अभिनव मुक्तिबोध : साहित्य का पुनर्संदर्भीकरण (recontextualisation)
अरुण माहेश्वरी
सिर्फ रामचंद्र शुक्ल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, अज्ञेय, केदारनाथ सिंह और साहित्य के स्वघोषित महापौर अशोक वाजपेयी ही नहीं, लगता है, यह समय है जब एक बार फिर से मुक्तिबोध को भी पुनर्विचार के दायरे में लाया जाए.
वे पिछले पांच दशक से भी ज्यादा समय से हिंदी की साहित्य संबंधी चिंताओं के केंद्र में हैं. लेकिन बीतते समय के साथ, जैसे वैष्णव धर्म के वज्र को उठा कर ब्राह्मणों ने शैवों को लगभग व्रात्य, अशुद्ध जीवन व्यतीत करने वाले श्मशानवासी, नरमुंडों में मद्यपान करने वाले कामवासनाओं की भयंकर क्रियाओं में लिप्त कापालिक, किसी कर्म में विश्वास न करने वाले संहारकर्ता भैरव के पुजारी भर बना कर छोड़ दिया और दिलचस्प रूप में, फिर भी, शैवानुशासन ग्रहण करने को तीक्ष्ण बुद्धि ब्राह्मण का अधिकार बता कर उसे ब्राह्मणवाद में पूरी तरह से आत्मसात कर लिया, लगभग उसी तरह हिंदी साहित्य जगत के पंडे–पुजारी भी शायद इसी बात का इंतजार कर रहे हैं कि मुक्तिबोध को उनकी विशिष्टता के सभी तत्वों से विरेचित करके उन्हें किसी सुदूर अतीत की पूजनीय निष्प्राण प्रतिमाओं की कतार में शामिल कर लिया जाए ताकि, भले भैरव की तरह ही क्यों न हो, उन्हें सिर्फ और सिर्फ पूजा का पात्र बनाया जा सके.
यह सच है कि हममें से कइयों का अब तक यह विश्वास बना हुआ है कि इन पंडों–पुजारियों की हडि़डयों में इतना दम नहीं है कि वे मुक्तिबोध को अपने पंजों में कस सके. ऐसी कोशिशों से उनके पंजों की हड्डियों के चटख जाने का खतरा है. लेकिन समय की अपनी एक स्वाभाविक जड़ता भी है. उससे तभी किसी सत्य को बचाया जा सकता है जब उसे, संयोगों के नए बिंदु पर, अतीत के गहरे खोल में जाकर, पुनर्अर्जित किया जाए, कह सकते हैं – पुनर्संदर्भित किया जाए. एक प्रकार के पूर्ण प्रत्यावर्तन, अभिनवगुप्त के ईश्वर प्रत्यभिज्ञा विमर्श की तरह, जीवन के नवीनतम समय में उसे फिर से व्याख्यायित करके फिर से अपनाया जाए.
बहरहाल, पिछले तमाम वर्षों में मुक्तिबोध पर लिखने के कई मौके आए. खास तौर पर, 2013 में उनके जन्मदिन के अवसर पर उनके समग्र व्यक्तित्व पर एक विहंगम दृष्टि डालते हुए संक्षेप में उन पर जो लिखा, उसे यहां देना चाहूंगा. उस टिप्पणी का शीर्षक था – ‘मुक्तिबोध का संदेश’.
मुक्तिबोध ने जीवन में खूब लिखा. नेमीचंद जैन ने छ: खंडों में जो मुक्तिबोध रचनावली संकलित की है, उसके अतिरिक्त भी उनका लिखा काफी कुछ है. खुद नेमी जी ने विभिन्न कारणों से ऐसे छूट गये लेखन का जिक्र किया है. आज तक प्रकाश में न आ पायी उनकी रचनाओं में एक उपन्यास भी है, जिसके कम्पोज हुए 80 पृष्ठों को नेमीजी ने प्रकाशक के पास देखा था, लेकिन बाद में उसका एक बिखरा हुआ खंडित रूप ही दूधनाथ सिंह द्वारा संपादित पत्रिका ‘पक्षधर’ के जरिये नेमीजी के हाथ लग पाया जिसे मुक्तिबोध रचनावली के तीसरे खंड के अंत में संकलित किया गया था. 1943 में ही उन्होंने अज्ञेय जी के साथ मिल कर हिंदी साहित्य के एक सर्वाधिक चर्चित तारसप्तक प्रकल्प की योजना बनायी थी. वह किसी एक का उद्यम नहीं, बल्कि सातों परस्पर–परिचित कवियों का एक सहयोगी प्रकल्प था. मुक्तिबोध तारसप्तक के पहले कवि थे. नेमीचंद जैन ने अन्यत्र भी तथ्यों से इस परियोजना में मुक्तिबोध की खास भूमिका को रेखांकित किया है. अपने समय की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र–पत्रिकाओं में मुक्तिबोध लिखते रहे. ‘नया खून’ साप्ताहिक पत्रिका के तो वे खुद संपादक थे.
इन सबके बावजूद गौर करने लायक सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि उनकी कविताओं का पहला संकलन ‘चांद का मूंह टेढ़ा है’ उनकी मृत्यु के बाद ही प्रकाशित हो पाया था. 11 सितंबर 1964 के दिन उनकी मृत्यु हुई. उसके पहले श्रीकांत वर्मा ने उनकी ‘एक साहित्यिक की डायरी’ प्रकाशित की थी, जिसका दूसरा संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ से उनकी मृत्यु के दो महीनों बाद प्रकाशित हुआ. ज्ञानपीठ ने ही ‘चांद का मूंह टेढ़ा है’ प्रकाशित किया था. इसी वर्ष नवंबर 1964 में नागपुर के विश्वभारती प्रकाशन ने मुक्तिबोध द्वारा 1963 में ही तैयार कर दिये गये निबंधों के संकलन ‘नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध’ को प्रकाशित किया था. परवर्ती वर्षों में भारतीय ज्ञानपीठ से मुक्तिबोध के अन्य संकलन ‘काठ का सपना’, तथा ‘विपात्र’ (लघु उपन्यास) प्रकाशित हुए. पहले कविता संकलन के 15 वर्ष बाद, 1980 में उनकी कविताओं का दूसरा संकलन ‘भूरी भूरी खाक धूल’ प्रकाशित हुआ. 1980 में ही ‘राजकमल’ से छ: खंडों में ‘मुक्तिबोध रचनावली’ प्रकाशित हुई, जिसका पेपरबैक संस्करण 1985 में निकला. मुक्तिबोध रचनावली हिंदी के इधर के लेखकों की सबसे तेजी से बिकने वाली रचनावली मानी जाती है. मुक्तिबोध पर शोध और किताबों की भी झड़ी लग गयी. 1975 में ही अशोक चक्रधर का शोध ग्रंथ ‘मुक्तिबोध की काव्यप्रक्रिया’ प्रकाशित होगया था.
अशोक वाजपेयी ने ‘भूरी भूरी खाक धूल’ की भूमिका में लिखा है कि उनकी कविता के पहले संकलन के प्रकाशन से लेकर 15 वर्षों बाद प्रकाशित हुए उनके इस दूसरे संकलन के बीच के काल में हिन्दी कविता पर मुक्तिबोध एक तरह से छाये रहे हैं : अगर किसी बुजुर्ग से युवतम पीढ़ी अपने को जोड़कर प्रामाणिकता और सार्थकता पाने को उत्सुक है तो मुक्तिबोध से ही
1970-71 का ही वह काल था जब हम सरीखे लेखकों का लेखन में बिस्मिल्लाह हुआ था. सचमुच मुक्तिबोध का बोलबाला था. जहां देखो, हर नौजवान लेखक मुक्तिबोध की चर्चा में लगा हुआ था. पत्र–पत्रिकाओं में लंबे–लंबे लेख लिखे जा रहे थे.
सोचने की बात यह है कि अपने इतने विपुल लेखन, तमाम स्तरो पर निरंतर साहित्यिक सक्रियता और तारसप्तक (1943) की तरह के सर्वाधिक चर्चित आयोजन के योजनाकार और भागीदार होने के बावजूद जो मुक्तिबोध अपने जीवित काल में उतने प्रभावशाली नहीं दिखाई देते, (यद्यपि एक समय वे प्रलेस के प्रादेशिक नेतृत्व में थे, और सभी साक्ष्यों के अनुसार अपने समय के कई महत्वपूर्ण लेखकों से निरंतर संपर्क में भी थे), वे मृत्यु के उपरांत, खास तौर पर सन् ‘67 के बाद 70 के पूरे दशक में क्यों अचानक हिंदी के पूरे साहित्य–विमर्श पर पूरी तरह से छा जाते हैं?
इस सवाल के साथ यदि आज हम मुक्तिबोध का पुनर्मूल्यांकन करें तो हमारे सामाजिक–सांस्कृतिक और साहित्यिक परिदृश्य से जुड़ी ऐसी बहुत सी चीजें सामने आ सकती है जो संक्रमण के किसी भी दौर को और उसमें व्यक्ति विशेष की भूमिका को गहराई से समझने–परखने की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण होती है.
(दो)
60 के दशक के उत्तराद्र्ध का वह दौर हिंदी में साठोत्तरी, बांग्ला से प्रभावित भूखी और श्मशानी पीढ़ी का दौर था. प्रगतिशील साहित्य आंदोलन इसके पहले ही दिशाहीन होकर बिखर चुका था. परिमलवादी भी सीआईए द्वारा चालित ‘एनकाउंटर’ और ‘कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम’ के कीचड़ से कलंकित होकर अपना प्रभाव गंवा चुके थे. यह साहित्य में चरम हताशा, अराजकता और मूल्यहीनता का दौर था. कोलकाता के लेखक मुर्दे की अध्यक्षता में गोष्ठी करते थे. जीवन की तमाम वर्जनाओं को तोड़ने के नाम पर जुगुप्सा की हद तक अश्लीलता इस लेखन की पहचान थी. अकविता, अकहानी का एक और अबूझ सा आंदोलन दस्तकें दे रहा था.
