कुमार अनुपम
७ मई १९७९ बलरामपुर, उ.प्र
बी.एससी., एम.ए. (हिन्दी) और डी.एम.एल.टी. प्रशिक्षण
कविताएँ, पेंटिंग, कला समीक्षा और संपादन
कविता समय १ (चन्द्रकान्त देवताले और कुमार अनुपम की कविताओं का सम्मिलित संग्रह)
बारिश मेरा घर है कविता संग्रह साहित्य अकादेमी से प्रस्तावित
कुछ कविताओं का उड़िया, बांग्ला, पंजाबी और अंग्रेजी में अनुवाद
अवधी ग्रन्थावली और कला वसुधा में संपादन सहयोग
कविता समय पुरस्कार २०११
कुछ वृत्तचित्र लिखे हैं जिन पर लघुफिल्में बनी हैं.
ई पता : artistanupam@gmail.com
युवा हिंदी कविता न तो एकरस है, न ही विचारहीनता की अराजकता का शिकार. इन कविताओं में अक्सर अपने पूर्वज कविओं की याद और कभी-कभी साथी कविओं का साथ दिख जाता है पर मिट्टी तो कवि की अपनी है, अनुभव की सृजनात्मकता खुद उसकी कमाई है. युवा कवि कुमार अनुपम की कविताओं से होते हुए इसे बेशक समझा जा सकता है.
रोज़मर्रा की क्रूरताओं और विवशताओं पर फिसलती जिंदगी के फीके दिनों से इन कविताओं का नेपथ्य बना है. ये कविताएँ ताकत के हिस्र खेल को देख रही हैं. वे बचे रहने की जिद में कट्टर बनते समूह की असहायता भी देख रही हैं और साथ-ही-साथ सत्ता के तन्त्र में पूंजीवादी दासत्व का निर्मम चेहरा भी. कुमार अनुपम की कविताएँ अपने शिल्प को लेकर भी सजग हैं, उनके अंदर का चित्रकार शब्दों से दृश्य उकेरने का सलीका जानता है. ये कविताएँ समकालीन काव्य परिसर में मजबूती से जगह बनाती हैं, और अपनी पहचान रखती हैं. कुछ नई कविताएं औए साथ में लम्बी कविता \’आफिस – तन्त्र\’.
उसका देखना
बीमार था भाई और अस्पताल भरा हुआ
खुले आकाश के नीचे
नसीब हुआ उसे किसी तरह एक बेड
बेहद जद्दोजहद के बाद
ऐसा आपातकाल था
ड्रिप की सीली-सी आवाज थी जब बुदबुदाया –
हमारे देखने की सीमा तो देखिये!
वह चाँद देख रहा था और तारे
अब उसका बोलना बर्फ हो रहा था –
और जमीन पर थोड़ी ही दूरी पर
चलता हुआ आदमी तो ओझल हो जाता है
यकायक हमारी निगाह से
भैया, देखिये जरा कितने पेंच हैं इस दुनिया में !
वह बहुत मासूम दिख रहा था और खतरनाक तरीके से गम्भीर
अब मैं
उसे बीमार कहकर शर्मिंदा हो रहा हूँ .
क़तरा क़तरा कुछ
छत से यह छिपकली मेरी देह पर ही गिरेगी
बदलता हूँ लिजलिजी हड़बड़ाहट में अपनी जगह
एक पिल्ला कुँकुआता है और मेरी नींद सहमकर
दुबक जाती है बल्ब के पीछे अँधेरी गुफा में
यह मच्छर जो इत्मीनान से चूस रहा है मेरा खून डेंगू तो नहीं दे रहा
(कैसे खरीद पाऊँगा महँगा इलाज)
लगता है कोई है जो खड़का रहा है साँकल
अगर
दिनभर की कमाई २६ रुपये ४५ पैसे गये
तो मेरे कान में बोलेगा
अपनी खरखराती सरकारी आवाज में उत्पल दत्त –
“ग़रीब!”
उसकी अमीर कुटिलता
बर्दाश्त करने की निरुपाय निर्लज्जता कहाँ से लाऊँगा
ये क्यों बज रहा है पुलिस-सायरन
मेरी ही गली में बार बार
ठीक ही किया
जो पिछवाड़े का बल्ब जलता भूल गया
(इस बार तो कट कर ही रहेगा बिजली का कैनेक्शन, तय है)
क़तरा क़तरा कुछ
मुझमें भरता समुद्र हुआ जा रहा है.
