकरण तक अपने को सीमित रखा. इनके प्रयत्नो में ईश्वरीय सत्ता को चुनौती नहीं थी बल्कि ये बहुदेववाद की जगह ऐकेश्वरवाद जैसी मान्यताओं को आगे रखते थे. जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसे साम्प्रदायिक संगठन वजूद में आये और उन्होने धर्म को ही राष्ट्रीयता ठहराया तो पूर्व के धर्मसुधार उपक्रमों से उन्हे मदद ही मिली. मसलन हिन्दू धर्म सुधारों ने इसे अधिक ‘प्रोफेटिक’ बनाने का प्रयत्न किया था और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन खुद चाहते थे कि हिन्दू धर्म अधिकाधिक संस्थाबद्ध और ‘मिलिटेंट’ बने. असल में राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में आरंभ से ही एक ऐसी धारा विद्यमान रही थी जो स्वातंत्र्य संघर्ष को हिन्दू पुनरूत्थान से जोड़कर देखती थी. स्वयं गांधीजी अपने को बार-बार धार्मिक कहते थे और वैष्णव व्यवहारों को अपनाते थे. ज्योतिबा फुले जैसे दलित नेताओं ने अपने आन्दोलन में वर्ण व्यवस्था को एक प्रमुख अवरोध के रूप में पहचाना था किन्तु अम्बेडकर ने वर्णव्यवस्था से मुक्ति बौद्ध धर्म में ढूंढ़ी. शायद यही कारण था कि संविधान में धर्मनिरपेक्ष प्रावधानों को उतनी प्रभाविता नहीं मिली, जितनी आवश्यक थी.
जनतंत्र एक आधुनिक शासन प्रणाली है जिसमें मनुष्य को धर्म, जाति, लिंग, भाषा आधारित पहचानों से पृथक एक व्यक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है. स्वतंत्रता, समानता और धर्मनिरपेक्षता जैसे आधुनिक मूल्यों पर जनतंत्र की इमारत खड़ी है. आजादी के उपरान्त भी भारत में धर्मनिरपेक्षता को प्रोत्साहित करने वाली वैज्ञानिक और जनतांत्रिक संस्कृति नहीं विकसित हो सकी. इसकी एक वजह तो आधुनिक शिक्षा का मंथर प्रसार था, दूसरे इस शिक्षा प्रणाली में अन्तर्निहित कमजोरियां भी थीं. यह तो स्वाभाविक ही था कि अशिक्षित समुदायों के अधिकांश सांस्कृतिक स्रोत धार्मिक थे (लोक-संस्कृति में धार्मिक तत्व अच्छी-खासी तादाद में मौजूद रहते हैं); आधुनिक शिक्षा की तरह आधुनिक संस्कृति-रूपों का भी सार्वजनीकरण नहीं हुआ. लेकिन यह त्रासद विडम्बना है कि शिक्षित लोग भी धार्मिक बने रहे.
हम यहां इस परिघटना के कारणों में विस्तार से नहीं जाना चाहते. जो कारण सामान्यतः नजर आते हैं, उनमें आर्थिक रूप से मध्यवर्ग का द्वैधता से भरा चरित्र प्रमुख नजर आता है. भारतीय शिक्षित वर्ग प्रायः मध्य और निम्न मध्यम वर्ग से सम्बद्ध है. यह सर्वविदित है कि नैतिकता को धर्म अक्सर गुणात्मक रूप से प्रभावित नहीं कर पाया है. आजादी के बाद जनतंत्र के लाभ मोटे तौर पर इसी वर्ग ने उठाये हैं और अपनी उत्तरोत्तर प्रगति के लिए इसने नैतिक बंधनों को भी तिलांजलि दे दी है. एक ओर जीवन-व्यवहार में यह अच्छे-बुरे सभी तरीके अपनाता है तो दूसरी ओर धर्म-संस्थानों में जाकर अपने पापों को धो डालता है. धर्म से व्यापारिक गतिविधियों की सम्बद्धता से भी लोग लाभान्वित हुए हैं.
