प्रचण्ड प्रवीर
समकालीन और समवय कवियों में महत्त्वपूर्ण मोनिका कुमार का बहुप्रतीक्षित संग्रह ‘आश्चर्यवत्’ की सुखद दीप्ति आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि इसकी उत्कृष्टता असंदिग्ध ही थी. सन् २०१२-२०१८ के बीच हिन्दी पत्रिकाओं, वेब पत्रिकाओं और ब्लॉग पर प्रशंसित और विमर्शित बहुत सी कविताएँ हमारे समय का प्रतिनिधि रचनाएँ हैं.
पुस्तक के सम्बन्ध में जो गौण बातें होती हैं, पहले उन पर विचार करना थोड़ा अटपटा है. ऐसी कोशिश में हमें प्रख्यात चित्रकार व लेखक ‘मनीष पुष्कले’ को बधाई देनी चाहिये जिन्होंने इस तरह का आकर्षक आवरण चित्र बनाया है. बहुधा हिन्दी पुस्तकें नीरस, घिसे-पिटे चित्रों से पाठकों को दूर भगाती है. पुस्तक के वितरण मूल्य को अनदेखा कर हम पुस्तक के नाम पर गहरा चिंतन कर सकते हैं. आश्चर्य के विभिन्न अर्थों से ले कर श्रीमद्भगवद्गीता के एक श्लोक में ‘आश्चर्य’ के अर्थ पर मोनिका कुमार की सहज जिज्ञासा का उत्तर देते हुए वागीश शुक्ल ने सारगर्भित लेख लिखा है. यह पत्रिका ‘सदानीरा’ के वर्षा २०१८ के अंक में ‘आत्मज्ञान में आश्चर्य क्या है’ शीर्षक से प्रकाशित भी हुआ.
“पाणिनीय व्याकरण के अनुसार ‘आश्चर्य’ शब्द निपातन द्वारा सिद्ध किया जाता है. निपातन का तात्पर्य यह है कि जब किसी प्रचलित शब्द को व्याकरण के नियमों की टकसाल में ढालना बहुत मुश्किल हो जाए तो ढेर सारी क्लिष्ट कल्पनाएँ करने की जगह यह मान लिया जाता है कि यह शब्द किसी रहस्यमय प्रक्रिया के द्वारा भाषा में आया है जिसकी पड़ताल करने का श्रम अनावश्यक और अलाभकर है, अत: उस शब्द को प्रयोगसिद्ध ही मान लेना श्रेयस्कर है.”
उपरोक्त संदर्भित लेख से हम जानते हैं कि आश्चर्य का अर्थ है ‘अ-नित्य’ अर्थात् जो रोज़मर्रा से हट कर हो. रस सिद्धांत में अद्भुत रस का स्थायीभाव ‘विस्मय’ होता है. बहुत से विद्वानों ने रस के संदर्भ में ‘अद्भुत‘ और ‘विस्मय’ शब्द की व्याख्या ‘नवीन’, ‘अप्रत्याशित’, ‘सुखकारी’ होते हुए ‘अलौकिक’ और ‘आनंददायी’ अर्थों में की है. इन समानाअर्थी शब्दों का आशय ‘आश्चर्य’ के उन अर्थों को बताना है जिससे यह कविता संग्रह अनुप्राणित होती है.
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(मोनिका कुमार) |
अब जब समकालीन कविता का अर्थ ‘छंदमुक्त’ से लिया जाता है, कविता ‘कुछ विस्मयादिबोधक आश्चर्यवाहक’ हो कर ही
कविता के ‘वैचित्र्य’ और ‘चमत्कार’ जैसे मूलभूत गुणों को ग्रहण कर सकती हैं. इन अर्थों में मोनिका जी तक मुक्तिबोध की ‘बुरी खबर’ पहुँचने की अनिवार्यता नहीं है, और आम इंसान को और बेहतर करने का बोझ उठाने का दावा भी नहीं है. आश्चर्यवत् की कविताएँ उन घटनाओं, अनुभूतियों तक पहुँचने का सुखद और बालसुलभ तरीका है जिसे हम अपनी कठोरता और जटिलता में अनदेखा कर के आगे बढ़ जाना चाहते हैं.