साथ
चाँद
तुम्हारी किरचें टूट टूटकर
बिखर रही हैं तारों की तरह
यह किस समुच्चय की तैयारी है
वह बावड़ी जिसके जल में
देखा था एक दिन हमने सपनों का अक्स
उस पर रात घिर आयी स्थायी रंग लिये
रोज की ही तरह
हमारी खिलखिलाहट की चमक
गिरती रही चक्कर खाते हुए पत्ते की तरह उसी जल में
दरअस्ल
घरेलू आदतों से ऊब गयी थी वह बदलना चाहती थी केंचुल
अपने समय में छूटती जाती साँस की-सी असमर्थता
से घबराना मेरा नियम बन गया था
अब हम
किसी मुक्ति की तलाश में भटकते संन्यासी थे
और एक दिन
उसने बदल दिया अपनी मोबाइल का वह रिंगटोन
जो मुझे प्रिय था
और रिबन बाँधना कर दिया शुरू जो उसे तो
कभी पसन्द नहीं था
मैं भी पहनने लगा चटख रंग के कपड़े जो आईने में
मुझ पर नहीं फबते रहे थे कभी
फिर भी
अचानक नहीं हुआ यह
कि
मैं किसी और के स्वप्न में रहने लगा हूँ
वह किसी और की आँखों में बस गयी है
और हम
अपने बढ़ते हुए बच्चे के भविष्य में
अब भी साथ रहते रह रहे हैं.
जिनके हक को रोशनी दरकार है
वे देर रात तक खेलते रहते हैं
कैरम, लूडो या सोलहगोटी
अधिकतम एकसाथ रहने की जुगत करते हैं
जबकि दूकानें उनकी जागती रहती हैं
वे मुड़ मुड़कर देखते हैं बार बार
अँधेरे में से गुजरती एक एक परछाईं
अपनी आश्वस्ति पर सन्देह करते हैं
एक खटका उन्हें लगा रहता है
पुलिस सायरन से भी
जिससे महसूस करना चाहिए निशाखातिर
उससे दहल जाता है उनका कलेजा
एक दूसरे को समझाते हैं कि हम लोकतन्त्र में हैं
यह हमारा ही देश है
और हम इसके नागरिक
लेकिन तीसरा अचानक
बुदबुदाने लगता है वे जवाब
जिस पर उसे यातनाएँ दी गयी थीं
पुलिसिया बेहूदा सवालों की ऐवज
जब वह यही सब बोला था तफ्तीश में और तब से
वह साफ साफ बोलने के काबिल भी नहीं रहा
दाढ़ी ही तो रखते हैं पहनते हैं टोपी
पाँचों वक्त पढ़ते हैं नमाज
यह जुर्म तो नहीं है हुजूर
चीखती है उनकी खामोशी
जिसे नहीं सुनती है कोई भी कोर्ट
हम आतंकवादी नहीं हैं जनाब
मेहनतकश हैं
दुरुस्त करते हैं घडि़याँ, सिलते हैं कपड़े
बुनते हैं चादर, पालते हैं बकरियाँ
आपके लिए सब्जियाँ उगाते हैं
हम गोश्त नहीं हैं आपकी दस्तरखान में सजे हुए
हमें ऐसे मत देखिये
लेकिन मिन्नतें उनकी
बार बार साबित कर दी जाती हैं
एक खास कौम का जुर्माना इरादतन
उन्हें जेलें नसीब होती हैं या एनकाउंटर
बचे रहने की जिद में वह क्या है
जो उन्हें कट्टर बनाता है
कभी सोचिये कि
दरगाहों के लिए
जिनकी आमदनी से निकलती है चिरागी
मोअज्जिन की सदाओं से खुलते
जिन खुदाबंद पलकों के दर
उनके गिर्द
क्यों लगे हैं मायूसी के स्याह सियासी जाले
उनके ख्वाब में भला किस देश का पल सकता है भविष्य
इसे सवाल नहीं
मुस्तकबिल की सचाई की तरह सुनें!
सिर्फ रात होने से ही नहीं घिरते हैं अँधेरे
उनके हक को रोशनी दरकार है
जिनकी दरूद-सीझी फूँक से
उतर जाती है हमारे बच्चे को लगी
दुनिया की तीखी से तीखी नजर.
लम्बी कविता
ऑफिस-तन्त्र
१.