सामाजिक स्तर पर पूंजीवादी दुनिया से जुड़े तीसरे विश्व का आर्थिक दिवालियापन, सामाजिक मूल्यहीनता और राजनीतिक तानाशाही भारत में भी निपट नंगे रूप में प्रकट हो रहे थे. जघन्य सामाजिक विषमता, व्यापक बेरोजगारी, औद्योगिक गतिरोध और खाद्यान्नों के अभाव से जनता के तमाम स्तरों में गहरी निराशा और मोहभंग की स्थिति थी.
सवाल था कि जनता का यह मोहभंग कैसे व्यक्त हो?
वामपंथ का अपना संकट था. 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी विभाजित हो गयी. शासक दल के साथ चिपकी सीपीआई ने प्रगतिशील साहित्य आंदोलन की कोई साख नहीं रख छोड़ी थी. प्रतिरोध की ताकतों में वामपंथ की ओर से एक ओर जहां सीपीआई(एम) थी, तो दूसरी ओर सोशलिस्ट पार्टी और जनसंघ का दक्षिणपंथी गठबंधन. इसी परिस्थिति में सन् ‘67 के आम चुनाव में पहली बार भारत के आठ राज्यों में एक साथ कांग्रेस दल के शासन की 20 सालों की इजारेदारी टूटी.
ऐसे समय में साहित्य आंदोलन की बागडोर पुराने, साख गंवा चुके सीपीआई के अधीन प्रगतिशीलों के हाथ में नहीं रह सकती थी. नये जनवादी साहित्य आंदोलन के लिये साहित्य के नये, संघर्षशील और जनवादी प्रतिमानों की जरूरत थी. व्यापक मोहभंग, दिशाहीनता और तनाव के ऐसे काल में ही काष्ठवत हो चुके साहित्य के ‘प्रगतिशील’ प्रतिमानों के विपरीत मुक्तिबोध की आलोचना दृष्टि, उनका संशय और उनके जनतांत्रिक सरोकार हिंदी साहित्य की दुनिया के लिये किसी ठंडी हवा के झोंके की तरह सुखदायी और साहित्य के जनवादी प्रतिमानों के पुनर्निर्माण की प्रेरणा देने वाली आलोचना दृष्टि साबित हुई. साथ ही, उनकी कविताएं भी काव्य-चर्चा के केंद्र में आ गयी.
इसी मुक्तिबोध विमर्श ने हिंदी में प्रेमचंद शताब्दी के मौके पर शुरू हुए नये जनवादी विचार-मंथन को नया रूप दिया और 1982 में हिंदी और उर्दू के लेखकों के सबसे बड़े संगठन जनवादी लेखक संघ का जन्म हुआ. प्रगतिशील आलोचक-प्रवर रामविलास शर्मा अंत तक मुक्तिबोध की मघ्यवर्गीय व्याधियों की ओर इशारा करते रह गये; लेकिन ‘इतिहास और आलोचना’ वाले इसी परंपरा के दूसरे रथी डा. नामवर सिंह ने 1968 में ही ‘कविता के नये प्रतिमान’ में मुक्तिबोध का लोहा मानते हुए कहा था कि अपनी आलोचनात्मक क्षमता के द्वारा मुक्तिबोध ने प्रमाणित कर दिया कि कोई भी चीज तभी स्पष्ट होती है जब कम-से-कम एक ईमानदार व्यक्ति मौजूद हो.
यह ‘नई कहानी’ के ईमानदार समीक्षक नामवर सिंह की एक स्वाभाविक आत्मोपलब्धि थी.
कहना न होगा, इतिहास में मुक्तिबोध की इसी ‘एक ईमानदार व्यक्ति’ के रूप में मौजूदगी ने उन्हें मुक्तिबोध बनाया.
आज फिर एक बार राजनीति और विचारों के क्षेत्र में भारी दिग्भ्रम और असमंजस की स्थिति है. वैश्वीकरण की चकाचौंध, भारी सामाजिक विषमता. पूरा समाज निराशा और व्यापक मोहभंग की कगार पर है.
भारतीय वामपंथ के सामने फिर एक बार अपने पुनर्गठन की चुनौती है.
मुक्तिबोध ने अपनी पहचान को छिपाते हुए कभी सीपीआई के चेयरमैन श्रीपाद अमृत डांगे के नाम भारी मन से एक लंबे पत्र में लिखा था :
“The profoundly artistic and valuable progressive literary works are the best answer to the Reaction, because such works will have lasting value and profound impact. Merely ideological attitudes, in place of profound meaning and artistic excellence will not make progressive writers more influencial.
“…self-criticism on the part of progressive thinkers, critics, and writers is long over-due.”
(प्रतिक्रिया का सर्वोत्तम उत्तर बहुत ही गंभीर कलात्मक और मूल्यवान प्रगतिशील साहित्यिक लेखन हो सकता है, क्योंकि ऐसे लेखन का टिकाऊ मूल्य और गहन प्रभाव होगा. गहन अर्थ और कलात्मक श्रेष्ठता की जगह महज विचारधारात्मक दृष्टि प्रगतिशील लेखकों को प्रभावशाली नहीं बनायेगी.
…प्रगतिशील विचारकों, आलोचकों और लेखकों को काफी पहले से ही आत्म-समीक्षा की जरूरत है.)
‘‘लगता है कि जैसे ऐतिहासिक परिघटनाओं का एक और वृत्त पूरा हो चुका है. ऐसे समय में मुक्तिबोध से शिक्षा लेते हुए यही कहना होगा कि आज फिर सभी लेखकों, चिंतकों और समीक्षकों के लिये गहरी आत्म-समीक्षा का समय आ चुका है. ’’
इसप्रकार, मुक्तिबोध पर लिखने के बहाने पूरा बल जिस बात पर पड़ा, वह था – आज फिर सभी लेखकों, चिंतकों और समीक्षकों के लिये गहरी आत्म-समीक्षा का समय आ चुका है.
मुक्तिबोध के बारे में इस परिचयात्मक टिप्पणी से ही जाहिर है कि जो शख्स एक पूरे समाज को आत्म-समीक्षा के लिये मजबूर करता दिखाई दें, वह खुद समग्र रूप से पुनर्रीक्षण के इस दौर में किसी भी प्रकार की समीक्षा के दायरे से बाहर कैसे रह सकता है ! खास तौर पर तब तो और भी नहीं, जब हम देखते हैं कि हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना के दो प्रमुख आलोचक, रामविलास शर्मा और नामवर सिंह मुक्तिबोध पर लिखने के बाद ही समकालीन कविता पर अपने लेखन की कलम को तोड़ चुके हैं. नामवर सिंह ने उन्हें, जैसा कि ऊपर कहा गया है, साहित्य में एक ईमानदार उपस्थिति के ‘शिव’ तत्व की अंतिम पहचान देकर हिंदी कविता में संधान की अपनी साधना को विराम दे दिया और फिर कहानी की ओर रुख किया. और, नामवर सिंह की ‘कविता के नए प्रतिमान’ के नौ साल बाद, डा. रामविलास शर्मा ने उसके प्रत्युत्तर में लिखी गई अपनी किताब, ‘नई कविता और अस्तित्ववाद’ में मुक्तिबोध को उनके ‘अस्थिर भावबोध और वैचारिक उलझनों के विखंडित व्यक्तित्व’ के अस्तित्वीय अपराध के दोष के चलते अबूझ मान कर उन्हें मृत्यु को प्राप्त करने का दंड सुना, अपनी कलम तोड़ दी थी.
वैसे यह सच है कि आज डा. रामविलास शर्मा की किताब ‘नई कविता और अस्तित्ववाद’ की समीक्षा से ही मुक्तिबोध पर पुनर्विचार का कोई नया सिलसिला शुरू करना सबसे आसान और माकूल तरीका हो सकता है.
डा. शर्मा की इस किताब की एक सबसे बुनियादी समस्या है कि उन्होंने अस्तित्ववाद के बारे में अपनी एक मोटी सी समझ का सैद्धांतिक ढांचा तो विकसित कर लिया लेकिन वे जिस साहित्य को अस्तित्ववादी बताना चाहते हैं, उसे नहीं जाना. जो आलोचक किसी एक सैद्धांतिक ढांचे में साहित्य की प्रवृत्तियों पर राय दिया करते हैं, वे कितने ही ज्ञानी-मुनी क्यों न हो, अंतत: उनके सारे विश्लेषणों की मूल्यवत्ता उस साहित्य विशेष के अवलोकन पर ही निर्भर करती है. अर्थात, इस मामले में उनका पहले से अर्जित ज्ञान का ढांचा काम नहीं आता है. उसे साहित्य के गहन अवलोकन से ही बार-बार अद्यतन करने की जरूरत पड़ती है.
लेकिन डा. शर्मा की तरह के लोगों की समस्या यही होती है कि वे साहित्य से शक्ति अर्जित करने के बजाय अपनी शक्ति के बल पर साहित्य के मुकाबले में उतरा करते थे. आईंस्टाईन ने क्वांटम फिजिक्स की व्याख्या के सिलसिले में कहा था कि एक बड़ी प्रक्रिया, जिसे आप ईश्वरीय विधान भी कह सकते हैं, में उसके अनुषंग के तौर पर साथ-साथ ऐसे और भी कई छोटे क्वांटम आसिलेशन्स (quantum oscillations) होते रहते हैं, जिन्हें यह ईश्वरीय विधान नजरंदाज करता है. और इन्हीं दोलनों को देखने में अपनी असमर्थता के कारण जो ईश्वर धोखा नहीं देता, वह खुद धोखा खा जाता है. इसीलिये क्वांटम भौतिकी अन्तत: भौतिकी है, जो किसी ईश्वरीय धर्मशास्त्र के निर्देशों पर नहीं चला करती है.
