(फ़िल्म सैराट के एक दृश्य में अभिनेत्री रिंकू राजगुरु) |
सैराट को लेकर समालोचन पर बहुत कुछ विवेचित हो चुका है. इस पर संवाद के समापन की घोषणा के बाद भी प्रतिक्रियाओं का ज्वार थम नहीं रहा है. इससे यह तो साबित होता ही है कि इस फ़िल्म ने समाज के गहरे मथा है. एक प्रबुद्ध माँ आखिरकार क्यों नहीं चाहती कि उसकी बेटी यह फ़िल्म देखे ? क्या यह फ़िल्म सच में इतनी संक्रामक है ?
और एक सवाल – कहीं ऐसा तो नहीं कि इस फ़िल्म के मूल्यांकन में भी जाति–पूर्वाग्रह काम कर रहे हैं.
सैराट देखने के बाद….मन सैराट न हो सका
स्वरांगी साने
सैराट को लेकर जितनी बातें होनी थीं, हो गईं…जितना कहा जाना था कहा जा चुका…मूवी आने के पहले से उसकी हवा बनने लगी थी…एक गाना तरंग की तरह आस–पास घूमने लगा था ‘मन सैराट झाले जी…’
सारी कल्पनाएँ उसी मन की, पागल मन की, आशंकित और उम्मीद से भरे मन की. फिल्मों के बारे में मुझे वैसे कोई रुचि नहीं. इसमें जाति भेद का जिक्र था…मछुआरे और मराठों के बीच का जाति भेद…बहुत खेद के साथ कहना चाहूँगी कि महाराष्ट्र और वह भी पुणे में रहते हुए मैं जितना जाति का दंश झेलती हूँ, मुझे किसी मूवी में जाकर वह फिर नहीं देखना था. मैं सवर्ण वर्ग से हूँ, मेरा उपनाम ही यह कह देता है और उसके साथ मुझे बहिष्कृत–सा कर दिया जाता है. कुछ ‘बामन्या’ कह कर हँसते हैं, कुछ ‘पुणेरी ब्राह्मण’ का ‘टोमणा’ (मराठी–टोमणा– टोंट) मार देते हैं, इतना तक फ़िकरा कसते हैं कि एकारांती ब्राह्मण (जैसे साने)…ओकारांती ब्राह्मण (जैसे गोडबोले), मतलब आप और भी पक्के (ख़तरनाक़ उनके अनुसार लीचड़) हुए और एस्ट्रोगेसी का कोई केस किसी को ब्राह्मण कहकर ठेस पहुँचाने पर नहीं लगता. मेरा ब्राह्मण होना यहाँ अपराध है…गोया जाति में पैदा होना मेरा अपना निर्णय हो या जैसे मैं उनसे वर्ग भेद कर रही हूँ.
तो बहरहाल…पुणे के ये हाल हैं जहाँ ब्राह्मण वर्सेज़ दलित और ब्राह्मण वर्सेस मराठा फिर मराठा वर्सेज़ दलित और वाइसवर्सा है…अब उसे देखने के लिए मूवी क्यों जाऊँ ? वह तो रोज़–बरोज़, गाहे–बगाहे देखती हूँ. कभी मेरा ब्राह्मण होना वरदान बन आता है, कभी अपमान…
इस फ़िल्म के बारे में जितना सुन रही थी उतना ही इस फ़िल्म से दूर रहने का मन कर रहा था. नहीं देखनी थी, सैराट तो देखनी ही नहीं थी. मॉल में अचानक मिली मेरी सहेली ने पहला घंटी बजाई थी, ‘यह फ़िल्म बच्चों के देखने जैसी नहीं है.’ मैं सचेत थी…दिमाग में बैठा लिया कि बच्ची के साथ नहीं जाना.
