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Home » सहजि सहजि गुन रमैं : अशोक कुमार पाण्डेय

सहजि सहजि गुन रमैं : अशोक कुमार पाण्डेय

अशोक कुमार पाण्डेय की कविताएँ अपने समय और समाज के सवालों की कविताएँ हैं. सत्ता के मनुष्य विरोधी तंत्र और आम जन की यातनाओं के ब्यौरे कविता को धारदार बनाते हैं. कविता की इस समझ और सरोकार के पीछे के वैचारिक आधार की परिधि विस्तृत है. आख्यान और स्मृति से रची–बसी अपेक्षाकृत ये लम्बी कविताएँ निरी […]

by arun dev
February 22, 2012
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अशोक कुमार पाण्डेय की कविताएँ अपने समय और समाज के सवालों की कविताएँ हैं. सत्ता के मनुष्य विरोधी तंत्र और आम जन की यातनाओं के ब्यौरे कविता को धारदार बनाते हैं. कविता की इस समझ और सरोकार के पीछे के वैचारिक आधार की परिधि विस्तृत है. आख्यान और स्मृति से रची–बसी अपेक्षाकृत ये लम्बी कविताएँ निरी खबर की कविताएँ नहीं हैं, यहाँ भाषा की सृजनात्मकता और सृजन का काव्यत्व भरपूर है.  


