• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » सहजि सहजि गुन रमैं : शंकरानंद

सहजि सहजि गुन रमैं : शंकरानंद

(Photo by Portia Hensley : Two homeless boys in Kathmandu)  शंकरानंद के दो कविता संग्रह ‘दूसरे दिन के लिए’ और ‘पदचाप के साथ’ प्रकाशित हैं.  बेघर लोगों पर आकर में छोटी ये आठ कविताएँ सहजता से मार्मिक हैं, कम शब्दों में, शब्दों पर बिना वजन डाले वह अर्थात तक सीधे पहुँचती हैं. शंकरानंद की कविताएं […]

by arun dev
August 2, 2016
in Uncategorized
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

(Photo by Portia Hensley : Two homeless boys in Kathmandu) 


शंकरानंद के दो कविता संग्रह ‘दूसरे दिन के लिए’ और ‘पदचाप के साथ’ प्रकाशित हैं.  बेघर लोगों पर आकर में छोटी ये आठ कविताएँ सहजता से मार्मिक हैं, कम शब्दों में, शब्दों पर बिना वजन डाले वह अर्थात तक सीधे पहुँचती हैं.



शंकरानंद की कविताएं                               

ll बेघर लोगों के बारे में कुछ कविताएं ll 



एक

वे बेघर लोग हैं
उनकी सुबह उन्हें धोखा देती है
उनकी रात उन्हें जीने नहीं देती
उनकी नींद उन्हें काटती है
उन्हें कोई नहीं रखता अपने घर में
उनका कोई सहारा नहीं इस विशाल पृथ्वी पर
इसलिए कि वे बेघर हैं.

दो

उनकी इच्छा है कि घर हो अपना सुंदर सा
जहां रोज धूप आती हो और
रोज चमकती हो चांदनी
वे अपने हिस्से का अन्न सिझाना चाहते हैं
ऐसे चूल्हे की आग में जो
रोज एक ही जगह हो
लेकिन ऐसा होता नहीं
उनके चूल्हे टूटते हैं बार-बार.

तीन

वे जहां बसते हैं
नहीं सोचते कि इस बार फिर बेघर होंगे 
बड़ी मुश्किल से बसते हैं वे इस तरह उजड़ उजड़ कर
जी तोड़ मेहनत से बनाते है वीराने को रहने लायक
उनकी थकान भी नहीं मिटती कि
फिर उजाड़ दिये जाते हैं वे.

चार

यह धरती सब की है लेकिन उनकी नहीं
उनके हिस्से की ईंट कहीं नहीं पकती
उनके हिस्से का लोहा कहीं नहीं गलता
तभी तो वे बेघर हैं
                  
बारिश में भींगते हैं वे
रोते हैं तो आंसू पानी के साथ बहता है
उनके हिस्से की हवा भी भटकती है.

पांच

सूरज उनके लिए कुछ नहीं कर सकता
वह तो धूप ही दे सकता है
चांद उनके लिए कुछ नहीं कर सकता
वह तो चांदनी ही दे सकता है
हवा उनके लिए लड़ नहीं सकती
पानी उनके लिए हथियार नहीं उठा सकता.

छः

जब भी गोली चलेगी
वे बच नहीं पाएंगे
जब भी बम गिरेगा
उड़ेंगे उनके चिथड़े
कभी उन्हें छिपने की जगह नहीं मिलेगी
कोई उन्हें अपने घर नहीं बुलाएगा
आंधी में वे पत्तों की तरह उड़ा करते हैं.

सात               

वे शायद सपने नहीं देख पाते
जरा सी आंख लगती है कि
आने लगते हैं बुरे ख्याल और डर जाते हैं
वे दुःस्वप्न ही देखते हैं अधिक
वह भी खुली आंख से.

आठ

उनके पास कुछ नहीं रहता
जो भी पसीना बहा कर जमा करते हैं
वह या तो सड़-गल जाता है
या लूट कर ले जाते हैं लुटेरे
वे कुछ नहीं बचा पाते तब
अपनी जान के सिवा!
हजारों साल से यही हो रहा है.
__________________________________________________


शंकरानंद (8 अक्टूबर 1983) 
पहला कविता संग्रह ‘दूसरे दिन के लिए‘ भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता से’प्रथम कृति प्रकाशन माला’ के अंतर्गत चयनित एवं प्रकाशित.
दूसरा कविता संग्रह ‘पदचाप के साथ‘ हाल ही में बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित.
कुछ कहानियाँ भी प्रकाशित. 
सम्प्रति- अध्यापन एवं स्वतंत्र लेखन.
सम्पर्क- क्रांति भवन,कृष्णा नगर,खगड़िया-851204/मो.08986933049
ShareTweetSend
Previous Post

परिप्रेक्ष्य : समय जैसा है, उसे ही लिखा जाए : अरुण माहेश्वरी

Next Post

परख : एक और ब्रह्मांड : अरुण माहेश्वरी

Related Posts

कुछ युवा नाट्य निर्देशक: के. मंजरी श्रीवास्तव
नाटक

कुछ युवा नाट्य निर्देशक: के. मंजरी श्रीवास्तव

पच्छूँ का घर: प्रणव प्रियदर्शी
समीक्षा

पच्छूँ का घर: प्रणव प्रियदर्शी

पानी जैसा देस:  शिव किशोर तिवारी
समीक्षा

पानी जैसा देस: शिव किशोर तिवारी

अपनी टिप्पणी दर्ज करें Cancel reply

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2022 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक