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समालोचन

Home » अरुण आदित्य की कविताएँ

अरुण आदित्य की कविताएँ

अरुण आदित्य : 1965, प्रतापगढ़ (उत्तर-प्रदेश) कविता-संग्रह \’रोज ही होता था यह सब\’ प्रकाशित. इसी संग्रह के लिए मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा दुष्यंत सम्मान से सम्मानित. एक उपन्यास \’उत्तर वनवास\’ आधार प्रकाशन से . असद जैदी द्वारा संपादित \’दस बरस\’ और कर्मेंदु शिशिर द्वारा संपादित \’समय की आवाज़\’ में कविताएं संकलित़. कुछ कविताएं पंजाबी, […]

by arun dev
December 18, 2010
in कविता
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अरुण आदित्य : 1965, प्रतापगढ़ (उत्तर-प्रदेश)
कविता-संग्रह \’रोज ही होता था यह सब\’ प्रकाशित. इसी संग्रह के लिए मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा दुष्यंत सम्मान से सम्मानित. एक उपन्यास \’उत्तर वनवास\’ आधार प्रकाशन से .
असद जैदी द्वारा संपादित \’दस बरस\’ और कर्मेंदु शिशिर द्वारा संपादित \’समय की आवाज़\’ में कविताएं संकलित़.
कुछ कविताएं पंजाबी, मराठी और अंग्रेज़ी में भी अनूदित़.
सांस्कृतिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी़
अरुण आदित्य की कविताएँ राग तत्व की तरलता से भींगी हैं. इनमें संशय का वह काव्य–मूल्य भी है जो इसे और विशिष्ट बनाता है. यहाँ अपने समय की विद्रूपताओं का तीखा बोध है और उसे भाषा में रूपांतरित करने का कौशल भी.
डायरी 

पंक्ति-दर-पंक्ति तुम मुझे लिखते हो 
पर जिन्हें नहीं लिखते, उन पंक्तियों में 
तुम्हें लिखती हूं मैं

रोज-रोज देखती हूं कि लिखते-लिखते 
कहां ठिठक गई तुम्हारी कलम
कौन सा वाक्य लिखा और फिर काट दिया
किस शब्द पर फेरी इस तरह स्याही
कि बहुत चाह कर भी कोई पढ़ न सके उसे
और किस वाक्य को काटा इस तरह 
कि काट दी गई इबारत ही पढ़ी जाए सबसे पहले

रोज तुम्हें लिखते और काटते देखते हुए 
एक दिन चकित हो जाती हूं 
कि लिखने और काटने की कला में 
किस तरह माहिर होते जा रहे हो तुम

कि अब तुम कागज से पहले 
मन में ही लिखते और काट लेते हो 
मुझे देते हो सिर्फ संपादित पंक्तियां
सधी हुई और चुस्त

इन सधी हुई और चुस्त पंक्तियों में 
तुम्हें ढूंढ़ते हैं लोग
पर तुम खुद कहां ढूंढ़ोगे खुद को 
कि तुमसे बेहतर जान सकता है कौन 
कि जो तस्वीर तुम कागज पर बनाते हो
खुद को उसके कितना करीब पाते हो?



कागज का आत्मकथ्य

अपने एकांत की छाया में बैठ
जब कोई लजाधुर लड़की 
मेरी पीठ पर लिखती है
अपने प्रिय को प्रेमपत्र 
तो गुदगुदी से फरफरा उठता हूं मैं

परदेश में बैठे बेटे की चिट्ठी बांचते हुए 
जब कांपता है किसी जुलजुल मां का हाथ
तो रेशा-रेशा कांप जाता हूं मैं
और उसकी आंख से कोई आंसू टपकने से पहले
अपने ही आंसुओं से भीग जाता हूं मैं

महाजन की बही में गुस्से से सुलग उठता हूं 
जब कोई बेबस
अपने ही दुर्भाग्य के दस्तावेज पर लगाता है अंगूठा

मुगालते भी पाल लेता हूं कभी-कभी
मसलन जब उत्तर पुस्तिका की भूमिका में होता हूं
तो इस खुशफहमी में डूबता उतराता हूं
कि मेरे ही हाथ में है नई पीढ़ी का भविष्य

रुपए की भूमिका में भी हो जाती है खुशफहमी
कि मेरे ही दम पर चल रहा है बाजार और व्यवहार
जबकि मुझे अच्छी तरह पता होता है 
कि कीमत मेरी नहीं उस चिडिय़ा की है
जिसे रिजर्व बैंक के गवर्नर ने बिठा दिया है मेरी पीठ पर

अपने जन्म को कोसता हूं 
जब लिखी जाती है कोई काली इबारत या घटिया किताब
पर सार्थक लगता है अपना होना
जब बनता हूं किसी अच्छी और सच्ची रचना का बिछौना

बोर हो जाता हूं 
जब पुस्तकालयों में धूल खाता हूं
पर जैसे ही किसी बच्चे का मिलता है साथ
मैं पतंग हो जाता हूं

मेरे बारे में और भी बहुत सी बातें हैं
पर आप तो जानते हैं
हम जो कुछ कहना चाहते हैं
उसे पूरा-पूरा कहां कह पाते हैं

जो कुछ अनकहा रह जाता है
उसे फिर-फिर कहता हूं 
और फिर-फिर कहने के लिए
कोरा बचा रहता हूं.
 


