(फोटोग्राफ : कमल जोशी)
लगभग तीन वर्ष पूर्व आशीष नैथानी की कविताएँ समालोचन में प्रकाशित हुईं थीं.
कविताएँ अब और परिपक्व हुई हैं उनका ‘लोकल’ अभी भी रचनात्मक बना हुआ है.
पहाड़, बर्फ, बुराँस, काफल बार-बार लौटते हैं.
शहर में पहाड़ नहीं है और जीवन भी नहीं. कवि की यह इच्छा कितनी मासूम है और मारक भी, – ‘मैं हर दिन ऑफिस के बाद /एक परिंदा हो जाना चाहता हूँ.’
पांच नई कविताएँ आशीष नैथानी की .
आशीष नैथानी की कविताएँ
मैं जहाँ से आया हूँ
वहाँ आज भी सड़क किनारे नालियों का जल
पाले से जमा रहता है आठ-नौ महीने,
माएँ बच्चों को पीठ पर लादे लकड़ियाँ बीनती हैं
स्कूली बच्चों की शाम रास्तों पर दौड़ते-भागते-खेलते बीतती है
वहाँ अब भी धूप उगने पर सुबह होती है
धूप ढलने पर रात
वहाँ अब भी पेड़ फल उगाने में कोताही नहीं करते
कोयल कौवे तोते पेड़ों पर ठहरते हैं
कौवे अब भी खबर देते हैं कि मेहमान आने को हैं,
बल्ब का प्रकाश वहाँ पहुँच चुका है फिर भी
कई रातें चिमनियों के मंद प्रकाश में खिलती हैं,
तितलियों का आवारापन अब भी बरकरार है
उतने ही सजीले हैं उनके परों के रंग आज भी
समय से बेफिक्र मवेशी जुगाली करते हैं रात-रातभर
बच्चे अब भी जिज्ञासू हैं जुगनु की रौशनी के प्रति
वहाँ हल, कुदाल, दराँती प्रयोग में है
वहाँ प्यार, परिवार, मौसम, जीवन जैसी कई चीजें ज़िन्दा हैं
शहर के घने ट्रैफिक में फँसा एक मामूली आदमी
कुछेक सालों में कीमती सामान वहाँ छोड़ आया हैं
मैं जहाँ से आया हूँ
और वापसी का कोई नक्शा भी नहीं है
मेरी स्थिति यह कि
लैपटॉप के एक नोटपैड में ऑफिस का जरुरी काम
और दूसरे नोटपैड में कुछ उदास शब्दों से भरी कविता लिखता हूँ,
मेरे लिए यही जीवन का शाब्दिक अर्थ हो चला है
किन्तु कहीं दूर अब भी
मिट्टी के चूल्हे पर पक रही होगी मक्के की रोटी
पानी के श्रोतों पर गूँज रही होगी हँसी
विवाह में कहीं मशकबीन बज रही होगी
दुल्हन विदा हो रही होगी,
पाठशालाओं में बच्चे शैतानी कर रहे होंगे
प्रेम किसी कहानी की आधारशिला बन रहा होगा
इंद्रधनुष बच्चों की बातों में शामिल होगा
खेत खिल रहे होंगे रंगों से
पक रहे होंगे काफल के फल दूर कहीं
या कहूँ, जीवन पक रहा होगा
दूर जंगल में बुराँस खिल रहा होगा
जीवन का बुराँस.
परिंदा
पंछियाँ रोती होंगी
तो वहाँ से गुजरती हवा
पोंछ लेती होगी उनके आँसुओं को,
शाख की लकड़ी
अपना कन्धा बढ़ा देती होगी
दिलासे के लिए,
या कि आसमाँ
भर लेता होगा उन्हें बाहों में
पर मेरा ये निर्मोही लैपटॉप
मेरा चेहरा नहीं पढता,
न एक्सेल शीट के खाने
दे पाते हैं जगह मेरे सपनों को
और न कीबोर्ड की खट-खट
मेरे भीतर के कुहराम को दबा पाती है
मैं हर दिन ऑफिस के बाद
एक परिंदा हो जाना चाहता हूँ.
उतरना
उतरना कितना आसान होता है
कितनी सहजता से उतरती है नदी
कितनी आसानी से लुढ़कते हैं पत्थर चट्टानों से
और कितने बेफ़िक्र होकर गिरते हैं आँसू
कुछेक दिनों में उतर जाता है वसंत वृक्षों से
ख्व़ाब उतर जाते हैं पग-पग असफलताओं के बाद
और बात-बात पर उतर जाते हैं चेहरे में संजोये हुए रंग
इसके उलट चढ़ना कितनी दुरूह प्रक्रिया है
शहर से लौटकर
पहाड़ न चढ़ पाने के बाद
महसूस हुआ
कि उतरना किस कदर आसान है
और आसान चीजें अक्सर आसानी से अपना ली जाती हैं.
असहमति की आवाजें
क्या खूब हो कि चाय पर बैठें
या मंदिर-मस्जिद के अहाते में
या किसी के चौक-छज्जे में
और रखें अपने-अपने विचार
बातें हो, बहसें हों, चर्चाएँ हों
महिलाएं हों, पुरुष हों
बुजुर्ग हों तो बच्चे भी हों
और फिर एक रास्ता हो
जूते और चप्पलों से लिखी जा रही है
इन दिनों असहमति की भाषा
या कि काली स्याही से रंगे जा रहे हैं
चेहरों के पृष्ठ
या फाड़े जा रहे हैं वस्त्र संसद में
याद रखें, कि बच्चे होते है बहुत क्रिएटिव
जब कल वे असहमति की अपनी भाषा गढ़ेंगे
तो टोकियेगा मत
कि अब जमाना बिगड़ गया है.
तुम्हारे होने का अहसास
रात अब कभी ख़ामोश नहीं लगती
दिन नहीं करता बेचैन
जो तुम्हारे साथ होने का अहसास साथ हो
अब किसी गीत को सुनते हुए
उसके बोलों की तरफ़ ध्यान नहीं जाता
बल्कि एक पूरी फ़िल्म दिमाग में चलने लगती है
महसूस होता है कि तुम्हारे लिए ही लिखे गये हैं सारे गीत
सारे शब्द तुम्हारा ज़िक्र करने के लिए बने हैं
धुनें हैं कि तुम्हारी कुछ मासूम सी हरकतें
अचानक आसमान कुछ और नीला हो गया है
तारों का प्रकाश बढ़ गया है कई सौ गुना
बर्फ़ अब भला और कितनी सफ़ेद होना चाहती है
और चाँद है कि महीने के हर दिन पूरा निकलना चाह रहा है
शाखों ने सजा ली हैं हरी पत्तियाँ
भौरों ने याद कर लिए हैं नए गीत
तितलियों ने रँग दिए हैं पर कुछ और खूबसूरत रंगों से
और शहर से हो गया है इश्क़ सा कुछ
जनवरी अब वैसी सर्द नहीं रही
न रही बारिश में छाते की जरुरत अब
तुम्हारे होने के अहसास से मैं भी अब कहाँ पहले सा रह गया हूँ.
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पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखंड)
फिलहाल मुंबई में
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Ashishnaithani2011@gmail.com
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