भारत में जनतंत्र के बाद भी जनशिक्षण की ठोस कार्यवाहियों का अभाव रहा. राजनीतिक दलों ने अपने इस दायित्व से मुंह चुराया. स्वतंत्र भारत की राजनीति अपवाद स्वरूप ही धर्मनिरपेक्ष चेतना से परिचालित रही है. जब राजीनीतिक ध्रुवीकरण का आधार जाति समुदाय या धर्म सम्प्रदाय रहेंगे (कभी क्षेत्रीय या भाषिक अस्मिता भी) तो धर्मनिरपेक्षता तो स्वतः ही पृष्ठभूमि में चली जायेगी. इसका एक अनिवार्य प्रतिफलन जाति-सम्प्रदाय केन्द्रित शक्तियों के प्रभाव विस्तार के रूप में सामने आयेगा.
विगत दशकों में पिछड़ी, आदिवासी और दलित जातियों में उभार और राजनैतिक चेतना में वृद्धि परिलक्षित हुई है. लेकिन संस्कृति में जिस तरह धर्म घुला-मिला है उसने अस्मिता-संघर्ष को ‘सांस्कृतिकरण’ से जोड दिया है. एम. एन. श्रीनिवासन ने बहुत पहले ‘संस्कृतिकरण’ की प्रक्रिया को रेखांकित किया था जिसके अन्तर्गत ये वर्ग अपनी आर्थिक बेहतरी के साथ ही वर्चस्वशील तबकों की संस्कृति (जिसमें धार्मिक कार्य-व्यापार प्रमुख हैं) का अनुशरण करते हैं. इसका लाभ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके अनुषंगी संगठनों ने उठाया है तथा दूरस्थ आदिवासी अंचलों और निचले पायदान के समुदायों तक अपना प्रभाव विस्तार कर उनका साम्प्रदायिक धु्रवीकरण किया है, अन्य धर्म भी ऐसी गोलबंदी में संलग्न हैं.
हमने आरंभ में उल्लेख किया था कि समूचे विश्व के साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण के प्रयास हुए हैं. न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर के ध्वस्त होने के बाद अमेरिका ने जिस समय अफगानिस्तान पर हमला बोला था, उस समय इस्लामिक आंतकवाद के विरूद्ध तमाम ईसाई राष्ट्रों की एकजुटता हतप्रभ करती थी. ईराक पर अमेरिकी आक्रमण के समय से इस एकजुटता में दरार आने लगी है और यह छितराने लगी है. लेकिन इसका यह मतलब नहीं लगा लेना चाहिए कि धर्मनिरपेक्षता के दिन फिर गये हैं क्योंकि राज्य सत्ता को धर्म सत्ता से अभी भी चुनौतियां मिल रही हैं.
वैश्वीकरण ने राष्ट्रीयता को समस्याग्रस्त कर दिया था. विश्व अर्थ व्यवस्था ने राष्ट्र राज्य की सम्प्रभुता को सीमित किया है. एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था में विकासशील देश अभी किसी सार्वजनीन एजेन्डे को लेकर संगठित नहीं हुए हैं. ऐसी स्थिति में धर्म और नस्ल आधारित गोलबंदियों को बल मिलता है. अमेरिका इन शक्तियों को लगातार बढ़ावा दे रहा है. असल में राज्य सत्ता को धर्म सत्ता से मुकम्मिल रूप से अलगाने और धर्मनिरपेक्षता की जड़ों को मजबूत करने के लिए यह आवश्यक है कि राजनीति और संस्कृति दोनों ही दर्शन से अनुप्राणित हों.
ऐसा दर्शन जिसमें मनुष्य के बेहतर भविष्य का खाका स्पष्ट हो. मनुष्य कभी स्वप्न विहीन नहीं हो सकता, इसलिए एक आदर्श भविष्यत् संसार (यूटोपिया) उतना ही स्वाभाविक है जितना कि सामान्य मनुष्य जीवन और भौतिक जगत. यह यूटोपिया ही वास्तव में ईश्वरीय सत्ता का स्थानापन्न हो सकता है. मानवीय स्वतंत्र चिन्तन और सामूहिक चेतना इस का उत्तरोत्तर विकास कर सकती है. यदि दुनिया ग्लोबल हुई है तो यूटोपिया का क्षैतिज विस्तार होना चाहिए. अब हम एक आदर्श देश का नहीं बल्कि एक आदर्श दुनिया का स्वप्न देखें जिसमें अन्याय और उत्पीड़न न हो.
