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Home » सहजि सहजि गुन रमैं : अपर्णा मनोज

सहजि सहजि गुन रमैं : अपर्णा मनोज

अपर्णा मनोज :  १९६४, जयपुर, कविताएँ, कहानियाँ और अनुवाद मेरे क्षण कविता संग्रह प्रकाशित. कत्थक, लोक नृत्य में विशेष योग्यता. इधर ब्लागिंग में सक्रिय  संपादन – आपका साथ साथ फूलों का अहमदाबाद में रहती हैं. ई-पता:  aparnashrey@gmail.com अपर्णा के लिए कविताएँ जिजीविषा का पर्याय हैं. इनमें एक जिद्द है. विकट और असहनीय को भी बूझने और […]

by arun dev
April 29, 2011
in कविता
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अपर्णा मनोज :  १९६४, जयपुर,
कविताएँ, कहानियाँ और अनुवाद
मेरे क्षण कविता संग्रह प्रकाशित.
कत्थक, लोक नृत्य में विशेष योग्यता.
इधर ब्लागिंग में सक्रिय 
संपादन – आपका साथ साथ फूलों का

अहमदाबाद में रहती हैं.
ई-पता:  aparnashrey@gmail.com
अपर्णा के लिए कविताएँ जिजीविषा का पर्याय हैं. इनमें एक जिद्द है. विकट और असहनीय को भी बूझने और उससे जूझने का. उससे उबरने की कोशिश की प्रक्रिया में बनता – रचता भाषिक विन्यास.  यातना और उसकी पीड़ा का सारांश. इनमें एक स्त्री का बयाँ तो है, बयानबाजी नहीं. इन कविताओं के विस्तृत आकाश में बहुविध प्रसंग हैं.
तोड़ देने वाली लम्बी व्याधि से मुकाबला करती अपर्णा की कविताओं में जीवन-रस सांद्र और गम्भीर है.उम्मीद  का  इन्द्रधनुष अपने सात- रगों के साथ आलोकित.




वॉन गॉग
समय का कैमरा पता नहीं कब किसकी ओर क्या रुख ले ?
उसका शटर किसे अपने लैंस में समेटे
कितनी दूरी से वह आपको झांकें ?
कितने ज़ूम ?
कितना बड़ा फलक ?

वह आपको वॉन गॉग बना सकता है –
आप अपनी देह पर रंग मलेंगे
जोर से हसेंगे
जोर से रोयेंगे और रोते चले जायेंगे
तब तक जब तक बाहर एक सचेत स्त्री आपकी शिकायत न कर दे 
तब ?

समय आपको अभी इतिहास के मर्तबान में डालना चाहता है
मर्तबान में बंद कई तितलियाँ .
अपनी नश्वरता से परे अलग बुनावट लिए
कुलबुलाती हैं अमरत्व को

वॉन गॉग तुम कैनवास पर झुके हो
अपने दुःख का सबसे गहरा बैंगनी रंग उठाये
सैनीटोरियम की बीमार खिड़की से आने देते हो सितारों – भरी रात
तुम्हारे डील -डौल पर झुका है पूरा आसमान
और ज़मीन सरक रही है नीचे से 

कुछ लडकियां उतरती हैं तुम्हारी आत्मा के आलोक में
और खो भी जाती हैं रंगों की प्याली में
तुम घोलते हो रंग
अपने ब्रुश को कई बार जोर-जोर से घुमाते हो
उसके लिए ख़ास तौर से

जिसे तुम करते थे प्रेम
ये सूरजमुखी –
हाँ, उसके लिए था, पर उसकी पसंद नहीं थी ये  
वॉन गॉग तब ?

और तुम्हारी आत्मा ओलिव की तरह हरी होकर
तलाशने लगी थी सच, सच जो सच था ही नहीं .
पर तुम बने रहे उसके साथ
जैसे ओलिव के पीछे उग जाती हैं चट्टानें
झरने की आस में

वॉन गॉग ..
वॉन गॉग ..तुम सूरज की ओर जा रहे हो
सूरज पीछे खिसक रहा है .
फिर धमाका ..
तुम्हारे होने की आवाज़ !
दुनिया की देहर हिलती है
दिए की लौ ऊपर उठी
फिर  भक!
अब तुम समय के बाहर हो!
वॉन गॉग ..
कब्रगाह पर फैलने लगा है रंग – लाल .

