विकल्प की पत्रकारिता की जरूरत : संजय जोठे
भारत के प्रगतिशील साहित्यकार और पत्रकारों के साथ क्या हो रहा है यह अब चिंता और चिंतन का विषय बन गया है. रवीश कुमार के साथ या अन्य किसी भी प्रगतिशील साहित्यकार के साथ जो हो रहा है उसे गौर से देखने और समझने की जरुरत है. प्रगतिशील साहित्यकारों, ब्लागरों और चिंतकों सहित सार्वजनिक जीवन में सक्रीय प्रगतिशीलों पर हमले बढ़ गये हैं. हालत ये है कि अब फेसबुक पर सक्रिय प्रगतिशीलों के साथ भी गुंडागर्दी होने लगी है. ये भारत को पाकिस्तान या अफगानिस्तान बनाने का विराट षड्यंत्र है जिसे दुर्भाग्य से इस देश का बहुसंख्यक वर्ग अनजाने ही समर्थन दे रहा है. याद कीजिये जब पाकिस्तान या अफगानिस्तान की संस्कृति बर्बादी के कगार पर खडी थी या बर्बाद की जाने वाली थी तब भी धर्म और संस्कृति को हथियार बनाकर ही लोगों को सम्मोहित किया गया था. अभी भी वे मुल्क अगर उस दलदल से बाहर नहीं निकल पाए हैं तो इसका कारण यही है कि धर्म और संस्कृति का सम्मोहन टूट ही नहीं रहा है. यह सम्मोहन बरकरार रहे इसके लिए उन देशों में न सिर्फ मुख्य धारा के समाज में धर्म के सबसे पिछड़े और आक्रामक स्वरुप को चर्चा और प्रचार में ज़िंदा रखा जा रहा है बल्कि उसके समर्थन में आतंकवादी संगठन और अतिवादी सांस्कृतिक संगठन भी सक्रिय हो गए हैं. ये दशकों पुरानी बीमारी है. इसका परिणाम क्या है ये हम देख रहे हैं.
दुर्भाग्य से यह भारत में भी शुरू हो गया है. इस बात के लिए संस्कृति और धर्म के ठेकेदारों को दोष देने का या उनकी निंदा करने का कोई अर्थ नहीं है. वे इसीलिये बने हैं और वे ऐसा करेंगे ही. उनके व्यवहार और आचरण से आश्चर्य और दुःख होने का सवाल ही नहीं है. आश्चर्य और दुःख इस बात का है कि भारत के प्रगतिशील वर्ग में भी एक आत्मघाती या नकारात्मक प्रवृत्ति बहुत लंबे समय से बनी हुई है. वो प्रवृत्ति है “आलोचना ही करते रहने की प्रवृत्ति” , साहित्य एक अर्थ में पत्रकारिता भर बन चुका है. कम से कम प्रचलित साहित्य इसी अर्थ में है. यह बहुत भयानक निर्वात की स्थिति है. इसका सीधा सीधा अथे ये है कि पुराने धर्म के ठेकेदारों का सम्मोहन इतना अधिक है कि साहित्यकार वर्ग भी उनसे आजाद नहीं है. साहित्यकार भी पुराने धर्म की निंदा या आलोचना करके उस धर्म या संस्कृति से ही जुडा रहना चाहता है. पुराने धर्म से या किसी भी अन्य बात से जुड़े रहने के दो तरीके होते हैं या तो आप उनकी प्रशंसा करें या निंदा करें. दोनों अर्थ में आप उनसे जुड़े होते है. उस धर्म या संस्कृति से मुक्त होने के भी दो मार्ग हैं. पहला – उसकी उपेक्षा या दूसरा – नए धर्म और संस्कृति की प्रशंसा, स्थापना और प्रचार. सीधी बात ये है कि आप जिस चीज को बदलना चाहते हैं उसका विकल्प तो लाइए. बिना विकल्प लाये अगर पुराने की ही निंदा करते जायेंगे तो पुराने का सम्मोहन बढेगा – कम नहीं होगा. ये बात पूरे साहित्यिक वर्ग को पत्रकारों को और प्रगतिशीलों को समझनी चाहिए.
