• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » सहजि सहजि गुन रमैं :: राकेश श्रीमाल

सहजि सहजि गुन रमैं :: राकेश श्रीमाल

मुंबई में अपने चित्रकार मित्रों के साथ  राकेश श्रीमाल (left) बुखार के एकांत से राकेश श्रीमाल पिछले समूचे वर्ष मेरी तबियत एकाधिक बार असहज हुई. बुखार से नहीं, अन्‍य कारणों से. मैं बुखार को बडी शिद्दत से याद करता रहा. मुझे लगता रहा है कि व्‍यक्ति जैसे-जैसे उम्रदराज होता जाता है, वह अपने व्‍यक्ति होने […]

by arun dev
January 10, 2012
in Uncategorized
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें













मुंबई में अपने चित्रकार मित्रों के साथ  राकेश श्रीमाल (left)

बुखार के एकांत से

राकेश श्रीमाल

पिछले समूचे वर्ष मेरी तबियत एकाधिक बार असहज हुई. बुखार से नहीं, अन्‍य कारणों से. मैं बुखार को बडी शिद्दत से याद करता रहा. मुझे लगता रहा है कि व्‍यक्ति जैसे-जैसे उम्रदराज होता जाता है, वह अपने व्‍यक्ति होने के अदिम अकेलेपन को व्‍यापक रूप से बुखार के एकांत में अनुभव करने लगता है. इसी अनुभव को अपने तईं गहरे से आत्‍मसात करने के लिए मैं पिछले वर्ष बुखार का इंतजार करता रहा. लेकिन जिद्दी और लगभग नखरेला बन बुखार मेरे पास नहीं आया. लेकिन जब नया वर्ष शुरू हुआ तो किसी बहुत पुराने मित्र की तरह नए वर्ष की बधाई देने बुखार अचानक आकर मेरे गले लग गया. मैं क्‍या करता….. मैंने उसका स्‍वागत किया. कुछ दिन वह मेरे साथ ही रहा. बुखार मेरी देह में वास करते हुए मुझसे बेरोक-टोक बतियाता रहा. उसी बतकही को उसी दौरान बीच-बीच में मैंने कागज पर उतार लिया. कविता के अनभे सांचे में ढले ये शब्‍द मुझे बुखार जैसा ही प्रीतीकर लग रहे हैं.  
 इतना सा बुखार 

एक
 
‘‘पता है
यह कविताओं का बुखार है
लिख लीजीए
उतर जाएगा’’

पर यह नहीं बताया तुमने
कितने तापमान की
कैसी और कितनी कविताएं

इत्र बनाने वाले एक दूर गांव में
गोलियॉं मिलती हैं बुखार की
लाल
पीली
हरी
यकीनन नीली भी

नब्‍ज टटोलकर बताता है वैद्य
कितनी खुराक लेना है
सुबह
दोपहर
और सोने से पहले
तब नींद में तो
अकेला हो जाता होगा बुखार भी

अपने सपने में बुखार
दूर से तुम्‍हें छूता होगा
दूर से ही सिहर जाती होगी तुम

रातरानी की खुशबू
बात करती होगी
नींद में खोए अकेले बुखार से

तुम्‍हारे लगाए सारे फूल
एकजुट हो जलते होंगे रातरानी से

अपने संगी साथियों से बेखबर
अपनी ही लय में रातरानी
घुलती रहती होगी बुखार में

कौन समझाए बूढ़े वैद्य को
अब कैसे जाएगा बुखार
देर रात तक बतकही करता रहता है
वह रातरानी से

अपनी सुध-बुध खो
रातरानी भी
सो जाती है बुखार की देह में
कभी ना उठने की इच्‍छा लिए

व्‍यर्थ हैं सारी दवाईयां
निरर्थक हैं कविताएं भी
अकेली देह के बुखार में
बस गया है जीवन का अनंत निराकार
एक दूसरे की फिक्र करते हुए
एक दूसरे का हाथ थामे हुए
कभी विलग ना होने की चाह लिए.

दो

किसी का नहीं होता बुखार
हमेशा हमेशा के लिए
जैसे पूर्णिमा
टिटहरी का बोलना
पानी की अपनी लयकारी

जब भी आता है वह
चला जाता है
प्रेम करके थोड़ा सा

थपथपाता है देह को
घूम लेता है पूरे शरीर में
अपने निकट ले आता है
अपने से ही

अपने संकोच में
गुम भी होता रहता है
बीच-बीच में

याद दिला देता है
मां के सिरहाने लेटने की
पिता के फिक्र की
मित्रों की मिजाज पूर्सी की

चला जाता है फिर 
बिना बताए
खाली हाथ लिए.

तीन

‘‘मुझे भी बुखार हो गया’’ 
तुमने जब बताया
मैंने यही सोचा
यह मिलीभगत है
वे रहना चाहते हैं साथ
मैंने कहा –  रहने दो

अंतत:
बुखार का भी होता होगा मन
दूर-दूर रहते हुए
साथ-साथ होने का.

चार

बुखार में रहते हुए
देखी तुमने बारिश
यहाँ भीग गया मेरा बुखार

कहने लगा मुझसे
‘‘बुखार में बारिश देखोगे’’ 
मैंने कहा- बारिश देख रही हैं जो आँखें
मुझे उन आँखों को देखने दो.

पांच

बुखार आता है
मूंग दाल की खिचडी के साथ
थोडा स्‍वाद लेने हरी मिर्ची का

शयन करता है चुपचाप
हमारी अपनी नींद के साथ

हमारे सपने से अलग
देखता है अपना अलग सपना भी
जान जाता है
कैसा होगा
आने वाला कल हमारा

चुहलबाजी करता रहता है
हमारी अपनी इच्‍छाओं से

हिम्‍मत भी बंधाता है
यह कहते हुए
 ‘‘सचमुच कोई प्रेम करता है हमें’’

छह

पसीने से निकलती रहती है शरीर की गंध
कपड़े भी नम हो जाते हैं
वैसे ही
जैसे लगातार चंद्रमा देखने पर
नम हो जाती हैं तुम्‍हारी आँखें

तब थोड़ी देर के लिए
तुम चंद्रमा से आँखों का बुखार लिए
चंद्रमा से प्रेम करने लगती हो

इतनी दूर अपने बुखार में लेटा हुआ
मैं चंद्रमा से कहता हूं
‘‘तुम्‍हारे पास ही रहा करे’’

सात

जाते-जाते
यह कभी नहीं बताता बुखार
कब आएगा वह वापस

दूर खड़े रहकर
अपनी मुस्‍कराहट में
यही सोचता है केवल
‘‘मैं तो तुम्‍हारा प्रेम तुम्‍हें देने आया था
हो सके तो, संभालकर रखना इसे’’ 


राकेश श्रीमाल की कुछ कविताएँ यहाँ भी हैं.
ShareTweetSend
Previous Post

सहजि सहजि गुन रमैं : निर्मला पुतुल

Next Post

कथा- गाथा :: सईद अय्यूब

Related Posts

यात्रा में लैंपपोस्ट : क्रान्ति बोध
समीक्षा

यात्रा में लैंपपोस्ट : क्रान्ति बोध

साहित्य का नैतिक दिशा सूचक: त्रिभुवन
आलेख

साहित्य का नैतिक दिशा सूचक: त्रिभुवन

पहला एहतलाम : वसीम अहमद अलीमी
अनुवाद

पहला एहतलाम : वसीम अहमद अलीमी

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक