वक्तव्य
(गिरीश और संध्या के लिए)
वह जो जानता है अच्छी कविता क्या है अच्छा कवि नहीं है
और वह जो जानता है बुरी कविता क्या है बुरा कवि नहीं है
(एन्तोजिया पोर्चिया की कवितायें अशोक वाजपेयी के अनुवाद में पढ़कर उनकी शैली में एक कविता)
२.
पूरावक़्ती लेखक होने की हसरत है, जाने कब पूरी होगी.
लेकिन इस हसरत की हमज़ाद एक दहशत भी है , २४x७ लेखक होने के ख़याल भर की.
इधर ज़िंदगी लिखने के साथ-साथ संपादन, अनुवाद, प्रकाशन, आयोजन की वजह से ऐसी हो गई है कि ऐसे लोग कम हो गए हैं जिनका इस कारोबार से कोई लेना देना नहीं हो, जिनके लिए मेरा लेखक-वेखक होना सबसे पहले मजाक उड़ाने की चीज़ हो. मैं मेरा मज़ाक उड़ाने वाले उन दोस्तों रिश्तेदारों के ठहाकों की याद में कृष्ण बलदेव वैद के ज़िलावतन पात्रों की तरह दुखी हो कर तड़पता रहता हूँ.
३.
१७ की उम्र से कविता \’करने\’ के बाद अभी भी सबसे बड़ा संदेह तो यही है कि क्या मैं एक कवि हूँ? बहुत थोड़े-से दिन मैं कवि रहा हूँ – अपनी सम्पूर्णता में. ठीक से देखा जाये तो शायद आठ-दस महीने. मेरे लिए एक कवि, लेखक की आवाज़ में बोल पाना हर दो-चार महीने में मुश्किल हो जाता है.
जितना लिखा है उसमें उस मोज़ज़ा का इंतज़ार अभी भी उसी शिद्दत से है कि \”संग तुझ पे गिरे और ज़ख्म आये मुझे\”.
मुझे उस सारी लिखत से सच्ची ईर्ष्या और मुहब्बत है जो ऐसा कर पाती है…या जिसे यक़ीन है वह ऐसा कर रही है…
४.
यह पहचानने में थोड़ा वक़्त लगा कि जो कविता मेरे दिल के सबसे करीव है वह उर्दू शायरी है. वह मुझे रोने की जगह देती है, अपने पर हँसने के लिए उकसाती है और कविता क्या कर सकती है और क्या नहीं कर सकती इसका एकदम सटीक एहसास कराती है. मैं हर रोज़ थोड़ा और पिछली सदियों की उर्दू शायरी का बाशिंदा हो जा रहा हूँ. मेरा पता अब वही है; मुझे समकालीन हिन्दी में अपनी किराये की बरसाती अब खाली करना होगी.
५.
आहउम्मीद!
उम्मीद कभी कट की चाय की तरह इतनी अपने पास लगती है कि दिन में तीन चार बार आप सिर्फ ४ रुपये जेब में डालकर उसे हासिल कर सकते हैं और कभी सबसे ज़्यादा पेचीदा, सबसे ज़्यादा सम्मोहक, सबसे ज़्यादा धोखेबाज़ एक ख़याल एक झूठ की तरह हाथ से फिसलती रहती है. कविता में \’उम्मीद\’ शब्द मैंने कितनी बार लिखा होगा – दो? तीन? सच तो यह है मुझे ठीक से पता भी नहीं जबकि हर कविता को उम्मीद की एक सम्भावना या वहम में मुमकिन करने की खुशफ़हम कोशिश करता हूँ.
ओहउम्मीद!
६.
(मीर के लिए)
२०५० तक अगर मैं किसी तरह जी पाऊँ तो मुझे बहुत सारे बच्चे हिन्दी उर्दू पढ़ते हुए मिलें, उनमें कविता करने वाले भी कुछ हों और उनके चेहरे खिलखिलाते हुए हों – यह वाक्य लिखता हूँ उसी जानलेवा ख़तरनाक चीज़ उम्मीद से भरकर और सोचता हूँ मेरी ज़िंदगी में कविता की नयी उम्मीद महेश बाबू को अभी इस वक़्त भी फोन लगाया जा सकता है क्या?
