भाषाएँ समाज की निर्मिति होती हैं.
भाषाओँ की दशा–दिशा को समझने के लिए समाज भी परखा जाता है. क्या हिंदी की वर्तमान स्थिति का सम्बन्ध उसके अपने बोलने वालों की संस्कृति, सामजिक-मनोवैज्ञानिक-आर्थिक स्थिति से नहीं है ? भाषा सम्प्रेष्ण का माध्यम होने के साथ ही संस्कृति की वाहक भी होती है.
हिंदी दिवस पर इस संवाद की यह चौथी कड़ी आपके लिए –
हिंदी की दुर्दशा का सनातन प्रश्न – भाग २
संजय जोठे.
हिंदी की दुर्दशा का सनातन प्रश्न – इस विषय पर मेरे पहले लेख की संरचना ही मैंने ऐसी बुनी थी जिसमे भारत के मौलिक मनोविज्ञान में बसी संस्कृति, सभ्यता, शुचिता, विकास और समन्वय की धारणा और उसकी कमजोरी को उजागर किया जा सके. इसका शीर्षक भी मैंने इसी तरह रचा था कि सनातन शब्द को एक समस्या की तरह सामने रखा जा सके. यह बहुत जरुरी है कि भारत को या भारत की भाषाओँ को इन शब्दों और इन रुझानों के साथ रखकर देखा जाये. भाषा एक गरीब और कमजोर विधा है जिसपर अन्य शक्तियों के कुकर्मों का ठीकरा फोड़ा जाता है. हिंदी की दरिद्रता के या इंग्लिश की समृद्धि के विमर्श भी इसी तरह है. न तो ये दरिद्रता भाषा की पैदा की हुई है न वो समृद्धि भाषा के द्वारा पैदा की हुई है. भाषा सिर्फ वह पर्दा है जिस पर किन्हीं अन्य शक्तियों के प्रोजेक्टर कुछ कुछ प्रोजेक्ट करते रहते हैं. आइये उन प्रोजेक्टरों की खबर लेते हैं.
असल में किसी भी देश की भाषा सहित उसकी सफलता असफलता का प्रश्न उस देश की संस्कृति और समाज मनोविज्ञान की सफलता असफलता का प्रश्न होता है. उस देश के सांस्कृतिक आग्रहों के गर्भ से ही उसकी भाषा या सृजन का भविष्य निर्देशित होता है. भाषा को सिर्फ भाषा के प्रश्न की तरह देखेंगे तो आप एक छोटे से विस्तार में कुछ भी सिद्ध या असिद्ध कर सकते हैं. भाषा की पाचन क्षमता और ज्ञान विज्ञान का सृजन कर पाने की क्षमता पर प्रश्न उठाने की प्रवृत्ति को भाषा की निंदा भी माना जा सकता है जैसा कि अधिकाँश लोग मानते हैं. हालाँकि यह बहुत स्पष्ट है कि मैं हिंदी की निंदा नहीं बल्कि उसकी और उसको निर्देशित करने वाली बड़ी शक्तियों की क्षमता की समालोचना कुछ ऐसे विस्तार में करना चाह रहा हूँ जो इस भाषा और उससे जुडी संस्कृति के अतीत वर्तमान और भविष्य पर गंभीर प्रश्नों को उजागर करता है.
