अबाबील अम्बर से पुकार रहा है
संतोष अर्श
अबाबील धरती पर विरले ही उतरता है. वह उड़ता ही रहता है, इस अनंत, वर्तुल आकाश की नीलाइयों में. बहुत देर और दूर तक. एक उड़ान में तीन सौ किलोमीटर तक, बिना थके; वह छोटा सा पंछी. और कितना सुंदर घर बनाता है ! चिड़ा-चिड़ी मिलकर बनाते हैं. उसका अपना खगीय-विहगीय (सु)-स्थापत्य है. जिसे हम नीड़, झोंझा, घोंसला, आशियाना किन-किन नामों से पुकारते हैं. अबाबील घर बनाने के लिए तिनके ही नहीं जुटाता, तालाब से मिट्टी भी भर-भर लाता है, अपनी चोंच में. ग़ज़ब है कि उसके घर में दीवानखाना होता है और शयनकक्ष भी. आह…झरोखे भी. पुराकथाओं के पात्र अबाबील की इसी ख़ूबी को समझते हुए ख़्वाजा अहमद अब्बास ने 1937 में इसी पक्षी के नाम पर कहानी लिखी थी. सूरा-ए-अल-फ़ील के अबाबीलों ने झुण्ड की ताक़त और निष्ठा से यमन और इथियोपिया के राजा अब्राहा-अल-अशराम की हाथी सवार सेना को अम्बर से पत्थर बरसा कर खदेड़ दिया था.
एक पक्षी, जो अभी उपस्थित है और जिसका नाम कविता के लिए बड़ा, अर्थपूर्ण और कलात्मक प्रतीक है. सामूहिक चेतना का मुक्तिकामी प्रतीक. उदय प्रकाश की चेतना के निकट रहने वाले ‘दुखते-कसकते अनुभव का मूल’ (देखें भूमिका) वाले मुक्तिबोधीय प्रतीक जैसा. पंछियों के यहाँ भी मुक्ति कभी अकेले नहीं मिलती.
उदय प्रकाश के इस नये कविता संग्रह में छह खंड हैं. जिनमें अलग-अलग अनुभूतियों की कवितायें मिलती हैं. इनमें देशकाल, वंचित वर्ग का अल्पचर्चित यथार्थ, राजनीति, पर्यावरण (वातावरण नहीं), बाज़ार, सभ्यतामूलक परिवर्तनों से उपजी त्रासद परिस्थितियाँ और वह सब कुछ है, जो घट रहा है या घट चुका है. किन्तु जो अधिक रागात्मक संवेदन है, वह है कवि का अकेलापन और बेगानगी, भाषिक व्यंजनाओं से मुखर हुई कातरता और कविता की बरामदगी.
उदय प्रकाश का कथाकार उनके कवि पर हावी रहा है. इस कारण कई बार कहानी में कविता मिल जाती थी और कविता में स्थूल कथा (रेटरिक और मैटर ऑफ फ़ैक्ट) के तत्त्व चले आते थे. उनके पिछले संग्रहों की \’चंकी पाण्डे मुकर गया है\’ और \’एक भाषा हुआ करती है\’ जैसी कविताएँ इसकी बानगी हो सकती हैं. \’अम्बर में अबाबील\’ संग्रह की कविताएँ इन काव्य-प्रवृत्तियों से मुक्त हैं. यहाँ कविता की सजग संभावना है. उसकी संरचना पुख्ता है. कविता के होने को कविता सिद्ध कर रही है. एक दशक के पश्चात एक संग्रह में कवि फिर लौटा है, प्रौढ़ हो कर. कुँवर नारायण के निश्चय को सार्थकता दे कर, ‘वृहत्तर’ हो कर:
\”पर इस बार उसका लौटना उसकी परछाईं का लौटना था
कवि अपने इस संग्रह की आत्मसंघर्ष युक्त, सुलिखित भूमिका में- पुर्तगाली साहित्य में आधुनिकता के प्रस्तोता कवि फ़र्नांदो पेसोवा का स्मरण और उल्लेख करता है. यह स्मरण सोद्देश्य है. यह एक कवि का मुचलका है या अपनी कविताओं की ज़मानतदारी है. या इन कविताओं के अर्थविस्तार की कोई कुंजी या ‘की-वर्ड’ है. पेसोवा सैंतालीस वर्ष की आयु में ‘बिना इतिहास का जीवन’ जी कर मर गया था और जब जिंदा था तब अपने होने से इनकार करता था: \’मैं हूँ नहीं, मैं ख़ुद को जानने की शुरुआत कर रहा हूँ.\’ वह कई ज़ाली नामों से लिखता था, उसके अध्येताओं ने जिनमें से बहत्तर नामों की पहचान की, जो पेसोवा ही था. उसकी एक कविता में बहुत मानीखेज़ बात आती है:
\’जो मैं होना चाहता हूँ और जो दूसरों ने मुझे बना दिया है मैं उसी के मध्य का अंतराल हूँ.\’
अरसे बाद अपनी कविताएँ प्रस्तुत करते समय पेसोवा का यह मार्मिक स्मरण आवेगमय है. पेसोवा की याद कवि के भीतर के उस साधारण (अभि) व्यक्ति की याद है, जिसका कवि प्रतिनिधित्व करता है. जो मुक्तिबोधीय लहजे में \’अनिवार\’ और \’आत्मसंभवा\’ है. पुर्तगाली भाषा में \’पेसोवा\’ का अर्थ ही व्यक्ति है. इस संग्रह में उसी व्यक्ति की ख़ोज है. संग्रह की महत्त्वपूर्ण कविता \’एक ठगे गये मृतक का बयान\’ में वही व्यक्ति है, ‘जिसकी हँसी में कोई ज़माना है जहाँ वह लाचार है’, और इस कदर है:
