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Home » सविता सिंह के लिए (कविता) : विपिन चौधरी

सविता सिंह के लिए (कविता) : विपिन चौधरी

समकालीन कवियों पर कविताएँ लिखने की रवायत है.  शमशेर, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल त्रिलोचन आदि ने एक दूसरे पर खूब कविताएँ लिखी हैं. सुधीर सक्सेना का एक कविता संग्रह इधर आया था – ‘किताबें दीवार नहीं होतीं.’ उसमें सभी कविताएँ किसी न  किसी को समर्पित हैं. युवा  विपिन चौधरी ने अपने से पहले की पीढ़ी की […]

by arun dev
April 26, 2017
in Uncategorized
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समकालीन कवियों पर कविताएँ लिखने की रवायत है.  शमशेर, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल त्रिलोचन आदि ने एक दूसरे पर खूब कविताएँ लिखी हैं. सुधीर सक्सेना का एक कविता संग्रह इधर आया था – ‘किताबें दीवार नहीं होतीं.’ उसमें सभी कविताएँ किसी न  किसी को समर्पित हैं.

युवा  विपिन चौधरी ने अपने से पहले की पीढ़ी की महत्वपूर्ण लेखिका सविता सिंह  पर पन्द्रह कविताएँ लिखी हैं.  इन कविताओं में कितनी कविता है और कितना प्रभाव ? कितना आवेग है और कितना निजत्व ? यह आप पढ़ कर देखिए.




विपिन चौधरी 

उतरी है एक नाव उस पार, जरूर उसमें एक नया संसार रचने का सामान होगा

(सविता सिंह के लिए )




1.

मॉस–मज्जा को पार कर  
आत्मा की झीनी त्वचा को छूता,
यह तीर
कहीं टकराता नहीं
छूता है बस
तुम मेरे जीवन में
उतरी हो
एक तीर की तरह  
सच कहती हूँ
कपास सा नर्म यह तीर
सफ़ेद नहीं,
इसका रंग
आसमानी है.

2.   

दुःख  सिर्फ पत्थर नहीं
उसका  भी एक सीना है
दुःख की भी एक राह है , जो
प्रेम के मुहाने से निकलती है
जाती चाहे कहीं  भी हो

तुम दुःख को इतना
अपना बना देती हो
कि कभी–कभी दुःख पर भी  मुझे दुलार हो आता है  जैसे तुमपर आता है दुलार
तुम्हारा दुःख अब मेरा दुःख है यह मान लो 
तुमसे मिलकर दुःख पर  विश्वास और गहरा हुआ है
दुःख एक मुकद्दस चीज़ है अब मेरे लिए.


3. 

तुम्हारी संवेदना मुझे डराती है कई बार 
मैं तुम्हे उससे दूर ले जाना चाहती हूँ 
पर तुम्हारी संवेदना,
देह है तुम्हारी  
यह मैंने जाना तुम्हारी कविताओं से 
कि तुम दूर नहीं हो सकती कविता से 
और अब मैं चाहती हूँ 
तुम रहो गहरी  संवेदना के भीतर 
रहता है जैसे  सफ़ेद बगुला 
पानी में बराबर .


 4. 

तुम्हारी नाव तो  उस पार उतरती  है 
पर तुम ठहरी रहती हो वहीँ 
खिड़की से देखती 
आकाश और समुंदर के नीले विस्तार को
मोंट्रियाल  भी वही थी तुम 
आरा में भी 
दिल्ली में भी 
हो आती थी तुम दूर तलक 
पर कायदे से तुम वहीं रहती थी 
अपने कमरे में 
काली चाय पीती 
खिड़की से देखती 
तुम्हारा देखना,
ठहरना है 
कि  द्रश्य भी ठहराव  की एक सुंदर भंगिमा है
यह भंगिमा अज़ीज़ है तुम्हें .

5.

तुम्हारा ठहराव मुझे पसंद है 
कि मेरा भी एकमात्र प्रेम यही है  
और आखिरी भी 
किस प्रेम से तुम टूट कर बतियाती हो पृथ्वी के उस पार गए अपने प्रिय से 
कि मैं  भी उससे दूर 
जो है  इसी पृथ्वी पर 
मगर अपनी दुनिया में मगन 
करती हूँ  उस दूर के रहवासी से
मुग्ध ऐसी ही प्रेमिल बातचीत 
सुनों  
हम दोनों के बीच 
यह ठहराव ही तो है 
बांधता है जो हमें 
और बींधता भी.