दूसरी घंटी बजी कि बेटी ही बोल पड़ी, ‘सबने देख ली…सारे दोस्तों–सहेलियों ने, अब तो चलो ही…’
घर के काम में हाथ बँटाने वाली ने तीसरी घंटी बजाई….एक दिन देर से आई, पूछने पर बोली ‘सैराट देखने बैठ गई थी, किसी के घर पैन ड्राइव पर…बच्चों को तो यह फ़िल्म बिल्कुल नहीं देखनी चाहिए. वे क्या सीखेंगे कि घर से भाग जाओ.’
ये तीन महिलाएँ (फ़ीमेल) थीं, मेरे आस–पास की. एक मॉल में मिली पढ़ी–लिखी, सुरुचि संपन्न, सवर्ण मेरी सहेली, दूसरी बमुश्किल आठ–नौ साल की मेरी बेटी और तीसरी दलित वर्ग से आती महरी. क्या था इस मूवी में कि हर उम्र की महिलाएँ उस पर बात कर रही थीं. आर्ची का हमेशा ड्राइविंग सीट पर बैठना…बुलेट, ट्रैक्टर और स्कूटी चलाना….किसी महिला का इस तरह अपने हाथ में कमांड लेना भा रहा था या कुछ और था (एक अख़बार में तो लगातार बाइक चलाती लड़कियों के फ़ोटो का स्तंभ भी शुरू हो गया है). सब कह रहे हैं वे गाँव हैं, जो गाँव जैसे गाँव होते हैं…पर मेरे आस–पास की ये तीनों महिलाएँ शहरी थीं… महानगर की थीं…यहाँ महिलाओं का ड्राइविंग सीट पर होना आम बात है. फिर क्या था, कुछ कह रहे थे कि उसे देखते हुए ‘दिलवाले’ याद हो आए, किसी को ‘कयामत से कयामत तक’..तो भई ऐसी मूवी देखनी ही क्यों?
पर उस दिन पति देखकर लौटे…कह पड़े ‘अंत के दस मिनट तो मैं देख ही नहीं सका.’ मेरा इंजीनियर पति, जिसके लिए कविता जटिल होती है, वह इतना भावुक हो गया कि देख नहीं सका. मैंने और पक्का मन बना लिया, नहीं देखना, बेटी के साथ तो नहीं ही.
पर बेटी जिद्द पकड़ बैठी, आर्ची की तरह ही होती है बेटियाँ, अपने पिता के दम पर अकड़ दिखाने वाली, कुछ भी कर गुज़रने का साहस रखने वाली. पर पिता न होने पर वे ही मार खाती हैं, क्यों? बीच बाज़ार, होटल में, सड़क पर कलाई की मरोड़ स्वीकारती हैं, पति के बिलावजह शक़ की सफ़ाई देती हैं, मानो वे गुनाहगार हों… आर्ची ने ऐसा किया…क्या यह है ड्राइविंग सीट पर बैठने वालियों की हक़ीकत? तो यह फिल्म हक़ीकत दिखा रही है, हक़ीकत देखना नहीं चाहता है न मन…मन तो सैराट होना चाहता है, मन तो ‘जिंग–जिंग जिंगाट’ होना चाहता है…मन ज़ेहाद चाहता है.
और उस दिन बेटी की हमउम्र सहेलियों–दोस्तों ने हमेशा की तरह धावा बोला… डोर बैल तीन–चार बार बजी…दनदनदनदन, सब अंदर…कोई हँसने वाली, कोई शर्माने वाली…कोई अकड़ू (उनके ही शब्दों में)…और उनकी बातें सैराट को लेकर…मेरी बेटी का शिकायत भरा लहज़ा-‘माँ नहीं देखने देती’, मेरी टालमटोल…और उन बच्चों का मुझ पर ही धावा… ‘क्या अब तक नहीं देखी’, ‘बहुत अच्छी मूवी है’, ‘मेरे मामा की शादी में मैं जिंग–जिंग पर नाचूँगी’, तो कोई गणेशोत्सव में जिंगा पर नाचने की तैयारी में. मैं बचाव की मुद्रा में, ‘हाँ तो गाने देखो न उसके लिए मूवी क्या देखना…’
मैं रसोई में, उनकी मंडली बैठक से बैडरूम तक…एक कतार में सब भागते–भागते इधर से उधर, उधर से इधर…और फिर अचानक सब बैठ गए…मेरी जान में जान आई…फिर सैराट की बातें… ‘उसका ऐंड देखा क्या’, ‘मेरे पास मोबाइल में उसका ऐंड है’, ‘मैंने तो कितनी ही बार देखा’… ‘तू भी देख’….