इस विस्तार में जाए बिना अगर हम भाषा को राजभाषा या राष्ट्रभाषा की तरह बढ़ावा देने के एकांगी उद्देश्य से ही विचार करते रहेंगे तो लगभग उन्ही निष्कर्षों तक पहुंचेगे जहां तक राजभाषा उत्थान की परियोजना चलाने वाली चिंताएं पहुँचती रही हैं. हालाँकि इस परियोजना बुद्धि के वे निष्कर्ष और उनके प्रस्थान बिंदु भी बहुत महत्वपूर्ण हैं. उनका यथोचित सम्मान होना चाहिए. लेकिन यह ध्यान में रखकर सम्मान होना चाहिए कि इस सम्मान के मूल में हिंदी को राजभाषा या राष्ट्रभाषा की तरह “बढ़ावा देने की परियोजना का आग्रह” छुपा है. यह आग्रह भी महान है, इसका भी सम्मान होना चाहिए. लेकिन पुनः ध्यान में रखा जाए कि इस आग्रह की परिधि में जो एकायामी विमर्श आ रहा है वही मेरे द्वारा की गयी हिंदी की “समालोचना” को “हिंदी का विरोध और अंग्रेजी का समर्थन” बतला रहा है. यह आरोप एकदम गलत है और दुराग्रही है. इस आरोप के ठीक विपरीत मेरी प्रस्तावना का केन्द्रीय आग्रह यह है कि हिंदी भाषा का प्रश्न असल में एक संस्कृति के आग्रहों, दुराग्रहों सहित उस संस्कृति के सृजन के रुझान और उस सृजन की क्षमता का प्रश्न है जिस पर कुछ विशेष तरह की सांस्कृतिक, धार्मिक मान्यताओं की धुंध फ़ैली है. जब तक इस धुंध को नहीं छांटा जाता तब तक हिंदी का प्रश्न एक सरकारी परियोजना एक आन्दोलन (राष्ट्रवाद या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद) का गुलाम ही बना रहेगा. निश्चित ही भाषा और सृजन का प्रश्न परियोजनाओं और आंदोलनों का नहीं बल्कि आम आदमी की दैनिक जिन्दगी का प्रश्न होना चाहिए. क्या आम आदमी इस प्रश्न को अनुभव कर रहा है? या उसने अन्य संस्कृतियों और भाषाओँ में अपने समाधान खोज लिए हैं?
आइये इसे थोडा विस्तार में जानें. कोई भाषा कब समादृत होती है? या भाषा छोडिये कोई भी चीज कब समादृत होती है? तभी न जबकि उसका आपकी जिन्दगी को कोई सीधा सीधा लाभ हो रहा हो. इस विषय में भाषा से किस लाभ की अपेक्षा होती है? यही न कि इससे आपको अन्य मनुष्यों से जुड़ने की सुविधा मिले संवाद और संचार सहित सम्मान विकास और सशक्तीकरण का भी अवसर और सुविधा मिले. मोटा मोटी यही वे बातें हैं जो किसी भाषा या बोली से अपेक्षित है. अब गौर से देखिये कि मनुष्यों से जुड़ने, संवाद, संचार, सम्मान विकास और सशक्तिकरण को भाषा के अलावा और कौनसी चीज नियंत्रित कर रही है? क्या भाषा इन सद्गुणों को साकार करने की दृष्टि से स्वतंत्र समर्थ और सक्षम है? यही मेरा केंद्रीय प्रश्न है. इसे और सरल करूँ तो कहना होगा कि जिस कमजोरी या ताकत को हम भाषा की कमजोरी या ताकत मान रहे हैं वो वाकई उस भाषा के मत्थे मढ़ी जा सकती है? या किसी अन्य बड़ी शक्ति के मत्थे मढने योग्य है? क्या किसी संस्कृति, धर्म, आध्यात्मिक रुझान या समाज मनोविज्ञान की विशेषता के वाहक के रूप में भाषा अनावश्यक रूप से किसी अनचाहे दंगल का अखाड़ा तो नहीं बन रही है? यह मेरा प्रश्न है. और इसी के उत्तर की तरफ ले जाने के लिए मेरा पहला लेख था. अब इस दुसरे लेख में इसे और विस्तार देना चाहता हूँ.
