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Home » कृष्णमोहन झा की कविताएँ

कृष्णमोहन झा की कविताएँ

कृष्णमोहन झा : १०-अगस्त-१९६८, मधेपुरा (बिहार) कवि–आलोचक  उच्च शिक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय और जे.एन.यू से विजयदेव नारायण साही और निर्मल वर्मा पर शोध कार्य कविता-संग्रह : समय को चीरकर (१९९८) हिंदी में और एकटा हेरायल दुनिया (2008) मैथिली में बांग्ला,मराठी और अंग्रेजी में भी कविताएं अनूदित. कन्हैया स्मृति सम्मान (1998) और हेमंत स्मृति कविता पुरस्कार(2003) एसोसिएट […]

by arun dev
January 25, 2011
in कविता
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कृष्णमोहन झा : १०-अगस्त-१९६८, मधेपुरा (बिहार)

कवि–आलोचक 
उच्च शिक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय और जे.एन.यू से
विजयदेव नारायण साही और निर्मल वर्मा पर शोध कार्य
कविता-संग्रह : समय को चीरकर (१९९८) हिंदी में और एकटा हेरायल दुनिया (2008) मैथिली में
बांग्ला,मराठी और अंग्रेजी में भी कविताएं अनूदित.
कन्हैया स्मृति सम्मान (1998) और
हेमंत स्मृति कविता पुरस्कार(2003)
एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग,
असम विश्वविद्यालय,सिलचर, असम  
ई-पता : krishnaamjha@gmail.com


कृष्णमोहन झा की कविताओं की कोमल देह पर समय के गहरे निशान हैं. ये निशान कई बार हमारी सभ्यतागत असंगति की ओर संकेत करते हैं.  मनुष्यता की हिंसा की मार झेलती प्रकृति के दुःख और उसके श्राप से इन कविताओं की देह कांपती रहती है जैसे कोई बिलखता बच्चा अपनी जबान में अपनी मार का बयान दर्ज कर रहा हो, जैसे कोई स्त्री अभी-अभी रो कर उठी हो और सुबक रही हो.
हिंदी में कविता का आस्वाद और उसकी आंतरिक लय का रचाव जिन कविओं में हैं उनमें कृष्णमोहन अग्रगण्य हैं.    

Nitin Mukul.fountain

नदी मतलब शोक-गीत
(प्रो. हेतुकर झा के लिए )

आखिर किस चीज से बनती है नदी?
वह पृथ्वी की आग से बनती है
या किसी नक्षत्र की मनोकामना से?
वह पैदा होती है ॠषियों के श्राप से अथवा मनुष्य के सपने से?
वह प्रार्थना से अंकुरित होती है या याचना से जन्म लेती है?
वह पीड़ा की सुपुत्री है या तृष्णा की समगोत्री ?
इस प्रसंग में मुझे नहीं है कुछ भी ज्ञात
मैं हूँ भइ एक अदना सा कवि
जीवन के बहुतों सत्य से अज्ञात…

मुझे तो सिर्फ़ इतना पता है
कि नदी का नाम लेते ही
मेरी आत्मा छटपटाने लगती है
चाँछ में फँसी एक अकेली मछली सी
सहसा मेरा ह्रदय पुरइन के पात में बदल जाता है
मेरी त्वचा चुनचुनाने लगती है
दुर्लभ हो चुके उस स्पर्श के लिए
मेरा यह थका हुआ शरीर अचानक  एक डोंगी बन जाता है
मेरी रीढ़
सुदूर समुद्र के निनाद से हो जाती है उन्मत्त
मेरी धमनी में उधियाने लगता है आदिम यात्रा का जल-संगीत
और हजारों बरस पहले
मैं देखता हूँ खुद को जल-आख्यान के एक सजल पात्र के रूप में सक्रिय…