अस्तित्ववाद के बारे में पुरानी, अर्थात सोवियत संघ के जमाने की, मार्क्सवादी बद्धमूल अवधारणा यह रही है कि ‘यह एक अतार्किक धारा है, एक ऐसा विश्व दृष्टिकोण जो बुर्जुआ बुद्धिजीवियों की मनोदशा के अनुरूप होता है. यह संकट में फंसे हुए सतही आशावादी, बुर्जुआ उदारतावाद का विश्व दृष्टिकोण है जो इस युग की तूफानी घटनाओं के सामने टिक नहीं पा रहा है. इसके धर्मीय या अनीश्वरवादी, सभी रूपों की मुख्य समस्या आदमी के जीने के तर्क की तलाश है.’ सोवियत काल के मार्क्सवादी विद्वानों ने इसे मार्क्सवाद के विकल्प की तलाश की बाकी अनेक बुर्जुआ कोशिशों से जोड़ते हुए कहा था कि यह ज्ञानप्रसार काल के ‘तर्क और बुद्धिवाद का विलोम’ है. तर्क-बुद्धिवाद प्रत्येक चीज को जांच का विषय मानने के कारण निवैर्यक्तिक होता है. अस्तित्ववाद इसी निवैर्यक्तिकता का विलोम है.
अस्तित्ववादी चिंतन की यह एक बुनियादी मान्यता रही है कि दैनंदिन जीवन की आपाधापी में मनुष्य अपने अस्तित्व के प्रति असजग रहता है. उसे इसका बोध तभी होता है, जब वह किसी सीमांत पर, मृत्यु के सम्मुख खड़ा होता है. और इसी अस्तित्वबोध के साथ आदमी अपने स्वतंत्रता के बोध को भी पाता है. सिर्फ समाज के प्रति नहीं, वह खुद अपने प्रति जिम्मेदार होता है. और यही अवबोध व्यक्ति को अपने चारों ओर जो भी घटित हो रहा है, उसके प्रति एक प्रकार के अपराध-बोध से ग्रसित करता है. इतिहास की हर घटना के प्रति मनुष्य को जिम्मेदार मानने के नाते, वह जीवन में अवसरवाद और अनुसरणवाद का विरोधी है.
पुराना मार्क्सवाद स्वतंत्रता की इस व्याख्या को आत्मगतवादी (Subjective), निवैर्यक्तिकता का विलोम मानता है. चूंकि यह आदमी के अस्तित्व को उसके अन्तर्मन से जोड़ कर देखता है, इसीलिये उस पर आरोप है कि वह सत्य को हमेशा आत्मगत मानता है, वस्तुगत नहीं.
(देखिये Progress Publication, Moscow द्वारा प्रकाशित – Dictionary of Philosophy)
डा. रामविलास शर्मा भी जब अस्तित्ववाद पर विचार करते हैं तो मोटे तौर पर मास्को के विद्वानों की दी हुई अस्तित्ववाद के बारे में इसी प्रकार की एक समग्र समझ के जड़ीभूत ढांचे में कैद रहते हैं. किर्केगार्द के बारे में कहते हैं – ‘‘वह भौतिकवाद की छाया से दूर थे, वह हेगेल से भी बढ़ कर आइडियलिस्ट थे.’’
(रामविलास शर्मा, अस्तित्ववाद और नयी कविता, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ – 93)
किर्केगार्द की प्रसिद्ध कृति है – DIAPSALMATA (Either/or). इसका पहला वाक्य ही है – ‘‘कवि क्या है? एक नाखुश आदमी जिसके अंतर में गहरी पीड़ा छिपी है, लेकिन जिसके होठों की बनावट ऐसी है कि जब उसका दुख और रूदन इन होठों से गुजरते हैं, तो वे मधुर संगीत की तरह सुनाई देते हैं.’’
(What is a poet ? An unhappy man who hides deep anguish in his heart, but whose lips are so formed that when the sigh and cry pass through them, it sounds like lovely music)
और आलोचक, जो कवि को सौन्दर्यशास्त्र के नियम बताते हैं, ऐसा नहीं, वैसा करो, उनके बारे में वह कहता है कि ‘‘सही है कि एक आलोचक कवि जैसा ही दिखता है, बस उसके अंतर में कोई पीड़ा नहीं होती, उसके होठों पर कोई संगीत नहीं होता.’’
(Of course, a critic resembles a poet to a hair, except he has no anguish in his heart, no music on his lips)
यह जगह किर्केगार्द की कविता, उनके दार्शनिक, धर्मशास्त्रीय, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक विचारों और काव्य में ध्वनि सिद्धांतों पर चर्चा करने की नहीं है. और न यह जगह किर्केगार्द से लेकर उनकी परंपरा के मार्सेल, यास्पर्स, बेद्र्यायेव अथवा अनीश्वरवादी अस्तित्ववादी हाइडेगर, सार्त्र, कामू के विचारों की पूरी श्रृंखला पर ही विस्तार से चर्चा की है. सार्त्र कहते है कि मनुष्य मानवीयता को अर्जित करता है, इस अर्जन से आत्मसात किये गये उसके उद्देश्य मानव मात्र के लिये हितकर होते हैं. तत्कालीन मार्क्सवादियों ने मनुष्य के द्वारा अर्जित इस सत्य को ही मध्यवर्गीय दुर्बल चरित्र का प्रमाण बताया. डा. शर्मा तो यहां तक चले गये कि योरोप में हिटलर के हमले से फ्रांस एक झटके में गिर गया, इसकी वजह यही थी कि ‘‘वहां का मध्यवर्ग जिस दुर्बलता से ग्रस्त था, उसका एक रूप था अस्तित्ववाद.’’(वही, पृष्ठ – 94)
किर्केगार्द की बातों में हमें भले ही शैवी नाद के सर्जनात्मक, शक्तिस्वरूप विसर्ग की तरह की कोई चीज दिखाई दें, लेकिन डा. शर्मा उसे ‘‘भौतिकवाद की छाया से ही दूर ’’ कह कर लताड़ने और फ्रांस की पराजय के लिये अस्तित्ववाद को जिम्मेदार मानने में एक क्षण के लिये भी दुविधा महसूस नहीं करते ! जबकि, उनकी बातों से भी यही लगता है कि वे खुद इस पराजय को मनुष्यों से पूरी तरह स्वतंत्र, किसी वस्तु सत्य से जोड़ कर नहीं देख रहे हैं ! जब अस्तित्ववादी कहते हैं कि ‘‘मनुष्य स्वयं अपने उद्देश्यों को निश्चित करके जीवन को सार्थक कर सकता है’’ तो वे इस सोच को ‘‘दर्शन और साहित्य दोनों में एक हानिकारक प्रवृत्ति’’ करार देते हैं ! लेकिन खुद मनुष्य के अंतर की दुर्बलता को राष्ट्र की पराजय का कारण बताने से परहेज नहीं करते ! दरअसल, विचारधारा से जुड़ी चेतना और अस्तित्व में निहित चेतना में पहली यथार्थवादी और दूसरी अस्तित्ववादी है, इस प्रकार की बातों का कोई तुक नहीं है !
मार्क्स ने कहा था, मनुष्य अपने भाग्य का निर्णय खुद करता है, लेकिन हमेशा उपलब्ध परिस्थिति की सीमा में. सोवियत काल के आधिभौतिक मार्क्सवाद में ‘उपलब्ध परिस्थिति’’ की बात को तो याद रखा जाता था, लेकिन इस कथन को पूरी तरह से नजरंदाज कर दिया जाता था कि ‘‘मनुष्य अपने भाग्य का निर्णय खुद करता है’’.
कहना न होगा, यही वह भटकाव रहा है जो माक्र्सवाद को एक प्रकार के नियतिवाद में तब्दील करके उसे मानव मन की भौतिकता के विषय से पूरी तरह से काट देता है, साहित्य के विवेचन में उसकी सृजनात्मकता का हनन करता है. और इसी वजह से डा. शर्मा सरीखे आलोचक बेधड़क मुक्तिबोध के संदर्भ में अपने ज्ञान की इस महान बात को दोहरा देते हैं कि ‘‘परिस्थितियों का सही ज्ञान न होगा तो उद्देश्य चाहे जितना मानववादी हो, उसे कार्यरूप में परिणत करने का फल मनुष्य की इच्छा के विपरीत होगा.\” (वही, पृष्ठ- 95)
लेकिन गौर करने की बात है कि यहां भी अंत में मामला ‘सही और गलत ज्ञान’ पर ही आ टिकता है ! यह अन्तत: आदमी के अन्तर्जगत से जुड़ा विषय ही है, वस्तुगत नहीं !
डा. शर्मा के समय से लेकर आज तक गंगा से बहुत पानी बह गया है. समाजवादी शिविर, जिसने दुनिया की गति को अपनी तरह से बदल देने का ठेका लिया था, वह खुद अपने अस्तित्व को गंवा बैठा है. और इसी प्रकार, मार्क्सवादी चिंतन की इस प्रकार की आधिभौतिक, फतवा सुनाने वाली धाराओं का भी कोई दाम नहीं रह गया है.