मैं कोई भाषा विज्ञानी नहीं हूँ न साहित्यकार हूँ और न ही साहित्य का गंभीर पाठक ही हूँ. मैं सिर्फ समाजशास्त्र, धर्म के मनोविज्ञान और डेवेलपमेंट स्टडी के लेंस से भाषा और सृजन के प्रश्न को देख रहा हूँ. समाजशास्त्र जिस समाज मनोविज्ञान और विकास के मनोविज्ञान को उजागर करता है उसमे आप संस्कृतियों के आग्रहों दुराग्रहों के संगत उस समाज विशेष के विकास या पतन सहित इन्हें साधने वाली शक्तियों की विशिष्ट दिशाओं को देख सकते हैं. सामाजिक विकास और इस विकास के एक उपकरण की तरह लोकभाषा या मातृभाषा में ज्ञान विज्ञान के सृजन का प्रश्न मेरे लिए केंद्रीय प्रश्न है. मैं जब इसे सुलझाने निकलता हूँ तो मुझे यह नजर आता है कि भारतीय विश्वविद्यालय (जो किसी अर्थ में भारतीय नहीं बल्कि पश्चिमी मोडल पर बने हैं – यह भी सम्मान की बात है) किसी भी ढंग से भारतीय भाषाओँ में ज्ञान विज्ञान का सृजन नहीं कर रहे हैं. सृजन तो छोडिये अनुवाद भी नहीं कर रहे हैं. इसकी जिम्मेदारी आप किसपर डालेंगे? क्या यह प्रश्न हिंदी को कमजोर करता है? या हिंदी सहित इसके सर पर बैठी अन्य ऐतिहासिक शक्तियों की कमजोरी को प्रकाश में लाने का काम करता है? किसी बीमार की बीमारी को उजागर करके उसकी बदहाली का इलाज ढूंढना कोई पाप है? इस बिंदु पर गहरे जाने की आवश्यकता है.
अक्सर ही राजभाषा या राष्ट्रभाषा को समर्थ बनाने की “परियोजनायें” और “परियोजना का मनोविज्ञान” एक ख़ास लक्ष्य की तरफ निर्देशित रहता है. इस लक्ष्य की परिभाषा हालाँकि पुनः स्वयं इस भाषा के गर्भ से नहीं आती बल्कि इस भाषा को अपनी सांस्कृतिक विजय का उपकरण बनाने वाली और अतीत वर्तमान और भविष्य की व्याख्याओं को मनचाहे रंग में रंगने वाली एक अन्य ऐतिहासिक शक्ति के गर्भ से आती है. उदाहरण के लिए राष्ट्रभाषा या राजभाषा का भारत में जो घोषित लक्ष्य है वो भारत का एक राष्ट्र के रूप में एकीकरण है और भाषा को देशव्यापी संवाद का माध्यम बनाने का आग्रह है. अब ध्यान से देखिये हिंदी के रूप में राजभाषा का यह उपयोग उस बीमारी के इलाज के लिए अपेक्षित है जिस बीमारी का कारण स्वयं भाषा में ही नहीं है बल्कि भाषा से इतर किन्ही अन्य शक्तियों में निहित हैं, और मजा ये कि वे शक्तियां भाषा को भी बीमारी फैलाने के उपकरण की तरह ही इस्तेमाल करती आयीं हैं. भाषा से बड़ी या भाषा को इस्तेमाल करने वाली वे शक्तियां अर्थात धर्म, संस्कृति और आध्यात्मिक परम्पराएं – जो वास्तव में ही संगठित रूप से भाषा को अपने विशिष्ट लक्ष्यों के अनुरूप दिशा देती आई हैं और राष्ट्र सहित समाज की कल्पना और सीमाओं को आकार देती आई हैं – उनके द्वारा पैदा की गयी बीमारी को क्या आप सिर्फ भाषा के जरिये ठीक कर लेंगे? हाथी के पूरे शरीर ने जो अपराध किया है वह आप उसकी पूँछ को दंड देकर अनकीया कर लेंगे? क्या भारत में ज्ञान के सृजन की प्रेरणा का न होना और विज्ञान के प्रति ये सनातन वैरभाव और बांझपन केवल भाषा की समस्या है? क्या भाषा की क्षमता और सीमाओं के इतर हम इन प्रश्नों को सीधे सीधे देख सकते हैं?