रात के डेढ़ बज रहे हैं.
जाग रहे हैं मियाँ ?
७.
वे सब जिनकी उँगलियों के निशान मेरे लिखे पर मेरे चेहरे पर मेरी हर हरक़त पे हैं उनसे यही एक गुज़ारिश फिर से मेरे क़ातिल मेरे दिलदार मेरे पास रहो
कविताएँ : गिरिराज किराड़ू
photo : GBM Akash
मर्सिया
इनको कुछ पता नहीं चलता ऐसी जगह घर नहीं बनाते जहाँ बच्चे सुरक्षित न हों
एकदम नवजात एक बच्चे के शव को छूने-देखने के लिए तैयार होना क्या इतना आसान होता है कि अखबार के एक टुकड़े पर झाड़ू से उठाया और नीचे गली में फेंक दिया
सबसे छोटी उंगली जितना छोटा एक शव
इस दृश्य को तुम्हारी आँखों के आगे से इतनी तेजी से हटा लेना है कि उस छोटे से शव को कुतरती चींटियाँ भी अखबार के टुकड़े में लिपट जा गिरें नीचे गली में
इनको कुछ पता नहीं चलता क्या खा रही हैं
– अब आँगन में कोई शव नहीं –
नहीं चिड़िया के बच्चे का नाम रोहिताश्व नहीं होता नहीं अब मुझमें किसी बच्चे का शव देखने की हिम्मत नहीं होनी चाहिए नहीं मुझे ऐसी कुशलता से इतना क्रूर अंतिम संस्कार करना नहीं आना चाहिए नहीं मुझे तुमसे छुपानी चाहिए यह बात कि कितने बच्चों के शव मेरी याद में पैबस्त हैं
मैं तुमसे नज़रें बचा कर नीचे गली में देखता हूँ इस क्षण भी चिड़िया पर कविता लिखने वाले कवि मेरे पूर्वज हैं इस क्षण भी उनका अपमान मेरी विरासत है
मिट्टी में मिट्टी के रंग का शव अदृश्य है
इस क्षण तुम एक शव की माँ हो
मैं एक शव की माँ के सम्मुख नज़रें झुकाये खड़ा एक पक्षी
२.
सात दिन में दूसरी बार एक शव के सम्मुख
ठीक उसी घोंसले के नीचे
यह हथेली में समा जाये जितना शव है
उड़ना सीखते हुए शव हुआ एक बच्चा
दोस्त के हाथों फोन पर अपमानित होने की खरोंच और
अपने किए में सब गुनाह ढूँढने की आदत से बेज़ार
मुझे नहीं दिखा वह
न उसे खाने में तल्लीन चींटियाँ
फिर से एक क्रूर अंतिम संस्कार करना है
[ तुम्हारे होने से मेरे संसार में मनुष्यो के परे भी सृष्टि है
कवि होने से परे भी कोई अज़ाब है ]
जब केवल उजाड़ था हमारे बीच उन दिनों भी हमने
एक पक्षी होने की कोशिश की, शवों के अभिभावक होने की कोशिश की –
यह सोचते हुए तुम्हें जाते हुए देखता हूँ एक दूसरे संसार में
दरअसल एक बरबाद बस में
३.
