कृति : salvador dali |
हिंदी कविता के जनपद में शिरीष कुमार मौर्य का ठौर- ठिकाना जाना पहचाना है. कम समय में ही उन्होंने अपनी कविताओं का स्थाई पता सुनिश्चित कर लिया है. वह हिंदी के उन कवियों में से हैं जिनके पास अपना स्व निर्मित पर्यावरण है. शिरीष की कुछ लम्बी कविताएँ मकबूल हुई हैं उनमें कथा रस का पुनर्वास है. वह अपने पास के धूसर और मटमैले दृश्य से अपने लिए काव्यत्व तलाशते हैं. उन्हें धैर्य से सिरजते हैं और एक नैतिक हस्तक्षेप में बदल देते हैं.पुराना बक्सा जहां उपभोक्तावादी प्रदूषण के खिलाफ खड़ा हो जाता है वही उज्जैन में दिखा ठेले पर फोन शहरीकरण के अपने विद्रूप के साथ आता है. एक कविता जन कवि गिर्दा पर है.शिरीष की कविताओं की गहरी मानवीय उपस्थिति और संतुलन ने उन्हें विशिष्ट और प्रिय बनाया है. उनकी पांच कविताएँ प्रस्तुत हैं.
शिरीष की कविताएँ
उसे देखते हुए देखा
उसे देखते हुए देखा
कि वह जितनी सुन्दर है उतनी दिखती नहीं है
उसे देखते हुए देखा
कि उम्र दरअसल धोखा है
चेहरे का हाथों से अधिक सांवला होना भी
एक सरल द्विघातीय समीकरण है
देह का
उसे देखते हुए देखा
कि बोलना भी दृश्य है और उस दृश्य के कुछ परिदृश्य भी हैं
उसे देखते हुए देखा
कि मेज़ पर भरपूर फड़फड़ा रही किताब ही किताब नहीं है
भारी गद्दे के नीचे सिरहाने छुपाई गई डायरी भी किताब है
उसे देखते हुए देखा
कि जो प्रकाशित है वह अंधेरा भी हो सकता है
और जो अंधेरा है उसके भीतर हो सकता है
आलोक
लपकती हुई लौ सरीखा
उसे देखते हुए देखा
कि वह बहुत दूर बैठी है विगत और आगत में कहीं
बहुत सारे लोग हैं संगत में
मैं नहीं
उसे देखते हुए देखा
कि बीमार का हाल अच्छा है
अब भी
उसके देखे से आ जाती है मुंह पर रौनक
ढाढ़स बंधाता
बल्लीमारां के महल्ले से कहता है कोई
ये साल अच्छा है.
पुराना बक्सा
पुराने काले वार्निश से रंगा
कभी अचानक दिख जाता कम आवाजाही वाले कमरे के कोने में धरा
कभी अतीत के अंधेरे में लोप हो जाता
इसके पुरानेपन में आख़िर कितना पुरानापन है
पचास-पचपन- साठ साल हो शायद इस पुरानेपन की उम्र
यह मुझसे तो बहुत पुराना है पर पिता से थोड़ा कम पुराना
पुरानेपन को समझ पाने के कोई सीधे नियम नहीं है मेरे बेटे के वक़्त में अब इसका
घरों में आना ही बंद हो चुका है
किसी फ़ौजी ने बेचा था इसे रिटायरमेंट के तुरत बाद
वह शायद मुक्ति चाहता था
पिता ने ख़रीदा ज़रूरत थी उन्हें सीलन में ख़राब हो रही किताबों को
सहजने के वास्ते
अब तक उस फ़ौजी का पहचान नम्बर लिखा है इस पर
मुक्ति न उसकी हो सकी न इसकी
जिस बक्से में कभी वर्दी और शायद बारूद रखी गई
उसमें किताबों को जगह मिली
तेरह बरस पहले मैं नौकरी पर चला तो मेरे साथ आया मैंने भी कुछ ज़रूरी किताबें रखीं
कुछ पुराने कपड़े -कुछ मोटी चादरें-कम्बल
कुछ छोटे बरतन भी
सफ़र में इसने तंग किया
कुली नाख़ुश था ….उसे अब नए तरह के लगेज मटेरियल को
पहियों पर घसीट कर ले जाने की आदत हो चली थी और इसे सर पे ढोना पड़ता था
पुलिस के सिपाही ग़ौर कर रहे थे उस पर डंडे से बजाते उसे
