सुमन केशरी के पहले कविता संग्रह ‘याज्ञवल्क्य से बहस’ से हिंदी कविता में मिथकों की पुनर्वापसी हुई है. मिथक जातीय चेतना के भरे हुए ऐसे सन्दूक होते हैं जिन्हें जब खंगालिये समकाल पर आपको उनका अब तक बिनपहचाना खजाना मिल जाता है. अश्वस्थामा, द्रौपदी, कृष्णा, याज्ञसेनी, कर्ण, सीता, राम, रावण, माधवी, सत्यवान जैसे मिथक इस संग्रह की कविताओं के अर्थ का विस्तार करते हैं और विश्वसनीयता देते हैं. इसके साथ ही सुमन के पास स्त्री मर्म की खुद की अर्जित समझ है. भारतीय समाज में नारीवाद की उपस्थिति और उसकी सीमा से वह बखूबी वाकिफ हैं.
इन नई कविताओं में इस मर्म का परिवार और प्रकृति से घना नाता दिखता है. ये कविताएँ कहती नहीं दिखाती हैं. गुम चोट की पहचान है यहाँ. ‘जाने वह बूंद ओस थी या पानी किसी आँख की
पेंटिग Shaymal Dutta Ray
लड़की
डुग डुग डुग डुग
चलती रही है वह लड़की
पृथ्वी की तरह अनवरत
और नामालूम सी
किसे पता था कि चार पहर बीत जाने के बाद
हम उसे पल–पल गहराते चंदोवे के नीचे
सुस्ताता-सा देखेंगे
और सोचेंगे
लेट कर सो गई होगी लड़की
पृथ्वी सी
पर चार पहर और बीतने पर
उसे आकाश के समन्दर से
धरती के कोने कोने तक
किरणों का जाल फैलाते देखेंगे
कभी उसके पाँवों पर ध्यान देना
वह तब भी
डुग डुग डुग डुग
चल रही होगी
नामालूम सी
पृथ्वी सी
::
पेड़ से गिरा वह पत्ता
धीरे से आ बैठा
तेज चलते कदम रूक गए
एक ओस कण झिलमिलाई
बैठी थी पत्ते की गोद में
उसी की भार से तो पत्ता
धरती पर यूं उतरा था
जैसे मां बैठती है बच्चे को गोद में लिए…
सूरज की किरणों में
कई कई इंद्रधनुष तिरे
शिशु–सा करलव करता
बैठा है कण
माँ की गोद में
जाने किस आस में बूंद..
ये तो अजब वाकया हुआ
कल सवेरे टीले के बगल से गुजरते हुए
पत्ते पर पड़ी जल बूंद
अचानक पुकारते हुए साथ हो ली
जाने वह बूंद ओस थी या
पानी किसी आँख की
क्या वह थी हुई या है वह अब भी
मौजूद इस देह में
जाने किस रूप में
जाने किस आस में…
कूक! नहीं…….
कूक! नहीं…….
इतनी सुबह
कोयल की यह कूक कैसी
आम के पत्तों-बौरों में छिपी
मदमाती, लुभाती
गूंजती कूक नहीं
एक विकल चीख
जोहती
पुकारती
जाने किसे ?
आकाश निरभ्र
और कोई स्वर नहीं
न पक्षियों की चहचहाहट
न किसी बच्चे के रोने की आवाज
उस बियाबान में
एकाकी खड़े पेड़के पत्तों-बौरों में
छिपी एक कोयल शायद
और उसकी चीख
कूक नहीं… कूक नही
मेरी बेटी
आँख की बूंद सी
यह लड़की
मेरी बेटी
करूणामयी
ममतामयी
घास में बसी ओस सी
मुझमें शामिल
या मैं उसमें शामिल
गुंधे आटे की लोई
मुलायम पर ठोस
आश्वस्ति भरा स्पर्श.
सुनो बिटिया……..
सुनो बिटिया
मैं उड़ती हूँ खिड़की के पार
चिड़िया बन
तुम देखना
खिलखिलाती
ताली बजाती
उस उजास को
जिसमें
चिड़िया के पर
सतरंगी हो जायेंगे
ठीक कहानियों की दुनिया की तरह
तुम सुनती रहना कहानी
देखना
चिड़िया का उड़ना आकाश में
हाथों को हवा में फैलाना सीखना
और पंजों को उचकाना
इसी तरह तुम देखा करना
इक चिड़िया का बनना
सुनो बिटिया
मैं उड़ती हूँ
खिड़की के पार
चिड़िया बन
तुम आना…..
घास
वो घास जो पैरों तले
मखमल –सी बिछ जाती है
बरछी–सी पत्तियों को
नम्रता में भिगो
लिटा देती है
धरती की चादर पर
मौका मिलने पर
तन खड़ी होती है
ऊपर और ऊपर उठने को
आकाश छूने को
व्याकुल
बरछी सी तन जाती है
::
(मेरी) खिड़की के बाहर
चिड़िया का बच्चा बोला
बिटिया बोली
चिड़िया का बच्चा बोला
खिड़की के बाहर
मालती लता
बड़ी सघन लता
उसी में छिपा इक नन्हा-सा घर चिड़िया का
लता की छाव में
पत्तों की ठाँव में
दाने चुगाती और
गाने सुनाती
अपनी पंखों की फर्र फर्र से
हवा को चलाती
इक नन्हीं चिरैय़ा
रोज सुबह बोलकर सूरज को जगाती
सांझ को उसके लिए लोरी वह गाती
उसकी बोली की गुँजन में
दिखता आकाश है
धरती है
जीवन है
मेरे जीवन में आई इक प्यारी चिरैया
मेरी खिड़की के बाहर
चिड़िया का बच्चा बोला
चिड़िया का बच्चा बोला
बिटिया बोली
चिड़िया का बच्चा बोला.
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