( 1956-2018) |
समीर वरण नंदी से शायद यह आपकी पहली मुलाकात हो. समीर की कविताओं में हिंदी का काव्य- मुहावरा बांग्ला की संवेदना से मिलकर दीप्त हो उठा है. काल-बोध से बिद्ध पर उससे परे जाने की एक कोशिश यहाँ साफ दिखती है. जहां तस्लीमा और नजरुल आते हैं वही कालातीत प्रकृति का सूरज वलय भी चमकता है. परिचित काव्य संवेदना से अलग इन कविताओं में ‘नव जलद’ दिखा अर्से बाद.
समीर वरण नंदी की कविताएँ
बांग्ला देश मुक्ति युद्ध पर दिल्ली मे फिल्म? ओर तसलीमा
जलावतन, अकेली दर बदर जी रही हो !
हिम्मत नहीं होती तुमसे पूछूं कैसी हो तुम.
खूंखार लोकप्रियता पानी थी तुम्हें
जो दो दो धर्मो के जबड़े मे आ गई तुम ?
पर तुम यहाँ क्यों आ गई
सब विधि – विधान, धर्म देश, ओर भाषा मे उठ गया बवंडर
(मातृभूमि ने तो सर कलम दे ही दिया था )
भूखे शेर ने भी चला दिया तुम पर चप्पल.
(हिन्दी मे भावुकता का निषेध है )
पर तुम न्याय किससे मांग रही हो
कविता की कसम, जब सभ्यता आएगी
दक्षिण एशिया वाले बहुत रोवेगे.
हम उस परिभाषा मे आ गए है–
जब राजा नही रह जाता हे – तो न्याय भी नही रह जाता है.
सभ्यता के लॉकर मे जब वोट रखे जाने है
तो खरे सोने के लिए जगह कहाँ बचती है ?
कोलकाता को भी क्यो याद करती है तू
वहाँ भी सबने कहा – तुम कितनी सुंदर हो ?
फिर वे बोले -बाबा रे बाबा तुमि सांघातिक !
बड़े बड़े महारथी, धीर – गंभीर
पैंट वाले -कुर्ता वाले अंग्रेजी वाले, हिन्दी वाले
जिन्हे कुछ नहीं सूझता
उन्हे भी सूंघ गया तुम्हारे नाम का सांप.
दक्षिण एशिया मे सरकारों का इरादा है
सांप्रदायिकता की समस्या को चमकाना है ओर कमाना है
ओर उनके बीच आ गई तुम ………..
मैं एक फ़िका हुआ फेन का टुकड़ा
साथियों मे अखबारो मे बहसों मे कंडक्टर तक
भीष्म के स्वर मे बोला था – इसका कुछ करो
समय इतना कायर कभी नहीं रहा –
गांधीजी होते तो तुम्हारे साथ क्या बर्ताव करते
आज मंत्रणा वाले क्या कहते है
कहीं कोई हलचल नहीं सभी जैसे भाग गए है
जैसे दुर्योधन की सभा मे द्रोंपदी आ गई हो .
हाँ माँ जननी
जो हिलसा खाते है
उनका किस्सा तो यही है
वे नहीं डूबते – उनका घर डूब जाता है
वहाँ का पानी ही सबसे अधिक तपता है
इस लिए तुम्हारी करुणा दमकती है .
तुम्हारी कविता \’डाल्फिन\’ मैंने पढ़ी –
जिसमे तुम योरोप की नदियों से होकर
सागरों को पार कर अपनी माँ से मछ्ली की तरह
ढाका मिलने आती हो
मुझे पता था तुम बंगालन, मछलियो की सहेली रही होगी
संग खेली होगी बतियाई होगी दुलारी होगी
तुम्हारे मन ने भी मछलियों की तरह जीना सीख लिया होगा
इसलिए उनके साथ ही किसी जल के भीतर
किसी डंठल के साये मे वोटखोरन की बस्ती से दूर
छाँव खोज लो तुम.
या—
सागर मे मोती वापस नहीं जा पाता
वो सजता है दुनिया के गले मे.
