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Home » हरि मृदुल की कविताएं

हरि मृदुल की कविताएं

कविता सृजन के साथ स्मृतियों को सहेजती है वह शब्दों को संरक्षित भी करती है. शब्द जिनसे होकर हम संस्कृति तक पहुंचते हैं. कविता के लिए \’दातुली\’  केवल \’हंसिया\’ भर नहीं है वह उस पूरी प्रक्रिया तक ले जाने का रास्ता है जिनसे होकर पहाड़ी गांवों की सभ्यता निर्मित हुई थी.  कविता में लोक की मार्मिकता तभी […]

by arun dev
June 10, 2020
in कविता
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कविता सृजन के साथ स्मृतियों को सहेजती है वह शब्दों को संरक्षित भी करती है. शब्द जिनसे होकर हम संस्कृति तक पहुंचते हैं. कविता के लिए \’दातुली\’  केवल \’हंसिया\’ भर नहीं है वह उस पूरी प्रक्रिया तक ले जाने का रास्ता है जिनसे होकर पहाड़ी गांवों की सभ्यता निर्मित हुई थी. 

कविता में लोक की मार्मिकता तभी प्रकट होती है जब आपका उससे लगाव हो. हरि मृदुल अपने चंपावत को जीते हैं. जिन सीढ़ियों से होकर वे यहाँ पहुंचे हैं, उतरकर फिर वहां पहुंचना चाहते तो हैं पर यह मुश्किल है और यहीं से हरि मृदुल की कविताएँ अंकुरित होती है.

हरि मृदुल की कुछ कविताएँ प्रस्तुत हैं.  




हरि मृदुल की कविताएं      


चादर

विज्ञापन में दिखी झक सफेद चादर
वाशिंग मशीन से अभी-अभी धुली हुई
थोड़़ी देर तक को समझ में न आया
प्रचार किसका
चादर का- वाशिंग मशीन का- डिटरजेंट पावडर का
कि उस अठारह साल की लड़की का
जो वस्तुओं की फेहरिस्त में अघोषित तौर पर
पूरी तरह थी शामिल
चमक रही थी चादर
बातें कर रही थी वाशिंग मशीन
आधा चम्मच डिटरजेंट पावडर के झाग से
भर गया था पूरा टब
किसी जादूगरनी की तरह हंस रही थी
अठारह साल की वह लड़़की
दिन में दस बार चमकाई जा रही थी चादर
दस बार ठूंसी जा रही थी आंखों में
वाशिंग मशीन
झाग टीवी के परदे से कमरे के फर्श पर जैसे
अब फैला- तब फैला
वह लड़़की तो आठ साल की मेरी भतीजी के तन में आकर
बस ही गई
मायावी चादर
मायावी मशीन
मायावी लड़़की
एक दिन आम हो जाएगी वाशिंग मशीन
कोई बात नहीं करेगा डिटरजेंट पावडर की
लड़की बूढी हो जाएगी
मर जाएगा विज्ञापन
चर्चा में रहेगी फिर भी चादर
चादर वही कबीर की
साढ़़े पांच सौ साल पुरानी झीनी झीनी बीनी.


दिल्ली में पहाड़

कब आए पहाड़़ से हो दाज्यू
और कुशल-बात भली
कैसे हैं गांव-घर के हाल-चाल
ठीक है बाल-गोपाल?
फिर काफी देर तक यूं ही पहाड़़ की बातें चलीं-
\’है घर में धिनाली-पानी
भैंस है कि गाई
सड़क और बिजली की भी कुछ हो रही है सुनवाई
कौन-कौन आए थे घर
छुट्टी में इस बार
किस-किस के घर बढऩ़े वाली है आबादी
किस-किस का बनने वाला है परिवार
कितने हुए हाईस्कूल में पास
उनके आगे पढऩ़े की भी है क्या आस
धरती फाड़़ रहे होंगे सुंगर
बौली गया होगा बाघ
अभी तो आने शेष हैं
मंगसिर-पूस-माघ             
काकड़़-गदू के बेलों में
फूल खिले कि नहीं
पांच सौ रुपए भेजे थे बौज्यू के नाम
मिले कि नहीं
हर सवाल का था एक लंबा जवाब
हर जवाब में मैं उतना ही शामिल था
जितना शामिल था वह हर सवाल में
उसकी आंखों में सीढ़़ीदार खेत लहलहाने लगे
हुड़किया बौल के बोल कानों में गूंजने लगे
एक-एक कर कई चित्र उभरे स्मृति पटल पर
घर… इजा… बौज्यू… गोपुली…
मडुवा गोड़़ रही गोपुली…
वह बोला-
दाज्यू आज तो काम पर नहीं जा पाऊंगा
रहूंगा पूरे दिन छुट्टी में
इस समय हम दिल्ली में थोड़े ही हैं
बैठे अपने गांव बगोटी में.


