आशुतोष भारद्वाज
पिछली सदी की शुरुआत में एक उपन्यासकार ने एक ऐसी लड़की के बारे में लिखा था जो ग्यारह की उम्र में ही “अपना दिमाग़ उपन्यास पढ़-पढ़ कर ख़राब कर चुकी थी”. [1] सात दशक बाद एक दूसरे उपन्यासकार ने इसी उम्र की लड़की काया को अपना किरदार बनाया जो उपन्यास तो नहीं पढ़ती थी, लेकिन अगर अनुपमा ने उपन्यास पाठ का एकाकी कर्म चुन अपनी सृष्टि को रचा था, काया ने एकांत को अपने अस्तित्व का अभिन्न अंग बनाया. अनुपमा ने मान लिया था कि उपन्यास पढ़ उसने “मानव प्रेम, आकांक्षा और सौंदर्य के बारे में सब कुछ जान लिया है”, काया मानना चाहती है कि बगैर किसी सहारे के वह सम्पूर्ण हो सकती है.
लाल टीन की छत (१९७४) की काया अपनी बीमार गर्भवती माँ और छोटे भाई के साथ शिमले के पहाड़ पर रहती है. पिता अक्सर दौरे पर रहते हैं. यह स्पष्ट नहीं है कि माँ के पेट में किसका बच्चा है, माँ के बारे दबी–छुपी चीज़ें उड़ती रहती हैं. काया पूरा दिन चीड़ और खुबानी के पेड़ों के बीच घूमती है, किसी अज्ञात अतीत के प्रेत उसके ऊपर मँडराते हैं, वह रेल की सीटी सुनती है जो कालका जाती है जिसके परे मिथकीय मैदान शुरू होते हैं. पहाड़ की परछाईयाँ उसके भीतर इतनी विविध अनुभूतियों को जन्म देती हैं जिन्हें वह समझ तक नहीं पाती, किसी से कहने की बात तो दूर. यह भारतीय साहित्य का एक विरला क्षण है जब हम किसी बच्ची की खनकती ख़ामोशियों को सुनते हैं. उसके अंतर्लाप, निरी साधारण चीज़ों पर कौतूहल और भय में सना उसका अचंभा.
एकांत व्यक्तिवाद या अकेलापन नहीं है, निर्वासन या निष्कासन तो क़तई नहीं. यह अस्तित्व की एक सघन और निविड़ अवस्था है जहाँ मनुष्य किसी आंतरिक तलाश, अन्वेषण या साधना के लिए स्वेच्छा से एकांत चुनता है- तलाश और साधना का यह भाव एकांत को ऐसी अन्य स्थितियों से अलग ले जाता है जहाँ मनुष्य अकेला या तन्हा दिखाई देता है. यह कोई शास्वत अवस्था भी नहीं है, इसके अनेक रंग हैं- एक संत का एकांत, कलाकार या खिलाड़ी का एकांत.
पिछली सदियों में एकांत समाज से सम्पर्क काट लेने के बाद हासिल किया जाता था, साधक वन में चले जाते थे. तकनीक की नींव पर टिका आधुनिक समाज इस तरह के अवकाश आसानी से नहीं देता. अपने स्व का एक बड़ा भाग अपने भीतर सहेज, वह भाग जो किसी अन्य को दिया नहीं जाता, एकांत के आधुनिक गीतकार ने दूसरों की उपस्थिति में भी अपने साथ रहना सम्भव किया है. ज़ाहिर है यह ‘भीड़ में अकेला’ वाली एक अन्य आधुनिक स्थिति से एकदम अलग है.
यह कोई स्थाई भाव भी नहीं है जिसे जीवन के प्रत्येक पहर में हासिल किया जा सके. स्वेच्छा से एकांत चुनता इंसान अक्सर इसके धोखादेय तीखे किनारों पर फिसल जाता है. कई बार असहनीय अकेलेपन के क्षण भी आते हैं— भीषण अवसाद, क्रूर विचलन और कभी तो मनुष्य अचानक से ढह भी जाता है.
एकाकी मनुष्य किसी साथी के लिए तड़पाती चाह में नहीं रहेगा, अकेलेपन को लेकर शिकायत या शोक नहीं करेगा, लेकिन वह अपने स्व के साथ एक सतत् द्वंद्व में ज़रूर रह सकता है, बदलते भावों को साधने का संघर्ष करते हुए. यह संघर्ष मानवीय जिजीविषा का एक सम्मोहक अध्ययन है.