हिदी का या अन्य भाषा के साहित्य का भी अधिकाँश हिस्सा और पत्रकारों की बिरादरी का बड़ा हिस्सा इस तरह की आलोचना और निंदा से भरा हुआ है. इसे देखकर आश्चर्य और दुःख होता है. ये सभी लोग मनोविज्ञान के एक सामान्य से नियम का सम्मान नहीं कर पा रहे हैं. नियम ये है कि निकृष्ट की निंदा से निकृष्ट का प्रचार ही होता है. इसकी बजाय करना ये चाहिए कि श्रेष्ठ का प्रचार किया जाए. समाज में जो श्रेष्ठ विचार है, कृत्य हैं, श्रेष्ठ उदाहरण हैं और सकारात्मक काम हो रहा है उसका प्रचार करें. लेकिन यहाँ एक बहुत भयानक सवाल उठता है. ये सवाल पूरे साहित्यिक और पत्रकार जगत को कटघरे में खड़ा करता है. कई मित्रों को ये बात बुरी लग सकती है लेकिन इस पर चर्चा का समय अब आ गया है.
अक्सर ही यह माना जाता है कि छिद्रान्वेषण, और आलोचना ही साहित्य और पत्रकारिता है. साहित्य के सिद्धांतों या पत्रकारिता के सिद्धांतों में भले ही ये बात अस्वीकार की जाती हो लेकिन प्रचलित साहित्य और अखबार व टीवी की पत्रकारिता को देखकर तो यही लगता है कि साहित्य और पत्रकारिता का एकमात्र मतलब है आलोचना और निंदा. अब सवाल ये उठता है कि आपकी आलोचना या निंदा से समाज में होता क्या है? हमारे साहित्यकार और पत्रकार ये मानकर चलते हैं कि उनकी आलोचना बड़ी महान चीज है. एक अर्थ में है भी क्योंकि यह व्यवस्था की कमी को उजागर करती है. लेकिन कमी उजागर करने के बाद उस कमी को दूर करने की जिम्मेदारी किसकी है? ये बहुत भयानक सवाल है और इसका उत्तर निराश करने वाला है. आपकी सब निंदाओं आलोचनाओं के बाद क्या आप त्रुटिसुधार और नवनिर्माण के लिए कोई संगठित या सुविचारित मंच या आन्दोलन या तंत्र बना पाते हैं? या सिर्फ उसी धर्म और उसी सरकार के भरोसे बैठे रहते हैं? ये बड़ा सवाल है.
इस सवाल को दुसरे ढंग से समझिये. आपकी निंदा और आलोचना से जो निर्वात निर्मित होता है उसे भरने के लिए या नवनिर्माण को साधने के लिए आपकी निर्भरता किस पर है? और इससे भी बड़ा सवाल ये कि ऐसे किसी भी नवनिर्माण का नक्शा आपके पास है भी या नहीं है? दूसरा सवाल पहले से भी बड़ा है. असल में दूसरा सवाल पहले सवाल का उत्तर है. अगर गौर से देखा जाए तो समझ में आता है कि जो साहित्यकार और पत्रकार पुराने धर्म की किसी प्रवृत्ति का विरोध कर रहे हैं या पुराने ढंग के राजनीतिक सामाजिक दर्शन की या सरकार के ढर्रे की आलोचना कर रहे हैं, उन लोगों में नये धर्म या नास्तिकता या नए समाज/राजनीतिक दर्शन के बारे में क्या और कितना पता है? सिद्धांत में नहीं बल्कि उसके व्यावहारिक और सफल प्रयोग के बारे में कितना पता है? वैसे समाजवाद, मार्क्सवाद नास्तिकता या बौद्ध धर्म या जैन धर्म के बारे में सैद्धांतिक ज्ञान रखने वाले बहुत लोग मिल जायेंगे लेकिन इनका कहाँ किस तरह सफल प्रयोग हुआ है और उस सफलता का वृहत्तर समाज के लिए क्या उपयोग या संभावनाएं हैं ये वे नहीं जानते.
इसका क्या अर्थ हुआ? एक अर्थ ये है कि वे ऐसी केस स्टडीज को नहीं जानते. दूसरा और भयानक अर्थ ये है कि वे असल में बदलाव चाहते ही नहीं हैं. वे नयी स्थापना की बजाय पुरानी व्यवस्था की निंदा में ही अपनी शक्ति लगाए रखते हैं. ये सब सहज ही नहीं हो रहा है यह एक बड़ा षड्यंत्र है जो प्रगतिशीलता के नाम पर चल रहा है. इसीलिये तथाकथित प्रगतिशीलों, वामपंथियों और नास्तिकों की फ़ौज इस देश में होने के बावजूद सत्ता और व्यवस्था पर पुराने धर्म और संस्कृति का ही रंग चढा हुआ है, और मजबूत हुआ जा रहा है. जनता ने प्रगतिशीलों की नहीं सुनी और पिछले चुनाव में जनता ने इस प्रगतिशीलता की पूरी पोल खोलकर रख दी है. इस बात पर भी प्रगतिशीलों लेखकों और पत्रकाओं में कोई भूचाल नहीं आया. वे मजे से अपना एकांगी निंदा कर्म चलाए जा रहे हैं. असल में ऐसा करना उनकी मजबूरी बन चुका है. शायद ये मजबूरी भी नहीं है उनका सुविधापूर्ण चुनाव है.
