(ARTIST:ROBERTO SANTO Arco.Bronze)
जो कवि यह समझते हैं कि प्रेम कविताएँ लिखना प्रेम करने के बनिस्पत कम ज़ोखिम का काम है, वे भारी गलतफहमी के शिकार हैं. कुछ सोचकर ही राइनेर मारिया रिल्के ने युवा काप्पुस से यह कहा होगा कि ‘प्रेम कविताएँ मत लिखो.’ क्योंकि – ‘व्यक्तिगत विवरण जिनमें श्रेष्ठ और भव्य परम्पराएँ बहुलता से समाई हों, बहुत ऊँची और परिपक्व दर्जे की रचना-क्षमता मांगती हैं.’
दरअसल प्रेम कविताओं की यह जो ‘भव्य परम्परा’ हैं उनमें इतना लिखा गया है कि अक्सर हम जाने अनजाने उनकी नकल ही किया करते हैं.घिसे हुए प्रेम से अधिक यातनादायक घिसी हुई प्रेम कविताएँ होती हैं.रिल्के के ही शब्दों में कोई रचना तभी अच्छी बनती है जब वह अनिवार्यता में से उपजती है.
प्रमोद पाठक की इन प्रेम कविताओं पर यह सब मैं नहीं कह रहा हूँ. वे आश्चर्यजनक रूप से इस घिसेपन और एकरूपता से बचे हुए हैं. उनकी रचना-क्षमता परिपक्व है या कि उनके प्रेम ने उनकी कविताओं को परिपक्व बनाया है. ठीक–ठीक कुछ भी कहा नहीं जा सकता. पर कविताएँ जरुर फ्रेश हैं प्रेम पर लिखी होने के बावजूद.
प्रमोद पाठक की कविताएँ
ओक में पानी की इच्छा
उसकी इच्छाओं में मानसून था
और मेरी पीठ पर घास उगी थी
मेरी पीठ के ढलान में जो चश्मे हैं
उनमें उसी की छुअन का पानी चमक रहा है
इस उमस में पानी से
उसकी याद की सीलन भरी गंध उठ रही है
मेरे मन की उँगलियों ने इक ओक रची है
इस ओक में पानी की इच्छा है
मैं उस मिट्टी को चूमना चाहता हूँ
जिससे सौंधी गंध उठ रही है
और जिसने गढ़े हैं उसके होठों के किनारे.
चप्पलें
इन गुलाबी चप्पलों पर
ठीक जहाँ तुम्हारी एड़ी रखने में आती है
वहां उनका अक्स इस तरह बन गया है मेरी जान
कि अब चप्पल में चप्पल कम और तुम्हारी एड़ियाँ ज्यादा नज़र आती हैं
घिसकर तिरछे हुए सोल में
जीवन की चढ़ाई इस कदर उभर आई है
फिर भी तुम हो कि जाने कितनी बार
चढ़कर उतर आती हो
रात तनियों के मस्तूल से अपनी नावें बाँध सुस्ताती हैं चप्पलें
और दरवाजे के बाहर चुपचाप लेटी
थककर सोए तुम्हारे पैरों का पता देती हैं.
तुम्हारे लिए चाय बनाता हूँ
मेरे इन कंधों को
खूंटियों की तरह इस्तेमाल करो
स्पर्श, आलिंगन और चुंबन जैसी ताजा तरकारियों भरा
प्यार का थैला इन पर टाँग दो
अपनी देह की छतरी समेटो और गर्दन के सहारे यहाँ टाँग दो
मेरी गोद में सिर रख कर लेटो या पेट की मसनद लगाओ
आओ मेरी इस देह की बैठक में बैठो, कुछ सुस्ताओ
तुम्हारे लिए चाय बनाता हूँ.
एक स्त्री के समंदर में बदलने की कथा
कभी सुबह ने शाम से कहा था
हमारे बीच पूरा का पूरा दिन है
हमारा साथ सम्भव नहीं
वैसे ही उसने उससे कहा
हमारे बीच पूरी की पूरी दुनिया है
यह सुनते ही
वह भागा उससे दूर
दूर बहुत दूर
भागता रहा भागता रहा
और भागते भागते नदी में बदल गया
उसका भागना पानी के बहने में बदल गया
बहुत दिनों बाद किसी ने
एक स्त्री के समंदर में बदलने की कथा सुनाई
वह स्त्री एक पुरुष का नदी में बदलना सुनकर
समंदर में बदलने चली गई
और तब से नदियाँ समंदर की ओर बहने लगीं.