मीरा या अक्का महादेवी जैसे गिने–चुने उदाहरणों के सिवाय एकांत पर मानव इतिहास में अमूमन पुरुष का ही विशेषाधिकार रहा है जो अक्सर स्त्री की क़ीमत पर ही हासिल हुआ है. बुद्ध ने आंतरिक साधना के लिए एकांत चुना था, यशोधरा बाध्य थीं उस अनुपस्थिति को स्वीकार करने के लिए जो पुरुष के निर्णयस्वरूप उन पर आ ठहरी थी. घर के भीतर रहती अकेली स्त्री पुरुष द्वारा छोड़ दिये गए पारिवारिक दायित्व निभाती थी.
आधुनिक जीवन ने शायद पहली बार स्त्री को वह जगह दी जहाँ वह अपने एकांत, अपने कमरे को चुन सकती थी. लेकिन यह कमरा आसानी से उपलब्ध नहीं था, घर और उपन्यास में भी नहीं. इस विधा के जन्म से ही यूरोप के उपन्यास किसी आंतरिक या बाह्य यात्रा में निकले पुरुष को रॉबिंसन क्रूसो और डॉन कीहोते जैसे नायकों में चित्रित करते रहे हैं, एक लंबी परंपरा जो जल्दी ही नोट्स फ्रम द अंडरग्राउंड तक पहुँच जाती है. लेकिन एकाकी स्त्रियाँ बहुत देर से और बहुत कम आती हैं. मदाम बोवारी और अन्ना करेनिना एकाकी नहीं अपने अकेलेपन से जूझती स्त्रियाँ थीं जो अपने उपन्यासों की तमाम कलात्मक शक्ति के बावजूद आखिर में प्रेम ही खोज रहीं थीं, इसके अलावा उनकी आकांक्षा और कहीं नहीं पहुँचती थी. प्रेम निश्चय ही एक बड़ी साधना है, अपनी पूर्णता के लिए एकांत मांगती है(रोलां बार्थ ने अ लवर्स डिस्कोर्स में कहा भी है: प्रेम का संवाद सघन एकांत में घटित होता है.), लेकिन यह प्रत्यय स्त्री के संदर्भ में इतना लहूलुहान हो चुका है कि सतर्कता स्वाभाविक है.
जैसा कि केलसे मैकिनी दर्ज करती हैं:
पुरस्कृत और सिंहासन पर बिठाई गयीं स्त्री–केन्द्रित किताबें उन स्त्रियों के बारे में थीं जैसा मैं होना नहीं चाहती थी. जेन आयर रोचेस्टर के प्यार में अंधी थी, जैसा प्राइड एंड प्रेजुडिस की बेनेट बहनें हैं. द स्कारलेट लेटर की हेस्टर प्रायिन अत्यधिक मातृत्व में डूबी है, और कोई भी अन्ना करेनिना की तरह बड़ा नहीं होना चाहता. ये स्त्रियाँ शादी करना और बच्चे पैदा करना चाहती थीं. वे तीन सौ पन्नों में एक ऐसे आदमी के लिये रिरियाती थीं जो उनके साथ रहना नहीं चाहता. ऐसा लगता था वे अपनी ही कथा में सहनायिका होना चाहती थीं…इन स्त्री किरदारों की कथा असफल प्रेम की कथा थी, एकांत में स्व की तलाश की कोई कथा न थी… साहित्य की लड़कियां खुद को हासिल करने के लिए लंबी यात्राओं पर नहीं निकलतीं, वे पुरुष को पाने के लिए यात्रा करती हैं…मॉडर्न लाइब्रेरी द्वारा संकलित किए गए (दुनिया के) 100 महानतम उपन्यासों में सिर्फ नौ में ही स्त्री प्रमुख किरदार है, और इसमें से सिर्फ एक किताब- मुरियल स्पार्क की द प्राइम ऑफ मिस जियां ब्रोदी – में ही स्त्री पति को पाने या बच्चे पालने के अलावा कोई और आकांक्षा रखती है. इस तरह महानतम उपन्यासों में से सिर्फ एक प्रतिशत उन स्त्रियों के बारे में है जो प्यार करने के अलावा भी कुछ करती हैं.[2]
भारतीय उपन्यास के केंद्र में आरंभ से ही स्त्रियाँ रहीं हैं, काफी स्वतंत्र भी हैं, लेकिन एकांत शायद ही उनके अस्तित्व की जरूरत रही है.उमराव जान एक अपवाद हैं जो वेश्यालय के जीवन और कई प्रेम सम्बन्धों के बावजूद अपने अस्तित्व का बड़ा भाग अनछुआ रखे रहती हैं. उनका एकांत भले ही विविध रंगों में उद्घाटित नहीं होता, लेकिन उनके भीतर एकाकी नायिका के चिन्ह दिखते हैं. स्त्री किरदार विद्रोही और निर्भीक होते गए, लेकिन उनका विद्रोह अक्सर यौन मसलों पर ही एकाग्र रहा. स्त्री के लिए प्रेम और यौनिक स्वतन्त्रता का निश्चित ही महत्व है, स्त्री के द्वारा उपन्यास में हासिल की जाने वाली यह पहली आज़ादी रही है लेकिन तुलना करें उन तमाम पुरुष किरदारों से जिनकी तड़प उन्हें स्त्री–प्रेम के अलावा भी कई दिशाओं में ले जाती थी. दिलचस्प है कि यह प्रवृत्ति सिर्फ पुरुष ही नहीं स्त्री उपन्यासकार के लेखन में भी दिखती है.