‘मरना कोई बीमारी नहीं है’ कविता में छोटे बच्चों के डॉक्टर-मरीज़ बनने के खेल में सबसे छोटा भाई मौलिक हो कर खुद को मरा हुआ बताता है. कवयित्री और हम सभी एक स्वर में कह सकते हैं कि मरना कोई बीमारी नहीं है. यह सामान्य सी बात ‘मौलिकता’ की चिंता को रेखांकित करता है और साथ ही कारण, नियति और परिणति पर सोचने को विवश करता है, जिसे हम आम तौर पर नहीं करते. यह कवि की मौलिकता है.
पाँच खण्डों में विभाजित इस पुस्तक का दूसरा खण्ड अनुपम है. जहाँ एक ओर कवयित्री ‘कैमरे की आँख’ से घबराती है, ‘हलो’ के स्वर से पहचानी जाती है, कपड़ो पर बने ट्यूलिप और प्लास्टिक के ट्यूलिप में साम्य ही नहीं अभेद देखती है, वहीं सर्दियों की बारिश में भीग जाने वाली की खुशी को बयान करती है –
बारिश के सुख को राज़ की तरह छुपाते हुए
तौलिए से बालों को पोंछता
वह सभी से बताता है
आज बहुत बारिश थी
सड़कें कितनी गीली
रास्ते फिसलन भरे
पर वह सही सलामत घर पहुँच कर बहुत ख़ुश है
इसी विस्मय के सूत्रों में ‘बूढ़ा और बच्चा उर्फ़ दादा और पोता’ में मानव जीवन चक्र के लक्षणों को प्रत्यभिज्ञा रूप में प्रस्तुत करना अर्थात् ‘यही वह है’ या ‘वह यही तो है’ जिसे हम पहले से जानते हैं :-
बूढ़े लोग शान्त चेहरों से युद्ध लड़ते हैं.
लगभग सभी विवादों और दुखों का अन्त वे जानते हैं’
लगभग तय जीवन में वे सतत जिज्ञासु और आशावान बन कर जीते हैं,
उनका प्रिय विषय अतीत है,
और सबसे बड़ा हथियार विलम्ब है.
प्रसिद्ध कविता ‘चम्पा का पेड़’ में मोनिका जी सत्य की प्रतिष्ठा ‘मूल्य’ के अर्थ में करती हैं :
...सत्य पृथ्वी परायण होते हुए भी उभयचर है
निर्द्वंद है पर करुणा से रिक्त नहीं
मैं उस पथिक के प्रण पर नहीं उसकी उहापोह पर जान देता हूँ
जो सत्य की प्रतिष्ठा ऐसे करता है
जैसे आटे को सिद्ध करती स्त्री
परात में
कभी पानी और डालती
कभी आटा और मिलाती है.
यह कविता इन अर्थों में विशेष है कि जाने-अनजाने कवयित्री जीवन के शब्दों से उन सत्यों तक पहुँचना चाहती हैं जो कि शब्दों के आवरण में ही उलझे हुए हैं (चम्पा के पेड़ में कुछ भी उलझा हुआ नहीं है….) और बहुधा हम सत्य को धर्म से, सत्य को मूल्य से, या सत्य को नीति से बिना अलग किए उपयोग करते हैं, जो कि हमें उलझा कर ही रख देता है.
