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सहजि सहजि गुन रमैं : अनुज लुगुन

 युवतर अनुज लुगुन ने हिंदी कविता के परिसर को अपनी प्रश्नाकुल उपस्थिति से समृद्ध किया है. उनकी कविताएँ आदिवासी समाज की अस्मिता और संघर्ष से रची बसी हैं. उनमें उतर–औपनिवेशिक भारत में रह रहे हाशिए की पीड़ा और सभ्यतागत अलगाव की तेज़ आंच है. यह ऐसा मानुष-अरण्य है जो लगातर छला जा रहा है और […]

by arun dev
October 14, 2011
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 युवतर अनुज लुगुन ने हिंदी कविता के परिसर को अपनी प्रश्नाकुल उपस्थिति से समृद्ध किया है.
उनकी कविताएँ आदिवासी समाज की अस्मिता और संघर्ष से रची बसी हैं. उनमें उतर–औपनिवेशिक भारत में रह रहे हाशिए की पीड़ा और सभ्यतागत अलगाव की तेज़ आंच है.
यह ऐसा मानुष-अरण्य है जो लगातर छला जा रहा है और जहाँ उनसे उनके जंगल, जमीन,जमीर,जीवन लगातार छीने जा रहें हैं.  


अपनी धरती पर धीरे-धीरे प्रवासी होने का मारक अहसास और अपने विस्थापन के खिलाफ साँस्थनिक हिंसा से उनके संघर्ष की बेचैनी  इन कविताओं में सघन रूप में मौजूद है, इसमें प्रखर इतिहासबोध और चेतस समकालीन दृष्टि है.
यहाँ विमर्श काव्यत्व का उन्मूलन नहीं करता, वह उसमें कुछ इस तरह अनुकूलित हो जाता है कि कविता का सौंदर्य और निखर कर सामने आता और उसकी धार तेज़ हो जाती है.

ये कविताएँ आदिवासी समाज के लोक रंग से भीगीं हैं और इनमें ‘सुरमई पत्नी के बालों से रह रह कर महुवाई गंध आती है’. उनकी नई कविताओं के साथ कुछ चर्चित कविताएँ भी दी जा रही हैं.

  

अनुज लुगुन की कविताएँ                                                       




हमारी अर्थी शाही हो नहीं सकती



हमारे सपनों में रहा है
एक जोड़ी बैल से हल जोतते हुए
खेतों के सम्मान को बनाए रखना
हमारे सपनों में रहा है
कोइल नदी के किनारे एक घर
जहाँ हमसे ज्यादा हमारे सपने हों
हमारे सपनों में रहा है
कारो नदी की एक छुअन
जो हमारे आलिंगनबद्ध बाजुओं को और गाढ़ा करे
हमारे सपनों में रहा है
मान्दर और नगाड़ों की ताल में उन्मत्त बियाह
हमने कभी सल्तनत की कामना नहीं की
हमने नहीं चाहा कि हमारा राज्याभिषेक हो
हमारे शाही होने की कामना में रहा है
अंजुरी भर सपनों का सच होना
दम तोड़ते वक्त बाहों की अटूट जकड़न
और रक्तिम होंठों की अंतिम प्रगाढ़ मुहर.

हमने चाहा कि
पंडुकों की नींद गिलहरियों की धमाचैकड़ी से टूट भी जाए
तो उनके सपने न टूटें
हमने चाहा कि
फसलों की नस्ल बची रहे
खेतों के आसमान के साथ
हमने चाहा कि जंगल बचा रहे
अपने कुल-गोत्र के साथ
पृथ्वी को हम पृथ्वी की तरह ही देखें
पेड़ की जगह पेड़ ही देखें
नदी की जगह नदी
समुद्र की जगह समुद्र और
पहाड़ की जगह पहाड़
हमारी चाह और उसके होने के बीच एक खाई है
उतनी ही गहरी
उतनी ही लम्बी
जितनी गहरी खाई दिल्ली और सारण्डा जंगल के बीच है
जितनी दूरी राँची और जलडेगा के बीच है
इसके बीच हैं-
खड़े होने की जि़द में
बार-बार कूडे़ के ढेर में गिरते बच्चे
अनचाहे प्रसव के खिलाफ सवाल जन्माती औरतें
खेत की बिवाइयों को
अपने चेहरे से उधेड़ते किसान
और अपने गलन के खिलाफ
आग के भट्ठों में लोहा गलाते मजदूर
इनके इरादों को आग से ज्यादा गर्म बनाने के लिए
अपनी ’चाह’ के ’होने‘ के लिए
ओ मेरी प्रणरत दोस्त!
हमारी अर्थी शाही हो नहीं सकती.