पेंटिग : पिकासो

अजनबी          


अजनबी था वह चेहरा जिसे देखकर अपनी याद आती थी

जिन आँखों से उम्मीद के सागर छलकते थे, अजनबी थीं

वह बूढ़ा जिसकी झुर्रियों से पिता झलकते थे, अजनबी था

जिस बच्ची की देह से बिटिया की महक आती थी, अजनबी थी वह मेरे लिए
जिस शहर से चला था वह भी और जहाँ जाना था वह भी अजनबी
इस अजनबियत के बीच इतना अकेला मैं
जितनी कि सामने शीशे के ठीक ऊपर लगी वह चेतावनी
‘अजनबियों से सावधान’
वह जो ठीक मेरे पैरों के पास धरी मैली-कुचैली गठरी
बम हो सकता था उसमें
मेरे सिर के ठीक ऊपर रखा रैक में जो ब्रीफकेस बंधा रस्सियों से
बम हो सकता था उसमें
या फिर मानव बम हो सकती थी वह बच्ची जिसकी महक बिल्कुल मेरी बिटिया सी
वह जिसकी खिचड़ी दाढ़ी से झलकता जिसका मजहब
कौन जाने अगले स्टाप पर पुलिस हो उसके इंतज़ार में
वह जिसके ढलकते पल्लू पर गिर-गिर पड़ रही थीं निगाहें तमाम
कौन जाने अभी रिवाल्वर निकाल कर अपहृत ही कर ले सारी बस को
कौन जाने ज़हर कौन सा हो इस चने में
जिसे पाँच रुपये में मुझे देने को बेक़रार वह लड़का बमुश्किलन सात साल का
इतने चेहरे अखबारों के पन्ने से निकलकर तैरते हुए इस उमस में
इतनी आवाजें चैनलों के जंगल से निकल फैलतीं इस बियाबान में
चुप्पियाँ यह कैसी जो पसरती जातीं इस कदर भय की तरह भीतर
यह कैसा वीराना आवाजों के इस उजाड जंगल के बीच जो करता मुझे अकेला इस कदर
यह कैसा भय पसलियों के बीच दर्द सा रिसता दिन-रात
यह कैसी सावधानियाँ कि इस सामूहिक निगाह में बनता जाता मैं और-और अजनबी
बेहतर इससे कि खा ही लूँ चने आज जो खा रहे सब जून की इस दुपहरी में
और मरना ही हो तो मर जाऊं इस भीड़ के हिस्से की तरह.
दक्खिन टोले से कविता            
क़त्ल की उस सर्द अंधेरी रात
हसन-हुसैन की याद में छलनी सीनों के करुण विलापों के बीच
जिस अनाम गाँव में जन्मा मैं
किसी शेषनाग के फन का सहारा हासिल नहीं था उसे
किसी देव की जटा से नहीं निकली थी उसके पास से बहने वाली नदी
किसी राजा का कोई सिंहासन दफन नहीं था उसकी मिट्टी में
यहाँ तक कि किसी गिरमिटिये ने भी कभी लौटकर नहीं तलाशीं उस धरती में अपनी जड़ें
कहने को कुछ बुजुर्ग कहते थे कि
गुजरा था वहाँ से फाह्यान और कार्तिक पूर्णिमा के मेले का ज़िक्र था उसके यात्रा विवरणों में
लेकिन न उनमें से किसी ने पढ़ी थी वह किताब
न उसे पढते हुए कहीं मुझे मिला कोई ज़िक्र
इस क़दर नाराज़गी इतिहास की
कि कमबख्त इमरजेंसी भी लगी तो मेरे जन्म के छः महीने बाद
वैसे धोखा तो जन्म के दिन से ही शुरू हो गया था
दो दिन बाद जन्मता तो लाल किले पर समारोह का भ्रम पाल सकता था
इस तरह जल्दबाजी मिली विरासत में
और इतिहास बनने से चुक जाने की नियति भी….
::
वह टूटने का दौर था
पिछली सदी के जतन से गढे मुजस्सिमों और इस सदी के तमाम भ्रमों के टूटने का दौर
कितना कुछ टूटा
