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Home » सहजि सहजि गन रमैं : तुषार धवल

सहजि सहजि गन रमैं : तुषार धवल

तुषार धवल की लम्बी कविता ‘दमयंती का बयान’                 ____________________________________________________ दमयंती का बयान मृत्युओं के लिये एक जगह रख छोड़ा है हमने बाकी हिस्से में सृजन है समय के जगत का  असमर्थताएँ स्वप्न कल्पना यूटोपिया और घिरे हुए हम. (1) जी. बलात्कार हुआ है मेरे साथ और यह […]

by arun dev
September 9, 2014
in Uncategorized
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तुषार धवल की लम्बी कविता ‘दमयंती का बयान’                
____________________________________________________


दमयंती का बयान
मृत्युओं के लिये एक जगह रख छोड़ा है हमने
बाकी हिस्से में सृजन है समय के जगत का 
असमर्थताएँ स्वप्न कल्पना यूटोपिया
और घिरे हुए हम.

(1)

जी.
बलात्कार हुआ है मेरे साथ
और यह हर समय ही होता है 
ये मुक्तियाँ सदियों की मुक्त नहीं कर पाती हैं मुझे   
दी हुई मुक्तियाँ परतंत्र ही होती हैं  
कुण्ठाओं का काल नहीं ढलता लिप्साओं का भी
असुरक्षित इच्छाओं के नख दंशों का भी नहीं
भुज बल से उगे आदर्शों का चेहरा जिनसे तय होता है
बल का छल बल से छल है
छल भी छल से ही छल है
छल —
छल है
मेरी गति भी साथी तेरे हाथों में
बोझ है यह सब जिसमें पाप छुपे हैं गुरुओं के
मेरी कथा मुझ पर ही चुप है.
 
मेरे स्तन देखना चाहते हो ?
लो ! देखो !
देखो पर उनकी सम्पूर्णता में दिखेगा तुम्हें यह पौरुष दूध पीता हुआ
भूखा उत्तेजित लाचार
ऐसी पूर्णता में कभी देख ही नहीं पाते हो तुम इन्हें
सदियाँ बीत गईं और मैं अब भी इंतज़ार में हूँ उस दृष्टि के 
मेरी मुठ्ठी में डिम्ब है वीर्य है अन्न है
और इन सबके बीच इन्हीं से उगा प्रश्न है
जो उत्तर की अपेक्षा से बँधा नहीं है
और
ना बँधा है मेरा इतिहास जो वर्तमान ही है काल के इस मर्तबान में 
जिससे अपने केश धो रही हूँ अब मैं
यह श्रृंगार है निजात का 

(2)    

देखो मेरे स्तन पर इन्हें नहीं इनमें देखो
अपनी शिशु इच्छाओं को. नियंत्रण की ललक में दबी अपनी असुरक्षाओं को.
योनि से अर्थ पाती देह पर अधिकार के दर्शन के संस्कार की योनि से उगे आदर्श
मेरी आत्मा को टुकड़े सी जगह देते रहे अमूर्त ही संदर्भों में
मै ने कुछ नहीं कहा
मेरी नाभि से उड़ती पतंगें उड़ न सकीं लम्पट देवों की अटारियों से आगे
कौमार्य जहाँ अस्तित्व से भी ज्यादा अहम था
मै ने कुछ नहीं कहा
सतीत्व का कवच परगामी पिताओं के वंशजों ने दिया था मुझे अपने परगामी पुत्रों के
निश्चिंत आश्वस्त एकल स्वामित्व के असुरक्षित अहंकार की रक्षा के लिये – जानती थी 
मै ने कुछ नहीं कहा
मैं प्रेम पाना चाहती थी
मुझे दिया गया आदर्श नारीत्व का  
प्रेम देना चाहती थी
तुम्हें कौमार्य चाहिये था सतीत्व चाहिये था
बोझ है यह सब जिसमें पाप छुपे हैं गुरुओं के
मैं बस होना चाहती थी नैसर्गिक स्त्री सहज
मैं बस
होना चाहती थी
हो ना सकी
कुछ नहीं कहा
रजा रवि वर्मा 

(3)

वह नल था पलायन जो कर गया
मैं टिकी रही वहीं 
उसके नंगेपन को ढाँप कर अपने वस्त्र से. 
द्यूत में हारा वह था मैं संगिनी रही उसकी
पर कथा मेरी मुझ पर ही चुप है.  
और वर्तमान करता है बलात्कार
इतिहास ने भी यही किया है
देह और ज़मीन
ज़मीन की देह 
देह की ज़मीन
भोग और नियंत्रण
नियंत्रण का भोग
भोग का नियंत्रण
तुम्हारे दिये भविष्य पर भरोसा नहीं है पुरुष मेरे
तुम भूल गये हो सृष्टि का मर्म !
देह के भीतर कौन हूँ मैं नहीं देख पाये कभी
तुम्हारे अंधेपन पर आईना है मेरी देह

(4)

ईष्ट देवों की अभिप्सित कामना के चौकोर में चलती रही पिताओं की अँगुली पकड़े
उन्हीं धुरि कक्षाओं में उन्हीं लीकों पर सबसे सही चल पाना ही सृजन था मेरा 
मेरे सपने मुझमें पिरोये गये मेरी आँखें मुझमें खोली गईं
यह निजात था दुख से दुखों में रहते हुए सुख
मन की अवस्था है उसे ही पाना था 
आश्वस्ती उन दंग रह गई किशोर कामनाओं की मैं ही रही अपनी खोज में
पिताओं के खम्भों से खेलती लिपटती बोलती बतियाती
मेरी छत को जिन हथेलियों ने उठा रखा था ऊँचाई पर
उनके नाखून मेरी पिण्डलियों में धँसे हुए थे और मैं बोलना भूल चुकी थी  
 