मैं हैरान…अवाक्…सकते में…जिस अंत के बारे में सुन चुकी थी, जिससे बच्ची को बचाना चाहती थी, वह मोबाइल पर वाइरल हो चुका था…उनके हाथों तक में…और वे दर्जनों बार उसे देख चुके थे.
मैंने मूवी देख ली….
मैं सिहर गई…
मूवी के अंत को लेकर नहीं, उससे ज़्यादा इस नई पीढ़ी को लेकर. यदि उन्हें उसके तीखेपन का अंदाज़ा नहीं हो तो मुझे कुछ राहत है. पर यदि इस नई पौध को उस अंत की पीड़ा का ज्ञान है (इस नई पीढ़ी को कई बातें हमसे ज़्यादा पता हैं) और तब भी वे कूल है तो मैं चिंतिंत हूँ. आर्ची ने नवीं की परीक्षा दी और अब दसवीं में है, यह जानकर भी मैं सन्न थी… नौंवी में पढ़ने वाली दुलई के नीचे के सीन करती है…चलो सीन ही होगा पर प्यार की उस हरारत का वह अभिनय भी करती है तो धक्कादायी है. और ये उससे भी कम उम्र के बच्चे (लड़के–लड़कियाँ दोनों) उस अंत को देख कूल रहते हैं. कितना शोचनीय.
बड़ी–बड़ी बातें, जाति को लेकर, धर्म और स्त्री–पुरुष भेद को लेकर, लेकिन इसका क्या करें जो उन तक पहुँच रहा है, हमारे रोके भी जो नहीं रुक रहा है. ख़ून से सने उस बच्चे के पैर और इन बच्चों की चुहल की केचअप लगाया होगा….
आर्ची अंतरंग दृश्यों को करते हुए जानती है कि वह झूठ कर रही है और यह बच्चे भी जानते हैं कि वह झूठ है…हम सन्न हैं…वे जानते हैं कि वह झूठ है. पर जब समाज की हक़ीकत जब उन तक पहुँचेगी क्या तब भी वे उसे झूठ मानेंगे…आर्ची जैसी किसी लड़की के पत्नी बनते ही कोई प्रेमी जो पति बन जाएगा हाथ उठा देगा…क्या तब भी उसे झूठ मानेंगे..और खाप पंचायतों के फैसलों को झूठा साबित कर देंगे…
मेरे इस डर का क्या जवाब है…कि मन सैराट नहीं हो पा रहा है… ‘मन अधीर झाले आज़…मन बधिर झाले आज़’…क्या जीवन के सच को झेलने के लिए नई पीढ़ी हमसे अधिक तैयार है? क्या उम्मीद करें कि यह पीढ़ी पत्नी बनने के बाद किसी का थप्पड़ आसानी से बर्दाश्त नहीं करेगी? क्या उन्हें ख़ुद ही सच का सामना करने के लिए छोड़ दिया जाए? वे यह भी समझती हैं कि फ़िल्मी बातें सच नहीं होतीं, लेकिन इससे सच को झेलने के लिए उनकी ज़मीन तैयार हो जाती हो, तो अच्छी बात है…आमीन!
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स्वरांगी साने
पूर्व वरिष्ठ उप संपादक, लोकमत समाचार (पुणे)