अयोध्या में एक मस्जिद टूटने के बहुत पहले इलाहाबाद रेडियो स्टेशन के किसी गलियारे में जवान रसूलन बाई की आदमकद तस्वीर के सामने चूडिहारन रसूलन बाई खड़े-खड़े टूट रही थीं. सिद्धेश्वरी तब तक देवी बन चुकीं थी और रसूलन बाई की बाई रहीं.
यह प्यासा के बाद और गोधरा के पहले का वाकया है…
बारह साल जेल में रहकर लौटे श्याम बिहारी त्रिपाठी खँडहर में तबदील होते अपने घर से निकल साइकल से ‘लोक लहर’ बांटते हुए चाय की दुकान पर हमसे कह रहे थे ‘हम तो हार कर फिर लौट आये उसी पार्टी में, तुम लोगों की उम्र है, हारना मत बच्चा कामरेड….और हम उदास हाँथ उनके हाथों में दिए मुस्करा रहे थे.  
यह नक्सलबाडी के बाद और सोवियत संघ के बिखरने के ठीक पहले का वाकया है…
इस टूटने के बीच
हम कुछ बनाने को बजिद थे
हमारी आँखों में कुछ जाले थे
हमारे होठों पर कुछ अस्पष्ट बुद्बुदाहटे थीं
और तिलंगाना से नक्सलबाडी होते हुए हमारे कन्धों पर सवार इतिहास का एक रौशन पन्ना था जिसकी पूरी देह पर हार और उम्मीद के जुड़वा अक्षर छपे थे. सात रंग का समाजवाद था जो अपना पूरा चक्र घूमने के बाद सफ़ेद हो चुका था. एक और क्रान्ति थी संसद भवन के भीतर सतमासे शिशु की तरह दम तोडती. इन सबके बीच एक फ़िल्म थी इन्कलाब जिसका नायक तीन घंटों में दुनिया बदलने के तमाम कामयाब नुस्खों से गुजरता हुआ नाचते-गाते संसद के गलियारों तक पहुँच चुका था.
एक और सीरियल था जिसे रोका रखा गया कई महीनों कि उसके नायक के सिर का गंजा हिस्सा बिल्कुल उस नेता से मिलता था जिसने हिमालय की बर्फ में बेजान पड़ी एक तोप को उत्तर प्रदेश के उस इंटर कालेज के मैदान में ला खड़ा किया था जिसमें अपने कन्धों से ट्रालियां खींचते हम दोस्तों ने पहली बार परिवर्तन का वर्जित फल चखा था. वह हमारे बिल्कुल करीब था…इतना कि उस रात उसकी छायाएँ हमसे गलबहियाँ कर रहीं थीं और हम एक फकीर को राजा में तबदील होते हुए देख रहे थे जैसे तहरीर को तस्वीर होते देखा हमने वर्षों बाद….
फिर एक रोज हास्टल के अध-अँधेरे कमरे में अपनी पहली शराबें पीते हुए हमने याद किया उन दिनों को जब अठारह से पहले ही नकली नामों से उँगलियों में नीले दाग लगवाए हमने और फिर भावुक हुए…रोए…चीखे…चिल्लाये…और कितनी-कितनी रातों सो नहीं पाए…
वे जागते रहने के बरस थे
जो बदल रहा था वह कहीं गहरे हमारे भीतर भी था
बेस्वाद कोका कोला की पहली बोतलें पीते
हम एक साथ गर्वोन्नत और शर्मिन्दा थे
जब अर्थशास्त्र की कक्षा में पहली बार पूछा किसी ने विनिवेश का मतलब
तो तीसेक साल पुराने रजिस्टर के पन्ने अभिशप्त आत्मा की तरह फडफडाये एक बारगी
और फिर दफन हो गए कहीं अपने ही भीतर
पुराने पन्ने पौराणिक पंक्षी नहीं होते
उनकी राख में आग भी नहीं रहती देर तक
झाडू के चंद अनमने तानों से बिखर जाते हैं हमेशा के लिए
वे बिखरे तो बिखर गया कितना कुछ भीतर-बाहर ….
 