आज द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की अवधारणा का पूरा महल इस सत्य पर टिका हुआ है कि इसमें अब तक अस्तित्व की प्राथमिकता की जितनी भी बातें क्यों न की गई हो, चेतना और अस्तित्व की द्वंद्वात्मकता को स्वीकारना ही प्रकारांतर से दोनों को समान्तराल पर रखना है. आज का प्रमुख मार्क्सवादी दार्शनिक स्लावोय जिजेक जब द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को एक नई आधारशिला पर रखने के अपने प्रकल्प की ओर बढ़ता है तो वह शुरू में ही द्वन्द्वात्मकता को निश्चयात्मक रूप से संश्लेषण (synthesis) की किसी प्रक्रिया में देखने के बजाय द्वंद्वों के एक असंगत मिश्रण के रूप में देखता है.
(not as a universal notion, but as “dialectical [semiotic, political] matters,” as an inconsistent (non-All) mixture.)
गौर करने की बात यह है कि भारतीय योगसाधना में यह मान कर चला जाता है कि मन विकल्पात्मक होता है, अविकल्प नहीं. जिजेक अपनी इस सबसे महत्वपूर्ण किताब ‘Absolute Recoil’ में आदमी के मनन की प्रक्रिया में चीजों के बनने-बिगड़ने के तमाम पक्षों के सम्मिश्रण के इसी विकल्पात्मक महाभाव का ही विवेचन करते दिखाई देते हैं. चीजों के बारे में आदमी के ज्ञान में कितने प्रकार के पहलू काम करते है, जो द्वंद्वात्मक प्रक्रिया के बीच से ही आदमी के हस्तक्षेप से भौतिक दुनिया को बदलते हैं, इसके तमाम पक्षों को उन्होंने इस उपक्रम में उजागर किया है. माक्र्सवादी चिंतक एलेन बदउ के शब्दों को उधार लेते हुए वे कहते सच्चे भौतिकवाद को ‘‘बिना भौतिकवाद वाला भौतिकवाद’’ (materialism without materialism) कहा जा सकता है.
जैसे भारत के कश्मीरी शैवमत के 11वीं सदी के दार्शनिक अभिनवगुप्त ‘तंत्रालोक’ में कहते हैं कि जब हम विषय के अन्तर्विरोधों (विकल्पों) पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं, अन्तर्विरोधों का संस्कार, शोधन और परिमार्जन शुरू हो जाता है और वह अन्त में स्फुटतम अवस्था पर पहुंच जाता है, एक निश्चित अर्थ देने लगता है. इस प्रकार, कहा जा सकता है कि द्वंद्वात्मकता से एक अद्वैत ज्ञान तक की यात्रा तय होती है. ‘विश्वभावैकभावात्मकता’ तक की. (विश्व में जितने भी नील-पीत, सुख-दुख आदि भाव है, उन सबका एक भावरूप में, सर्व को समाहित करने वाले महाभाव रूप में, आत्मरूपता का अविकल्प भाव से साक्षात्कार के सर्वश्रेष्ठ स्वरूप तक की)
यह ‘द्वंद्वों का असंगत मिश्रण’ ही प्रत्यभिज्ञा का सामस्त्य भाव है. (श्रीमदभिनवगुप्तपादाचार्य विरचित: श्रीतंत्रालोक:, प्रथममाकिम् -..141..)
यहां इन तमाम बातों के कहने का तात्पर्य सिर्फ यही है कि मुक्तिबोध के किसी भी पुनर्मूल्यांकन के वक्त डा. रामविलास शर्मा के उनके बारे में मत को, अस्तित्ववाद के बारे में उनके सोच को माक्र्सवादी सोच मान कर चलने से हम शुरू में ही इतनी उल्टी दिशा को पकड़ लेंगे जो हमें अपने गंतव्य से दूर, और दूर ही ले जायेगी. सचाई यह है कि रचनाकार की सामाजिक स्थिति और उसकी आकांक्षाओं के द्वैत पर टिका डा. शर्मा का पूरा सोच मनुष्य की आत्मगतता की अपनी भौतिकता (Materialism of subjectivity) को एक सिरे से खारिज करके चलने के एक अजीबोगरीब आधिभौतिक (आस्थावादी) सोच पर टिका हुआ है. इसीलिये डा. शर्मा अस्तित्ववाद के संदर्भ में यौन, क्रांति, ब्रह्मचर्य या परकीया प्रेम की तरह के विषयों पर जितने निद्र्वंद्व भाव से कलम चलाते है वह मार्क्सवाद नहीं, एक प्रकार से कांट की नैतिक विश्व-दृष्टि वाला नजरिया है जिसके बारे में हेगेल की राय थी कि इस प्रकार के नैतिक आदर्श को प्राप्त करने का अर्थ है आत्म-विध्वंस. अर्थात ऐसी नैतिकता के बने रहने के लिये ही जरूरी है कि वह हमेशा अपनी विफलता की कामना करे. यह बात डा. शर्मा के साहित्य के प्रतिमानों पर शत-प्रतिशत लागू होती है.
(तीन)
लेखन का सच लेखक के भौतिक जीवन के बजाय उसकी आकांक्षाओं और सपनों के आत्मगत पहलू की भौतिकता पर आश्रित होता है, जो हमेशा एक प्रकार से उसके भौतिक जीवन की बाधाओं के पार जाने के आत्म-संघर्ष से भी जुड़ा होता है. डा. शर्मा ने मुक्तिबोध के इस आत्म-संघर्ष का कोई मूल्य नहीं लगाया, बल्कि उसका मजाक उड़ाया. लेकिन यथार्थ में देखा गया कि ‘80 के दशक के बाद साहित्य के नये जनवादी उन्मेष के काल में मुक्तिबोध का यही आत्म-संघर्ष साहित्य में जनवादी मूल्यों के संघर्ष की पताका बन गया.
डा. शर्मा जब यौन की चर्चा में क्रांति को लाते हैं या ब्रह्मचर्य में परकीया प्रेम को, तब वे इन युग्मों के घटकों की पूरी तरह से भिन्न प्रवृत्तियों की प्रकृति से अनभिज्ञ दिखाई देते हैं. वे नहीं देखते कि आदमी की कामनाएं और उसकी क्रियात्मक प्रवृत्तियां, ये दोनों पूरी तरह से अलग-अलग चीजें हैं. जीवन की भौतिक परिस्थितियों से उत्पन्न आत्मानुभूति और उस आत्मानुभूति पर आधारित हमारे व्यवहार के बीच हमेशा एक गहरी खाई होती है. व्यवहारिक क्रियाकलापों और जिज्ञासाओं, विश्वासों में पूरा मेल नहीं होता है. कहते हैं कि कर्मकांडों का पालन करो, स्वत: आस्था पैदा हो जायेगी.
लेकिन सचाई यह है कि आदमी के मानसिक और भौतिक क्रियाकलापों के ये दो पहलू बिल्कुल अलग-अलग, समानान्तर चलने वाले पहलू होते हैं. और इनके बीच कोई मध्यस्थताकारी सूत्र नहीं होता. दरअसल, जब भी कोई विश्वास और व्यवहार को पूरी तरह से एकमेक करके रखने की कोशिश करता है तो लगता है जैसे वह रंगमंच पर कोई परिहास से भरा हुआ नाटक पेश कर रहा हैं. क्योंकि इस प्रकार की वैचारिकता का व्यवहारिक प्रदर्शन या जैविक व्यवहार का आस्थावादी प्रदर्शन सिर्फ एक प्रहसन में ही मुमकिन है. ब्रेख़्त के नाटकों का पूरा ढाँचा इसी प्रकार के आस्था के अभिनय के प्रदर्शन से जुड़े एक गहरे मसखरेपन पर टिका हुआ है .
विजय तेंदुलकर के नाटक ‘खामोश अदालत जारी है’ को देखिये. इस पूरे नाटक की बुनावट ब्रेख्तियन ढर्रे की है जिसमें पात्र महज अभिनय करने के लिये इकट्ठा होते हैं और अभिनय के क्रम में ही जिसे वे नाटक समझ रहे थे, वह उनके विश्वास और सच का रूप ले लेता है और जिसे वे अपना सच या विश्वास मान कर चल रहे थे, वह कोरा नाटक या दिखावा प्रतीत होने लगता है. पूरा नाटक एक गहरे अवसादमूलक प्रहसन में बदल जाता है.
रामविलास जी अज्ञेय को उद्धृत करते हैं – ‘‘कलाकार एक प्रकार के मानसिक संघर्ष में जीया करता है. संघर्ष कला की जननी है. और संघर्ष संकल्प ओर परिस्थति में चला करता है.’’
और कहते हैं –
‘‘संघर्ष केवल संकल्प और परिस्थिति में नहीं था, संकल्प और विकल्प में भी था…. संकल्प सबके प्रगतिशील थे. कवि मध्य वर्ग के लेकिन कविता में अपने को सर्वहारा कल्पित करके मध्यवर्ग को गालियां देते थे.’’
डा. शर्मा इन कथित अस्तित्ववादी कवियों की अभिव्यक्ति शैली से किस प्रकार दो-दो हाथ करते हैं, इसके एक उदाहरण को अज्ञेय के ही बारे में उनके लेख में थोड़ी गहराई से परखा जा सकता है . इसमें वे एक जगह लिखते हैं- ‘‘रवीन्द्रनाथ ने निर्झर वाले प्रतीक को बहुत लोकप्रिय बना दिया. ‘निर्झरेर स्वप्नभंग’ उनका निर्झर शिलाखंडों का भार व्यर्थ करके अंधकार से प्रकाश में बह निकलता है. अज्ञेय कहते हैं – ‘तुम पर्वत हो अभ्रभेदी शिलाखंडों के वरिष्ठ पुंज, चाँपे इस निर्झर को रहो.\” बावरा अहेरी). निर्झर की आकांक्षा है कि पर्वत उसे चाँपे रहे. यह नये रहस्यवाद की विशेषता है. पुराने रहस्यवाद का निर्झर पत्थरों को तोड़ कर बह निकलता है.\”
(रामविलास शर्मा, वही, पृष्ठ 74)
अर्थात ‘निर्झर’ है तो वह रहस्यवाद ही है, भले नया हो या पुराना ! रवीन्द्रनाथ की जिस ‘निर्झरेर स्वप्नभंग’ से डा. शर्मा को पुराने रहस्यवाद का दर्शन होता है, आइये, जरा हम उस कविता के बारे में थोड़ी सी चर्चा कर लें, डा. शर्मा के कथित मार्क्सवाद की सीमाओं का पूरा पता चल जायेगा.