शेखर: एक जीवनी और मित्रो मरजानी अपने शीर्ष किरदारों के विद्रोह की वजह से जाने जाते हैं. शेखर प्रेम में है लेकिन उसकी तलाश उसे कई राहों पर ले जाती है, वह एक बैचेन लेकिन बौद्धिक पीढ़ी का प्रतिनिधि है (शेखर के किरदार की अंतर्निहित समस्याओं को इस लेखक ने अन्यत्र रेखांकित किया है), जबकि रचे जाने के पचास साल बाद भी मित्रो अमूमन “अपनी यौनिकता की स्वच्छंद अभिव्यक्ति” के लिए याद की जाती है. कमला दास की आत्मकथा माई स्टोरी का एक ऐसी स्त्री की कहानी बतौर जिक्र होता है जो अपनी सेक्सुएलटी के अनेक आयाम खोज और हासिल कर रही है.
क्या इसकी वजह यह है कि उपन्यास के पन्नों और शायद उसके बाहर भी स्त्री के लिए पहली स्वतन्त्रता उसकी देह ही होनी थी, एक ऐसी स्वतन्त्रता जो अनेक लेखकों के अनुसार आज भी पूरी तरह उपलब्ध नहीं हो पायी है? या किसी एकाकी स्त्री को किसी विराट यात्रा पर जाते देखना रचनाकार को अभी भी असहज बना देता है? चूंकि यात्रा, भले वह आंतरिक हो या बाह्य, उल्लंघन की संभावना बनाती है, यात्री को समाज और परिवार के प्रभाव या चंगुल से दूर ले जाती है, क्या ऐसी यात्रा का स्पेस उपन्यास की स्त्री के पास आज भी सीमित है?
इस दृष्टि से लाल टीन की छत एक विरला उपन्यास है. एक बारह साल की लड़की शायद पहली बार किसी उपन्यास में एकांत को चुनती और निभाती है.
शाम के सन्नाटे में जब वह हिलते दरवाज़ों की खटखटाहट सुनती, तो अचानक यह भ्रम होता कि वह मकान बिल्कुल ख़ाली है, उजाड़ और ख़ाली — शहर के और मकानों की तरह, जिनके मालिक सर्दियों में बाहर चले जाते थे. उसे भयानक–सा ख़याल आता कि अगर वह रात–भर अपने घर के सामने अंधेरे में खड़ी रहे, तो भी किसी को उसका अभाव नहीं अखरेगा. वह मकान उसके प्रति इतना ही उदासीन रहेगा, जितना चारों तरफ़ खड़े पहाड़, जो सब–कुछ देखते हैं, लेकिन अपनी जगह से एक इंच भी डाँवाडोल नहीं होते. उन दिनों काया ने पहली बार अपने अकेलेपन को देखा था — साफ़–साफ़ अंधेरे में.
उसे डर नहीं लगा था. सिर्फ़ एक अजीब–सा कौतूहल था, जैसे अकेलापन कोई बीमारी है, जो भीतर पनपती है, और बाहर से जिसे कोई देख नहीं सकता- न छोटे, न माँ, न मिस जोसुआ- और उसे लगता जैसे माँ बड़ी हो रही हैं, वैसे वह भी, हालाँकि माँ को सब देख सकते थे, उसे कोई नहीं.[3]
काया को माँ के दुलार या किसी भावात्मक सहारे की चाह नहीं, पहाड़ पर अकेले पड़ जाने पर कोई शिकायत नहीं. वह एकांत की रंगतों को पूरी तरह समझ नहीं पाती, लेकिन उसने इसे संपूर्णता में स्वीकार कर लिया है, इससे बचकर नहीं भागती. वह सिर्फ़ अचम्भित है कि सृष्टि उससे इस कदर बेखबर है कि उसके गुम हो जाने का साक्षी कोई न होगा. उपरोक्त दृश्य के थोड़ी देर बाद वह माँ के पास जाती है और माँ उसे देख चौंक जाती है. “माँ उसकी ओर देखती रहीं, यह उनकी लड़की है, एक क्षण के लिए विश्वास न हो सका…जैसे वह कोई बाहर की लड़की है, इस घर में शरणार्थी की तरह रहती है — और वह उसकी कोई मदद नहीं कर सकतीं.
