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सेरेना विलियम्स : अख़बार का वह पहला आर्टिकल (अनुवाद – यादवेन्द्र)
१९८१ में जन्मी दुनिया की सबसे महान टेनिस खिलाड़ी सेरेना विलियम्स कोई लेखक नहीं हैं- खेल में उनकी अप्रतिम उपलब्धियों का कोई सानी नहीं है. १४ साल की उम्र से प्रोफेशनल टेनिस खेल रही सेरेना अपने रंग, मुखर स्वभाव और शारीरिक शक्ति के लिए अक्सर आलोचनाओं का निशाना बनती हैं. समाज हो या खेल, इनमें किसी तरह के भेदभाव का वे […]
१९८१ में जन्मी दुनिया की सबसे महान टेनिस खिलाड़ीसेरेना विलियम्स कोई लेखक नहीं हैं- खेल मेंउनकी अप्रतिम उपलब्धियों का कोई सानी नहीं है. १४साल की उम्र से प्रोफेशनल टेनिस खेल रही सेरेना अपने रंग, मुखर स्वभाव और शारीरिक शक्ति के लिए अक्सर आलोचनाओं का निशाना बनती हैं. समाज हो याखेल, इनमेंकिसी तरह के भेदभाव का वे कड़ा विरोध करती रही हैं. अमेरिकी समाज में अश्वेतों और स्त्रियोंके प्रति बढ़ती हिंसाके खिलाफभी वे समय समय पर बोलती रही हैं. टेनिस खेल करवे कमाई के शीर्ष पर पहुँचीं- साथ साथ फैशन और विज्ञापन के क्षेत्र में भी वे कमाई के शीर्ष पर रही हैं- पर उन्होंने गरीबी और अशिक्षा से जूझ रहे समुदाय के लिए अनेक चैरिटी कार्यक्रम चला रखे हैं. स्टेज शो, मनोरंजन के कार्यक्रम में वे बढ़ चढ़ करहिस्सा लेती हैं और उन्होंनेकुछ किताबें भीलिखी हैं – डेनियल पेसनर के साथ मिल कर लिखी \”ऑन द लाइन\” और \”माई लाइफ :क्वीन ऑफ़ द कोर्ट\” उनकी आत्मकथात्मक पुस्तकें हैं.
यहाँ प्रस्तुत अंश उनकी किताब\”ऑन द लाइन\” (२००९) से लिया गया है जो पारम्परिक रूप में कहानी तो नहीं है पर उनके जीवन का एक रोचक प्रसंग कहानी के लालित्य के साथ प्रस्तुत करता है.
यादवेन्द्र
सेरेना विलियम्स
अख़बार कावह पहला आर्टिकल
अनुवाद – यादवेन्द्र
मुझे अब भी वह पहला आर्टिकलयाद है जो वीनस के बारे में छपा था, मुझे क्या वह हम सब को याद है क्योंकि उसने हमारे परिवार में एक बड़ी घटना- या दुर्घटना कहें- को जन्म दिया था. वह एक लोकल अखबार \”कॉम्प्टन गैजेट\” में छपा था. मैं तब सात या आठ साल की थी. हाँलाकि वह लेख ख़ास तौर परवीनस पर केंद्रित था परथा वह हम सब के बारे में था कि कैसे हम सब पूरा परिवारमिल कर शहर के पब्लिक कोर्ट में टेनिस की प्रैक्टिस किया करते हैं… कि कैसे बगैर किसी कोच के हमारे डैडीऔर ममाही हमें खेलना सिखाते हैं और टेनिस की दुनिया में हमेंचमकते सितारे बनाने के सपने उनकी आँखों में तैरते रहते हैं.