रंग रोशनाई धूलि वंदना
इसी से मूरत मेरी
मेरी मूरत भी इसी से
परिजनों की नाभि संस्कृति की वाहिका आदर्शों की
पूर्वजों का उद्धार मेरे आचरण से था
मेरी पतंगें नाभि से उड़ती थीं लम्पट देवों की देहरी तक कौमार्य जहाँ
अस्तित्व से भी अहम था अपनी ही लालसाओं की फिसलपट्टी पर
साँस थामे सतीत्व मेरा पूर्णत्व मेरा औदार्य भी था
यही सृजन था प्रेम का सतीत्व से सिरजा हुआ अपने समय में मृत्यु के हिस्से की जगह रख छोड़ने के बाद.
इसी में मैं उगती रही उर्वर अपनी संतानों से उनके पौरुष को तापती
पालती अपनी छाती पर रखी चट्टानों को जिनमें बीज थे जहरीले पंजों के और जिनमें दूब थी
भविष्यत आदर्शों की औरत होने के धर्म की ईष्ट देवों की अभिप्सित कामनाओं की कुल देवताऑं के आशीर्वादों से
बोझ है यह सब जिसमें पाप छुपे हैं गुरुओं के
तुमने मुझे स्वतंत्र कहा : तुम्हारी परिभाषा थी
तुमने मुझे सुंदर कहा : तुम्हारे मानदण्ड थे
तुमने मुझे महान कहा : तुम्हारी आत्मश्लाघा का विस्तार था
यह हवा स्वप्न यह अभिप्सा यह पिंजड़ा अदृश्य सब तुमने गढ़ा था
यही मेरा सौंदर्य मेरी महानता मेरी आजादी थी 
देखो मेरे स्तन
छुओ महसूस करो इनपर अपनी आदिम अँगुलियों के निशान और खरोंच जो भर नहीं पा रही जाने कब से यूँ ही बह रही है. मिलाओ उन निशानों को अपने नाखूनों से
तुम जंगल से निकल कहाँ पाये कभी
मीठी बोली लुभावने दर्शन स्वतंत्रता के मेरे होने का रुख तय करते रहे तुम अपनी जंगली खोहों से
आओ देखो मेरे स्तन और देखो उन शिशु होठों को भूखे बिलखते वही शिशु होठ जो अचानक खूँखार हो गये  
याद आती है तुम्हें अपनी भूखी लाचारी ?
जीवन माँगती तुम्हारी गुहार ?
मैं पूछना भी नहीं चाहती
उत्तर की अपेक्षा से बँधी नहीं हूँ मैं 
मृत्यु के हिस्से की जगह छोड़ बाकी हिस्सा यही था
यही था सृजन 
कलाओं के वशीकरण नहीं थे मेरे साथ
तब भी सिरजती रही अपना अवकाश
जिनमें पतंगें पीढ़ियों की कुलाँचे मारती हैं
और फलता है जिसमें
नल का निश्चिंत आश्वस्त एकल स्वामित्व
उन बाड़ों का स्वीकार सहज था वही सुख था उनके बाहर वर्जना थी अधम था 
बोझ है यह सब इसमें पाप छुपे हैं गुरुओं के
अब तुम कहते हो तो सुनती हूँ सोचती भी हूँ
वर्जनाओं की परिभाषा अधम के अर्थों के बीज की सीमा
संस्कारों की योनि से उगे अर्थ 
समय से तय होती उनकी सीमा
समय जिसकी माप भी मुहावरा है उस काल का
नहीं तो यह माप भी मन की सुविधा है
सुविधा है यह
भोग की अनुभोग की उपभोग की
तुम्हारी सुविधा रही हूँ मैं हर पल
भागे हुए नल के एकांत की भी उसके आर्तनाद की भी सुविधा रही हूँ मैं
चुप रहना मेरा शील रक्षा है तुम्हारे अहं का
मर्यादा का अक्षत कौमार्य अर्थ जीवन का 
बाकी इच्छाएँ मेरी तुम कहोगे माया है. तुम्हारी मुट्ठी में रेत है !  

(5)

मेरी मुठ्ठी में डिम्ब है वीर्य है अन्न है 
और मेरे प्रश्नों को उत्तर की अपेक्षा नहीं है वे मुक्त हैं
और मुक्त है मेरा इतिहास जो वर्तमान ही है काल के इस मर्तबान में 
जिससे अपने केश धो रही हूँ मैं
यह श्रृंगार है निजात का 
निजात पाती हूँ
मैं
दैवीयता से
सौंदर्य से
महानता से
मुक्ति से
मुक्त करती हूँ तुम्हें भी तुम्हारे पापों से
अब जो कहने लगूँगी 
मेरी कथा अलग होगी इतिहास की उन्हीं कथाओं से
सवालों की सभी दंत कथाओं से
अभी. यहीं.
_________________
                                     (अगस्त 2013, मुम्बई)
तुषार धवल
22 अगस्त 1973,मुंगेर (बिहार)

पहर यह बेपहर का (कविता-संग्रह,2009). राजकमल प्रकाशन
ये आवाज़े कुछ कहती हैं (कविता संग्रह,2014). दखल प्रकाशन

कुछ कविताओं का मराठी में अनुवाद

दिलीप चित्र की कविताओं का हिंदी में अनुवाद

कविता के अलावा रंगमंच पर अभिनय, चित्रकला और छायांकन में भी रूचि

सम्प्रति : भारतीय राजस्व  सेवा में  मुंबई/
tushardhawalsingh@gmail.com

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