वह नौकरी करता था और चाकरी तक करने को तैयार था
वह अपने घर के लिए भी तो लाता था शाम को तरकारी
और गैस-सिलिंडर और धोबी से प्रेस किये हुए कपड़े
मालिक के लिए भी वह यह सब करते हुए
कोफ्त नहीं महसूस करना चाहता था
वह तो मालिक के जूते तक साफ करने को तैयार था
आखिर अपने जूते भी तो करता था पॉलिश
और अपनी नन्ही परी के भी तो चमकाता था नन्हे जूते
तो वह उसे हर्ज नहीं मानना चाहता था
अपने ज़मीर तक से तसदीक में तय पाया था
कि वह ईमानदार है और रहेगा
भले ही उसे मुनाफे के लिए
मालिक को देनी पड़े अपनी आधी तनख़्वाह
बस वह बार-बार
अपनी नौकरी बचाना चाहता था
रोज़ सुबह तैयार होकर
घर से ऑफिस जाना चाहता था
कि लोग पाले रहें
उसे जेंटलमैन मानने का भ्रम भले ही पत्नी हँसती रहे विकट
मगर बार-बार
वह चाटुकारिता के अभिनय में हो जाता था असफल
और बात अटक जाती थी बड़ी आँत में कहीं
वह बेवजह हँसने की भरपूर कोशिश करता था
मटकता था बहुविधि
कई बार
तो खुद की भी खिल्ली उड़ाता था जोकरों की तरह
कि सलामत रहे परिवार की हँसी किसी भी कीमत
मगर व्यर्थ
मालिक की त्यौरियाँ तनी ही रहती थीं कमान की मानिन्द
तब वह
अधिकतम चतुराई से ठान लेता था
कि अपनी प्रतिभा, ईमानदारी, कर्मण्यता, विचार वगैरह
वह किसी पिछली सदी में रख आएगा रेहन
अगर मिले कुछ रुपये तो लाएगा उधार
जिससे कि पल सके उसका परिवार फिलहाल
(और वैसे भी इस सदी में जब
पण्य बड़ा हो पुण्य से
फिर ऐसे फालतू मूल्यों का क्या मोल)
तो वह
कुछ पाप करना चाहता था
और उसे पुण्य साबित करने
के नुस्खे तलाश करने में
कुछ सफल लोगों की तरह
सफलता पाना चाहता था
मगर करे क्या बेचारा
कि पिछली सदी में लौटने का द्वार
बन्द था मज़बूत
और वह
पूरी ईमानदारी से
लौटना चाहता था घर और यह भी
कि नहीं लौटना चाहता था.
२.
सुनो, ऐसा करते हैं कि एक शीशी ज़हर लाते हैं
तुम पराठे बनाना लज़ीज़
इस सलीके से मिला देना उसमें कि गन्ध न आये तनिक
मैं जाऊँगा ऑफिस
और मालिक के आगे परोस दूँगा पूरी आत्मीयता में डूब
फिर आएगा मज़ा
दूँगा भरे ऑफिस में मुझे अपमानित करने की सज़ा
बट डार्लिंग,
उसकी हत्या के जुर्म में तो मैं फँस ही जाऊँगा
वैसे खाएगा ही क्यों बल्कि वह तो
डालेगा तक नहीं इन पर अपनी स्थायी घुन्नी निगाह
वह तो उड़ाता रहेगा शाही पनीर
बाई द वे,
पिछली बार
हमने कब खाया था शाही पनीर?
याद नहीं
तो कोई बात नहीं
लेकिन खैर तो यह
कि एक जून का अनाज
बरबाद होते – होते बचा कि फार्मूला बेहद लचर था
वैसे आटा भी दस से बीस पहुँच गया है
ऐसा करना,
चार की जगह मुझे दो पराठे देना कल से
क्या है कि सीट पर बैठे-बैठे सुबह से शाम
गैस की प्रॉब्लम होने लगी है
और बढ़ती उम्र में
ज़रा सँभल के खाओ तो ही भला वह कहता है
और ठंडा पानी पीता है एकसाँस
हालाँकि उसे
देर तक खाँसी के ठसके से जूझना पड़ता है.
३.