यह कविता रवीन्द्रनाथ के ‘प्रभात संगीत’ शीर्षक संकलन की, जब वे मात्र 21 साल के थे, एक बहुचर्चित कविता है. इस संकलन की कविताओं पर अपने धार्मिक संस्कारों की आध्यात्मिकता के असर को उन्होंने खुद स्वीकारा है. इसी में निर्झरेर स्वप्नभंग के बारे में उन्होंने लिखा – “एक अभूतपूर्व अद्भुत हृदय-स्फूर्ति के दिन निर्झरेर स्वप्नभंग लिखी गयी थी, लेकिन उस दिन कौन जानता था कि उस कविता में मेरे समस्त काव्य की भूमिका लिखी जा रही है.”(जोर हमारा – अ.मा.)
“आजि ऐ प्रभाते रविर कर/ केमने पासिलो प्राणेर ‘पर / केमने पासिलो गुहार आंधारे/ प्रभात पाखीर गान!/ ना जानि केनोरे एतो दिन परे/ जागिया उठिलो प्राण!/ जागिया उठेछे प्राण, / उरे उथलि उठेछे बारि,/ उरे प्राणेर वासना प्राणेर आवेग/ रूधिया राखिते नारी.“
(आज के इस प्रभात काल में सूर्य की किरणें/ प्राणों के भीतर कैसे प्रवेश कर गयीं?/ गुहा के अंधकार में प्रभात-पक्षी का गान कैसे समा गया?/ न जाने, इतने दिनों बाद प्राण क्योंकर जाग उठे हैं?/ प्राण जाग उठे हैं,/ अरे पानी उछल कर उमड़ पड़ा है. / अरे! प्राणों की वेदना, प्राणों के आवेग को रोक रखना संभव नहीं अब!)
प्राणों के इस प्रवाह की गति महा, विशाल समुद्र की ओर थी, “न जाने, आज क्या हुआ कि जाग उठे हैं प्राण/ मानो, कानों में पड़ा हो दूरस्थ महासागर का गान“. इस महासागर की प्रतिमा ही रवीन्द्रनाथ में बाद में विराट पुरुष, महामानव का रूप लेती है. परवर्ती दिनों की रवीन्द्रनाथ की संपूर्ण राजनीतिक चेतना का बीज रूप जैसे इस कविता में दिखाई देता है. गीतांजलि की प्रसिद्ध कविता ‘भारत तीर्थ’ के ‘एई भारतेर महामानवेर सागरतीरे’ के पूरे रूपक के आधार को आध्यात्मिक अखंड विश्व, असीम और अनन्त ब्रह्मांड से जुड़े उनके विस्तृत हृदय, अकुंठ व्यक्तित्व में देखा जा सकता है. भारत की गुलामी की जंजीरों ने उनमें आक्रोश तो पैदा किया लेकिन कभी भी पराजय या किसी प्रकार की कुंठा का भाव पैदा नहीं हुआ.
हम यहां रवीन्द्रनाथ के इस प्रसंग की इसीलिये चर्चा कर रहे हैं ताकि रचना में कवि की भाव-भूमि और उसकी अभिव्यक्ति के कभी कोई निश्चित फार्मूले नहीं हो सकते हैं. निर्झरेर स्वप्नभंग के स्फूर्ति-भाव को रवीन्द्रनाथ ने आगे के अपने पूरे साहित्य की भूमिका बताया था. यह रहस्यवादी आध्यात्मिकता के किसी सिद्धांत की पुनरुक्ति का मामला नहीं था.
ग़ालिब का शेर है –
बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया, मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा, मेरे आगे
इसीलिये जब तक आप जीवन में हर क्षण खेले जा रहे इन प्रहसनों को देखने की, आस्था और व्यवहार के अभिनयों के सत्य को परखने की दृष्टि हासिल नहीं करेंगे, इनके बीच मेलबंधन के भ्रम में खोये रहेंगे, रचनाकार के मनोभावों को उसकी रचना में देखना असंभव होगा. और ऐसे ही हम, जिसे कहते हैं, ऋजुवचन विरचित शास्त्रों की, मार्क्सवाद की, दुगर्ति करते रहेंगे. हम रचना के इस सच को कभी नहीं समझेंगे कि रचना प्रक्रिया में रचनाकार जब खुद को खुद में खुद से अलग करता है, वही उसकी सृष्टि का क्षण होता है, जिसे रचना का तीसरा क्षण कहते हैं.
(चार)
माक्र्स की इस बात को अक्सर उद्धृत किया जाता है कि विचार आदमी की चेतना में बस कर भौतिक शक्ति का रूप ले लेते हैं. जाहिर है, ऐसे में आदमी के अंतर की भौतिकता की कभी अवहेलना नहीं की जा सकती है. मार्क्सवाद के ऐतिहासिक भौतिकवादी और सामाजिक परिवर्तन के पहलू से कम नहीं है तत्वमीमांसा के क्षेत्र में मार्क्सवाद की भूमिका. ‘पूंजी’ के स्तर का राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में इतना विशाल काम करने के बाद भी मार्क्स चाहते थे बाल्जक की कृति La Comedie Humaine पर काम करना. लेनिन की Materialism and Empirio-criticism से लेकर ग्राम्शी, लुकाच, वाल्टर बेंजामिन आदि आदि से लेकर अभी अम्बर्तो इको, स्लावोय जिजेक तक के तत्वमीमांसा, सौन्दर्यशास्त्र और मनोविश्लेषण के क्षेत्र के काम क्या मार्क्सवाद-विरोधी काम है ?
जैसे ही हम आत्मगतता की अपनी भौतिकता को स्वीकारेंगे, हमें यह समझ में आने लगेगा कि कैसे किसी भी रचनाकार या विचारक पर विचार उसके आत्म-प्रकाश का विमर्श भी होता है और यह विमर्श ही हमें उसमें नये सत्यों के उद्घाटन का रोमांच प्रदान करता है. यह रचनाकार का आत्म-विमर्श है. रचना के स्वरूप का अवभास ही वह विमर्श है जिसे हम रचनाकार का आत्म-संघर्ष कह सकते हैं. इसी से खुद रचनाकार भी अपने स्तर पर रोमांचित होता है. उसका आत्म प्रकाश और आत्म संघर्ष एक शाश्वत विमर्श है. इसी में रचनाकार की स्वतंत्रता वास करती है. यह स्वतंत्रता ही उसे अपनी शक्ति का बोध कराती है. उसका पूरा रचना जगत इसी आत्म-विमर्श का परिणाम होता है, जो उसमें हमेशा निहित होता है. इस प्रसंग के तात्विक पहलुओ पर हम ऊपर ‘भौतिकवाद-विहीन भौतिकवाद’ की एलेन बदउ की अवधारणा के संदर्भ में विचार कर चुके हैं.
बहरहाल, मुक्तिबोध के ‘समीक्षा की समस्याएं’ लेख को ध्यान से देखियें, आप पायेंगे, वे उसमें लगातार लेखक से जीवन, विचार और रचना में एक प्रकार के घनघोर आदर्शवाद की मांग के दबाव से जैसे जूझ रहे हैं ! उनकी शिकायतें हैं –
‘‘वे काव्य को अपने सिद्धांतों के उदाहरण के रूप में देखना चाहते हैं. चूंकि यह हो नहीं पाता, इसलिए वे बिगड़ पड़ते हैं.’’
‘‘आत्मग्रस्त व्यक्तिकेन्द्री काव्य ! क्या शैले का काव्य आत्मग्रस्त व्यक्तिकेन्द्री नहीं था ? क्या रवीन्द्र का काव्य आत्मग्रस्त व्यक्तिकेन्द्री नहीं था ? क्या महादेवी और प्रसाद का काव्य आत्मग्रस्त व्यक्तिकेन्द्री नहीं था ?’’
‘‘मार्क्सवाद यदि एक विज्ञान है (जैसा कि वह है), तो वैसी स्थिति में उसके लिए तथ्यानुशीलन – जीवनगत और काव्यगत, दोनों एक साथ – प्राथमिक और प्रधान महत्व रखता है.’’
‘‘लेखक महापुरुष बन कर पैदा नहीं होता, वह आदर्शवादी, अध्यात्मवादी, साम्यवादी बन कर नहीं जनमता. वह अपने सामाजिक वातावरण में सांस लेकर अपने परिवेश से प्रतिक्रिया करता है.’’
‘‘साहित्य-क्षेत्र में जो प्रवृत्तियां उत्पन्न होती है, जो प्रश्न उत्पन्न होते हैं, वे सारत: जीवन के प्रश्न है, वे जीवन-स्थितियों और जीवन-प्रवृत्तियों से सम्बन्धित हैं. अतएव, उनके सम्बन्ध में, अधिक गंभीरता और मर्मग्राही दृष्टि के अतिरिक्त आत्म-निरपेक्ष तथ्यानुसंघान और उदार कोमलता आवश्यक है. वे सारे गुण सिद्धांतनिष्ठता के विरोधी नहीं, वरन् उसके पूरक है. समीक्षक को भी चरित्र की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी कि लेखक को ईमानदारी की.’’