वह आर्टिकल देख कर डैडी गर्व सेइतने भर गए कि उन्हें लगा लोगों को दिखाने के लिएजितने मिलें उतनेअखबार इकट्ठे कर लूँ- जैसे वहअखबार में छपा कोई आर्टिकल न होकर कोई स्मृति चिह्न हो. उनके मन में ख्याल आया कि क्यों न अपने इलाके के सभी घरों के सामने डाले हुए अखबार लोगों के दरवाजा खोलनेसे पहलेइकट्ठे कर लिए जाएँ- जाहिर है यह कोई पडोसी धर्म नहीं था… और न ही कोई व्यावहारिक तरीका. उन्हें बस लगता था कि पहली बार टेनिस के कारण हमारे परिवार को कोई सकारात्मक प्रचार मिल रहा है….. पर इस अति उत्साह में वे यह भूल गए कि जिन पड़ोसियों और आस पास वालों को वे इस उपलब्धि के बारे में बताना चाहते थे उनके घरों के सामने से अखबार उठा कर वे उलटा काम कर रहे हैं- जब वे अखबार पढ़ेंगे नहीं तो हमारे बारे में जान कहाँ से पाएँगे. वे अखबार के दफ्तर फोन करते और उनसे अतिरिक्त प्रतियाँ माँग लेते…. या वे पास की उस दूकान पर जाकर जितने चाहते उतने अखबार खरीद लेते – बीस सेंट प्रति अखबार – पर यह सब कोई विचार उनके मन में उस समय नहीं आया.
हमारा पूरा परिवार अखबार लूट के इस अभियान में निकल पड़ा हाँलाकि यह तर्कसंगत बिलकुल नहीं था. डैडी सड़क पर धीरे-धीरे वैन आगे बढ़ा रहे थे और जहाँ कहीं भी उन्हें अखबार दीखता गाडी रोक कर वे उतरते और चुपके से घरों के सामने से अखबार उठा लाते. जल्दी जल्दी कदम बढ़ाते हुए वे वैन तक लौटते और आगे बढ़ जाते. हम बहनें पिछली सीटपर बैठी यह सारा तमाशा देख रही थीं और डैडी के इसअजूबे बर्ताव परहँसी ठट्ठा कर रही थीं- इस बीच ईशा को एक बात सूझी और उसने डैडी को सुझाव दिया कि वह वैन चलाती है और डैडी समेत सब मिल करअखबार इकठ्ठा करें तो कम समय में ज्यादा काम हो जाएगा. बाकी की हम बहनें इस सुझाव से कतई खुश नहीं थीं क्योंकि जल्दी ढेर सारे अखबार इकट्ठे कर लेने का मतलब था जल्दी प्रैक्टिस के लिए निकल पड़ना- असल बात यह थी कि हम थोड़ी देर को ही सही प्रैक्टिस से बचे रहते. जब जब भी बारिश या किसी और कारण से हमेंप्रैक्टिस से छुटकारा मिलता हम बहने बड़ी खुशियाँ मनाते.
डैडी ने ईशा की बात सुनी, कुछ देर सोचा और बेहतर मान कर इसपर हामी भर दी-उन्हेंफायदा भले ही और होता दिखा हो परहमें जल्दी से जल्दी प्रैक्टिस पर ले जाने की बात उनके मन में सबसे अहम थी. मुश्किल बस एक ही थी – ईशा महज तेरह साल की थी और इस उम्र में गाडी ड्राइव करना गैरकानूनी था.
ईशा बोली : \”कोईमुश्किल तो नहींआएगी ,डैडी ?\”
डैडी ने जवाब दिया ;\’तुम्हें खुद पर तो भरोसा है न ?\”
\”हाँ डैडी … मुझे आता है, मैं ड्राइव कर सकती हूँ. \”, ईशा ने तपाक से जवाब दिया.
यह हम सभी बहनों के साथ था- दुनिया में कोई काम ऐसा नहीं था जिसके सामने हम घुटने तक दें.