\”वह मरने के पहले कोई सट्टा लगा आया था अब वह जीत गया है लेकिन वह जीत उधर है जिधर जीवन है जिसे वह खो चुका है”
यह व्यक्ति की अभिव्यक्ति पूरे संग्रह में ‘सत्योन्मुख वैयक्तिकता’ के साथ प्रवाहमान है. यह व्यक्ति कई रूपों में कई तरह की यातनाओं, वंचनाओं, संत्रास और उपेक्षाओं के समंदर में डूबता उतराता हुआ मिलेगा. ‘पेसोवा’ का ‘पर्सन’ यह व्यक्ति इन कविताओं का केंद्रीय पात्र है. यह व्यक्ति हम सभी हैं. हम सभी की मूक अभिव्यक्ति कविताओं में बोल रही है:
“जब जलते हुए पेड़ से
भाषा-विमर्श हिन्दी साहित्य में उदय प्रकाश की नितांत मौलिक और अत्यंत सार्थक पहल है. क्या कविता क्या कहानी ? वह हर जगह है. ‘पीली छतरी वाली लड़की’ के हिन्दी विभाग से लेकर ‘एक भाषा हुआ करती है’ संग्रह के शीर्षक और इन नयी कविताओं तक, मुसलसल. वास्तव में उदय प्रकाश की यह चिंता हिन्दी के जड़, बर्बर और कुपढ़ सांस्थानिक स्वरूप से पैदा हुई है. हिन्दी को जिस तरह संगठित लोगों ने सांस्थानिक रूप से भ्रष्ट कर दिया, विकृत कर दिया, यह उसकी सही समझ है. अशोक वाजपेयी जिसे अर्थसंकुचन के साथ ‘भाषा के दुरुपयोग के विरुद्ध प्रतिरोध या प्रतिकार’ कहते हैं. लेकिन बात इतनी सी नहीं है. यह केवल प्रतिरोध न हो कर एक बहुत गंभीर बहस है, जिसमें सभी को सम्मिलित होना है. यह हिन्दी को आधुनिक और उदार बनाए जाने की माँग है. इस संग्रह की कविताओं में यह चिंता मुखर और व्यंग्यपूर्ण आयरनी की भाँति आयी है. अलग-अलग कविताओं की कुछ पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं:
1-
कब कविता लिख जाय
कब उसे कोई पढ़ जाय
कब कर्फ़्यू लग जाय
कब सारी ज़िंदगी की हिन्दी हो जाय
जीवित लोगों द्वारा
सदियों पहले ठुकरा दी गयी एक मृत भाषा में
खाते कमाते
ठगते और जीते
उनका दावा है, वे जीवित हैं…अंधी और ठग हो चुकी एक बहुप्रसारित असभ्य भाषा से उठाते हुए
हजारों मारे हुए शब्द…सिद्धार्थ, मत जाना इस बार कुशीनगर
मत जाना सारनाथ वाराणसी
वहाँ राख़ हो चुकी है प्राकृत
पालि मिटा दी गयी है
हिंदी के कवियों को दूर से देखा
कब तलक पधारेंगे यहाँ से आप कृपया श्रीमान्
कब तलक चलेगा यह भीषण संभाषण यह षटरस जलपान
तानेंगे कब तक यों भाषा की ड्योढ़ी पर अपनी दूकान
सिधारें तो हम भी गांठ गठरी की खोलें
हम भी तो मंच पर रंच भर अपना रचा बांचें
सभागार खाली हो
जाएं सब आपके संग हाकिम हुक्काम
तो हम भी तनिक नाचें
सांस्थानिक हिन्दी का विकृत और आधुनिक, उदार मूल्यों से हीन परिदृश्य उदय प्रकाश की इन कविताओं में भले ही व्यंग्यात्मक है, किन्तु गंभीर विषय है. यह कहीं चोट बनकर है तो कहीं आह बनकर. इस भाषा-विमर्श को समझना हिन्दी के इदारों के लिए जटिल इसलिए है, क्योंकि वे इसे सहना नहीं चाहते. भाषा एक साझी और समाजवादी अवधारणा है. जैसे धूप, बरसात, हवा, पानी और मिट्टी. भाषा को वस्तु या निजी संपत्ति में बदल कर, उसकी सांस्थानिकता का औपनिवेशिकीकरण कर उसे सांप्रदायिकता, वर्चस्ववादी हिंसा, फ़ासिस्ट राजनीति और संरक्षणवादी मूल्यों से भर देने की साज़िशों के विरुद्ध उदय प्रकाश की ऐसी कवितायें केवल प्रतिरोध भर नहीं हैं, बल्कि ये लेखक, भाषा, साहित्य, राजनीति और समाज-संस्कृति के अंतः सम्बन्धों को समझ सकने के सिरे उपलब्ध कराती हैं. उदय प्रकाश जानते हैं कि वे काल-अंबुधि में भाषा की डोंगी में सवार हैं. इस ‘वोयेज़’ में भाषा का साथ कोई लेखक छोड़ देगा तो वह तरण और तारण दोनों ही में असफल रहेगा.