लगभग 54 पृष्ठों के इस लेख में मुक्तिबोध ने इस प्रकार की जो तमाम बातें कही है, वे सभी तत्कालीन प्रगतिवादी समीक्षा के अवांछित नैतिक दबाव के प्रति उनमें पैदा हुई तीव्र प्रतिक्रिया की बातें ही थी. मुक्तिबोध के जीवन से परिचित सभी यह जानते हैं कि मुक्तिबोध खुद अपने क्षेत्र में प्रगतिशील लेखक संघ के एक प्रमुख संगठक थे. रामविलास जी ने भी उनपर लिखते वक्त इस बात को नोट किया है. लेकिन जब वे खुद प्रगतिवादी समीक्षा के प्रति इतने क्षुब्ध थे, तो इससे प्रलेस में उनकी स्थिति का भी एक अनुमान मिल जाता है. शायद वे थे ‘रमेश’, मुक्तिबोध की ही कहानी ‘नई जिंदगी’ का पात्र, जिसमें ‘‘पढ़ने-लिखने और बात करने का नशा था. अपने विचारों-भावों और इरादों ने ही, उसे इतने जोर का धक्का दिया था कि उसके आघातों से वह धीरे-धीरे सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में बढ़ता चला गया, और उसकी आज इतनी ताकत हो गयी थी कि वह ‘नेतृत्व की दूसरी पंक्ति’ में आकर बैठ गया था.’’
‘नेतृत्व की दूसरी पंक्ति’ में बैठा आदमी ! यह ‘दूसरी पंक्ति में बैठा आदमी’ कैसा होता है, रमेश ही बताता हैं – ‘‘मुझे एक ऐसा गुरु चाहिए जो छड़ी मारे. वह मुझ-पत्थर में से एक सच्चा मनुष्य पैदा कर सकता है.’’ कहानी में कथावाचक ‘मैं’ उसकी इस ‘आत्महननमयी’ आलोचना से क्षुब्ध हो जाता है.
दरअसल, यह संगठनों के प्रभुत्वशाली नेतृत्व का हमेशा का आजमाया हुआ नुस्खा है – अपने अधीनस्थों को किसी भी बहाने एक अंतहीन आत्म-समीक्षा के चक्रव्यूह में फंसा कर उनसे सार्वजनिक विमर्शों में शामिल होने के हक को छीन लो. कम्युनिस्ट पार्टियों का मध्यवर्गीय नेतृत्व भी अपने मध्यवर्गीय अनुयायियों को हमेशा टुटपुंजियापन से मुक्त होने और डीक्लास होने की अंतहीन कसरत में उलझा कर रखता है. इसीलिये जब हम मुक्तिबोध के आत्मसंघर्ष पर गौर करते हैं, जिसे डा. शर्मा उनके ‘विभाजित व्यक्तित्व का आत्मसंघर्ष’ बताते हैं, वह यदि उनके किसी लाइलाज मर्ज की तरह जान पड़ता है, तो वह मर्ज जितना उनकी जैवी-संरचना की उपज नहीं था, उससे कहीं ज्यादा डा. शर्मा की तरह के प्रगतिशील आलोचकों के नेतृत्व की देन था.
सिद्धांतों का व्यवहारिक रूप अक्सर कुछ क्षुद्र कर्मकांड बन कर सामने आने लगते हैं. इससे दीक्षितों का एक नया संसार तैयार हो जाता है. इसका बहुत सुंदर उदाहरण हम अभिनवगुप्त के तंत्रालोक पर उसके टीकाकारों की व्याख्या के इस उदाहरण में देख सकते हैं. अभिनव लिखते हैं –
बौद्धज्ञानेन तु यदा बौद्धमज्ञानजृम्भितम् .
विलीयते तदा जीवन्मुक्ति: करतले स्थिता .. 44 ..
अर्थात
बौद्ध ज्ञान के द्वारा जब बौद्ध अज्ञान का विस्तार समाप्त हो जाता है तब जीवन्मुक्ति करतल में स्थित हो जाती है. टीकाकार जयरथ इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं –
‘गुरूणैव यदा काले सम्प्रदायो निरूपित: .
तदाप्रभृति मुक्तोऽसौ यन्त्रं तिष्ठति केवलम् ..
अर्थात
‘जिस समय गुरु ने (शिष्य के लिये) सम्प्रदाय का निरूपण किया तभी से यह मुक्त हो गया. (अब जीवित रहने वाला यह शिष्य) केवल यन्त्र के समान रहता है.’
यह आदमी को एक प्रकार की अस्तित्वहीनता की ग्रंथी में डालने का उपक्रम है, उसे आत्म-विहीन (subjective destitute) बनाने का उपक्रम. अब आदमी की अपनी कामनाएं नहीं, दूसरों की उनसे की जाने वाली अपेक्षाओं से उसकी अपने बारे में एक काल्पनिक छवि तैयार होने लगती है.
लुइस आल्थुसर अपनी आत्मकथा, The future lasts foever : A Memoir में लिखते हैं कि उन्होंने अपना समूचा वयस्क जीवन इसी भाव के साथ काटा कि जैसे उनका कोई अस्तित्व ही न हो. सिर्फ इस डर से कि अन्य, अर्थात उनके पाठक उनकी इस अस्तित्वहीनता को पहचान लेंगे और उनके ढोंग को जान जायेंगे, वे अपने होने का स्वांग भर करते रहें.
अर्थात, दीक्षितों का संसार यांत्रिक मनुष्यों का संसार होता है. गुरूओं की एक सीख यह भी है कि ‘‘दीक्षारहित लोगों के सामने शैवशास्त्र का उच्चारण नहीं करना चाहिए.’’
‘समीक्षा की समस्या’ के लेखों का एक केंद्रीय विषय तत्कालीन प्रभुत्वशाली प्रगतिशील आलोचना था. यह मुक्तिबोध की ईमानदारी थी कि अपने पूरे समीक्षामूलक लेखन में वे लगातार रामचंद्र शुक्ल और रामविलास शर्मा के विचारों से टकराते हैं, उनसे पीडि़त नजर आते हैं, खुद आत्म-संघर्ष में लगे रहते हैं, लेकिन एक भी स्थान पर इन नेतृत्वकारी लोगों की अधीनता को मान कर उनकी प्रशंसा में कुछ भी कहने से सख्त परहेज करते हैं. इसी अर्थ में हम कहेंगे कि डा. शर्मा ने मुक्तिबोध से अपने को अलग करके ही वस्तुत: मुक्तिबोध को नया जन्म दिया. यह सचाई है कि जिसे नकारा जाता है, उसे ही प्रकारांतर से पैदा किया जाता है.
हमने मुक्तिबोध के आत्म-संघर्ष को ‘एक लाइलाज मर्ज की तरह का’ कहा है. जैसे कोई कैंसर हो – जो रुकना भूल जाए, सोना भूल जाए, हर उस चीज को भूल जाए जो मानवीय है, प्राकृतिक है – वही तो कैंसर होता है. अनियंत्रित कोशिका. जीवन का मतलब है सब कुछ भूल कर भी कुछ न भूलना, सब याद रख कर भी कुछ याद न रखना. लेकिन कैंसर में ऐसी कोई धूप-छाह नहीं होती. प्रश्न है कि क्या मुक्तिबोध ऐसी किसी बीमारी से ग्रस्त थे ? यह बीमारी तो हर प्रकार के जड़सूत्रवादी विचारों में फंसे आदमी का रोग है ! फिर मुक्तिबोध में यह कैसे हो सकती है ?
इसकी सचाई की जांच का हमें सही तरीका उनकी सबसे महत्वपूर्ण और प्रतिनिधि रचना ‘अंधेरे में’ के पूरे ढांचे को थोड़ा विचार के दायरे में लाना लगता है.
मुक्तिबोध के जानकार यह जानते हैं कि जयशंकर प्रसाद मुक्तिबोध के लिये लंबे काल तक एक चुनौती बने रहे थे. काफी सालों तक उनकी ‘कामायनी’ से जूझने के बाद उन्होंने उस पर ‘कामायनी : एक पुनर्मूल्यांकन’ शीर्षक से पूरी किताब लिखी, और कहा जा सकता है कि प्रगतिशील लेखक संघ के एक नेतृत्वकारी (भले ही द्वितीय पंक्ति के) व्यक्ति के रूप में अपने कर्तव्य का निर्वाह किया. लेकिन, हमारा सवाल है कि मुक्तिबोध क्यों सालों तक कामायनी के पाश से अपने को मुक्त नहीं कर पाये थे ?
खुद प्रसाद ने कामायनी के अपने ‘निवेदन’ और फिर ‘आमुख’ में इसे मनुष्यता के मनोवैज्ञानिक-इतिहास के साथ जोड़ा है.
‘‘श्रद्धा और मनु अर्थात् मनन के सहयोग से मानवता का विकास रूपक है, तो भी बड़ा ही भावमय और श्लाध्य है. यह मनुष्यता का मनोवैज्ञानिक इतिहास बनने में समर्थ हो सकता है… सत्य घटनाएँ स्थूल और क्षणिक होकर मिथ्या और अभाव में परिणत हो जाती है. किन्तु सूक्ष्म अनुभूति या भाव, चिरंतन सत्य के रूप में प्रतिष्ठित रहता है, जिसके द्वारा युग युग के पुरुषों की और पुरुषार्थों की अभिव्यक्ति होती रहती है.’’