और मेरे पास सिर्फ शर्मिंदगी बची थी ऐसा मनुष्य हो जाने की
इस कड़ाके की ठंड में
जब प्यास को पानी से डर लगता है
अपनी बेटी के बनाए चित्र में मछली देख
मुझे पानी की याद आई
चित्र में पानी भरपूर था
मगर मेरी छुअन उस तक पहुंच नहीं पाती थी
मैं उसे छूने नदी तक गया
और कभी बाघिन की तरह छलांग मारती, उमड़ती नदी की आंखों में
उसे सूखते पाया
नदी की आंखों में एक उदासी भरी कथा थी
अपने शावकों सहित किसी बाघिन के लापता हो जाने की
उसके जंगल में मनुष्य के घुसपैठ की
मुझे नदी के कान से कुछ आवाजें आई
उसमें अनुगूंज थी शहर की इस तरफ बढ़ती आ रही पदचाप की
नदी की भी तैयारी थी अपने पानी के छौनों को साथ ले कहीं गुम हो जाने की
और मेरे पास सिर्फ शर्मिंदगी बची थी ऐसा मनुष्य हो जाने की.
मिट्टी से एक सुख गढ़ रहा होता
हम सीढ़ियों पर मधुमालती के उस फूल जितनी दूर बैठे थे
जो रात की तरह आहिस्ता से हमारे बीच झर रहा था
समुद्र दूर दूर तक कहीं नहीं था
फिर भी दुख के झाग अपने पूरे आवेग से तुम्हारे दिल के किनारे तक आ- आकर मुझे छू रहे थे
उन झागों के निशान मेरी देह पर उभरते आ रहे थे
यह दुख किसी मिट्टी से बना होता
तो मैं एक कुम्हार होता और तुम्हारे लिए मिट्टी से एक सुख गढ़ रहा होता
प्यार के द्रव्य को अपनी पीठ पर लादे एक घोंघा
मैं बिखर रहा हूँ कण कण
किसी बच्चे के हाथ से फर्श पर छिटक गए कंचों की तरह.
कितना मुश्किल और निरुपाय होता है इस तरह छिटके हुए को समेटना.
लगता है जैसे मैं नीम हूँ पतझड़ का और तुम्हारे साथ बिताए एक-एक पल की स्मृति झर रही है मेरी पत्तियाँ बनकर.
मुझे मालूम है कि तुम दूर-दूर तक कहीं नहीं हो फिर भी मक्का के भुट्टे के दानों की तरह उभरा है तुम्हारा होना मेरी देह, मेरी स्मृति और मेरे वज़ूद पर.
यह कैसी बेबसी है कि मैं अपनी कोशिशों के बावजूद विरत नहीं हो पाता तुमसे.
मेरी आने वाली प्यार की हर सम्भावना पर आषाढ़ के बादलों सी छा जाती हो तुम.
नहीं मालूम तुम्हें यह सब जान सुख मिलेगा या दुःख मगर यह सच है कि प्यार के इस द्रव्य को अपनी पीठ पर लादे एक घोंघा बना मैं अब गति कर रहा हूँ जीवन में.
किसी बच्चे के हाथ से फर्श पर छिटक गए कंचों की तरह.
कितना मुश्किल और निरुपाय होता है इस तरह छिटके हुए को समेटना.
लगता है जैसे मैं नीम हूँ पतझड़ का और तुम्हारे साथ बिताए एक-एक पल की स्मृति झर रही है मेरी पत्तियाँ बनकर.
मुझे मालूम है कि तुम दूर-दूर तक कहीं नहीं हो फिर भी मक्का के भुट्टे के दानों की तरह उभरा है तुम्हारा होना मेरी देह, मेरी स्मृति और मेरे वज़ूद पर.
यह कैसी बेबसी है कि मैं अपनी कोशिशों के बावजूद विरत नहीं हो पाता तुमसे.
मेरी आने वाली प्यार की हर सम्भावना पर आषाढ़ के बादलों सी छा जाती हो तुम.
नहीं मालूम तुम्हें यह सब जान सुख मिलेगा या दुःख मगर यह सच है कि प्यार के इस द्रव्य को अपनी पीठ पर लादे एक घोंघा बना मैं अब गति कर रहा हूँ जीवन में.
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प्रमोद जयपुर में रहते हैं. वे बच्चों के लिए भी लिखते हैं. उनकी लिखी बच्चों की कहानियों की कुछ किताबें बच्चों के लिए काम करने वाली गैर लाभकारी संस्था \’रूम टू रीड\’ द्वारा प्रकाशित हो चुकी हैं. उनकी कविताएँ चकमक, अहा जिन्दगी, प्रतिलिपी, डेली न्यूज आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं. वे बच्चों के साथ रचनात्मकता पर तथा शिक्षकों के साथ पैडागोजी पर कार्यशालाएँ करते हैं. वर्तमान में बतौर फ्री लांसर काम करते हैं.
सम्पर्क :
27 ए, एकता पथ, (सुरभि लोहा उद्योग के सामने),
श्रीजी नगर, दुर्गापुरा, जयपुर, 302018, /राजस्थान