और बिखरने का मतलब हमेशा मोतियों की माला का बिखरना नहीं होता न ही किसी पेशानी पर बिखर जाना जुल्फों का टूटे थर्मामीटर से बिखरते पारे जैसा भी बिखरता है बहुत कुछ.
::
सब कुछ बदल रहा था इतनी तेजी से
कि अकसर रात को देखे सपने भोर होते-होते बदल जाते थे
और कई बार दोपहर होते-होते हम खिलाफ खड़े होते उनके
हम जवाबों की तलाश में भटक रहे थे
सड़कों पर, किताबों में, कविताओं में
और जवाब जो थे वे बस सिगरेट के फ़िल्टर की तरह
बहुत थोड़ी सी गर्द साफ़ करते हुए…
और बहुत सारा ज़हर भीतर भरते हुए हम नीलकंठ हुए जा रहे थे
::
इतना ज़हर लिए हमें पार करनी थी उम्र की दहलीज
जहाँ प्रेम था हमारे इंतज़ार में
जहाँ एक नई दुनिया थी अपने तमाम जबड़े फैलाए
जहाँ बनिए की दुकान थी, सिगरेट के उधार थे
ज़रूरतों का सौदा बिछाये अनगिनत बाज़ार थे
हमें गुजरना था वहाँ से और खरीदार भी होना था
इन्हीं वक्तों में हमें नींद ए बेख्वाब भी सोना था
और फिर…उजाड़ दफ्तरों में बिकी हमारी प्रतिभायें
अखबारों के पन्ने काले करते उड़े हमारे बालों के रंग
वह ज़हर ही था हमारी आत्मा का अमृत
वह ज़हर ही था नारों की शक्ल में गूंजता हमारे भीतर कहीं
वह ज़हर ही था किसी दंतेवाड़ा के साथ धधक उठता
वह ज़हर ही था किसी सीमा आज़ाद के साथ उदास
वह ज़हर ही था कविताओं की शक्ल में उतरता हमारी आँखों से
हाँ, हम लगभग अभिशप्त हुए कवि होते जाने को. आजादी की तलाश में हम एक ऎसी दुनिया में आये जहाँ एक बहुत पुराना गाँव रहता था अपनी पूरी आन-बान के साथ. ढेर सारे कुल-कुनबे थे और चली ही आ रही थी उनकी रीत. आलोचक थे, संपादक थे, निर्णायक थे, विभागाध्यक्ष थे, पीठाध्यक्ष थे और इन पञ्च परमेश्वरों के सम्मुख हाथ जोड़े सर्वहारा कवियों की एक पूरी जमात जिनका सब कुछ हरने के बाद उन्हें पुरस्कार दे दिए जाते थे. पंचों की आलोचना वर्जित रीत थी और मौत से कम किसी सज़ा का प्रावधान नहीं था उस अलिखित संविधान में. हैरान आँखों से देखते-समझते सब हम जा बसे दक्खिन टोले में.
::
और
पूरा हुआ जीवन का एक चक्र
खुद को छलते हुए खुद की ही जादूगरी से
बीस से चालीस के हुए और अब शराब के खुमार में भी नहीं आते आंसूं
डर लगता है कि कहीं किसी रोज कह ही न बैठें किसी से
कि ऐसे ही चलती रही है दुनिया ऐसे ही चलती रहेगी
और
और ज़ोर-ज़ोर से कहने लगते हैं
बदलती ही रही है दुनिया और बदलती रहेगी…
विस्थापित का  बयान      
हम एक घर चाहते थे सुरक्षित
हमसे कहा गया राजगृह में एक आदमी तुम्हारा भी है
तुम्हारी कमजोर भुजाओं में जो मछलियाँ हैं मरी हुईं
उस आदमी की आँखों में तैर रही हैं देखो
वह तुम्हारा आदमी है, उसका रंग तुम्हारे जैसा
इत्र न लगाए तो उसकी गंध तुम्हारे जैसी
तुम्हारे जैसा नाम तुम्हारे घर का ही पता उसका पुश्तैनी
वह सुरक्षित तो तुम सुरक्षित
वह अरक्षित तो तुम अरक्षित
इस विशाल महादेश में हम एक कोना चाहते थे अपने सपनों के लिए
हमसे कहा गया कि अयोध्या के राजकुमार की कथा में ही शामिल है सबकी कथा
वहीं सुरक्षित है इतिहास का एक अध्याय तुम्हारे लिए भी
और वहीं किसी कोने में संरक्षित तुम्हारे स्वप्न
क्या हुआ जो बचपन में नहीं सुनीं तुमने चौपाइयाँ
क्या हुआ कि राजा बलि के प्रतीक चिन्ह बनाते रहे तुम अपनी दीवारों पर
क्या हुआ कि तुम्हारे गाँव के डीह बाबा का चौरा ही रहा तुम्हारा काशी-मथुरा
हृदय है यह इस महादेश का
इसमें ही शामिल सारे देव-देवता – इसी कथा से निसृत सारी उपकथाएँ
यही तुम्हारी भाषा-बानी