इसी में वे आगे लिखते हैं –
‘‘आज हम सत्य का अर्थ घटना कर लेते हैं. तब भी उसके तिथि-क्रम मात्र से संतुष्ट न होकर, मनोवैज्ञानिक अन्वेषण के द्वारा इतिहास की घटना के भीतर कुछ देखना चाहते हैं. उसके मूल में रहस्य क्या है ? आत्मा की अनुभूति ! हाँ, उसी भाव के रूप-ग्रहण की चेष्टा सत्य या घटना बनकर प्रत्यक्ष होती है. फिर वे सत्य घटनाएँ स्थूल और क्षणिक होकर मिथ्या और अभाव में परिणत हो जाती है. किन्तु सूक्ष्म अनुभूति या भाव, चिरंतन सत्य के रूप में प्रतिष्ठित रहता है, जिसके द्वारा युग युग के पुरुषों की और पुरुषार्थों की अभिव्यक्ति होती रहती है.’’
जैसा कि हम जानते है, कामायनी के अध्येता उसे प्राचीन भारतीय दर्शन में शैवमत के प्रत्यभिज्ञा दर्शन के साथ जोड़ कर देखते हैं. (देखें – डा. परमहंस मिश्र की पुस्तक ‘प्रसाद और प्रत्यभिज्ञादर्शन’, और पाण्डेय शशिभूषण ‘शितांशु’ का लेख – ‘तुम न विवादी स्वर छेड़ो अनजाने इसमें !
(कामायनी के कवि – आलोचकों का सन्दर्भ) विश्वभारती पत्रिका, खंड – 64, अंक 4)
नन्ददुलारे वाजपेयी ने भी जब उन्हें ‘‘हिन्दी का सबसे प्रथम और सबसे श्रेष्ठ शक्तिवादी और आनन्दवादी कवि’’ कहा तो उनका भी शैवमत के भैरव-भाव की ओर ही संकेत था. सचाई यह है कि प्रत्यभिज्ञा दर्शन में जिस परम पुरुषार्थरूप मोक्ष की सिद्धि के शास्त्र का विधान किया गया है, वह अनेक अर्थों में वही है जिसका हमने स्लावोय जिजेक के हवाले से ऊपर आदमी के मनन की प्रक्रिया में चीजों के बनने-बिगड़ने के तमाम पक्षों के सम्मिश्रण के महाभाव, सामस्त्य भाव के तौर पर जिक्र किया है. जैसे बाह्य जगत के सभी व्यापारों के विश्लेषण के लिये बाह्य सामग्री और औजारों का प्रयोग किया जाता है, वैसे ही हेगेल तथा जिजेक के Absolute Recoil (परम प्रत्यावर्तन) के अनुसार व्यक्तियों के आत्म-संसारों को उनके समुदायों के क्रियात्मक परिचय से नहीं जाना जा सकता है. हेगेल सौन्दर्यशास्त्र (Aesthetics) को बोध और अनुभव का विज्ञान (Science of sensation and feeling) कहते हैं.
(“The name ‘Aesthetic’ in its natural sense is not quite appropriate to this subject. ‘Aesthetic’ means more precisely the science of sensation or feeling.Thus understood, it arose as a new science…” Introductory lectures on Aesthetics, George Wilhelm Friedrich Hegel, page – 3)
इस विषय को खोलते हुए ही जिजेक वस्तु में गति के प्रसंग को उठाते हैं और कहते हैं कि मध्ययुग तक भौतिकी की यह मान्यता थी कि किसी भी चीज में गति किसी बाहरी धक्के से पैदा होती है. और, जब अपनी धुरी पर घूमने वाली धरती की तरह की कोई चीज बाहरी कारण से लगातार गतिशील रहती है, तो उस बाहरी कारण को ईश्वर मान लिया गया, जो उसे लगातार चलायमान रखता है. लेकिन सवाल उठा कि यदि कोई धक्का मार कर गति पैदा कर रहा है तो हम उसे महसूस क्यों नहीं करते ? जिजेक बताते है कि कौपरनिकस के पास इस सवाल का कोई सही जवाब नहीं था. इसका जवाब दिया था गैलेलियो ने. उसने कहा कि वस्तु के सामान्य वेग (velocity) को कोई अलग से महसूस नहीं कर सकता है, उसे तभी महसूस किया जा सकता है जब उसे सामान्य से तेज किया जाए. वस्तु के सामान्य वेग में तब तक कोई तब्दीली नहीं आती जब तक उसके अंदर की ही कोई शक्ति उसे नहीं बदलती. गैलेलियो के इसी कथन से वस्तु के अंदर की जड़ता (inertia) की अवधारणा पैदा हुई. बाहरी धक्के के बजाय आंतरिक जड़ता से वस्तु के सामान्य वेग को जोड़ने से ही अन्तरजगत के अपने तर्कों का अपना एक पूरा नया क्षेत्र खुल जाता है.
(Slavoy Zizek, Absolute Recoil, Verso, page- 91-92)
कहना न होगा, भारत में अभिनवगुप्त के ‘तन्त्रालोक’ और ‘प्रत्यभिज्ञादर्शन’ का पूरा महल इसी मनुष्य के अंतर के संसार की संधान पर टिका हुआ है, जिसकी जड़ें ब्रह्म-केंद्रित वेदांत दर्शन में होने के बावजूद किसी संसार-विमुख मोक्ष या निर्वाण (निवृत्तिपरकता) में नहीं बल्कि आकांक्षाओं से परिपूर्ण, और दूसरे से तनिक भी अपेक्षा न करने वाले स्वातंत्र्य के भैरव भाव की परमशिव, परम पुरुषार्थरूप मोक्ष की, संसार में रहते हुए संसार के रूप का परिवर्तन करने की (प्रवृत्तिपरक) साधना के शास्त्र के नाते क्रांतिकारी संभावनाओं से भरा हुआ है. इसीलिये इससे स्वातंत्र्य की ओर उन्मुख इतिहास की द्वंद्वात्मक यात्रा के हेगेलीय दर्शन के आत्मिक-सौन्दर्यशास्त्रीय पक्षों के बहुत गहन विमर्श की ओर बढ़ने की दिशा मिलती है.
(देखें : www.svabhinava.org .)
प्रत्यभिज्ञादर्शन के व्याख्याता कहते हैं कि प्रत्यभिज्ञा किसी नई चीज का संज्ञान नहीं है. न ही पुरानी चीजों का संग्रह. यह स्मृति और प्रत्यक्ष दर्शन के नयेपन का संयोग है जो एक ऐसी पहचान की झलक देता है जो एक ही साथ नया और पुराना, दोनों है. नवीन को पुरातन के रूप में देखना ही चमत्कार है; अस्मिता की प्राप्ति का जादू, जो अपनी प्रकृति में ही हमेशा एक नया अनुभव है. पुरातन को नया बनाना, जो छिपा हुआ है, उसे ज्ञात बनाना, उन दोनों के बीच की पहचान को स्वीकारना, अभिनव का कार्य उसका अंदेशा देता है.
यह हेडेगर के इतिहासीकृत लोकोत्तरवाद (Historicised transcendentalism) से भिन्न नहीं है, बल्कि चौखंभा विद्याभवन द्वारा प्रकाशित पांच खंडों में तंत्रालोक के 37 आह्निक, और अभिनवगुप्त द्वारा आनंदवद्र्धन के ध्वन्यालोक की व्याख्या, ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी और तंत्र संबंधी बाकी विपुल साहित्य को देखते हुए नि:संकोच कहा जा सकता है कि हेडेगर और उनकी धारा के पश्चिमी चिंतक अभिनवगुप्त और भारतीय शैवागम के अन्य सभी आचार्यों से बहुत पीछे थे. जिजेक ने हेडेगर को प्राच्य चिंतन से अलग किया बौद्ध दर्शन के निर्वाण के तत्व के आधार पर, उसके शून्यवाद के आधार पर. (Slavoy Zizek, Absolute Recoil, Verso, page- 93-95)
अभिनवगुप्त का प्रत्यभिज्ञादर्शन भी इसी आधार पर अपने को बौद्ध दर्शन से पूरी तरह से अलग करता है.
दरअसल, जीवन की किसी भी प्रचलित अवधारणा को बदलना सबसे कठिन काम है. इसके लिये, जो है उसे सच मानते हुए सारा जोर इस बात पर दिया जाता है ताकि उसके बारे में हमारी समझ बदल सके. अर्थात, जो है, उसके बारे में अपनी समझ पर रहते हुए भी उसमें बदलाव की किसी प्रक्रिया का प्रारंभ पाठक या विचारक भले अपनी कल्पना में ही स्वीकार करें, इसके लिये जरूरी होता है कि जो है, उसे नए परिप्रेक्ष्य या संदर्भ में प्रस्तुत किया जाए. महावीर प्रसाद द्विवेदी हैं, शुक्ल जी हैं, हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं – यदि हम इन पर किसी पुनर्विचार का प्रस्ताव रखते हैं तो इन्हें एक सिरे से नकारने के बजाय जरूरी है कि इन पर विचार के नये परिप्रेक्ष्य को प्रस्तुत किया जाए. अभिनवगुप्त ने अपने तंत्रालोक में, भारतीय दर्शन की सभी धाराओं को वे जो और जैसी है, उन्हें रखते हुए उन पर प्रत्यभिज्ञा दर्शन के जरिये नये रूप में विचार करने का एक नया परिप्रेक्ष्य पेश किया था, और कहना न होगा, इसी प्रकार भाष्यकार अभिनवगुप्त स्वयं एक स्वतंत्र तत्वमीमांसक के रूप में सामने आयें. बौद्ध दर्शन के नकार पर टिके शंकर के वेदांत का नकार करते हुए, नकार के नकार के रूप में.