कल्पना कीजिये कि कोई एक डाक्टर है वह केंसर स्पेशलिस्ट है. अब उसका धंधा कैसे चलेगा? अगर वो कैंसर की निंदा करें, कैंसर का आधा अधूरा इलाज करे और समाज में कैंसर को बनाए रखे तभी उस डाक्टर का धंधा बना रहेगा. इस दृष्टि से भारतीय साहित्य और पत्रकारिता को देखिये. वे पुरानी परम्परा की निंदा करते हैं, उसके बुरे परिणामों को उजागर करते हैं उसके बारे में भय पैदा करते हैं लेकिन नए धर्म, नई संस्कृति और नई जीवन व्यवस्था के उदाहरण सामने नहीं लाते. वे सब उसी पुरानी सडांध की चर्चा में देश की जनता को उलझाए रखते हैं.
पत्रकारिता तो खैर बहुत अर्थ में बाजार की गुलाम बन गयी है. वहां टीआरपी और पैसे की गुलामी ही सबसे बड़ी चीज है. रवीश कुमार जैसे दो चार लोगों को छोड़कर किसी से कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती. उनसे ये अपेक्षा रखना कि वे निंदा की बजाय नये विकल्पों की प्रशंसा में ऊर्जा और समय लगायेंगे – ये अपेक्षा कुछ ज्यादा हो जायेगी. लेकिन फिर भी सुझाव दिया जा सकता है. पत्रकार बिरादरी अच्छे उदाहरणों को केस स्टडी की तरह पेश क्यों नहीं करती? किसी गाँव में अंधविश्वास के कारण किसी स्त्री को डायन बताकर मार दिया – ये बात बहुत तेजी से दिखाई और फैलाई जाती है. लेकिन किसी दूसरी जगह कोई महिला सरपंच या नर्स या डाक्टर या टीचर बहुत अच्छा काम करके समाज बदल रही है – ये कोई नहीं दिखाता. इसका क्या अर्थ हुआ?
इसका सीधा अर्थ ये है कि पत्रकार वर्ग असल में डायन और उसको पैदा करने वाले धर्म और समाज में ही जनता को उलझाए रखना चाहता है. वो भी इसलिए क्योंकि उन्हें उनके शिक्षकों ने डायन, जातिवाद, भेदभाव, गरीबी इत्यादी ही पढ़ाया है. और चूंकी बाजार में भी यही बिकता है इसलिए सारे चेनल डायन को बेचते हैं वे एक कर्मठ महिला सरपंच, टीचर डाक्टर या अधिकारी की केस स्टडी सामने लाकर महिलाओं का सम्मान बढाने से बचते हैं. अगर वे महिलाओं को इस अर्थ में सम्मानित करेंगे तो उनका धंधा बंद हो जाएगा. सोचिये अगर सभी चेनल ये दिखाने लगें कि किसी गाँव में दलित और मुसलमान साथ में बैठकर खा रहे हैं या महिलायें घूँघट और पर्दा छोड़कर अधिकारी और लेखक, वैज्ञानिक आदि बन रही हैं तो क्या होगा ? यह बात पत्रकारिता जगत में ठेकेदार बनकर बैठे लोगों के लिए बहुत खतरनाक साबित होगी.
