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Home » सहजि सहजि गुन रमैं : हरे प्रकाश उपाध्याय

सहजि सहजि गुन रमैं : हरे प्रकाश उपाध्याय

पेंटिग : Ram Kumar TWO FIGURES युवा हरे प्रकाश उपाध्याय  हिंदी कविता के पहचाने-जाने कवि हैं. इन कविताओं में हरे प्रकाश की काव्य-रीति की सहजता, कथ्य-सौन्दर्य और विमोहन की क्षमता दिखती है. वैसे तो उलाहने उर्दू शायरी के एक बड़े हिस्से में हैं पर हरे प्रकाश जैसा कवि जब इन्हें हिंदी कविता में कहता है […]

by arun dev
April 16, 2014
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पेंटिग : Ram Kumar TWO FIGURES

युवा हरे प्रकाश उपाध्याय  हिंदी कविता के पहचाने-जाने कवि हैं. इन कविताओं में हरे प्रकाश की काव्य-रीति की सहजता, कथ्य-सौन्दर्य और विमोहन की क्षमता दिखती है. वैसे तो उलाहने उर्दू शायरी के एक बड़े हिस्से में हैं पर हरे प्रकाश जैसा कवि जब इन्हें हिंदी कविता में कहता है तब उसका अर्थात बदल जाता है, उसका विस्तार कच्चे-पक्के नगरों के बीच प्रेम और सहजीवन की विडम्बना तक पहुंचता है. यह एक ऐसे युवा की कविता है जिसे  ‘उड़ना ही नहीं आता घोसला कोई बनाना ही नहीं आता’.
हरे प्रकाश उपाध्याय 

चं   द   उ   ला   ह   ने


1

तटस्थता के पुल पर खड़ी होकर
उसने मुझे
एक दिन
जाने किस नदी में ढकेल दिया
कोई किनारा नहीं
कोई नाव नहीं
कोई तिनका नहीं
बहता हाँफता जा रहा हूँ
लहरों के साथ
इंतजार में कि कभी तो कहीं बढ़ाएगी हाथ.

2

बहुत सारे चुंबनों और भटकनों के बाद
उसने यकायक पूछा
दोस्ती करोगे मुझसे
क्या जवाब देता आखिर मैं
बस चलता रहा उसके साथ
जाने किन मोड़ों पार्कों पुलों और नदियों से होते हुए
जाने कहाँ लेकर चली गयी मुझे
और आगे और आगे
और कहा
यकायक
लोग यहाँ से लौट जाते हैं अक्सर
सूरज आया माथे पर
चाहो तो लौटो तुम भी
घर पर तुम्हारा इंतजार हो रहा होगा बहुत
और वह अदृश्य हो गयी यकायक
क्या आपको पता है उसका पता
मैं ऐसे रास्ते पर चलता जाता हूँ
जिसमें मोड़ बहुत
पर न किसी से रास्ता पूछता हूँ
न किसी रास्ते पर भरोसा करता हूँ
सपने में सोया रहता हूँ
उसकी याद में रोया करता हूँ.

3

उसने कहा एक दिन
अब हम प्यार नहीं करते
उसके कुछ दिन पहले कहा
तुम मुझे प्यार नहीं करते
उसके पहले कहा था
काश तुम मुझे प्यार करते
वह पता नहीं क्या-क्या कहती गयी
और भटकती गयी
भटकता गया मैं भी
अब देखिये न
न जाने वह किस छोर गयी
न जाने किस मोड़ से मुड़कर
मैं आया हूँ इधर.

4

पहले उसने पता नहीं
कौन सा जादू किया
मैं पतंग बन गया
उसने जी भर उड़ाया मुझे
प्रेम की डोर में बाँधकर अपनी इच्छाओं के
सातवें आसमान में
फिर मुझे सुग्गा बनाया
अपने हथेलियों पर नचाती रही
और एक दिन पिंजरे से उड़ा दिया
जाओ जरा उड़ कर आओ
अब न मैं पतंग हूँ न सुग्गा
पतंगों की डोर में लगे मंझे से लहूलुहान
एक ऐसी चिड़िया
जिसे उड़ना ही नहीं आता घोसला कोई बनाना ही नहीं आता.

5.

एक दिन उसने कहा
अपनी कहानी कहो
कहो कहो कहो जिद्द में वह कहती रही
नींद में सपने में
पार्क पर पुल पर बाग में
मैंने एक कहानी बनायी
हमारी कहानी सुनते-सुनते सो गयी वह
मैं उसे सुनाता रहा सुनाता रहा
पता नहीं वह सुनते सुनते किस सपने में चली गयी
फिर ढूंढे ना मिली मुझे.
______________________________
जन्म : 5 फरवरी 1981, बैसाडीह, भोजपुर (बिहार)
कविता संग्रह : खिलाड़ी दोस्त और अन्य कविताएँ (भारतीय ज्ञानपीठ से)
उपन्यास : बखेड़ापुर
सम्मान – अंकुर मिश्र स्मृति पुरस्कार, हेमंत स्मृति पुरस्कार
ए-935/4 इंदिरानगर, लखनऊ – 226016 (उत्तर प्रदेश)
संपर्क- ए-935/4, इंदिरा नगर, लखनऊ-226016
मोबाइल-8756219902
hpupadhyay@gmail.com

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