वह सोचता है
और सोचता है कि सोचने का ही तो
मिलता है मासिक मेहनताना
सोचता है
और बॉस को बताता है
कि बॉस,
मेरा तो ऐसा सोचना है फलाँ प्रोजेक्ट की बाबत
बॉस के होंठ फैलते हैं ज़रा-सा
वह सोचता है, बॉस खुश हुआ
फिर सहकर्मियों की एक मीटिंग बुलाई जाती है
वह अचानक चकित होता है जबकि बॉस
उसके सोचे हुए को
अपना सोचा हुआ ऐसे पेश करता है जैसे कोई राज़
लेकिन यह सोचकर
कि बॉस को जँचा उसका सोचना
कि बॉस की देह की सर्वोच्च कुर्सी पर
विराजमान है उसका ही सोचा हुआ इस वक्त
मन ही मन गर्व से कुप्पा होता है
‘हलो, हाँ हाँ आप से ही मुखातिब हूँ जनाब
कहाँ हेरा गये
मन नहीं है यहाँ
तो कहीं और जाने के बारे में सोचें श्रीमान
इतनी इंपोर्टेंट मीटिंग है मैं हूँ यहाँ इतने ये लोग
झख मार रहे हैं और आप कहीं और
ऐसी बदतमीज़ी बर्दाश्त नहीं करूँगा’ बॉस चीखता है
और उसके दिमाग में किसी सन्नाटे की तरह भर जाता है
कमरे से निकलते हुए सोचता है कि कुछ नहीं सोचेगा ऐसा
जो फिट न बैठे मालिक के दिमाग की नाप से
या यह
कि अब कुछ सोचेगा ही नहीं बस काम किये जाएगा
जैसे करते आ रहे हैं बाकी सहकर्मी
वर्षों से खुश खुश बिना कुछ सोचते हुए उन सबको
खुद पर ताना मारने की मोहलत नहीं देगा
ऐसा सोचता है सोचने पर शर्मिन्दा होता है
कहीं और जाने के बारे में भी सोचता है
और
कहीं और न जा पाने की वजह के बारे में भी
समझदार साहस से भरकर कई बार
मगर कहीं उसके भीतर से निकलकर
एक पिता, एक पति, एक पुत्र, एक भाई
सोचने के ऐन बीचोबीच आकर डट जाते हैं
दरअसल, घर और संसार के दरम्यान
एक ऑफिस होता है विभाजन रेखा की तरह
जो चीरता रहता है दो फाँक आठों याम…
इसी अवकाश में आता है बॉस का फोन
‘आपको फील तो नहीं हुआ कुछ कहना पड़ता है
लेकिन आपकी विद्वता का कायल हूँ बेइन्तेहाँ
और सोचिए ज़रा
कि सिर्फ आपको ही है मेरे बँगले पर आने की अनुमति
आज क्या प्रोग्राम है आपका, आ जाइए, घर पर ही हूँ’
वह सोचता है कि क्या क्या तो सोचता रहा फालतू
और बॉस के बँगले पर जाता है मुग्धभाव
जहाँ उसकी प्रतीक्षा में ही मिलता है बॉस कहता है
‘हाँ तो क्या सोचा आपने
बताइए बताइए…’
वह पुलक में भर
जैसे ही बताने लगता है
बॉस ऑन कर देता है एक धार्मिक-स्त्रोत फुल साउंड
और कहता है
‘ज़रा और और तेज़ बताइए ना
सुनाई ही नहीं दे रहा आपका सोचा हुआ कुछ भी.’
४.
एक लड़की फोन करती है
और शाम उगती है
पूछती है आज क्या करते रहे दिन भर
और बताती है सुबह जिम गयी ‘अ’ गले का ट्रैक-सूट पहनकर और लौटकर एक गिलास दूध पिया शाम को नहीं पीती हूँ ना और दो चोटी नहीं किया और रूमाल टॉप के बाँयी ओर नहीं पिन किया और वाटर-बॉटल कन्धे पर बिना टाँगे आफिस गयी और हाँ लंच-आवर में आया तो था एक साड़ीवाला पर ना नहीं खरीदी एक भी साड़ी आज देर से मिला ऑटो भी अभी पहुँची हूँ चाची एक आवाज़ पर दे गयी थी चाय पीकर बैठी हूँ
पूछती है क्यों हैं उदास बोलते क्यों नहीं
और बताती है सच में वो कितने अच्छे दिन थे मुच में जो उगते थे बाइक पर और ढलते थे बाइक पर उसे भूल नहीं पाती और भूलना भी नहीं चाहती वह मेरा प्यार है और जानते हो मैं तो हर हद तक जा सकती थी अपना बनाने के लिए उसे सम्पूर्ण पर वो ही हट गया पीछे अपनी किन्हीं मजबूरियों के जंगल में अब उसकी अपनी दुनिया है अपना वंश बहुत दिन से दिखा भी तो नहीं और हाँ मेरे इश्क ने मुझे खोज लिया अब अपने साथ हूँ लेकिन उसकी ना बहुत बहुत याद आती है अच्छा आओ भी अब जानते हो चार दिनों से नहीं लगाया मैंने काजल बूझो ज़रा क्यों आओ न क्विक अभी देखो न मुझे मिला नहीं कॉन्ट्रेक्ट करो न बात कितना तो पसन्द करते हैं तुम्हें बॉस और मैं… कुछ समझे बुद्धू…ओके गुडनाइट स्वीटड्रीम्स टेक्केयर बाय…
और फुलवजऱ्न में कई तरफ रात घिरती है.