ख़तरनाक क्यों होगी ? वो इसलिए कि प्रगतिशील महिला को या प्रगतिशील समाज को जनमानस में स्थापित करने के बाद आपको भी अपना होमवर्क नये सिरे से करना होगा. डायन से वैज्ञानिक तक आ चुकी महिला को भविष्य में देने के लिए आपके पास क्या है ? यही सबसे बड़ी बात है. डायन की हत्या और गरीबी की बहस करते रहने के लिए चलताऊ किस्म के बुद्धिजीवियों और पत्रकारों सहित सभी मीडिया समूहों के पास बहुत मसाला होता है. असल में उनके पास बहुत मसाला है यही समस्या बन गयी है. जैसे किसी दूकान में कोई चीज जरूरत से ज्यादा हो तो वो उसी को बेचे जाते हैं उसी का प्रचार करते हैं. इसी तरह हमारी पत्रकारिता ने शोषण गरीबी और भेदभाव में इतना निवेश कर रखा है कि वे चाहते ही नहीं है कि बहस की दिशा बदल जाए. इसीलिये वे पुराने धर्म और पुरानी संस्कृति और समाज व्यवस्था की निंदा भर करते हैं लेकिन नयी व्यवस्था और नये विकल्पों की बात करने में घबराते हैं. और जब वे ऐसा करते हैं तो पुराने धर्म और संस्कृति के ठेकेदार भी उपर उपर से नाराज होते हैं कि हमारी निंदा हो रही है. लेकिन अंदर ही अंदर वे आश्वस्त भी रहते हैं कि वे लोग कम से कम अभी भी पुराने में ही उलझे हुए हैं, भले ही निंदा और विरोध के रिश्ते से जुड़े हैं लेकिन जुड़े हुए तो हैं. इसीलिये भारत के पोंगा पंडितों को पिछले साथ साल के साहित्य और पत्रकारिता ने लाभ ही पहुँचाया है. इस बार बहुमत से जो सरकार बनी है और उसके बाद जिस तरह के बदलाव समाज पर थोपे जा रहे हैं वे साफ़ बतला रहे हैं कि पत्रकार और साहित्यकार पूरी तरह नाकाम रहे हैं.
पत्रकारों की गुलामी समझ में आती है लेकिन साहित्यकारों और प्रगतिशीलों की क्या समस्या है? आइये अब इसपर विचार करें. सभी तर्कशील और प्रगतिशील साहित्यकार नए समाज के जिस दर्शन से अधिकतम प्रभावित होते पाए जाते हैं वह मार्क्स का दर्शन है. पुराने धर्म दर्शन या समाजदर्शन के विरोध में उन्होंने जो एकमात्र विकल्प चुना है वह है मार्क्स का नास्तिकवादी दर्शन. इसका चुनाव करते हुए या इसका प्रचार करते हुए यह मान ही लिया जाता है कि यही एकमात्र विकल्प है. साथ ही नास्तिकता और धर्म मात्र की निंदा करना सिखाया जाता है. क्या यह भारत की अधिकाँश जनसंख्या के लिए कोई विकल्प हो सकता है? क्या आप भारत की अनपढ़ गरीब और अन्धविश्वासी या धार्मिक जनता से नास्तिक होने की उम्मीद कर रहे हैं? एकसौ पच्चीस करोड़ लोग जिनमे से अधिकाँश दलित और आधे से अधिक महिलायें हैं आप उनसे नास्तिक होने की उम्मीद लगाए बैठे हैं? क्या ये समझदारी है ? यह बहुत भयानक प्रश्न है. इसका उत्तर देने से बचने वाला साहित्यिक व प्रगतिशील वर्ग अब कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए. जैसे भारत की गुलामी भारतीय धर्म की नपुंसकता का सबसे बड़ा सबूत है उसी तरह समाज में पोंगापंडितों के प्रकोप का पिछले बीस सालों में बढ़ते जाना भार में मार्क्सवादी प्रगतिशीलता की हार का सबसे बड़ा सबूत है.
लेकिन भारतीय साहित्यकार और मार्क्सवादी प्रगतिशील इतने लाचार और दिशाहीन क्यों हैं? क्या ये उनकी लाचारी से उपजी कोई समस्या है या वे उस समस्या को जानबूझकर अपनाकर लाचार बने रहने में आनंद लेते है? ये एक अन्य भयानक सवाल है. इसे दुसरे ढंग से रखते हैं. क्या भारत में मार्क्सवादी प्रगतिशीलों के पास वास्तव में ही आम जनता के लिए कोई विकल्प है? क्या उनके पास पुराने धर्म या समाज व्यवस्था के विकल्प के रूप में कोई नया धर्मदर्शन नयी जीवन व्यवस्था और नइ संस्कृति है? क्या आस्तिक अर्थ के अंधविश्वास और नास्तिक अर्थ की अराजकता के आलावा उनके पास विशुद्ध भारतीय मन के लिए कोई तीसरा विकल्प है ? इसका उत्तर है – नहीं. इसीलिये भारतीय प्रगतिशील पुराने धर्म की निंदा करते चले जायेंगे लेकिन नए धर्म की संभावना का द्वार नहीं खुलने देंगे. वे शायद मानकर ही चलते हैं कि धर्म का मतलब अनिवार्य रूप से ईश्वरवाद और आस्तिकता ही होती है. उन्हें इस बात पर विचार करना चाहिए कि इसी देश में बौद्ध और जैन भी रहते हैं जो ईश्वर को नहीं मानते. इसके बावजूद वे एक धर्म हैं.