‘कवि सुन्दर’ और ‘काला चींटा’ पढ़ते हुए हम ऐसा अनुमान लगाने लगते हैं कि कवयित्री की हर कविता अपने अंत पर निर्भर है, जो कि चरम है, ऊँची और श्रेयस्कर है, या अंत ही केवल कविता को अर्थ प्रदान कर सकता है. जैसे कि –
प्रिय कवियों की बात करते हुए
उनके बारे में लिखते हुए
दमक जाता हैं उनका चेहरा
फूटता है चश्मा आंखों में
हथेलियां घूमती हुईं
उंगलियों को उम्मीद की तरह उठाए
वही क्षण है
जब लगता है
कवि अनाथ नहीं हैं
(कवि सुन्दर )
जहाँ हम चाहते हैं,
यह घर चींटों से मुक्त हो जाये,
और चींटे करते हैं कल्पनाएँ,
दुनिया की हर चीज़ काश बताशा हो जाये.
(काला चींटा)
परन्तु ऐसा निष्कर्ष निकालना बड़ी जल्दबाजी होगी, जैसा कि हम निम्न कविता से समझ सकते हैं
आगंतुक
आगंतुक के लिए कोई पूरे पट नहीं खोलता
वह अधखुले दरवाज़े से झांकता
मुस्कुराता है.
आगंतुक एक शहर से दूसरे शहर
जान पहचान का सुख तज कर आया है
इस शहर में भी,
अमलतास के पेड़, गलियाँ, छज्जे और शिवाले हैं
आगंतुक लेकिन इन्हें ढूँढने यहाँ नहीं आया है.
क्या चाहिए ?
अधखुले दरवाज़े के भीतर से कोई संकोच से पूछता है,
निर्वाक आगंतुक एक गिलास ठंडा पानी मांग लेता है.
पानी पीकर
आगंतुक लौट जाता है.
जबकि किसी ने नहीं कहा
भीतर आओ,
कब से प्रतीक्षा थी तुम्हारी,
और तुम आज आये हो,
अब मिले हो
बिछुड़ मत जाना.
यह कविता एक वीराने से शुरु हो कर नैराश्य पर खत्म होती है. इसलिए क्योंकि यह आगंतुक ‘मेहमान’ न हो कर सत्यजित राय के फ़िल्म आगंतुक (१९९१) का ‘उत्पल दत्त’ सरीखा आगंतुक है, जिसका स्वागत करना अस्वीकार्य है और मना करना शिष्टाचार का उल्लंघन. वह भी इसलिए क्योंकि हमारा शहरी माहौल इस तरह का है कि आगंतुक ‘अतिथि देवो भव’ नहीं है. आगंतुक अतिथि न हो कर, हमारे लिए चंदा माँगने वाला, कूड़ा उठाने वाला, कोई ई-कॉमर्स वेबसाइट से डिलीवरी देने वाला, कूरियर पहुँचाने वाला या किसी संघर्षशील छोटी पूंजी के कम्पनी का मामूली मुलाजिम है. संचार युग में बिना सूचना दिये आने वाला हर व्यक्ति हमारे लिए विघ्न है और यह सामान्य व्यवहार है कि विध्न से मुँह मोड़ लिया जाता है. यह समाज के बदलते स्वरूप का चित्रण है या रुदन?
पर मोनिका जी का कहना है कि
“पर इससे कहीं मुश्किल काम मैं कर चुकी थी
जैसे मनुष्य से करुणा की उम्मीद करना.”
अच्छे कविता संग्रह के मानदण्डों पर खरी उतरती हुयी मोनिका जी के काव्य-संग्रह ने हिन्दी काव्य परिदृश्य में औपचारिक समग्रता से अपनी विनम्र उपस्थित दर्ज़ की है. काव्यगत गुणों में विशिष्ट मौलिकता लिए यह संग्रहनीय पुस्तक हिन्दी कविता प्रेमियों के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है. इस पुस्तक की भूमिका में वागीश शुक्ल जी का लेख ‘काव्य समालोचना’ पर सारगर्भित दृष्टि देता है, जो कि इस पुस्तक की प्रतिष्ठा को परिपुष्ट करता है.
इन आश्चर्यवत् कविताओं के संग्रह के लिए मोनिका कुमार जी को हम सभी पाठकों की ओर से बधाई.
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