जब विचारों की नई उद्भावना के इस संदर्भ में मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ को हम देखते हैं तो उनकी शैली भी वैसी ही है, प्रगतिशील साहित्य के प्रचलित ढांचे को बनाये रखते हुए, उसे एक झटके में तोड़ने के बजाय, उसे एक नया संदर्भ प्रदान करने (recontextualise) करने की शैली. ‘अंधेरे में’ कविता में बीच- बीच में अनायास ही इस प्रकार की जो पंक्तियां आती है कि ‘कविता में कहने की आदत नहीं, फिर भी कह दूं …’ इसे प्रगतिशील रचनाशीलता के स्वीकृत रूप को सायास बनाये रखने की कोशिश कहा जा सकता है. और बाकी का पूरा ढांचा किसी दु:स्वप्न की तरह का है जिसमें प्रकाश वृत्त में कई असंबद्ध कथा सूत्रों का प्रवेश होता है और जब भी उस दु:स्वप्न में किसी अघटन का बिंदु आता है, स्वप्न टूट जाता है. रचनाकार अपनी मूलभूत तलाश में फिर लग जाता है.
रवीन्द्रनाथ का एक लेख है – ‘आत्मबोध’. जीवन के तमाम अघटन के बीच से मनुष्य की युगों-युगों की, अपने सच्चे स्वरूप को जानने के आत्मबोध की, मंजिल दर मंजिल यात्रा का एक बयान. इसमें एक जगह वे लिखते हैं –
‘‘मनुष्य के सब दुखों का मूल कारण ही यह है कि वह पूरी तरह प्रकाश में नहीं आता, वह अपने अंधेरे में , अपनी संकीर्ण स्वार्थमूलक कामनाओं में भटका रहता है, वह अपनी व्यक्तिगत परिस्थितियों से बाहर नहीं निकल पाता. इसीलिए उसके हृदय से यह प्रार्थना उठती है, ‘हे प्रभु! आप मुझमें स्वयं को प्रकाशित करो.’ इस प्रकार प्रकाश्य रूप में आने की मनुष्य की इच्छा उसकी भूख-प्यास, धन-संग्रह या लोकसंतान की सब तृष्णाओं से लकधक बलवती होती है – क्योंकि यह उसकी प्रकृतिजन्य इच्छा है.’’
(रवीन्द्रनाथ टैगोर रचनावली, सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, खंड – 48, पृष्ठ – 43; जोर हमारा)
कहना न होगा, ‘अंधेरे में’ कविता का जटिल ढांचा ही इस बात का प्रमाण है कि आदमी की कल्पना में भी यथार्थ अनुभव के पुनर्विन्यास का प्रयास अपने आप में एक कितना चुनौती भरा और कठिन काम होता है. अभिनवगुप्त इसी पद्धति से अपने यथार्थ से आबद्ध व्यक्ति (पशु) को उसके द्वैत के बंधनों से मुक्त करने में सहायक बनते हैं. मुक्तिबोध भी अपने सभी आलोचनात्मक लेखों और कविताओं से इसी नव-संदर्भीकरण का काम करते हैं.
(पांच)
प्रत्यभिज्ञा दर्शन की पृष्ठभूमि में हम भारतीय दर्शन में सांख्य मत की स्थिति को रखें तो और भी चीजें साफ हो सकती है. भारतीय अद्वैत दर्शन की पूरी परंपरा में सांख्य मत एक द्वैतवादी मत माना जाता है. वह हर चीज को पुरुष और प्रकृति में विभाजित करके देखता था. और बाकी भारतीय चिंतन की पूरी परंपरा इस द्वैतवाद के विरुद्ध थी. अभिनव इसमें शिव की (कल्याण भाव की) स्वातंत्र्य शक्ति का प्रवेश कराते हैं. ऐसी शक्ति जिससे चित्त के कमल के खिल जाने पर उसमें तमाम प्रकार के विमर्शों का प्रवेश हो सके और इन सबकी उपस्थिति में मनुष्य में सत्य का उद्घाटन हो. भारतीय तत्व मीमांसा के तमाम पाठों के बौद्धिक और तार्किक प्रत्याख्यान की अभिनव की अपनी चिंतन प्रणाली की यही वह विशेषता थी, जिसपर हम यहां पहले द्वंद्वात्मकता की ‘as an inconsistent (non-All) mixture’ के रूप में चर्चा कर चुके हैं.
सांख्य दर्शन में प्रकृतिस्थ विश्व में प्रलय से पुरुष (मनु) का उदय होता है, जैसा कि ‘कामायनी’ के कथ्य में भी आता है. अभिनव इस पुरुष को भी परम ब्रह्म की तरह की कोई परम शक्ति मानने के बजाय आत्म से निबद्ध एक परिमित आत्मा के रूप में ही देखते हैं जो अपने को प्रकृति के बंधनों से मुक्त नहीं कर सकता है. बल्कि उसका अस्तित्व ही प्रकृति पर निर्भर करता है. श्रद्धा और इड़ा के साथ मनु के संबंधों को गौर कीजिए, हम पायेंगे कि कामायनी की पूरी कथा भी यही है. और यहीं पर परमशिव के प्रकाश का वह पूरा संदर्भ आता है जो ‘कामायनी’ में समरसता के सिद्धांत में निरूपित होता है. ‘कामायनी’ का अंतिम पद है –
समरस थे जड़ या चेतन
सुंदर साकार बना था ;
चेतनता एक विलसती
आनंद अखंड घना था.
बहरहाल, कामायनी, प्रत्यभिज्ञादर्शन, पुरुषार्थ, परमपुरुषार्थरूप मोक्ष आदि से जुड़े इस पूरे विमर्श की पृष्ठभूमि में जैसे ही हम मुक्तिबोध और ‘अंधेरे में’ कविता के उनके मनु, उनका ‘रक्तालोक स्नात-पुरुष’, ‘रहस्य-साक्षात’,
वह रहस्यमय व्यक्ति
अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है
पूर्ण अवस्था वह
निज-संभावनाओं, निहित प्रभाओं, प्रतिभाओं की\\
मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,
हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह, आत्मा की प्रतिमा.’’
‘वह तेरी पूर्णतम परम अभिव्यक्ति’ की खोज, शोध और अनुभूति की बनती हुई संरचना को देखते हैं, हमारे सामने प्रत्यभिज्ञादर्शन के आत्मप्रकाश वाले पहलू का एक ऐसा पूरा ढांचा उभर कर उपस्थित हो जाता है, जिसमें प्रकाश कभी परतंत्र नहीं होता, प्रकाश्यता ही पारतंत्र्य होती है. जैसे हेगेल कहते हैं कि आदमी के अंतर के जख्म भरते हैं उसके परिप्रेक्ष्य में बदलाव से, किसी बाहरी मरहम से नहीं. उसी क्रम में इस रचना का पूरा कथानक खास-खास संदर्भों के साथ आगे बढ़ता जाता है. हेगेल का परम भी स्वातंत्र्य भाव के प्रसार के जरिये अपने नाना परिमित रूपों को प्राप्त करता है, जो शिव की परिमिति है और मनुष्य की आबद्ध आत्मा (पशुता).
मुक्तिबोध, कामायनी, प्रत्यभिज्ञा, हेगेल और जिजेक के परम प्रत्यावर्तन और रवीन्द्रनाथ के ‘आत्मबोध’ की इस पूरी चर्चा का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि मुक्तिबोध अपने साहित्य-संबंधी पूरे दृष्टिकोण में प्रगतिशील साहित्य और आलोचना के बारे में सोच का जो एक नया परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करते है, उसीमें उनकी अभिनवता है. यह सभी पुराने से पुराने विषयों को बार-बार नये रूप में अर्जित करने की द्वंद्वात्मक विधि है जिसे सोवियत काल में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को एक प्रकार के आधिभौतिक दृष्टिकोण में बदल देने, यथार्थ की बहुआयामिता की जगह उसे एकायामी, एकरेखीय बना देने की वजह से प्रगतिशील साहित्य आंदोलन गंवा चुका था. उनके मानस की जटिलता और सूक्ष्मता को कोरा रहस्यवादी करार कर कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता है.
मुक्तिबोध के जरिये यही द्वंद्वात्मक भौतिकवाद हिंदी साहित्य और आलोचना में नयी से नयी परिस्थितियों के संदर्भ में अपनी परंपरा, वर्तमान और भविष्य को भी बार-बार नये सिरे से परिभाषित करते जाने की मूलभूत शक्ति को प्राप्त करता है. इसीलिये मुक्तिबोध अभिनव है. आज भी उतने ही प्रासंगिक.
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(फोटो द्वारा – प्रशांत अरोड़ा) |
अरुण माहेश्वरी
(4 जून 1951)
(4 जून 1951)
मार्क्सवादी आलोचक, सामाजिक-आर्थिक विषयों पर टिप्पणीकार एवं पत्रकार.
प्रकाशित पुस्तकें : (१)साहित्य में यथार्थ : सिद्धांत और व्यवहार (2) आरएसएस और उसकी विचारधारा (3)नई आर्थिक नीति : कितनी नई (4) कला और साहित्य के सौंदर्यशास्त्रीय मानदंड (5) जगन्नाथ (अनुदित नाटक) (6) पश्चिम बंगाल में मौन क्रांति (7) पाब्लो नेरुदा : एक कैदी की खुली दुनिया (8) एक और ब्रह्मांड, (9) सिरहाने ग्राम्शी, (10) हरीश भादानी, (11) धर्म, संस्कृति और राजनीति, (12) समाजवाद की समस्याएं, (13) तूफानी वर्ष 2014 और फेसबुक की इबारतें, (14) प्रतिद्वंद्विता से इजारेदारी तक, (15) आलोचना के कब्रिस्तान से, (16) Another Universe .
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