लौटना


उस दिन मैंने देखा
कतारें सलेटी  कबूतरों की
उड़ती जा रही थीं
उनके पंख पूरे खुले थे
जितनी खुली थीं हवाएं आसमान की

उनके श्यामल शरीर पर काले गुदने गुदे थे
आदिम आकृतियाँ
न जाने किस अरण्य से विस्थापित देहें थीं

उनकी सलेटी चोंच चपटे मोतियों से मढ़ी थीं
जिन पर चिपकी थी एक नदी
जो किसी आवेग में कसमसा रही थी
पर पहाड़ों के ढलान गुम हो चुके थे
संकरी कंदराओं में
बहने को कोई जगह न थी

उनके पंजों में
एक पहाड़ तोड़ रहा था दम
रिसती हुई बरफ कातर
टप-टप बरस रही थी हरी मटमैली आँखों से

मैंने देखा उसकी शिराएं चू रही थीं मूसलधार 
और उनकी गंध मेरे रुधिर के गंध – सी थी
सौंधी, नम व तीखी
पर उसमें आशाओं का नमक न था
और विवशताएँ जमी थीं पथरीली.

मैंने देखा उनके पंखों पर ढोल बंधे थे
और गर्दन छलनी थी  मोटे घुंघरुओं से
उनके कंठ कच्चे बांस थे

और ज़ुबान पर एक आदिम संगीत प्रस्तर हो चुका था
एक बांसुरी खुदी थी उनके अधरों पर
लेकिन कोई हवा न थी जो उनके रंध्रों से गुज़रती

वे गाना चाहते थे अबाध
पर कोई भाषा फंस गई थी सीने में 
और शब्द अटके थे प्राणों में 
नामालूम विद्रोह की संभावनाएं आकाश थीं !

वे किसी परती के आकाश में धकेले गए थे
उनकी ज़मीन पर कोई भूरा टुकड़ा न था
जिन पर नीड़ के तिनके जमते


मैंने देखा कांपती अस्फुट आवाजों में
उनकी आकृतियों पर धूल को जमते
पगडंडियों को खोते


उनके घरों में किसी मौसम में चींटियाँ नहीं निकलीं
वे किसी और संस्कृति का हिस्सा हो चुकी थीं
वे भी तो तलाशती हैं आटे की लकीर !

मैंने देखा उड़ते-उड़ते वे स्त्री हो जाते थे
उनके काले केश फ़ैल जाते थे
सफ़ेद आकाश के कन्धों पर
उनके घाघरे रंगीन धागों की बुनावट में परतंत्र थे
और ओढ़ने उनकी स्वतंत्रता पर प्रश्न चिह्न !
उत्कोच में सौन्दर्य को मिले थे
प्रसाधनों के मौन.


उनके चेहरों पर संकोच था
वे सच कहना चाहते तो थे पर कोई सच बचा न था .
काले बादल कोख हो चुके थे
जिसमें हर बार खड़ी हो जाती थीं संततियां
नए संघर्ष के साथ
जो अपनी ही बिजलियों में कौंधती और खो जातीं अंधेरों में.

मैंने देखा आकाश उन्हें घसीट रहा था 
वे घिसटते चले गए उसकी गुफाओं में .. 
इस गुफा पर जड़ा था अवशताओं का भारी पत्थर
द्वार भीतर जाता था पर बाहर का रास्ता न था .
और दृश्य सफ़ेद  .
इनके लौटने की सम्भावना ?

सब नया चाहती हूँ


हम सब सो जाएँ एक लम्बी नींद
हमारी तितली-आँखें बंद हो जाएँ समय के गुलाब में
और कोई इतिहास बुनता हुआ भित्ति -चित्र
निस्तब्ध आँज ले हमारी सभ्यताएँ

हम सब सो जाएँ
तब तक के लिए –
जब तक प्रकृति उन्मुक्त अपने पेड़ों से लिपटने दे वल्लरियाँ

नदियाँ भीगती रहें अजस्र पत्थरों में छिपे सोतों से

समुद्र की तलछट पर रख दें लहरें –
मूंगे, शैवाल ,खोयी मछलियाँ

ध्रुवों पर बर्फ के रहस्य ढूंढने निकल पड़ें वॉलरस
पहाड़ अपने रास्तों पर रख दें पंक्तियाँ  –
चीड़, देवदार, बलूत, सनौबर  की

और सफ़ेद आकाश पर हर मौसम लिख जाए अपनी पहचान

चिड़ियाँ गुनगुनी धूप के तिनकों से बुन लें नीड़
पेड़ अजानबाहु फैला दे रहे हों आशीर्वाद
और मांगलिक हवाएं बजाने लगें संतूर

हम सब सोते रहें तब तक
जब तक भूल न जाएँ अपनी बनायीं भाषाएँ
जिन्होंने हमें काटकर नक़्शे पर रखा