6.

अक्सर ही कहीं ऊँचे से देखती हो तुम
दुःख की बल खाती हुयी नदी का  अचानक पत्थर हो जाना
   
मन के सभी तंतुओं पर ऊँगली रख 
उन्हें झंकृत करती तुम 
जानती हो उनके तत्सम,विलोम, पर्यायवाची  
पीले रंग की उदास स्याही में घंटों डूब कर रचती गीले शब्द  
जो सुखाते  है उनके भीतर 
पढ़ते हैं जो तुम्हारी एकांत में अपना रंग छोड़ती हुयी कवितायेँ 
नीले में पीला रंग मिला  कर हरा रंग बनाना तुम्हें पसंद नहीं 
कि कला की इस तमीज का रास्ता भी दुनियादारी की तरफ मुड़ता है 
दुनियादारी से तुम्हें परहेज़ नहीं 
पर इसका इनका रसायन अक्सर तुम्हें परेशान करता आया है  
तुम्हारी गंभीरता ले जाती है तुम्हें सबसे दूर
एक परिचित परछाई मुझे भी घेर लेती है अक्सर 
तब मुझे सोचना ही होता है तुम्हारे बारे में 
मुझे लिखनी ही होती है तुम पर एक कविता.

7.   

जरुरी नहीं कि चीज़ें व्यस्थित करने के लिए एक सीधी रेखा खींच दी  जाए 
और प्रेम के साथ–साथ जुदाई से भी दोस्ती कर ली जाए 
पर प्रेम खुद ही जुदाई से रिश्ता बना कर हमारे करीब आया
तुम तब भी चुप रही  
स्त्रीवादी मनस्विता के सारे उपकरणों से लैस तुम  
इस प्रेम को सर्वोपरि मान चढ़ गयी  कई सीढियाँ नंगे पाँव 
यह जानते हुए कि लौटने का आशय लहू–लुहान होना है
पर जुदा होने के सारे सबक तुम्हें मुंह–ज़बानी याद  थे 
उस समय भी जब प्रेम अलविदा कह गया था.

8.  

सपनों का रंग  
या भाषा का सन्नाटा 
या अपने ही मन का कुछ इक्कठा करती
चींटियों का अनुशासन तुम्हें खूब देखा   
देखो अब भी वे पंक्तिबद्ध हो कहीं जा रही हैं 
होगा जरूर उनका मन का वहां  
अपने मन का तुमने भी खूब पाया 
खूब इक्कठी की उदासी और समेटा  अकेलापन 
और उसे बुन कर ओढ़ा दिया अपनी बिटिया को  
वह भी अब देखती है दुनिया उसी खिड़की से 
जिसमे बैठ देखी थी तुमने एक नाव जाती हुए दूसरे छोर की ओर.


9. 

सच, जीवन की बिछी हुयी चादर उतनी ही चौड़ी है 
जितना उसपर ओढे जाने वाला लिहाफ 
अक्सर नापने बैठ जाती हो  तुम  
स्त्री के मन का आयतन 
जो प्रेम में मरे जा रहे हैं उनसे तुम्हें कुछ कहना है 
बताती हो तुम 
‘अँधेरे प्रेम के यातनागृह हैं’ 
सुबकती हुयी निकलती है इन अंधेरों से  हर रोज़ एक  स्त्री 
फिर भी नहीं देती जो प्रेम को टोकरा भर गालियाँ
बस खुद को पत्थर बना कर रोज़ सहती है लहरों की चोट 
यह ख्याल ही तुम्हारे मन पर एक झुर्री बना  देता है.

10.

तुम्हारी कविताओं के प्रेम में डूबी मैं,   
बस इतना भर जानती हूँ 
कि उदासी जब घुटनों तक आ जाये तो जरूर उसे ओक भर पीकर देखना चाहिए 
फिर जब उदासी का पानी धीरे–धीरे जा छटे 
और हम हो जाए  जीवन में  तल्लीन 
तब भी उदासी का नीला जल
मेरे कंठ में ताउम्र ठहरा रहे   
और तुम बार–बार मुझसे कह सको 
“क्यों उतार ली तुमने भी अपने जीवन में यह नाव” 
क्या मेरी डगमगाती मगर पार उतरने की जिद करती नाव ही इस समुन्दर के लिए काफी नहीं थी ?