जबकि हम जो बोलते थे वह राजभाषा से कोसों दूर थी
हम जो गाते थे वह नहीं था राष्ट्रगीत
हम जिन्हें पूजते थे नहीं चाहिए था उन्हें कोई मंदिर भव्य
दो मुट्ठी धान और कच्ची दारू से संतुष्ट हमारे देव
महज एक नौकरी के लिए चले आये थे हम छोड़कर अपना देस इस महादेश में
हमारा देस था जो उसकी कोई राजधानी नहीं थी
हमें दो जून की रोटी चाहिए थी, सर पर एक छत और थोड़े से सपने
जिसके लिए मान लिया हमने वह सबकुछ जो सिखाया गया स्कूलों में
और बिना सवाल किए उगलते रहे उसे जहाँ-तहाँ
अजीब से हमारे नाम दर्ज हुए किन-किन सूचियों में
हमसे जब पूछी गयी हमारी भाषा हमने हिन्दी कहा और माँ की ओर देख नहीं पाए कितने दिन
हमसे जब पूछा गया हमारे देश का नाम हिन्दुस्तान कहा और पुरखों की याद कर आंसूं भर आये
हमने समझाया खुद को समंदर होने के लिए भूलना पड़ता है नदी होना
हमारे भीतर की किसी धार ने कहा
वह कौन सा समंदर जिसके आगोश में बाँझ हो जाती हैं नदियाँ ?
तुलसी की चौपाइयाँ रटते अपने बच्चों को हम सुनाना चाहते थे जंगलों की कहानियाँ कुछ
उनकी पैदाइश पर चुपके से गुड़-रोट का प्रसाद चढ़ा आना चाहते थे चौरे पर
कंधे पर ले उन्हें सुनाना चाहते थे किसी गड़ेरिये का रचा कोई गीत
धान की दुधही बालियाँ निचोड़ देना चाहते थे उनके अंखुआते होठों पर
भोर की मारी सिधरी भूज कर रख देना चाहते थे कलेऊ में
किसी रात ताड़ की उतारी शराब में मदहोश हो नाचना चाहते थे अपनी प्रेमिकाओं के साथ
सात समंदर पार से आई किसी चिड़िया के उतारे पर खोंस देना चाहते थे उनकी लटों में
जंगलों की किसी खामोश तनहाई में चूम लेना चाहते थे उनके ललछौहे होंठ
और अपनी मरी हुई मछलियों वाली उदास बाहों में गोद लेना चाहते थे उनके नाम
कोई देश नहीं था जिसे चाहते थे हम अपनी जेबों में
किसी गड़े हुए खजाने की रक्षा करते बूढ़े सर्प की तरह नहीं जीना चाहते थे हम
इस हज़ार रंगों वाली दुनिया में सिर्फ एक रंग बचाना चाहते थे जो पुरखों न कर दिया था हमारे हवाले
पर कहा गया हमसे कि बस तीन रंग है इस देश के झंडे में
अपनी लाल-पीली-हरी-नीली-बदरंग कतरने सजाये इसी भाषा में लिखी हमने कविताएँ
पर कहा गया यह नहीं है हमारी परम्परा के अनुरूप
इसमें जो ज़िक्र है महुए और ताडी और मछलियों और जंगलों और पहाड़ों और कमजर्फ देवताओं का
वह सब नहीं हैं कविता की दुनिया के वासी उन्हें विस्थापित करो
लाल को लाल लिखो वैसे जैसे लिखते हैं हम
आसमान को नीला कहो तो बस नीला कहो 
बादल हों तो भी धूप हो तो भी कुछ न हो तब भी
कुछ इस तरह कहो नीला कि आसमान न लिखा हो तो भी समझा जाए आसमान
समंदर सा गहरा तो भी उसे हिमालय से ऊंचा कहा जाए अगर नीला कह दिया गया हो उसे
जो नीला हो उसे कुछ और कहने की आजादी कुफ्र है
जो आसमान हो उसे कुछ और न कहो नीले के सिवा
हमने देखे थे काले पक्षियों और सफ़ेद बादलों से भरे आसमान
हमने लिखा और पंक्षियों की तरह विस्थापित हुए
हमने देखे थे महुए से टपकते रंग
हमने दर्ज किया और इस तरह तर्क हुई हमारी नागरिकता
हमारी स्मृतियाँ हमारे निर्वासन का सबब थीं और हमारे सपने हमारी मजबूरियों के
हमारी कविता राजपथ पर हथियार ढोते रथों के पहियों का शिकार हुई
जिनके ठीक पीछे चली आ रही थी हमारी स्मृतियों की कुछ क्रूर अनुकृतियां
हम क्या कहते
उन रथों पर हमारा ही एक आदमी था सैल्यूट मारता इस महादेश को.

————————————————
अशोक की कहानी और लेख यहाँ पढ़े जा सकते हैं 
ashokk34@gmail.com 
  

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