तब तक जब तक हमारी चमड़ी के रंगों के अंतर न गल जाएँ
और हमारे मानव होने का अनुष्ठान एक नींद में तप कर
जन्म दे एक और मनु – श्रद्धा को
आदम – हौवा को

तब तक जब तक बांसों के झुरमुट बजाने लगें बांसुरी
और हम सहसा उठकर देखने लगें
स्वप्न के बाद का दृश्य 

एक शरुआत नए सिरे से
जिसमें गीतों के जिस्म
कविता की आत्मा
सृजन के अपरूप पत्थरों पर नयी लिपि गढ़ रहे हों
और एक बार फिर प्रेम अनावृत्त हो जी ले
प्राकृत पवित्रता को

इस स्निग्ध मुसकान में शिशु का जन्म हो असह्य पीड़ा से
असह्य कोख से

इस बार मैं पुनरावृत्ति नहीं
सब नया चाहती हूँ
उत्थान नहीं
सृजन चाहती हूँ
जो एक युग की नींद के बाद संभव होगा
क्योंकि हम सब भूल चुके होंगे
सोने से पहले के युग …

 

मैं उन्हें जानती हूँ
मैं उन्हें जानती हूँ
उनकी विधवा देह पर
कई रजनीगंधा सरसराते हैं
अपनी सुरभि से लिखती हैं वे
सफ़ेद फूल
और रातभर कोई धूमिल अँधेरा
ढरकता है
चौखट पर जलता रहता है
देह का स्यापा .

एक  पुच्छल तारा
करीब से निकलता है सूरज के
अपशकुन से सहमता
देखती हूँ
श्वेत रंग
कुहासे के मैल में
खो बैठा है अपनी मलमल

तब वे ..
वे मुझमें टहलती  हैं
और मेरे भीतर एक दूब
कुचल जाती है ..
पीली जड़ों से मैं झांकती हूँ
भीत कदमों से आहत
रजनीगन्धा की पांखें झर गयी हैं
भोर की हवाएं
अब भी हैं उन्मत्त .

चाहूँ,फिर चाहूँ

::
इस बार सोचा तुम्हे फिर से चाह कर देखूं
ऐसे जैसे मैं रही हूँ सोलह वर्ष
और तुम उससे एक ज्यादा ..

फिर चाहूँ
और दौडूँ तुम्हारे पीछे

भूल जाऊं बीच में ये
ठिठकी रुकूँ
और सिर ऊंचा कर देखूं बादलों की नक्काशी किये आसमान को
देखने लगूँ तितलियों के निस्पृह पंख
बीन लूँ हरसिंगार की झड़ी पत्तियाँ
लाल फ्रॉक में.

फिर झाड़ भी दूँ हरी दूब पर
तुम्हारी मुस्कान के पीछे दौड़ते हुए सब ..
बदली बरस जाती है
बीन कर नदी की धार ज्यों .

::
एक बार तुम भी फिर से चाहो मुझे
अपनी एटलस साईकल से
पीछे आते-आते
गुनगुनाते हुए फ़िल्मी धुन
और खट से उतर जाए
साईकिल की चेन..
तुम्हारी कनखियों पर लग जाए
वही समय की ग्रीज़
मैं रुकी रहूँ इस दृष्टि -पथ पर
अनंत कालों तक
इसी तरह तुम्हे चाहते हुए

लो पकड़ो तो
ये गिटार, तुम्हारा तो है
एक बार फिर से पकड़ो उँगलियों में गिटार -पिक
बजा दो दूरियां बनाये तारों को
एक गति से.

क्या भूल गए हो
हम भी इन्हीं तारों -से महसूस होते रहे थे
एक – दूसरे को
दिशाओं में गूंजती स्वर -लहरी से …

इसी तरह तुम्हे चाहते हुए
चाहूँ, तुम भी चाहो अटकी हुई स्मृतियों की पतंगे
आओ दौड़ लें इनके पीछे
आसमान ने छोड़ दिए हैं धागे
इन्हें लौटाने के लिए …

::
जाओ, देखो तो
क्या रख आई हूँ तुम्हारी स्टडी – टेबल पर
हल्दी की छींटवाला, एक खत चोरी-भरा

पढ़ लेना समय से
खुली रहती है खिड़की कमरे की
धूप, हवा, चिड़िया से

कहीं उड़ न जाएँ
हल्दी की छींट…ताज़ी .

आज तुम ही आना किचिन में
कॉफ़ी का मग लेने ..
हम्म ..
कई दिनों बाद उबाले हैं ढेर टेसू केसरिया
तुम्हें पुरानी फाग याद है न  ..
मैं कुछ भूल -सी गई हूँ ..
कई दिनों से कुछ गुनगुनाया ही नहीं
साफ़ करती रही शीशे घर के .