2

नदी का मतलब नहीं होता
अपने लम्बे घने केसों को छितराये एक विकट जादूगरनी
नदी मतलब नहीं होता उज्जर सफेद रौशनी की एक विराट चादर
नदी मतलब नहीं होता गाछपात फूलपत्ती जंगल और पहाड़
नदी मतलब नहीं होता सृष्टि का कोई खास चमत्कार…

नदी का मतलब कतई नहीं होता
दुनिया की सबसे पहली और सबसे दुर्गम और सबसे उत्तेजक यात्रा
नदी मतलब नाव नदी मतलब प्यास नदी मतलब भोजन
नदी मतलब त्याग नदी मतलब उत्सर्ग नदी मतलब विसर्जन
नदी मतलब अविराम अविचल और अप्रतिहत जीवन नहीं होता अब…
अब नदी का मतलब होता है
नगरों-महानगरों का कचरा ढोनेवाला बहुत बड़ा नाला
अब नदी का मतलब होता है
स्याह बदबूदार लसलसाते पानी का मरियल प्रवाह
अब नदी का मतलब होता है
बुढ़ापे में तलाक मिले एक लाचार औरत की कराह…
नदी मतलब फिल्टर
नदी मतलब रंग-बिरंगे वॉटर-प्यूरिफायर और मिनरल वॉटर
नदी मतलब अरबों रुपए की सरकारी परियोजनाएँ
नदी मतलब सेमिनार नदी मतलब एन0जी0ओ0
नदी मतलब पुस्तिका नदी मतलब विमोचन
नदी मतलब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की लपलपाती जिह्वा
नदी मतलब वर्ल्ड-बैंक नदी मतलब फोर्ड फाउण्डेशन…


3

नदी बदलती रहती है अपना रूप
नदी बदलती रहती है अपना रंग
अपना नाम भी बदलती रहती है नदी…
ऊर्ध्वमुखी होकर जब वह
प्रवाहित होती है अंतरिक्ष की ओर
तब वह रूपांतरित हो जाती है सहस्रबाहु असंख्य गाछ में
और हरियर-कचोर जंगल बन जाता है एक अभूतपूर्व समुद्र
नदी कभी रौशनी का इतना बड़ा बीज बन जाती है
और आसमान के अनादि-अनंत नीलवर्णी जोते हुए खेत में
पैदा होती है बनकर सूर्य
कई बार तो स्त्री बन जाती है नदी-
वह कुछ कहती नहीं है
सिर्फ़ सहती है
चुपचाप बहती है…

4
जैसे अपने जीवन से आजिज
जैसे लगातार पीढ़े से मार खाई हुई
और करछी से जलाई हुई
जैसे निरंतर यातना की भट्टी में सींझती और खून-पसीने में भींजती स्त्री
आखिर एक दिन
धतूरे का दाना चबा लेती है माहुर खा लेती है
या नहीं तो बिजली की धार की तरह चमकते गड़ाँसे को लेकर
किसी की कलाई उड़ा देती है
किसी की गरदन गिरा देती है
समूचे घर को भुजिया-भुजिया बना देती है
और अन्ततः सारी चीज़ों को छोड़कर चली जाती है बहुत दूर
ठीक उसी तरह
देखो उधर वह-
आधुनिक सभ्यता से प्रताड़ित नदी
जो कभी माँ की तरह वत्सला और गाय की तरह दुग्धवती थी-
घर-दुआर को अपने विकट उदर में लेकर
दीवाल गिराकर
एक-एक घर में पानी की आग लगाकर
गली-गली में मृत्यु की खलबली मचा कर
अन्ततः तुम्हारे नगर को तजकर जा रही रही है दूर…