मैं उन्हें अपना आई.डी. कार्ड दिखाता रहा
वह सीट के नीचे नहीं आया तो हमसफ़र भुनभुनाये – वी.आई.पी. नहीं ख़रीद सकते क्या
लम्बा सफ़र किया इसने नए घर तक आया
कुछ दिन बैठक में रहा मेज़ की तरह
फिर पैसा आया तो अन्दर गया सोने के कमरे में बिस्तर रखने के वास्ते
फिर और अन्दर …इसके भीतर आई चीज़ों ने घर में अपनी दूसरी जगहें भरपूर सम्भाल लीं
यह ख़ाली ही था बेकार
सोचा अब कबाड़ में बेच दें इसे
इस बाज़ारकाल में कुछ भी बेच देने के बारे में सोचना सरल है
तब उस चीज़ ने बचाया इसे जिसे अब हम अतीत कहते हैं द्वन्द्व कहते हैं इतिहास कहते है
हम जानते नहीं थे पर बक्से की अपनी भी एक पालिटिक्स थी
यह समूचा था और इस समूचेपन को कबाड़ी ख़रीदते ही तोड़ना चाहता था
वह एक तीसरे यथार्थ में देखता था इसे
धातु के टुकड़ों की तरह बिकता हुआ
जैसे पाठ और अर्थ जिन्हें ढोने में भी सहूलियत
जबकि यह महज यथार्थ था संभवत: शीतयुद्ध के ज़माने का
विखंडन हम भी नहीं चाहते थे
इसे रहने दिया
फिर पुरानी किताबें भरी इसमें कुछ किताबों में तो वाकई पुराने वक़्तों का बारूद था
गृहस्थन ने किताबों के ऊपर बाक़ी बची जगह पर बढ़ते हुए बेटे के छोटे पड़ते कपड़े रखने शुरू कर दिए
इस तरह पुराने बक्से में अब नई स्मृतियां हैं
मैं भी इधर ज़्यादा ध्यान देने लगा हूं उस पर
खोलता हूं कभी कभार
कुछ किताबों को देखने
और कुछ बेटे की बढ़ती उम्र के निशान उसके छोटे पड़ गए कपड़ों में तलाशने के वास्ते
इस बिखरते समय में बहुत उदास होने पर कभी वो मुझे किसी पुराने आख्यान की तरह लगता है
जो महज सामान को नहीं मेरी गुज़रती उम्र को भी ढंकता है
नींद से बाहर
(कागज़ के कवि का जनता के कवि गिर्दा को एक सहमा-सा सलाम)
इस रात
असंख्य है दुख यहाँ
एक अछोर शरण्य है जीवन
हलचलों से भरा
ऊपर-ऊपर रोशन
लेकिन
नीचे
गहरे अंधेरे में
जड़ों से
धँसा
::
तारों में टिमकता
यह जो दीखता है वैभव
झूटा है
::
बहुत धीर गम्भीर मंद्र स्वरों में फूटती है
नींद
उतरती हुई
किसी पैराशूट की तरह
दुस्वप्नों के
सबसे ऊँचे पठारों पर
::
वहाँ
कच्चे रास्तों का एक स्वप्न है
और कुछ
अधूरी कविताओं का भी
एक काँपती हुई उम्मीद
जोश
सिर उठाता हुआ
सहमती आती एक खुशी
एक डर
महफूज़ होने के हमारे बन्दोबस्त को
आज़माता हुआ
बीड़ी सुलगाता-बुझाता
नज़र आता
एक कवि
पहाडों के पीछे
हड़ीली कनपटियों वाला
किसी दूसरे भूगोल में राह के किनारे
लटकते बयाओं के घोसले
बियाबान में भी जीवन को
आकार देते-से
खंडहरों में छुपे हुए
घुग्घू भी
मकड़ी के चिपकदार जालों के पीछे से
घूरते
पत्थरों के नीचे
बिच्छू
थरथराते डंक वाले
तालाबों और झीलों का रुका-थमा
सड़ता हुआ पानी
रात की काली परछाई-सा
इतनी सारी अनर्गल बातों का
इस रात एक साथ याद आने का
कोई मतलब है भला
::
रात हुई
अब रात
बहुत बड़े सिर और
बहुत बड़े आकार वाली रात
उसका जबड़ा भी बड़ा
बड़े दाँत
होंठ लटके हुए उसके
और उनसे भी
टपकता
रक्त
स्वप्न में हुए एक क़त्ल का
घुटे गले से आती हुई
एक चीख़
भोर में निकलती
एक शवयात्रा
नींद से बाहर सुनाई देता एक विलाप
प्रेमगीत-सा !