५.
आय एम नॉट इंट्रेस्टेड
कि कैसे चला लेते हो तुम इत्ती-सी पगार में समूचा परिवार
और वह भी निरी ईमानदारी की शर्त पर दरअसल
यही है मेरे लिए अचरज की फुरफुरी
यही है मेरे विश्वास और निश्चिन्तता का मज़बूत आधार
तुम्हारे फादर ही थे न जो आये थे उस रोज़
घुटने तक धोतीवाले
मैं तो देखते ही पहचान गया था भले कभी मिला नहीं था तो क्या
उस किसान ने बोई है कड़ी धूप में तपकर तुममें अपनी उम्मीद
उसके सपनों को तुम्हें ही सच करना है
तुम्हारी पत्नी प्रेगनेंट है मुझे पता लगा है
उसकी मेडिसिन्स का खास ख्याल रखने का वक्त है यह
बच्चों को अच्छे स्कूल में ही पढ़ाना, समझ रहे हो न
वैसे एक दिन पहले
भेज तो देता है न तुम्हारे खाते में सेलरी
कि डाँटूँ एकाउंटेंट को अभी फिर से
अरे जोश से भरे जवान हो तुम लोग
आगे बढ़कर सम्हालो जि़म्मेदारियाँ
मैं तो इस उम्र में भी फेंक सकता हूँ चार वर्करों का काम
फिर तुम तो माशाअल्ला…
और हाँ ज़रा कम लिया करो छुट्टियाँ
तुम देख ही रहे हो स्टॉक मार्केट की मन्दी
हमारी मजबूरी में तुम लोग ही नहीं लोगे इंट्रेस्ट
तो कैसे बचेगा ऑफिस
और तुम लोग भी
कि दूसरे ऑफिसों का हाल कोई अलग तो है नहीं… कि नहीं
वैसे अचरज की फुरफुरी उठती है रह रह कि…
अब उसे भी मज़ा आने लगता है बॉस से साथ साथ
हँसता है दाँत चियार
फिर बॉस के केबिन से किसी हाँ में थरथराता
निकलता है
कहीं न जाने के लिए अपनी सीट तक अकसर की तरह आता है.
६.
लौटने के लिए वह घर लौटता है
और साथ में एक ऑफिस लाता है
दरवाज़ा खोलने में हुई ज़रा-सी देरी के लिए
फटकारता है पत्नी को
माँगता है पूरे दिवस की कार्य-रिपोर्ट
सहमी हुई वह
गिनाती है रोज़मर्रा गृहस्थी के काम जिसमें जूझती रही सगरदिन
वह एक मामूली गृहस्थी के मामूली कामों को
उसकी साधारणता समेत खारिज करता है और
कुछ असाधारण काम-धाम करने
की आदेशनुमा सलाह में लपेट
उसकी गृहस्थी की मामूली फाइल
हिकारत के हाथों सौंप देता है
बच्चे
दरवाज़े और करुणा की ओट से
कुछ चाकलेट कुछ टाफियों की नाउम्मीदी में
किसी सपने में लौट जाते हैं
या सोने में व्यस्त दिखने
के अभिनय में मशगूल हो जाते हैं मन मार
उन्हें पता है शायद
कि ऑफिस में चाकलेट और टाफियाँ नहीं मिलतीं
जो दुहराता है अकसर उनका पिता
वह अधिकारी-आवेश में
झिंझोड़कर जगाता है बच्चों को अधनींद
और धमकाता है कि तुम सबकी मटरगश्तियाँ
और लापरवाहियाँ
अब और बर्दाश्त के नाकाबिल
कि अधिक मन लगाओ
कि तुम पर, सोचो ज़रा,
कितना इन्वेस्ट किया जा रहा है लगातार
तुम पर हमारे कई प्लान डिपेंड हैं
और कई योजनाएँ तो तुम्हारे ही कारण स्थगित
तुम्हीं हो हमारी उम्मीद की मल्टीनेशनल लौ
जिसकी जगरमगर में हमारा भी भविष्य देदीप्यमान
बच्चे फिर भी
अपनी कारस्तानियों के स्वप्न में दाखिल हो जाते हैं
इतने में पत्नी लगा देती है भोजन
वह स्वादिष्ट लगते पकवान का छुपा जाता है राज़
और निकालता है मीनमेख कि अब
पहले-सी बात नहीं रही तुममें न पहले-सा स्वाद
जबकि जानता है कि अधिकतम समर्पण से बनाया गया है भोजन
पत्नी कुढ़ती है
और किसी आशंका में
अपनी घर-गृहस्थी समेत डूब जाती है
वह लगा लगाकर गोते उसे खींच खींच निकालता है बार बार
और उससे
सहयोग की कामना करता है
वह स्वीकारती है अनमने मन से आज का अन्तिम फरमान
और ध्वस्त हो जाती है
वह बॉस की तरह मन्द मन्द मुस्कुराता रहता है
और किसी विजेता-भाव में बिला जाता है.