यह देखना असल में भाषा के विमर्श की सीमा को लांघने का आग्रह करता है. इसीलिये मैंने अरबिंदो घोष के उद्धरणों को चुना. उनकी प्रसिद्द किताब है जो हिंदी में “भारतीय संस्कृति के मूल आधार” के नाम से प्रकाशित हुई है. उसमे वे भाषा की क्षमता को और उसकी सामर्थ्य को अपने आध्यात्मिक मनोविज्ञान के जरिये तौल रहे हैं और ऐसा करते हुए वे न केवल भाषा से अपनी अपेक्षाओं का स्पष्ट वर्णन कर रहे हैं बल्कि भाषा में इश्वर की काव्यमयी स्तुतिगान की सामर्थ्य की तुलना में वैज्ञानिक और तर्कपूर्ण ज्ञान के सृजन की सामर्थ्य को दोयम सिद्ध कर रहे हैं.
अरबिंदों घोष मूलतः कवि और योगी थे और इसी कारण वे प्राचीन भारतीय काव्य साहित्य में इतनी गहराई से प्रवेश कर सके थे. उन्होंने अपने रुझान और सामर्थ्य से भारतीय दर्शन और उस दर्शन से जन्मे समाज मनोविज्ञान का जो नक्शा बनाया है वह वास्तव में बहुत सटीक और महत्वपूर्ण है. उनकी किताबें देखिये. हीगल की भाषा जितनी दुरूह है उतनी ही दुरुहता का जाल वे अपनी किताबों में रचते हैं और बड़ी उपमाओं इत्यादि का उपयोग करते हुए वेदान्तिक दर्शन और रहस्यवाद को भारत के अनजाने अतीत से उठाकर अनिश्चित से भविष्य में प्रक्षेपित करते रहते हैं. यही भारत की सनातन पुराण बुद्धि है. यह बुद्धि जब स्पष्ट रूप से भाषा पर टिप्पणी कर रही है तो भाषा की चिंता करने वालों को इसे बड़े अक्षरों में अपनी दीवार पर लिख लेना चाहिए. उनकी टिप्पणी को नोट करते हुए मैं असल में भारत के पौराणिक मनोविज्ञान द्वारा भाषा के सचेतन उपयोग के रुझान को नोट कर रहा हूँ. किन्हीं मित्र को यह लग सकता है कि मैं विषय की सीमा से बाहर जा रहा हूँ. लेकिन मेरे लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है. जब आप एक दुधमुंहे बच्चे के अपराधों की चर्चा उसके माँ बाप के रुझानों की चर्चा के बिना करते हैं तो किसी को तो बच्चे की फ़िक्र छोड़कर मान बाप की गर्दन पकडनी ही होगी न?
अब इन माँ बाप के रुझानों को देखिये. हिंदी अगर छोटा बच्चा अहै तो माँ बाप हुए इस देश की संस्कृति अध्यात्म और धर्म. अब ठीक से देखिये जिस एकीकरण और सृजन को आप हिंदी भाषा के जरिये साधना चाहते हैं या जिस एकीकरण और सृजन के लिए हिंदी की सबलता का स्वप्न देखते हैं वह एकीकरण और सृजन किसके जरिये रोका गया है? क्या हिंदी ने लोगों को विभाजित किया है और ज्ञान विज्ञान के सृजन के प्रति अनुर्वर बनाया है? क्या कोई भी समझदार आदमी ये आरोप लगा सकता है? मेरे ख्याल से जिसे भारत का थोड़ा भी ज्ञान होगा वह ऐसा नहीं करेगा. गौर से देखिये असल में किन्ही बड़ी शक्तियों ने भारत को विभाजित और बाँझ बनाया है और फिर इस बाँझ भीड़ के हाथों में संस्कृत तमिल या हिंदी पकड़ा दी गयी है. अब हम बांझपन के इलाज की चर्चा करते हुए संस्कृत या हिंदी के गर्भाशय का परीक्षण कर रहे हैं. यह एकदम भ्रांत दिशा है विचार विमर्ष की. हमें उस गर्भाशय का परीक्षण करना चाहिए जहां से स्वयं संस्कृत या हिंदी जन्मी है. इस स्थिति में हिंदी की सामर्थ्य का विमर्ष स्वयं भाषा के विमर्श की परिधि को लांघ जाएगा. तब इसे आप कोई भी नाम दें लेकिन मेरी दिशा यही है.