ठेले पर फोन और उज्जैन की याद
बी.एस.एन.एल. के
कुछेक बेहद वादाखिलाफ़ विज्ञापनों से सजा
जिसे मैं आइसक्रीम का ठेला समझा था
वह दरअसल एक तारविहीन घुमन्तू टेलीफोन बूथ निकला
उज्जैन के शिथिल कार्यकलापों वाले उस
छोटे-से प्लेटफार्म पर
हाँ !
यह भी उज्जैन के उन रहस्यों में से एक था
जिनमें से कुछ को अपने सामने मैंने
अचानक खुलते पाया था
कल ही दोपहर नंगे पाँव लगभग भागते जाते थे एक दिगम्बर जैन मुनि
विक्रम विश्वविद्यालय की तरफ
साथ में बेहद तेज़ कदम सुमुखी सुखानुमोदित भक्तिनों की एक टोली भी
मुनि की दैहिक प्रच्छन्नता से बेपरवाह
शाम की न्यूज़ में दिखाया गया
कि वे जाते थे
दरअसल हिन्दी में पी.एच-डी. के पंजीकरण साक्षात्कार हेतु शोध समिति के समक्ष
कुलपति सहित जिसके सब वीर-महावीर हतप्रभ-से खडे होकर
प्रणाम करते थे उन्हें
समाचार में उनके शोध का विषय ‘जैन दर्शन और उसका आर्थिक पक्ष या प्रभाव’ जैसा कुछ
बताया गया था
अपने इकलौते पिछले सफरनामे से
उज्जैन को मैं थोड़ा ही जानता था
और महाकाल को तो बिलकुल भी नही
शहर की परिधि पर बना भैरव मन्दिर अलबत्ता मुझे बहुत भाया था
कच्चे माँस और शराब की बदबू से घिरा
एक इलाक़ा
किसी आदिम समय और समाज का
सीढि़यों पर विराजे साहस कर आती औरतों को जाहिर लोलुपता से निहारते
अवधूत
राख में लिथड़े
बुझे हुए अग्निकुंडों में लोटते श्वान बेहद चमकीले दाँतो वाले
प्रतिहिंसा ही जिनका स्वभाव
बोटियों पर झगड़ते देखना उन्हें इस तरह
गोया
उसमें कोई भी रहस्य था
भैरव मंदिर से पहले एक जेल
छब्बीस जनवरी की तैयारियों में व्यस्त क़ैदी
जिनमें कुछ ख़ूनी-बलात्कारी
और ताज़ीराते हिंद की दफ़ाओं में पिसे बेज़ुबान निरपराध भी कई
देवताले जी ने दिखाया मुझे उज्जैन का देहात
झाड़-झंखाड़ और धूल भरे कच्चे रास्ते
अब भी
अब भी बैलगाडि़यों की लीक उन पर
एक खंडहर किसी पुरानी राजसी इमारत का मकडि़यों के जालों से अटा
उसके सामने एक पुराना परित्यक्त कुँआ और उसमें सामंती अँधेरे-सा जमा हुआ
रुका हुआ
थमा हुआ काला जल सडाँध से भरा
बार-बार दुहराता हँ दुहराता रहूँगा इस बात को उस अनोखे हडि़यल कवि की याद की तरह
– झाडि़यों से लटके बयाओं के घोसले
मेहनत और बारीक कारीगर कुशलता बुने
फि़लहाल ख़ाली और वीरान
किसी भी तरह की हरक़त और हरारत से रहित
और जब साथ चल रहे कवि ने भी मुक्तिबोध का लैंडस्केप कहा उसे
तो कौंध गईं मेरे आगे वे जलती-सुलगती कविताएँ
धुंए से भरी मेरी स्वप्नशील किंतु बोझिल आँखों में चमकती-फिंकती जिनकी ग़र्द-चिनगियाँ
रह-रहकर
सँस्कृति करने वाली एक संस्था भी मिली वहाँ – ‘कालिदास अकादमी’
जहाँ लगा हुआ था लोक कला मेला
उस देश और काल में
मुझे प्रेमा फत्या मिले
मध्य प्रदेश शिखर सम्मान से सम्मानित
ये बात दीगर है कि चुरा लिया गया वह उनके झोपड़े से कुछ ही दिन बाद
शायद बेच भी दिया गया हो तुरन्त
कबाड़ में
यों उन प्रेमा फत्या की 5 फुट से कुछ छोटी
उस काठी में भी कोई रहस्य था
जो बहुत ध्यान से
उनके बनाए चटख रंग भरे चित्रों को
देखने पर खुलता था
अचानक समूची सृष्टि में विस्फोटित होता हुआ-सा