यदि कोई व्यक्ति किसी धर्म का अनुयायी है तो उसे धर्म से जबरन नहीं अलगाया जा सकता. यदि वह स्वेच्छा से किसी धर्म को मानता है तो इसमें अनुचित कुछ भी नहीं है. लेकिन यदि कोई व्यक्ति धर्म से मुक्त रहता है तो इसे भी गलत नहीं कहा जा सकता. जनतांत्रिक प्रक्रियाओं में यदि हम एक व्यक्ति के रूप में भागीदारी न करके किसी जाति समुदाय या धर्म-सम्प्रदाय के सदस्य के रूप में हिस्सा लेते हैं, तो उस समुदाय या सम्प्रदाय के प्रभुतों की ताकत तो बढ़ाते ही हैं बल्कि व्यक्ति के रूप में अपनी इयत्ता का भी ह्रास कर लेते हैं. इसका परिणाम अतंतः जनतंत्र में स्वतंत्रता और समानता के ‘स्पेस’ में ‘संकुचन’ के रूप में होता है. जब हमारी पहचान लिंग, जाति या धर्म से होती है तो तार्किक रूप से एक ‘अन्य’ पहचान की प्रतिद्वन्द्विता भी स्वतः अस्तित्व में आ जाती है और जनतांत्रिक चयन एक ऐसी प्रतियोगिता में बदल जाता है जो पारस्परिक द्वंद्व और हिंसा को जन्म दे सकती है.
शीर्ष स्तर पर यह राज्य सत्ता और धर्मसत्ता के द्वंद्व या सहमेल में परिणित होती है. दोनों ही स्थितियों में किन्ही की स्वतंत्रता और समानता के अधिकारों के अतिक्रमण की संभावना होती है. कुल मिलाकर धर्मसत्ता एक सामंती रचना है जो जनतंत्र के साथ इसलिए नहीं चल सकती क्योंकि जनतंत्र आधुनिकता की उपज है. आपको यकीन न हो तो आप धर्म-संस्थाओं में जनतांत्रिक प्रक्रियाओं को लागू करने का प्रयास करके देख लें, या धार्मिक मूल्य-मान्यताओं को खुले विमर्श का विषय बनाकर देख लें अथवा धर्मगुरूओं से आत्मालोचना की मांग करें तो नतीजा खुद-ब-खुद समाने आ जायेगा.
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राजाराम भादू
24 दिसंबर 1959, ग्राम लुधावई, भरतपुर (राजस्थान)
राजस्थान वि.वि. से अंग्रजी में एम.ए. करने के उपरान्त आगरा विश्वविद्यालय से संस्कृति एवं भाषा विज्ञान का अध्ययन
स्वयं के विरुद्ध, जीवन ही कुछ ऐसा है (कविता); कविता के संदर्भ, सृजन प्रसंग (आलोचना); धर्मसत्ता और प्रतिरोध की संस्कृति, शिक्षा के सामाजिक सरोकार (सांस्कृतिक/सामाजिक लेखन)
महानगर (मुम्बई) एवं दिशाबोद्य के सम्पादन के साथ समान्तर इंस्टीट्यूट फॉर कल्चरल एक्शन एण्ड रिसर्च से संबद्ध
सी एस डी एस दिल्ली द्वारा सराय फेलोशिप एवं राजकमल प्रकाशन द्वारा कृति प्रस्ताव फेलोशिप 2000।
सम्पर्क : 71/17, श्योपुर रोड, प्रताप नगर, सांगोपुर, जयपुर-302033 (राज.)
samantarcsc@gmail.com/ 09828169277
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