उदय प्रकाश का भाषा-विमर्श हाइडेगर और सार्त्र के भाषा-संबंधी विचारों के नज़दीक है. हाइडेगर कहता है कि भाषा वह घर है जिसमें हम रहते हैं या जिसमें हमारा होना है, और सार्त्र का दावा है कि उसने भाषा के माध्यम से संसार और समाज को जाना इसलिए भाषा को संसार समझना लेखक का विभ्रम नहीं, यथार्थ है. नन्दकिशोर नवल ने इस काव्य-गुण को उदय प्रकाश के (उनके अर्थों में अतिरंजित) उपेक्षाबोध, अपने प्रति हुये ‘अन्याय का मिथ्या आभास’ तक सीमित करके आलोचकीय संकीर्णता प्रदान की है. उदय प्रकाश की यह तड़प उपेक्षाबोध या लेखकीय जीवन की प्रवंचना नहीं है, अपितु भाषा और उसके साहित्य, उसके लेखक और उसके समाज को मुक्ति दिलाने की रचनात्मक आकांक्षा है. वे भाषा के उस मार्ग को समतल करने हेतु कविता में अपनी भाषा में सहन किए गए मान-अपमान, किये गए संघर्ष और प्राप्त हुई उपेक्षाओं को काव्यात्मक संवेदन से जाग्रत करते हैं. यह प्रत्येक ईमानदार और सच्चे लेखक का प्रश्न है. उसके सद्प्रयत्नों पर हुए जबरिया अतिक्रमण का बहिष्कार है. अतः इसे और भी संतुलित दृष्टि से देखा जाना काम्य है.
अरुंधति शृंखला की कविताएँ इस संग्रह का हासिल हैं. ये हमारी चेतना तक पहुँचती हैं. हमारे होने (बीइंग) को रहस्यमय ढंग से प्रस्तुत करती हैं. अरुंधति नक्षत्र के सहारे कवि जीवन का अबूझ मरुस्थल पार करना चाहता है. इस लाल तारे से कभी याद आता है विप्लवी लाल तारा, कभी साम्यावस्था का प्रतीक अरुण कमल और अरुंधति राय भी. और कवि की माँ:
“जेठ की रात में
(अरुंधति- एक)
(अरुंधति- पाँच)
इनके अलावा बहुत-सी व्यंजनापूर्ण, समय-समाज और राजनीति को पहचानती कविताएँ संग्रह में पाठक को मिलेंगी. नवउदारवाद की फ़ासीवादी क़वायदों, बाज़ार और उपभोग के मध्य पिसते हुए शाश्वत जीवन-मूल्यों और मानवीय गुणों को कुचले जाते देखने से उपजी हताशा, निरंकुश सत्ताओं के वैश्विक उभार से आक्रांत नागरिक विवेक को देखकर रचनाकार मन में पैठ गयी ‘एंग्ज़ायटी’ के साथ कवि का अपनी रचना में बार-बार लौटना उसकी उम्मीद है, जहाँ बुद्ध और औलिया उसके रहबर हैं. अलगरज़ उदय प्रकाश की ये कवितायें उनकी पिछली पढ़ी गयी कविताओं से अधिक इंटेन्स लगती हैं. इनकी ज़मीन वास्तव में ‘वेट लैंड’ है. वैश्विक विमर्शों से पुष्ट कविताओं वाला यह संग्रह ऐसे समय आया है, जब हमें विश्वसनीय कवि और कविताओं की बहुत ज़रूरत है.
संदिग्ध कवियों और कविताओं, ‘यौन-नैतिक-विवेक’ की समीक्षाओं और आलोचना के ‘एटीएम कार्ड’ रखने वाले लेखकों के मध्य एक वरिष्ठ कवि के इस संग्रह की आमद संतोषप्रद है. यह संग्रह हमारे समय की कविता में एक सचेत उपस्थिति है. इसमें संकलित कवितायें कोई चमत्कार नहीं करेंगी न कोई मिथ्या आश्वासन, कोई झूठी उम्मीद देंगी, किंतु कवि की भाषा और संवेदना के कन्विक्शन, कमिटमेंट से हमें भर देंगी. अपने स्थान पर मजबूती से खड़े रहना इस बहुत अपरिचित, अननुमानित, भयावह समय की माँग है. यह संग्रह उस समय से हमें आगाह करता है, रचनात्मक विवेक से निर्मित साहस प्रदान करता है. हिम्मत कविताओं के सिवाय और कहाँ से मिलेगी ?
____________________________________
poetarshbbk@gmail.com