नजरुल स्मृति
तीस वर्षो तक गूंजती रही – अग्निवीणा
न तुम गा पाये
गाया और सुना केवल पक्षघात ने
अग्निवीणा बजाते रहे तुम
प्रिय मौतें धीरे धीरे
बैठ दी तुममे पक्षाघात
अचानक तुम चुप हो गये
सब नहीं, विद्रोही बनते लोग
आज भी गाते हैं – तुम्हारी अग्निवीणा
खेल मे भारत रतन पुरस्कार की घोषणा पर …..
लाल काली जर्सी पहने खिलाड़ी उतरे हें मैदान मे
हजारों हाथ हिल रहे हें हजार तरह के रुमाल उछल रहे हें
पूरा स्टेडियम पपीता के आधे फांक की तरह रंगीन था
खेलो –खलो ..पेले की तरह खेलो
अनाथ बच्चों जीत के लिए हजारहवें गोल से आगे.
सही समय पर ..मधुमखी के डंक..अली की मार की तरह ..मारो .
दौड़ो -दौड़ो आबेबा विकला की तरह दौड़ो –
नंगे पाँव मैराथन जीत की तरह
खेलो ..बिना फाऊल किए ध्यान चंद्र की तरह
सचिन की ईमान की तरह .
हम सबको जेसी ओवेंस की तरह .
हमेशा हिटलर के मैदान मे ..हिटलर की आँख मे खटकना है…
केवल
प्रेम में मगन रहना चाहता हूँ
फिर भी चिथड़ा ही रहता हूँ.
नव जलद के सर पर हाथ फेर कर
प्यास मिटाता हूँ.
उग नहीं रही आत्मा की
मिट्टी में कोई फसल
केवल टूटी हुई सुई
ढूंढता रहता हूँ.
जाने क्या एक कोमल चीज़
पूरब -पश्चिम
जिधर देखो सूरज वलय
गोल ही रहता है
उसकी लालिमा
मुझे भाती है
उत्तर रहूँ या दक्षिण
घर रहूँ या बाहर
जाने क्या एक कोमल चीज़ है मेरे पास
जो उससे लुकाता फिरता हूँ
कुछ उजाले भी है
मेरे पास उसके लिए
नहीं जानता वह सुबह है या शाम
सभी, सबकुछ नहीं दे सकते
तुम !कविता में-
उजास दो.
सात रंग
सात रंगों की गलबहीं
आकाश को श्रृंगार किये दे रहे हैं .
एक गुरुत्वाकर्षणीय निराकार –
आँखों में भर रहा हूँ, मुहं फ़िराने से कहीं खो न जाय.
रोंदू है मन, एक दाग याद आता है
कि दाग पर दाग उग आता है
इन्द्रधनुष बनता है लुप्त होता है
एक कण धरकर नहीं रख पाता.
जिसके अन्तर मे पैठ गया है दाग
वहीँ बाँधता है जीवन को – जादू से.
वहीँ खोजता…
आजकल
मेरे कोठार में, दन्त में विष भरे
हमले की तैयारी में पूंछ पर उठकर लहरा रहा है
पकड़ने जाओ तो डसने के लिए फुफकारता है.
कुछ कहना चाहू तो, सुना है उसे सुनाई नहीं देता.
नींद में उसकी फुसफुसाहट सुनता हूँ
देखता हूँ – हरा- नीला – वर्ण, उसका चौडा फन
हाथ जहां डालता हूँ –
कागज़ की तरह निकल आता है वो .
अन्त पर
श्रावण की दूसरी रात, हस्पताल के पीछे
पानी की हौद और पीले लेम्पपोस्ट के नीचे
मोरचरी
के पास
हिरण आकर
स्तब्ध
सूंघ रहे है –
मोरचरी में मेरा नहीं –
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समीर वरण नंदी
५ नवम्बर १९५६ चटगांव (बांग्लादेश)
बंगाल,उडीसा,आसाम,बिहार में बचपन बीता, उच्च शिक्षा जे.एन.यू से.
तलहटी में बसंत (कविता संग्रह,२००८), जीवनानंद दास : श्रेष्ठ कविताएँ (साहित्य अकादेमी,१९९७), वनलता सेन (जीवनानंद दास की कविताओं का संचयन)
सम्प्रति : भेल (हरिद्वार) में अध्यापन
ई पता : sameerbaran.56@gmail.com