5
जिस तरह पेड़-पौधे नहीं जाते
कटने के बाद अकेले
जिस तरह वृक्षविहीन धरती से
हकासे-पिआसे पखेरू अकेले नहीं जाते
उसी तरह नदी भी नहीं जाती सब कुछ को छोड़कर अकेले…
एक कटा हुआ वृक्ष
अपनी रक्तहीन पीड़ा में थरथराते
अनगिनत दोपहरों की छाया
तथा असंख्य पक्षियों के डीह-डाबर और गीत-नाद लेकर
आरा मशीन के ब्लैकहोल में बिला जाता है…
गाछ-पात से वंचित पंछी
सिर्फ धरती-आकाश को अपनी वेदना से सिहराए
अपने अदृश्य आँसुओं से
सिर्फ अंतरिक्ष के अर्थ को अंतरिक्ष से छुपाए नहीं होते विदा
वे अपने साथ भोर-साँझ की संगीत-सभा
और हरियाली की अलौकिक प्रभा लेकर उड़ जाते हैं…

अकेले नदी भी नहीं जाती
वह अपने साथ
लोक-गीत का विशाल भंडार
और किस्से-कहानियों का विराट संदूक दबाए
अपनी काया में जीवन का रहस्य और पूर्वजों की प्रार्थनाएँ छुपाए
अपने गर्भ में
आदिम मनुष्य के धधकते छन्द
और अलिखित इतिहास का अदृश्य दस्तावेज लिए चली जाती है…

6
अब वह सभ्यता के लैपटॉप पर एक मनोरम दृश्य में बदल गई है
अब वह लिविंगरूम की दीवाल पर आकर्षक फ्रेम में बह रही  है…
फिल्मी परदे पर अब वह
बनकर छा गई है आसमानी रंग का एक तरल प्रवाह
रिकॉर्डित गीत-संगीत से निरंतर अब उसकी कलकल आवाज आ रही है…
अब यह जीवन हो गया है
ज़्यादा ठोस ज़्यादा चौकोर ज़्यादा व्यवस्थित
इतना व्यवस्थित कि डर लगता है उधर देखने से…
नपा प्रेम नपी घृणा नपा वात्सल्य नपी करुणा
नपी पीड़ा नपी कामना नपा संघर्ष नपी तृष्णा
नपा सुख नपा दुख नपी उपलब्धि नपी समृद्धि
नपी कला नपा साहित्य…
नपी-तुली
दुनिया के लोग
बरबस डूबे रहते हैं–
चाय-भुजिया-सीरियल में…
कोल्डड्रिंक-सॉफ्टड्रिंक-हार्डड्रिंक में…
टीवी-फ्रिज-वॉशिंगमशीन-माइक्रोवेव-होमथियेटर में…
बर्थडे-मैरेज़डे-मदर्सडे-फादर्सडे-चिल्ड्रेन्सडे-टीचर्सडे-हेल्थडे-ड्रायडे में…
लोन-फ्लैट-प्रॉपर्टी में…इन्श्योरेंस-म्यूचुअलफंड-शेयरमार्केट में…
और समझते हैं कि दुनिया पूर्ववत चल रही है
लेकिन पूर्ववत कैसे चल सकती है दुनिया!
पूर्ववत सिर्फ़ जन्म लेते हैं लोग
और पूर्ववत मरते हैं
जन्म और मृत्यु के बीच
पसरा रहता है एक अजेय असाध्य अपरिभाषित जीवन
उसे समझने की जितनी कोशिश करो
उतना ही वह अबूझ और असह्य होता जाता है…
दूरी को कम करने के किए जाते हैं जितने प्रयत्न
लोग एक दूसरे से उतना ही दूर होते जाते हैं
दुनिया में उतनी ही बढती जाती है अजनबी लोगों की संख्या
ईमानदार लोग उतने ही अकेले और विक्षिप्त होते जाते हैं
कृत्रिम उतना ही करता जाता है मौलिक को लज्जित
अभिव्यक्ति उतनी ही दुरूह होती जाती है…
और रूखी होती जाती है भाषा
और क्षणिक होता जाता है प्रेम
और नाटकीय होते जाते हैं सम्बंध
और हिंसक होती जाती है देह
अब लोग बोलते हैं तो उनके मुँह से झड़ता है भूसा
अब लोग रोते हैं तो उनकी आँखों से धूल उड़ती है…
मैथिली से अनुवाद: स्वयं कवि
Tags: कविताएँ
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