हमारी मौत पर
शोक गीत के धुन सुनाई नहीं देंगे
हमारी मौत से कहीं कोई अवकाश नहीं होगा
अखबारी परिचर्चाओं से बाहर
हमारी अर्थी पर केवल सफेद चादर होगी
धरती, आकाश
हवा, पानी और आग के रंगों से रंगी
हम केवल याद किए जाएँगे
उन लोगों के किस्सों में
जो हमारे साथ घायल हुए थे
जब भी उनकी आँखें ढुलकेंगी
शाही अर्थी के मायने बेमानी होगें
लोग उनके शोक गीतों पर ध्यान नहीं देंगे
वे केवल हमारे किस्से सुनेंगे
हमारी अंतिम क्रिया पर रचे जाएँगे संघर्ष के गीत
गीतों में कहा जाएगा
क्यों धरती का रंग हमारे बदन-सा है
क्यों आकाश हमारी आँखों से छोटा है
क्यों हवा की गति हमारे कदमों से धीमी है
क्यों पानी से ज्यादा रास्ते हमने बनाए
क्यों आग की तपिश हमारी बातों से कम है
ओ मेरी युद्धरत दोस्त!
तुम कभी हारना मत
हम लड़ते हुए मारे जाएँगे
उन जंगली पगडंडियों में
उन चैराहों में
उन घाटों में
जहाँ जीवन सबसे अधिक संभव होगा.

ग्लोब


मेरे हाथ में कलम थी
और सामने विश्व का मानचित्र
मैं उसमें महान् दार्शनिकों
और लेखकों की पंक्तियाँ ढूँढ़ने लगा
जिसे मैं गा सकूँ
लेकिन मुझे दिखायी दी
क्रूर शासकों द्वारा खींची गई लकीरें
उस पार के इंसानी ख़ून से
इस पार की लकीर, और
इस पार के इंसानी  ख़ून से
उस पार की लकीर.

मानचित्र की तमाम टेढ़ी-मेंढ़ी
रेखाओं को मिलाकर भी
मैं ढूँढ नही पाया
एक आदमी का चेहरा उभरने वाली रेखा
मेरी गर्दन ग्लोब की तरह ही झुक गई
और मैं रोने लगा.

तमाम सुने-सुनाए,
तर्कों को दरकिनार करते हुए
आज मैंने जाना
कि ग्लोब की गर्दन झुकी हुई क्यों है. 





महुवाई गंध

(कामगरों एंव मजदूरों की ओर से उनकी पत्नियों के नाम भेजा गया प्रेम-संदेश)

ओ मेरी सुरमई पत्नी!
तुम्हारे बालों से झरते है महुए.

तुम्हारे बालों की महुवाई गंध
मुझे ले आती है
अपने गाँव मे, और
शहर के धुल-गर्दों के बीच
मेरे बदन से पसीनों का टपटपाना
तुम्हे ले जाता है
महुए के छाँव में
ओ मेरी सुरमई पत्नी !
तुम्हारी सखियाँ तुमसे झगड़ती हैं कि
महुवाई गंध महुए में है.

मुझे तुम्हारे बालों से
आती है महुवाई गंध
और तुम्हें
मेरे पसीने से
ओ मेरी महुवाई पत्नी !
सखियों का बुरा न मानना
वे सब जानती हैं कि
महुवाई गंध हमारे प्रेम में है.        

अनायास

अनायास ही लिख देता हूँ
तुम्हारा नाम
शिलापट पर अंकित शब्दों-सा
हृदय मे टंकित
संगीत के मधुर सुरों-सा
अनायास ही गुनगुना देता हूँ
तुम्हारा नाम.

अनायास ही मेघों-सी
उमड़ आती हैं स्मृतियाँ
टपकने लगती हैं बूंदे
ठहरा हुआ मैं
अनायास ही नदी बन जाता हूँ
और तटों पर झुकी
कँटीली डालियों को भी चूम लेता हॅूँ
रास्ते के चट्टानों से मुस्कुरा लेता हूँ.

शब्दों के हेर -फेर से
कुछ भी लिखा जा सकता है
कोई भी कुछ भी बना सकता है
मगर तुम्हारे दो शब्दों से
निकलते हैं मिट्टी के अर्थ
अंकुरित हो उठते हैं सूखे बीज
और अनायास ही स्मरण हो आता हैं
लोकगीत के प्रेमिओं का किस्सा .
अनायास ही स्मरण हो उठता है
लोकगीत के प्रेमिओं का किस्सा
किसी राजा के दरबार का कारीगर
जिसका हुनर ताज तो बना सकता है
लेकिन फफोले पड़े उसके हाथ
अॅँधेरे में ही पत्नी की लटों को तराशते हैं
अनायास ही स्मरण हो आता है
उस कारीगर का चेहरा
जिस पर लिखी होती हैं सैकड़ों  कविताएँ
जिसके शब्द, भाव और अर्थ     
आँखों में छुपे होते हैं
जिसके लिए उसकी पत्नी आँचल पसार देती है
कीमती हैं उसके लिए
उसके आँसू
उसके हाथों बनाए ताज से
मोतियों की तरह
अनायास ही उन्हे
वह चुन लेती है.