इस बिदु पर आकर तमाम प्रगतिशील एकदम विरोध करने लगेंगे, वे कहेंगे कि बौद्धों और जैनों में भी अंधविश्वास और विभाजन हैं. कुछ हद तक ये बात सही है. लेकिन आप बुद्ध और महावीर को गौर से देखिये वे बहुत बुनियादी ढंग से ब्राह्मणी पाखण्ड को उखाड़ रहे थे. भारत में प्रगति या क्रांति का यही एकमात्र रास्ता है जो बुद्ध और महावीर ने चुना था. मार्क्स कभी भी भारतीयों के लिए स्थायी विकल्प नहीं हो सकते. कई मित्र कहेंगे कि बौद्ध धर्म और जैन धर्म जैसे निरीश्वरवादी धर्म से भी भारत में क्या लाभ हुआ है? आखिर उन्हें भी तो मिटा दिया गया है. ये बात सही है कि बौद्ध धर्म को मिटा दिया गया है और जैन धर्म अपनी मौलिकता खोकर समझौते करके जैसे तैसे ज़िंदा है लेकिन यहाँ एक बात समझनी चाहिए कि इसके बावजूद भारत में जो थोड़ी प्रगतिशीलता और नास्तिकता या भौतिकता के प्रति थोड़ा सम्मान बचा हुआ है तो यह बौद्ध और जैन धर्म के कारण है. बुद्ध से प्रभावित नाथ, सिद्ध, भक्तिकाल के संत आदि ने जो साहित्य लिखा है वह हम सब जानते ही हैं. भक्तिकालीन क्रांतिकारी संत जो जाती और वर्ण के खिलाफ खड़े हैं वे मार्क्स के चेले नहीं हैं, वे बुद्ध और महावीर के चेले हैं. उस समय तो मार्क्स हुए भी न थे. क्या कबीर या रविदास या नामदेव को मार्क्स की जरूरत है? हाँ आर्थिक प्रणालियों और प्रक्रियाओं में समानता लाने के लिए जरुर कबीर को मार्क्स से कुछ सीखना पड़ेगा लेकिन भारतीय जनसँख्या के लिए भारती जनमानस के लिए नए धर्म और नयी संस्कृति का क्या नक्शा होगा – ये तो मार्क्स को कबीर से सीखना होगा, बुद्ध महावीर से या गोरख से सीखना होगा.
यहाँ भी वही मजबूरी है जो पत्रकारिता पर छाई हुई है. भारत के साहित्य में भी यहाँ तक कि मार्क्सवादी व वामपंथी तबकों में ब्राह्मणवाद ही चल रहा है. वे ब्राह्मणवाद की निंदा जरुर करेंगे लेकिन उसके विकल्प सहित बुद्ध, महावीर, कबीर या वाल्मीकि को कभी खडा नहीं होने देंगे. असल में यह एक अन्य गुप्त खेल है. अगर वे बुद्ध महावीर को खडा करेंगे तो उन्हें भारतीय धर्मों को भारतीय नास्तिक या भौतिकवादी परम्पराओं को समझना पड़ेगा. और इन परम्पराओं के सामने मार्क्स बहुत चमत्कारिक मालूम नहीं होते. यह एक समस्या है. दुसरे समस्या ये कि ब्राह्मणी धर्म की निंदा करने के विशेषज्ञ के रूप में जिन लोगों ने अपनी पहचान या पीठ बना ली है अब उन्हें नए सिरे से नए धर्म की सृजनात्मक भूमिका का प्रचार करना सीखना होगा. मतलब ये कि केंसर के स्पेशलिस्ट को केंसर की बजाय किसी अन्य बीमारी का इलाज करना सीखना होगा. और वे यह सीखना नहीं चाहते. इसीलिये वे केंसर को गाली देते हैं लेकिन उसे ख़त्म करना नहीं चाहते. वे सनातन केंसर के रोगी को बुद्ध महावीर कबीर और नानक की दवाई नहीं खाने देते. और यही यह बात है जिसको अब खुलकर सामने लाना चाहिए. भारतीय पत्रकारिता सफल केस स्टडीज को सामने नहीं लाती? और भारतीय साहित्य या चिन्तक नए धर्म और संस्कृति सहित नये समाज दर्शन का विकल्प क्यों नहीं लाते ? ये दो बड़े सवाल हैं जो इन दोनों समुदायों से रोज रोज पूछने चाहिए.
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संजय जोठे university of sussex से अंतराष्ट्रीय विकास में स्नातक हैं. संप्रति टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस से पीएचडी कर रहे हैं.
sanjayjothe@gmail.com