11.

वे स्त्रियां जिन्होंने अपने  एकांत के रास्ते में आये  झाड़ –झगाड़  खुद साफ़ किये  थे 
उनकी ऊंगलियों के पोरो पर तुमने देखी श्रम की नीलिमा  
वे स्त्रियां भी
जिनके सपनों में भी खर्च होती रही थी ऊर्जा 
जिन्होंने अपने सपनों से उस राजकुमार को दिया था खदेड़  
जिसने उन्हें करवाया था लंबा इंतज़ार 
अब देखो तुमने  भी बना ली है अपने  सपनों में खासी  जगह  
कितनी आसानी से आ जा सकती हो तुम  इनके प्रागण में  
बिना किसी  टकराए 
सोच सकती हो यहाँ विचरते हुए 
नयी स्त्री के नए संविधान के बारे 
लिख सकती हो उनकी प्रशस्ति में कोई  कविता 
सही ही, 
तुमने अपने भूत की राख को अपने मस्तक पर नहीं लगाया 
देखती रही दुःख को और गाढ़ा होते हुए  
और इस प्रक्रिया को देखते हुए तुम्हारे  चेहरे की चमक देखते ही बनती थी.

  

 12.  

तुम्हारा एकांत ही 
एकमात्र पूंजी है तुम्हारी   
वहीँ रख छोड़ा है तुमने अपना  इक्कठा किया हुआ  सामान  
जैसे चिड़िया घोंसले के लिए एक– एक  तिनका ढूंढ लाती है
तुमने उसी  लगन से बनायी एकांत की चारदीवारी  
स्त्री अपना समेटा हुआ किसी को नहीं दिखाती 
वक़्त आने पर ही दिखती है उसकी  रौशनी 
ऐसा ही किया तुमने भी   
एकांत की वर्णमाला में करीने से सीखने में उलझी, \’मैं\’ 
देखती हूँ तुम्हें एकांत का  नित–नूतन  गीत रचते हुए. 


13. 

तुम्हारे प्रभामंडल के ऊर्जा क्षेत्र में 
आड़ोलित तरंगे, चक्र, प्रतिबिंब इतनी शांत 
समुंदर अपने  मौन–व्रत में हो जैसे  
तुम्हारी प्रभामंडल की 
विशिष्ट और जुदा लहर  
दैदीप्यमान कूकुन  की तरह बाकी परतों से जुडी हुयी हैं
तुम्हारे इस विद्युत चुम्बकीय प्रभामंडल में से गुजरता है कोई 
तब उसके भीतर भी 
प्रिज्म की तरह  कई रंग निकलते होंगे 
और हर रंग अपने ढब का साथी ढूंढ लेता होगा 
तब रंगों की दुनिया और 
जीवन के रोजगार में कुछ हलचल तो जरूर होती होगी. 


14. 

अनेकों  रंग, ध्वनियाँ, रौशनी की आवृतियां 
कांपती हैं 
तुम्हारे आस–पास सूखे पत्तों की मानिंद 
शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक, आध्यात्मिक स्थितियां 
कितनी ही दिशाओं में परिक्रमा कर
थक, जल्दी ही लौट भी आती हैं   
पर उसमें जीवन का वज़न होता है 
और यह वज़न जानता है  
अब नयी स्त्री 
हर तरह का भार उठा ही लेगी 
कि अब तो उसे अपनी भरी हुयी गागर स्वयं ही उठानी होगी 
छलकने की परवाह किये बगैर. 

15.

एक सपना तुमसे मिलकर
नया आकार पा जाता है
स्त्री एक और नया रंग बना लेती है
कि अब उसे अपने बनाये रंग की जरुरत है
तब तुम धीरे से सबसे पवित्र रंग
सफ़ेद की ओर देख कर कहती हो
‘शुक्रिया’
स्त्री के मनचाहे रंग में अपना रंग शामिल करने के लिये
‘बहुत शुक्रिया’.

_________________________________


विपिन चौधरी
(२ अप्रैल १९७६, भिवानी (हरियाणा)
दो कविता संग्रह प्रकाशित
कुछ कहानियाँ और लेख प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित,
रेडियो के लिये नियमित लेखन, साहित्यिक और सामाजिक गतिविधिओं से जुड़ाव
सम्प्रति– स्वयं–सेवी संस्था का संचालन 
vipin.choudhary7@gmail.com
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