अनायास ही स्मरण हो उठते हैं
सैकड़ों हुनरमन्द हाथ
जिनकी हथेलियों पर कुछ नहीं लिखा होता है
प्रियतमा के नाम के सिवाय.
अनायास ही उमड़ आते हो तुम
तुम्हारा नाम
जिससे निकलते हैं मिट्टी के अर्थ
जिससे सुलगती है चूल्हे की आग
तवे पर इठलाती है रोटी
जिससे अनायास ही बदल जाते हैं मौसम .

अनायास ही लिख देता हूँ
तुम्हारा नाम
अनायास ही गुनगुना देता हूँ
संगीत के सुरों- सा
सब कुछ अनायास
जैसे अपनी धुरी पर नाचती है पृथ्वी
और उससे होते
रात और दिन
दिन और रात
अनायास
सब कुछ.

एकलव्य से संवाद


एकलव्य की कथा सुनकर मैं हमेशा इस उधेड़बुन में रहा हूं कि द्रोण को अपना अंगूठा दान करने के बाद उसकी तीरंदाजी कहां गयी? क्या वह उसी तरह का तीरंदाज बना रहा या उसने तीरंदाजी ही छोड़ दी? उसकी परंपरा का विकास आगे कहीं होता है या नहीं? इसके आगे की कथा का जिक्र मैंने कहीं नहीं सुना. लेकिन अब जब कुछ-कुछ समझने लगा हूं तो महसूस करता हूं कि रगों में संचरित कला किसी दुर्घटना के बाद एकबारगी समाप्त नहीं हो जाती. हो सकता है एकलव्य ने अपना अंगूठा दान करने के बाद तर्जनी और मध्यमिका अंगुलियों के सहारे तीरंदाजी का अभ्यास किया हो. क्योंकि मुझे ऐसा ही प्रमाण उड़ीसा के सीमावर्ती झारखंड के सिमडेगा जिले के मुंडा आदिवासियों में दिखाई देता है. इस संबंध में मैं स्वयं प्रमाण हूं. (हो सकता है ऐसा हुनर अन्य क्षेत्र के आदिवासियों के पास भी हो) 

यहां के मुंडा आदिवासी अंगूठे का प्रयोग किये बिना तर्जनी और मध्यमिका अंगुली के बीच तीर को कमान में फंसाकर तीरंदाजी करते हैं. रही बात इनके निशाने की तो इस पर सवाल उठाना मूर्खता होगी. तीर से जंगली जानवरों के शिकार की कथा आम है. मेरे परदादा, पिताजी, भैया यहां तक कि मैंने भी इसी तरीके से तीरंदाजी की है. मेरे लिए यह एकलव्य की खोज है और यह कविता इस तरह एकलव्य से एक संवाद. 
____________


एक


घुमंतू जीवन जीते
उनका जत्था आ पहुंचा था
घने जंगलों के बीच
तेज बहती अनाम
पहाड़ी नदी के पास
और उस पार की कौतुहूलता में
कुछ लोग नदी पार कर गये थे
और कुछ इधर ही रह गये थे
तेज प्रवाह के समक्ष अक्षम
तब तीर छोड़े गये थे
उस पार से इस पार
आखरी विदाई के
सरकंडों में आग लगाकर
और एक समुदाय बंट गया था
नदी के दोनों ओर
चट्टानों से थपेड़े खाती
उस अनाम नदी की लहरों के साथ
बहता चला गया उनका जीवन
जो कभी लहरों के स्पर्श से झूमती
जंगली शाखों की तरह झूम उठता था
तो कभी बाढ़ में पस्त वृक्षों की तरह सुस्त होता था
पर पानी के उतर जाने के बाद
मजबूती से फिर खड़ा हो जाता था
उनके जीवन में संगीत था
अनाम नदी के साथ
सुर मिलाते पपीहे की तरह
जीवन पल रहा था
एक पहाड़ के बाद
दूसरे पहाड़ को लांघते
और घने जंगल में सूखे पत्तों पर हुई
अचानक चर्राहट से
उनके हाथों में धनुष
ऐसे ही तन उठती थी.