सो ऐसा ही तय हुआ – भले ही यह बहुत अच्छा प्लान न हो पर यही तय हुआ. ईशा उठ कर ड्राइविंग सीट पर आ गयी, मैं वीनस और लिन के साथ पीछे वाली सीट पर बैठी रहीं. डैडी नीचे उतरकर लम्बे लम्बे डग भरतेवैन के साथ साथ चलने लगे, हम उनके पीछे पीछे हो लिए. ईशा को गाड़ी चलाना आता तो था पर वह कोई तजुर्बेकार औरएक्सपर्ट नहीं थी – दूसरी गाड़ियों, इंसानोंऔर चीजों से कितनी दूरी बना कर चलना है इस बारे में वह अनजान थी. सो चलते चलते वह वैन लेकर सड़क किनारे खड़ी एक गाड़ी से टकरा गयी….
घिसटतीहुई वैन एक के बाद दूसरी और तीसरी गाड़ी से जा टकराई. कई गाड़ियों के साइड मिरर उखड़ कर नीचे गिर पड़े – हम बच्चे भौंचक्के होकर यह नजारा देख रहे थे, हमें समझ नहीं आ रहा था क्या किया जाये.
ईशा के वैन पर से कंट्रोल खत्म होने से पहले डैडी कुछ अखबार इकठ्ठा कर पाए थे पर अब वे सब कुछ छोड़ कर वैन के साथ साथ दौड़ रहे थे और बार-बार चिल्ला करईशा को ब्रेक लगाने को कह रहे थे. पर ऊपर से चिल्लाते शोर मचाते डैडी अंदर से एकदम शांत थे – मुझे उनका यहबर्ताव समझ में नहीं आरहा था.
\”ब्रेक मारो ईशा …. ब्रेक मारो. \”, वे चिल्लाते जा रहे थे. जब ईशा ने उनके कहे से वैन रोकी तो डैडी उसकी खिड़की के पास आये और बोले : \”तुम ठीक तो हो नईशा ?\” यह कहते हुए उनकी आवाज शांत थी, उसमें जरा भी बदहवासी नहीं थी. हर बार की तरह वे किसी तरह की घबराहट में नहीं थे – डैडी की यह बात ही मुझे सबसे अच्छी लगती है. हम तो बच्चे थे, उनको समय समय पर ऐसी मुश्किलों में डालते रहते थे पर वे थे किपहले लम्बी साँसे भरते जिससे मन की उद्विग्नता धीरे धीरे सहज भाव से छँट जाए …. उसके बाद जैसी भी परिस्थिति होती उससे शांत होकर धैर्यपूर्वक निबटते.
इस सब तमाशा जब हो रहा था हम तीनों बहनें पीछे की सीट से उछल कर खिड़की से बाहर निकलने की जुगत भिड़ा रही थीं- हमारी घिग्घी बँधी हुई थी और ईशा थी कि रो रो कर उसका बुरा हाल हुआ जा रहा था. उसकी चीख पुकार सुनकर डैडी एकदम से घबरा गए- प्लान उल्टा पड़जाने की ग्लानि उन्हें ज्यादा सता रही थी. अब उन्हें वहाँ रुकना होगा और जिसका भी जो नुक्सान हुआ है उसकी भरपाई करनी होगी – उनकी हालत देख कर तरस आ रहा था. उन्होंने किसी से यह नहीं कहाकि हम उनका अखबार उठा लाये थे….
उन्हें एटीएम ले जाकर उन्होंने नुक्सान के लिएपैसे चुकाए. यह हाल तब हुआ जब हमारे पास अपनी जरूरत के लिए ही पर्याप्त पैसे नहीं हुआ करते थे – मुझे जहाँ तक याद पड़ता है तब डैडी को कम से कम सौ डॉलर चुकाने पड़े थे … यदि हम दूकान से जाकर अखबार खरीद लेते तो हद से हद कुल जमा पाँच या छह डॉलर लगते.
यह सब जब निबट गया तो हम सब ठहाके लगा कर हँस पड़े- देर तक हमारी हँसी हवा में गूँजती रही.
(2009 में डेनियल पेसनर के साथ मिल कर लिखी आत्मकथा\”ऑन द लाइन\”से उद्धृत)