अविनाश मिश्र की कुछ नई कविताएँ |
पाठक
वे आज जान पाते हैं
कल किए जा चुके की निरर्थकता
वैसे ही जैसे जानेंगे कल
आज की निरर्थकता.
जीवन सतत निरर्थकताओं को जानने का पर्याय है.
वे हमेशा चिंतापथ पर चलते हैं
उन्हें लगता है कि उनकी अनुपस्थिति में
घर की स्त्रियाँ अवैध संबंध बनाती हैं!
घर में न हों स्त्रियाँ
तब वे चोरी की चिंता में घुलते हैं
उनकी नींद में लीक होती रहती है गैस
और सपनों में छूटती हैं ट्रेनें
जिन्हें अगर पकड़ भी लिया गया
तब भी उतरना ही है उन्हें पटरी से.
जब आपकी राय पूछी जाए
जब आपकी राय पूछी जाए
तब आप एक अमूर्तन से काम लें
इस अमूर्तन में आपकी बेरंग प्रतिबद्धता
और अंधी युयुत्सा नज़र आए
जब आपकी राय पूछी जाए
जहाँ तक मुमकिन हो ढुलमुल उद्धरण याद कर लें
संस्मरणों में घालमेल से काम लें
आपका अनुभव ख़ुद को अकेला पाए
जब आपकी राय पूछी जाए
कुछ ऐसा करें कि आप पैदाइशी कमीने न लगे
यों लगे कि आप समकालीन प्रशिक्षण की उपज हैं
बार-बार आपकी ज़रूरत पड़ती जाए
जब आपकी राय पूछी जाए
वक़्त लें ताकि शब्दों में सफ़ाई रहे, वाक्यों में ठहराव
आवेश अगर कहीं हो तो उसे नियंत्रित रखें
आपके चेहरे पर आपका डर न नज़र आए
जब आपकी राय पूछी जाए.
स्खलन
मैं कब लिख सकूँगा
‘स्त्री’ शीर्षक से एक कविता.
‘ईश्वर’ और ‘प्रार्थना’ शीर्षक से
कब पुकारेगी कविता मुझे.
‘प्रेम’ और ‘दुःख’ और ‘भूख’ और ‘क्रांति’ को
कब बनाऊँगा शीर्षक.
कब लिख सकूँगा
कार्ल मार्क्स को ख़ुश करती हुई एक कविता.
मैं कब लिख सकूँगा
कविता!
आस्था,
तुम मुझे बर्बाद करती हो.
धूल
जब कहीं कुछ नज़र नहीं आ रहा,
धूल आ रही है
धूल ही चीज़ों की मदद कर रही है कि वे सामान्य हो सकें
वह मृत्यु के बाद श्रद्धांजलियों, संस्मरणों, शोक-सभाओं और अंतिम संस्कार सरीखी है.
जीवन सब तरफ़ खुदा पड़ा है—
किसी भारी पत्थर से हरेपन को कुचलता हुआ
सब तरफ़ इतना काम हो रहा है,
सब तरफ़ इतनी चुनौतियाँ हैं कि
जीवन किसी भी गली में मुड़े
धूल सब तरफ़ से घेरती हुई दिखती है
हाथ उसे हटाने के चिंतातुर मंसूबों में घायल हुए जाते हैं.
कोई अगर कहे कि जीवन धूल पर एक निबंध है
तब वह ग़लत नहीं होगा,
बशर्ते वह इस निबंध को पूरा माने!
अंततः सब कुछ ठीक हो जाने के दिन
सुबह उठो तो दुनिया कितनी निराशा से भरी हुई मिलती है
लेकिन धीमे-धीमे सब ठीक होने लगता है
और खोई हुई मामूली चीज़ों का मिल जाना भी आश्चर्य से भर देता है
लोग उतने बुरे नहीं लगते जितने बुरे वे हैं
राजनेताओं और चापलूसों तक के चेहरे अच्छे लगने लगते हैं
एक ख़त्म नहीं होती असुरक्षा में न्यूनतम अच्छाई की तलाश महत्त्वपूर्ण लगने लगती है
समूह में विवेक जागता हुआ नज़र आता है
और सब जगह सब कुछ के लिए थोड़ी-थोड़ी जगह बनने लगती है
साँस में साँस आने लगती है
और रंग में और बहुत सारे रंग
सुर में और सुर
सब तरफ़ हर्ष और उल्लास से भरा कोरस गूँजने लगता है
इस तरह अंततः सब कुछ ठीक होता है और तकिये पर पड़ा हुआ मस्तिष्क शिथिल.
_________________
darasaldelhi@gmail.com |