सीढ़ियों  पर खेत

सात साल के बेटे का सवाल सुनकर
सोच में पड़ गया मैं
कोई जवाब नहीं दे पाया
पुश्तैनी घर दिखाने के लिए
एक पुराना एलबम निकाला था
एलबम क्या था
यादों का पिटारा था
पहाडी पर बसा गांव और
सीढिय़ों जैसे खेत!!
सीढिय़ों जैसे खेतों ने तो
बेटे को खूब आकर्षित किया
लेकिन उसके लिए एक मटमैले धब्बे जैसे दिखते
पुश्तैनी घर का कोई आकर्षण नहीं था
बेटे ने एक अनूठी बात पूछी-
पापा, किसने किया यह जादू कि सैकड़ों सीढिय़ों को
हरे-भरे खेतों में बदल दिया?
\’तुम्हारे दादा के दादा के दादा के भी दादा ने किया था
यह जादू
उन्होंने ही पहाड़ों को सीढिय़ों में बदला
और सीढिय़ों को खेतों में
इन खेतों को वह बाघों के कंधों पर जुआ रखकर
जोतते थे
परियां-आचरियां आती थीं बीज बोने
तुम्हारी दादी की दादी की दादी की भी दादी का
हाथ बंटाने’
मेरी अजब-गजब बातों से वह
खासा रोमांचित हो गया था
बावजूद इसके बड़ी गंभीरता से उसने सवाल किया-
\’पापा, आप भी कमाल करते हैं
मेरा उत्तराखंड
मेरा चंपावत
मेरा बगोटी
बोलते रहते हैं…
जिन खेतों की सीढिय़ों को चढ़ते हुए
इस बड़े शहर पहुंचे थे
उन्हीं सीढिय़ों से उतरते हुए
वापस गांव भी तो जा सकते हैं आप.


मधुली की दातुली *

चट्टान पर घिस-घिस कर
तेज कर रही हूं दातुली की धार
पहले दुख-क्लेश काटूंगी
बाद में घास
हाथ में जो ज्योड़़ी है
पहले हिम्मत बांधूंगी
फिर घास का गठ्ठर
जैसे गाय रस ले लेकर चबाती है घास
ऐसे ही चबाती हूं मैं पल-छिन दिवस-मास
और कुछ नहीं मेरे पास
चट्टïन, दातुली, ज्योड़़ी और घास
बस इन्हीं की आस
इन्हीं से मिलते दो गास.
(*दातुली – हंसिया)



न्यौली*

दुनिया की सबसे सुरीली आवाज
जो तुम्हें सुनाई दे रही है
उस औरत की है
जो चट्टान के ठीक बगल में
एक हाथ और एक पैर पर खड़़ी
हरी घास को हंसिये से काट रही है
बड़़े ही जतन से
इस समय वह गा नहीं रही है
सिर्फ गुनगुना रही है
हां, घंटेभर बाद घास का गठ्ठर चट्टान पर रख
जब वह गाएगी
न्यौली-
\’काटते-काटते उग आता है चौमास का वन
बहता पानी थम जाता है नहीं थमता मन’
सारा जंगल उदासी से भर जाएगा
दुनिया की सबसे सुरीली आवाज
आंसुओं में ढल जाएगी
(॰न्यौली – कुमाऊंनी लोकगीतों की एक विधा)

घुघुति *

(नेहा के लिए)
कहां है मेरे हिस्से का आसमान
अब भरनी है मुझे ऊंची उड़़ान
क्या यही कहती हो
जब फुलाती हो कभी गरदन
घुमाती हुई चहुं ओर
एकाएक बंद कर लेती हो आंखें
और उड़़ जाती हो सैकड़़ों किलोमीटर दूर
फिर कब लौट आती हो
पता ही नहीं चलता
तुम अक्सर इतनी ऊपर उठ जाती हो
बौनी नजर आने लगती है समूची सृष्टि
तभी पुकारने लगता हूं मैं
कहां हो घुघुति
मेरी ओ घुघुति
(घुघुति – उत्तराखंड में पाया जानेवाला कबूतर की नस्ल का एक पंछी)
_________________________________________________

हरि मृदुल

उत्तराखंड के चंपावत जिले के ग्राम बगोटी में ४ अक्टूबर १९६९ को जन्म.

दो कविता संग्रह- ‘सफेदी में छुपा काला’ और ‘जैसे फूल हजारी’ प्रकाशित. कुछ कविताओं और कहानियों के अंग्रेजी, कन्नड़, मराठी, पंजाबी, उर्दू, असमिया, बांग्ला और नेपाली में अनुवाद प्रकाशित. लोक साहित्य में रुचि और गति.

संप्रति:
 ‘नवभारत टाइम्स’, मुंबई में सहायक संपादक.
harimridul@gmail.com
Tags: कविताएँ
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