दो


हवा के हल्के झोकों से
हिल पत्तों की दरार से
तुमने देख लिया था मदरा मुंडा
झुरमुटों में छिपे बाघ को
और हवा के गुजर जाने के बाद
पत्तों की पुन: स्थिति से पहले ही
उस दरार से गुजरे
तुम्हारे सधे तीर ने
बाघ का शिकार किया था
और तुम हुर्रा उठे थे –
‘
जोवार सिकारी बोंगा जोवार!’
तुम्हारे शिकार को देख
एदेल और उनकी सहेलियां
हंडिया का रस तैयार करते हुए
आज भी गाती हैं तुम्हारे स्वागत में गीत
‘
सेंदेरा कोड़ा को कपि जिलिब–जिलिबा.‘
तब भी तुम्हारे हाथों धनुष
ऐसे ही तना था.



तीन


घुप्प अमावस के सागर में
ओस से घुलते मचान के नीचे
रक्सा, डायन और चुड़ैलों के किस्सों के साथ
खेत की रखवाली करते कांडे हड़म
तुमने जंगल की नीरवता को झंकरित करते नुगुरों के संगीत की अचानक उलाहना को
पहचान लिया था और
चर्र–चर्र–चर्र की समूह ध्वनि की
दिशा में कान लगाकर
अंधेरे को चीरता
अनुमान का सटीक तीर छोड़ा था
और सागर में अति लघु भूखंड की तरह
सनई की रोशनी में
तुमने ढूंढ निकाला था
अपने ही तीर को
जो बरहे की छाती में जा धंसा था.
तब भी तुम्हारे हाथों छूटा तीर
ऐसे ही तना था.
ऐसा ही हुनर था
जब डुंबारी बुरू से
सैकड़ों तीरों ने आग उगले थे
और हाड़–मांस का छरहरा बदन बिरसा
अपने अद्भुत हुनर से
भगवान कहलाया.
ऐसा ही हुनर था
जब मुंडाओं ने
बुरू इरगी के पहाड़ पर
अपने स्वशासन का झंडा लहराया था.



चार


हां एकलव्य!
ऐसा ही हुनर था.
ऐसा ही हुनर था
जैसे तुम तीर चलाते रहे होगे
द्रोण को अपना अंगूठा दान करने के बाद
दो अंगुलियों
तर्जनी और मध्यमिका के बीच
कमान में तीर फंसाकर.
एकलव्य मैं तुम्हें नहीं जानता
तुम कौन हो
न मैं जानता हूं तुम्हारा कुर्सीनामा
और न ही तुम्हारा नाम अंकित है
मेरे गांव की पत्थल गड़ी पर
जिससे होकर मैं
अपने परदादा तक पहुंच जाता हूं.
लेकिन एकलव्य मैंने तुम्हें देखा है.
मैंने तुम्हें देखा है
अपने परदादा और दादा की तीरंदाजी में
भाई और पिता की तीरंदाजी में
अपनी मां और बहनों की तीरंदाजी में
हां एकलव्य मैंने तुम्हें देखा है
वहां से आगे
जहां महाभारत में तुम्हारी कथा समाप्त होती है.



पांच

एकलव्य मैंने तुम्हें देखा है
तुम्हारे हुनर के साथ.
एकलव्य मुझे आगे की कथा मालूम नहीं
क्या तुम आये थे
केवल अपनी तीरंदाजी के प्रदर्शन के लिए
गुरु द्रोण और अर्जुन के बीच
या फिर तुम्हारे पदचिन्ह भी खो गये
मेरे पुरखों की तरह ही
जो जल जंगल जमीन के लिए
अनवरत लिखते रहे
जहर बुझे तीर से रक्त–रंजित
शब्दहीन इतिहास.
एकलव्य, काश! तुम आये होते
महाभारत के युद्ध में अपने हुनर के साथ
तब मैं विश्वास के साथ कह सकता था
दादाजी ने तुमसे ही सीखा था तीरंदाजी का हुनर
दो अंगुलियों के बीच
कमान में तीर फंसाकर.
एकलव्य
अब जब भी तुम आना
तीर–धनुष के साथ ही आना
हां, किसी द्रोण को अपना गुरु न मानना
वह छल करता है
हमारे गुरु तो हैं
जंगल में बिचरते शेर, बाघ
हिरण, बरहा और वृक्षों के छाल
जिन पर निशाना साधते–साधते
हमारी सधी हुई कमान
किसी भी कुत्ते के मुंह में
सौ तीर भरकर
उसकी जुबान बंद कर सकती है.
__________________________________



अनुज लुगुन 

१० जनवरी १९८६
जलडेगा,सिमडेगा (झारखण्ड)

 सभी पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित और ख्यात
भारत भूषण अग्रवाल सम्मान  (२०११)
मुंडारी आदिवासी गीतों में आदिम आकांक्षाएं और जीवन–राग पर शोध कार्य
शोध छात्र, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, बनारस
ई पता : martialartanuj@gmail.com

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