हिंदी हो या कोई भी भाषा हो- वो स्वयं में आत्यंतिक रूप से सृजन को संभव या असंभव नहीं बनाती. हाँ उसके रुझान गद्य या पद्य सहित काव्य या तर्क के प्रति लगाव को फेसिलिटेट जरुर कर सकते हैं. लेकिन भाषा की सामर्थ्य किसी संस्कृति की सृजन सामर्थ्य को तय नहीं कर सकती. बल्कि इससे उलटा ही सत्य है, अर्थात किसी संस्कृति की सृजन क्षमता ही उसकी भाषा को बाँझ या उर्वर बनाती है. हालाँकि यहाँ एक और बड़ा प्रश्न है जिसे अभी नहीं उठाना चाहिए- वो प्रश्न है कि इस सृजन की दिशा भी क्या होनी चाहिए? कहने को तो भारतीय भाषाओँ में और संस्कृत में भयानक रूप से विस्तृत और अन्धविश्वासी आलौकिक पुराण साहित्य रचा गया है लेकिन क्या यह सृजन वास्तव में सृजनात्मक है? इस प्रश्न को अभी छोड़ते हैं. फिर भी इस प्रश्न का एक अंश हमारी चर्चा के लिए उपयोगी है.
वह अंश इस अर्थ में उपयोगी है कि यदि पुराण साहित्य के विस्तार को रचने में जिस भाषा ( ठीक से कहें तो भाषा की प्रवृत्ति) और जिस मनोविज्ञान का उपयोग किया गया है क्या उस मनोविज्ञान और भाषा से हमने पर्याप्त दूरी बना ली है? ध्यान रहे कि पुराण रचने का आरोप दुनिया की सभी भाषाओँ पर लगता है लेकिन यूरोप की सबसे प्रमुख भाषा इंग्लिश ने अपने उस अतीत और उस रुझान से दूरी बना ली है. क्या भारतीय भाषाओँ ने ऐसा कुछ किया है? हालाँकि फिर से यहाँ कहना चाहूंगा कि यह चुनाव भी स्वयं भाषा नहीं करती बल्कि भाषा रुपी इस बच्चे के वो माँ बाप करते हैं जिनकी चर्चा हमने ऊपर की है.
हिंदी और हिंदी में ज्ञान विज्ञान के सृजन के संबंध में मेरी चिंताओं को इस अर्थ में मैं रखता हूँ. मैं नहीं जानता यह भाषा का विमर्श है या संस्कृति का विमर्श है. लेकिन जमीन पर भाषा और संस्कृति के बांझपन को देखने का यह तरीका मुझे जरुरी लगता है. अनजाने या “प्रक्षेपित महान अतीत” और भविष्य के रोमांटिसिज्म की चकाचौंध में हिंदी और उसकी चिंताए जैसी नजर आती है या उससे जुड़े समाधान जैसे नजर आते हैं उन प्रश्नों या समाधानों की जिम्मेदारी स्वयं हिंदी पर है ही नहीं- इस बात को गहराई से समझना होगा.
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sanjayjothe@gmail.com
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