::
आओ देखो तो
आज जो तारीख काटी है
एक बहुत पुरानी होली की है
तुम्हारे हाथ भरे हैं
गुलाबी अबीर से
मुझे गुलाबी पसंद है
तुम्हें नीला  ..
शायद ये कलेंडर मैं फाड़ना भूल गई थी ..
काफी कुछ बचा रहा इस तरह तुम्हारे -मेरे बीच
एक बार फिर चाहूँ
इस बचे को उलटो-पलटो तुम .

::
तुम भी बुला लेना मुझे
बस यूँ ही ..

हॉस्टल के सबसे पीछे वाले कमरे की वह चोर खिड़की
जहां  अचानक आती थी मैट्रन
और पकड़ी जाती थी मैं बार-बार
हर बार  खड़े रहते थे बाहर  तुम
बिलकुल उस मोज़ार्ट की बांसुरी-से 
जिसका होना एक अर्वाचीन सिंदूर (बलूत) की शाखों में छिपा है
परी कथा -सा
जहां एक टेमीनो और पेमेना को रहना होता  है हरदम
इतना हरदम
कि अनंत युगों तक कोई बजाता रहे बांसुरी
और जिसके जादुई छिद्रों में
संगीत की तरह आबाद हो
मुक्त प्रेम
अनंत लड़ाइयों के बाद .

तब अचानक खिड़की के बाहर
बहुत ज्यादा उग आती थी घास
कुछ ज्यादा गिरती थी ओस
जहां बादल का टुकड़ा रुका रहता था घंटों
बेतरतीब से बरसता था पानी
सांकल पर चढ़ा होता था इन्द्रधनुष फाल्गुनी
जहां नदी बह जाती थी मेरे पैरों से
और तुम पुल पर औचक थमे रहते थे
इन सबके बीच

आज चाहूँ, तुम बुला लो मुझे
निस्तब्ध क्षणों पर टिकी
हमारी पुरानी पुरानी बरगद – पहचान को
जड़ों तक भीगी पहचान
जो घर की खिड़की पर बैठी गौरैया को
आने देगी भीतर
और बहुत लड़ाइयों के बाद भी
रोशनदान पर रख देगी
तिनके नए …
रंग भी तो तिनकों  जैसे होते हैं
बुनते रहते हैं नीड़ प्रेम के ..

प्रेम
::
ये उसकी खिड़की है
जहां से झाँकने देती है नीली आँखों वाले समंदर को
टिकाने देती है सूरज को अपनी लाल कोहनी
और अपनी नींद को बिठा देती है चिड़िया के मखमली परों पर
क्षितिज के ध्रुव तारे से कह लेती है बात
कि वह प्रेम करती है
और सहसा दूब हंसने लगती है कौतुक से.

::

इतना आसान नहीं प्रेम
हंसों का जोड़ा बतियाता है
और सामने लगा पेड़ रंगने लगता है पत्तों पर  तस्वीर नल-दमयंती की
रेत में दुबका पीवणा डस लेता है मारू को
भंवर में झूल रहे होते हैं सोनी- महिवाल
किसी हाट में सच की बोलियों पर बिक रही होती है तारामति
हरिश्चंद्र का मौन
क्रंदन पर रख देता है उँगलियाँ
कितना पहचाना -अपना है
परस प्रेम का.

::
कितना रहस्यमय है प्रेम
जतिंगा की उन हरी पहाड़ियों सा
जो खींचती हैं असंख्य चिड़ियों को
अपने कोहरे की सघन छाह में
चन्द्र विहीन रात पसर जाती है पंखों पर
और क़त्ल हो जाती हैं कई उड़ाने एक साथ
घाटी निस्पृह भीगती रहती है
पूरे अगस्त -सितम्बर तक
रहस्यमयी हवाएं बदल लेती हैं रुख उत्तर से दक्षिण को …
एक ठगा स्पर्श बस !

::
कितना विचित्र है प्रेम
जिसमें रुकना होता है समय को
रचने के लिए नया युग

समय सुनता है छैनियों की नरम देह की आवाजें
जिनमें तराशने के संस्कार पीट रहे होते हैं हथौड़ियाँ …अनगढ़ पत्थरों पर
वल्लरियों के गुल्म चढ़ने लगते हैं मंदिर की पीली लाटों पर
और बुद्ध की आँखें अचरज से देख रही होती हैं अपने चारों ओर लिपटे वलय को
सुजाता ले आती है खीर
प्रेम बोधि हो जाता है.

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