                                                              
एक फूल का आत्मवृत्त

अपने बारे में बात करना बिलकुल अच्छा नहीं लगता
पर लोगों की राय है कि मैं एक विशिष्ट फूल हूं
85
प्रतिशत मधुमक्खियों का मानना है 
कि सबसे अलहदा है मेरी खुशबू
और 87 प्रतिशत भौंरों की राय है 
कि औरों से अलग है मेरा रंग

टहनी से तोड़ लिए जाने के बाद भी
बहुत देर तक बना रह सकता हूं तरो-ताजा
किसी भी रंग के फूल के साथ 
किसी भी गुलदस्ते की शोभा में 
लगा सकता हूं चार चांद 

मुझे चढ़ाने से प्रसन्न हो जाते हैं देवता
और मेरी माला पहनते ही वशीभूत हो जाते हैं नेता
मेरी एक छोटी सी कली
खोल देती है प्रेम की संकरी गली

यहां तक आते-आते लडख़ड़ा गई है मेरी जुबान
जानता हूं कि बोल गया हूं जरूरत से कुछ ज्यादा 
पर क्या करूं यह ऐसी ही भाषा का समय है
कि बोलकर ऐसे ही बड़े-बड़े बोल
महंगे दामों पर बिक गए मेरे बहुत से दोस्त 
पर जबान ने लडख़ड़ाकर बिगाड़ दिया मेरा काम

ऐसे वक्त पर जो लडख़ड़ा जाती है यह जुबान
दुनिया की दुकान में क्या इसका भी कोई मूल्य है श्रीमान?


इंटरव्यू 
आपकी जिंदगी का सबसे बड़ा स्वप्न क्या है?
आसान-सा था सवाल पर मैं हड़बड़ा गया
घबराहट में हो गया पसीना-पसीना
पर याद नहीं आया अपना सबसे बड़ा सपना

याद आता भी कैसे
जबकि मैंने अभी तक सोचा ही नहीं था 
कि क्या है मेरा सबसे बड़ा स्वप्न

मैं सोचता रहा 
सोचते-सोचते आ गया बाहर
कि यह सिर्फ मेरी बात नहीं 
इस देश में हैं ऐसे मार तमाम लोग
दूसरों के सपनों को चमकाते हुए 
जिन्हें मौका ही नहीं मिलता 
कि सोच सकें अपने लिए कोई सपना

अपने इस सोच पर मुग्ध होता हुआ
तैयार किया अगले इंटरव्यू का जवाब-
मेरा सपना है कि देख सकूं एक सपना
जिसे कह सकूं अपना

जवाब तो हो चुका है तैयार 
पर अभी भी एक पेंच है कि जिंदगी 
क्या एक ही सवाल पूछेगी हर-बार. 


संदर्भ

एक दिन सपने में 
जब नानी के किस्सों में भ्रमण कर रहा था मैं
गंगा घाट की सीढिय़ों पर मिला एक दोना 
चमक रहा था जिसमें एक सुनहरा बाल

मैं ढूंढ़ता हूं इसका संदर्भ

फिलहाल मेरे लिए इसका संदर्भ महज इतना
कि घाट की सीढिय़ों में अटका मिला है यह
पर सीढिय़ों के लिए इसका संदर्भ वे लहरें हैं
जिनके साथ बहता हिचकोले सहता आया है यह
और लहरों के लिए इसका संदर्भ 
उन हाथों में रचा है, जिन्होंने रोमांच से कांपते हुए 
पानी में उतारी होगी पत्तों की यह नाव

हाथों के लिए क्या है इसका संदर्भ
वह पेड़, जहां से तोड़े गए थे हरे-हरे पत्ते?

पर यह सब तो उस दोने का संदर्भ हुआ
असल तत्व यानी बाल का नहीं

बाल का हाल जानना है
तो उस पानी से पूछिए
जिसकी हलचल में छिपा है
उस सुमुखि का संदर्भ
जिसका अक्स अब भी 
कांप रहा है जल की स्मृति में

दूसरे पक्ष को भी अगर देखें 
तो इसका संदर्भ उस राजकुमार से भी है
जिसके लिए सुरसरि में तैराया गया है यह

पर अब तो इसका संदर्भ मुझसे भी है
जिसे मिला है यह
और यह मिलना संभव हुआ स्वप्न में 
सो इसका एक संदर्भ मेरे सपने से भी है

इस तरह दूसरों की चर्चा करते हुए 
अपने को 
और अपने सपने को संदर्भ बना देना
कला है या विज्ञान? 

   











ई-पता: adityarun @ gmail.com
Tags: कविताएँ
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