७.
यहाँ तो ऐसा ही होता रहा है
आप नये हैं ना जान जाएँगे यहाँ की कार्य-प्रणाली
सर्वग्यभाव से भरे कुछ असमय-बुजुर्ग-युवा
अपनी गलतियाँ छुपाते हुए ऐसा दोहराते हैं जब तब
जो यहाँ हैं
वे यहीं थे जैसे अनन्तकाल से
जो यहाँ से किसी तरह विदा हुए
वे जैसे कभी थे ही नहीं स्मृतियों तक में
जो डटे हैं वे ऐसे हैं
जैसे यहीं रहेंगे अनन्तकाल तक….
८.
और एक दिन
उसे थमा दिया गया
एक चेतावनी-पत्र
श्रीमान
संस्थान के संज्ञान में लाया गया है कि आप लगातार दफ्तर की स्टेशनरी का दुरुपयोग कर रहे हैं जिस कार्पेट पर चलकर आप आते हैं और बैठते हैं सीट पर और जिस फैन की हवा में साँस लेते हैं पीते हैं जिस बॉटल से पानी वह सब संस्थान की स्टेशनरी में दर्ज हैं, और आपके उपयोग में हैं यह नैतिक व कानूनी तौर से सेवा-शर्तों का उल्लंघन है कृपया तीन दिन के भीतर स्पष्ट करें कि क्यों न आप पर अनुशासनात्मक कार्यवाई की जाए
आपका अब तक जीवित बचे होना हमारे पास प्रमाण की तरह मौजूद है.
९.
यह एक ऐसा तन्त्र है
जहाँ हर शख्स परतन्त्र है
षड्यन्त्र हैं और चतुर चालबाजि़याँ हैं
और तनाव और रणनीति है
चापलूसियाँ और वार्ताएँ और लापरवाहियाँ
और दुरभिसन्धियाँ
और समझौते और लालच
और लिप्साएँ और घूस और पलायन
और विडम्बनाएँ और विराग और युद्ध हैं
और कई बार तो इलू इलू भी
और इस हद तक कि शादियों में उसकी परिणति
सच्चाइयाँ भी हैं
लेकिन उतनी ही
कि झूठ के साम्राज्य पर
जितनी से न आये तनिक भी खरोंच
चलता रहे कारोबार सकुशल
सब खुश खुश-सा दिखते रहें इतनी अनुकम्पा
इतने ही अनुपात में व्यवहार
कुल मिलाकर यह कि जहाँ गुज़ारता है वह
अपना बहुत सारा समय और जीवन,
यह एक कू्रर सच्चाई है, कि दरअसल
उसका अपना वहाँ कोई नहीं है
मसलन यह
कि कोई किसी का ताबेदार है तो कोई किसी का मनसबदार
कोई किसी का चेला है तो कोई किसी का पिट्ठू
कोई किसी का कारकुन तो कोई किसी का तरफदार
मतलब कोई इनका आदमी है तो कोई उनका आदमी है
कोई काम का आदमी नहीं है
और जनाब, एक जीता जागता ताज्जुब है,
कि यह तन्त्र
फिर भी चलता ही चला जा रहा है तमाम घुनों के बावजूद
गोया कि हमारा ही देश हो.
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पेंटिग : Damon Kowarsky
पेंटिग : Damon Kowarsky