दस दिन में तीसरी बार शव
– इस बार तुम नहीं हो एक बरबाद बस तुम्हें एक दूसरे संसार में ले जा चुकी है –
मैं अपने ढंग से क्रूर हूँ और कोमल
आधा कटा हुआ शव है बिना पंखों का आधी हथेली में समा जाये उतना
– चींटियाँ नहीं हैं –
मैं देर तक देखता हूँ
यह हत्या है शव कहता है
घर में भी बन गई है कोई क़त्लगाह
एकदम खुले में
आस्मान और ज़मीन के बीच कहीं
अख़बार से नहीं हाथ से उठाता हूँ
और सीढ़ियाँ उतर कर पीछे दफ़न करके आता हूँ
एक पल के लिए ख़याल हो आता है अपने एक दिन लाश हो जाने का
कहीं लिख कर रख दूँ मुझे जलाना मत
मैं मिट्टी के भीतर रहूँगा
इस बच्चे की तरह
पर्यटन
(अल्लाह जिलाई बाई के नाम, माफ़ी के साथ)
अब यह स्वांग ही करना होगा, अच्छे मेज़बान होने का
– अलंकारों के मारे और क्या कर पायेंगे –
तुम्हारे जीवन में एक वाक्य ढूँढ रहे हैं दीवाने
उद्धरण के लिए हत्या भी कर सकते हैं, इन्हें मीठी छाछ पिलाओ
बिस्तरा लगाओ
कोई धुन बजाओ
राम राम करके सुबह लाओ
ठीक से उठना सुबह खाट से
घर तक आ गई है खेत की बरबादी
ऊपर के कमरे में चल रहा
सतरह लड़कों दो लड़कियों का फोकटिया इस्कूल
अऊत मास्टर के अऊत चेले
अऊत क्लास में हर स्लेट पे
\” पधारो म्हारे देस \”
एक मशहूर किताब की पच्चीसवीं सालगिरह पर
अरसा हुआ कोई किताब पढ़े
अरसा हुआ कुछ लिखे
अरसा हुआ कुछ लिखे
अब समझ आया है
पूरे चालीस बरस लिखने के बाद
हर चीज़ को लिखे की नज़र से देखता रहा
हर लिखे के पीछे कई किताबें हैं जो दूसरों ने लिखी
अपनी आँख न होने का पता नहीं चला उम्र भर
अपनी आँख न होने का पता नहीं चला उम्र भर
खुशफ़हमी की इंतिहा एक यह भी
नहीं मालूम जो मशहूर किस्सा लिखा अन्याय का सचमुच कहीं हुआ था
उसके जैसे बहुत हुए साबित कर सकता हूँ
लेकिन ठीक वही हुआ था –
याद तक में साफ़ नहीं
हुआ तो सिर्फ लेखन हुआ मृतक बोलते रहे मेरी आवाज़ में
अब यकीन मुश्किल है अपने आवेग अपनी कामना से ही छूता था तुम्हें उन्नीसवीं शताब्दी के किसी उपन्यास के एक बेहया दिलफेंक की तरह नहीं
अब यकीन मुश्किल है अपने आवेग अपनी कामना से ही छूता था तुम्हें उन्नीसवीं शताब्दी के किसी उपन्यास के एक बेहया दिलफेंक की तरह नहीं
मरने को अपना मरना होने देने के लिए लिखना है
एक बार अपनी किताब में अपनी विधि मर सका तो फ़र्क़ नहीं पड़ेगा आप
कैसे मारेंगे उपेक्षा से गोली से या अपमान से
रमईयावस्तावईया
कहाँ रहते हो भाई कभी हमारी ख़बर भी ले लिया करो अब तुमसे कोई शिकायत नहीं रही
हमें आरी से चीर देने वाले दुख में महज एक उजली सूक्ति एक गूढ़-मूढ़ सत्य देखने की और उसे हमारे दुख के नहीं अपनी गूढ़-मूढ़ नज़र के सदके करने की तुम्हारी उस बेरहम अदा को भी अपनी याद में निर्मल कर लिया है
जितने की तुम किताबें खरीदते हो उतने का अन्न मयस्सर नहीं
क्या खा के लड़ेंगे तुमसे हम
आईने के अजायबघर में रहते रहते
जब सब गूढ़-मूढ़ छू मंतर हो जाये
अपनी याद आरी बन जाये
सीधे इस गली चले आना भाई
यहाँ बच्चों के शव एक नक्शा खींचते है
दिल के चारों ओर
वतन का
लगातार ख़ाक गिरती है बदन पर
हमारी कब्रें और रूहें तक महफ़ूज नहीं
आईनादारी का एक तमाशा इधर भी है
नींद का एक टुकड़ा इधर भी है
एक मुट्ठी सही अन्न इधर भी है
चुल्लू भर सही पानी इधर भी है
अपनी याद जब आरी बन जाये
सीधे इस गली चले आना भाई
खुशहाली का मैला सही
सपना इधर भी है
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