उतनी ही रहस्यमयी लगती थी आबनूसी रंगत वाली लाडोबाई
एक और पुरस्कृत आदिवासी चित्रकार
बतलाती
कि दरअसल वह उतनी अनाड़ी नहीं
माँग लिया है उसने तो एक कमरा भोपाल के लोक संस्कृति भवन में ही
रहने को
अब वो बस्तर नहीं जाती
रात ग्यारह बजे बाद के शहर की नीरवता में घूमते किसी बहुत अपने के साथ
अचानक फूटता दिखाई दे जाता था
उजाला
दिनों दिन अँधियारे होते जाते जीवन के बीच का
अड़सठ पार की दादी जी की अत्यन्त जीवन्त हथेलियों जैसी संसार की कोमलतम चीज़ों के
लिए भी थोड़ी-सी संरक्षित जगह थी वहाँ
और कठोरतम फैसलों का इकतरफा फरमान भी
मेरे लिए वहाँ दुःख भी अपार था
और आराम भी
मंथर गति से चलती रेलगाड़ी में
बढ़ते भोपाल की जानिब
ठेले पर घूमते उस फोन की तरह ही रह-रह कर चैंकाती आ रही थी
धड़कनों से भी तेज़ और साँसों-सी तनी हुई
एक और याद
जिसका जि़क्र किसी दूसरी कविता में आना
तय रहा !
(दिवंगता श्रीमती कमल देवताले, जो इस कविता के लिखे जाने के समय जीवित थीं)
एक ‘अ’शोक प्रस्ताव
(ग्वालियर वाले अशोक कुमार पांडेय की ख़िदमत में…)
हिंसा के नए और नायाब रूप सामने हैं
मर रही मित्रताएं घुटने टेकतीं अनाचारियों के आगे
खा रहीं लात पिछवाड़े
उमस और गर्मी से भरे रिश्तों के वर्षावन में
चींटियों की भूखी क़तार
जाती हुई हमारे दिमाग़ों के पार
कुछ दर्द-सा होता शरीर में कहीं तो लगता सब अंग अब नासूर हो जाएंगे
धमनियों में रुकने लगता प्रवाह
बिला जाते समर्पण और प्रतिबद्धता
जबकि इतनी भर ज़िद मेरी कि न्यूनतम मनुष्यता तो होनी ही चाहिए
हम बहुत साथ रहे आंखों में निचाट सूनेपन के बावजूद
दिल तो भरे थे शायद भरे हों अब भी
लड़ाई अकेले की हो ही नहीं सकती इन सूरतों के साथ अन्तत: जाना है हमें वहीं
अपने लुटते-पिटते अनगिन जनों के बीच
यक़ीन जानो इस टुकड़ा-टुकड़ा होती हिंदी के ग़मगुसारो
कभी न कभी
इक आह सी उट्ठेगी ज़माने भर से
तब नज़र आएंगे हम बहुत छोटे अपने ही बनाए क़द से.
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शिरीष कुमार मौर्य
१३ दिसंबर १९७३
पहला क़दम (कविता पुस्तिका – १९९५ कथ्यरूप), शब्दों के झुरमुट (कविता संग्रह – २००४),
पृथ्वी पर एक जगह (कविता संग्रह – २००९)
धरती जानती है (येहूदा आमीखाई की कविताओं के अनुवाद का संग्रह अशोक पांडे के साथ– २००६)
कू सेंग की कविताएँ (२००८ पुनश्च पत्रिका द्वारा कविता पुस्तिका )
धनुष पर चिड़िया (चंद्रकांत देवताले की स्त्री विषयक कविताओं का संचयन २०१०)
लिखत पढ़त (वैचारिक गद्य – २०१२)
शानी का संसार – आलोचना, जैसे कोई सुनता हो मुझे – कविता संग्रह (शीघ्र प्रकाश्य)
सम्मान
२००४ में प्रथम अंकुर मिश्र कविता पुरस्कार
२००९ में लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई सम्मान
२०११ में वागीश्वरी सम्मान
गोरखपुर से प्रस्थान पत्रिका द्वारा विशेष अंक २००८ में
कुमाऊं विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हिंदी.
पता : 7-बी : वरनॉन काटेज कम्पाउंड, लांग व्यू, नैनीताल -263002.
shirish.mourya@gmail.com