कुछ लोग हमेशा मदद के परे होते हैं— काया शायद ऐसी ही थी.”
एक माँ अपनी बारह साल की बेटी में एक अजनबी को देखती है, किसी मदद से परे. यह लड़की किस राह पर चल रही है? एक और वाक्या जब काया के पिता उसे हॉस्टल भेजने के बारे में बतलाते हैं, और फिर हिचकते हुए कहते हैं कि उसके चाचा का घर हॉस्टल के नज़दीक है — “तुम कभी भी उनके घर जा सकती हो”. इस पर काया की प्रतिक्रिया देखिए—
क्या इसलिए उन्होंने मुझे बुलाया था, तसल्ली के दो टुकड़े मेरे आगे फैंके थे और मैं उन्हें उठा लूँगी? मैं समझ गयी. मैं चुप बैठी रही. कहीं भी जा सकती थी. उनके घर, अपने घर˙˙˙मुझे कोई जल्दी नहीं थी, कोई डर नहीं था, कोई उम्मीद नहीं थी˙˙˙उस साल की सर्दियों में मैंने ये तीनों चीज़ें खो दी थीं, और यह बात मैं उनसे कहना चाहती थी.[4]
एक लड़की डर, उम्मीद और किसी तसल्ली के बग़ैर एकांत को अदम्य निष्ठा से जी रही है. निर्मल के एकाकी किरदारों को समझने के लिए निष्ठा महत्वपूर्ण कुंजी है. निर्मल के किरदार एकांत को जतन और गरिमा से ओढ़ते हैं. उनकी कथाओं में टेबिल लैम्प, नोटबुक और रेकॉर्ड प्लेयर सरीखी निर्जीव वस्तुएँ भी एकाकी दिखाई देती हैं. अवसाद का बादल उन पर उतर आता है, वे अपने भीतर स्पंदित होती अनुपस्थिति को सुनते हैं, लेकिन उनकी वाणी तीखी नहीं होती. चूंकि वे इस अवस्था को अक्सर थाम नहीं पाते, यह उन्हें और उनके परिवेश को एक रहस्य भरी आभा में पिरो देता है.
मानो काया का जीवन शिमला के पहाड़ पर पूरा नहीं होता, वह और उसका छोटा भाई कुछ साल बाद एक चिथड़ा सुख की बिट्टी और मुन्नू में तब्दील हो जाते हैं. तेरह के आसपास काया अपना घर छोड़ हॉस्टल चली जाती है, बिट्टी करीब बीस की उम्र में इलाहाबाद का घर छोड़ देती है, लेकिन क्या घर छोड़ देने से तलाश मिट जाती है?
बिट्टी की आँखें ख़ाली हवा पर ठिठक गयीं, फिर बहुत हल्के स्वर में बोली, “हिंदुस्तान में कोई कुछ नहीं छोड़ता; मैंने कुछ नहीं छोड़ा˙˙˙पहले मैं बाबू के घर में रहती थी, अब यहाँ बरसाती में…मैंने जब इलाहाबाद छोड़ा था तो सोचा था कि अब मैं छोटी–छोटी चीज़ों के घेरे से बाहर आ जाऊँगी˙˙˙” वह धीरे से हंस पड़ी, “अब मैं बड़ी चीज़ों के बीच में हूँ˙˙˙लेकिन मैं उतनी ही छोटी हूँ, जितनी पहले˙˙˙मेरे भीतर कुछ नहीं बदला है!”[5]
[…]
कुछ लोग अपने अकेलेपन में काफ़ी सम्पूर्ण दिखाई देते हैं — उन्हें किसी चीज़ की ज़रूरत महसूस नहीं होती. किंतु बिट्टी में कोई ऐसा मुकम्मलपन नहीं दिखाई देता था — वह जैसे कहीं बीच रास्ते में ‘ठिठकी–सी’ दिखाई देती थी, जबकि दूसरे लोग आगे बढ़ गए हों.[6]
बिट्टी को लगता था थिएटर उसे पूर्ण कर सकेगा, लेकिन दिल्ली आ वह ख़ुद को कहीं अधूरा पाती है. इसी अधूरेपन को इरा भी जीती है. लेकिन इन दोनों किरदारों के भीतर एक गुण और भी है जो इस अध्याय के लिए महत्वपूर्ण है. इरा और बिट्टी प्रेम में हैं, लेकिन इस अनुभव ने उनके एकांत की आकांक्षा को कम नहीं किया हैं. बिट्टी और डैरी नियमित मिलते हैं लेकिन बिट्टी ने उस स्पेस को बचाए रखा है जहाँ डैरी की जगह नहीं है. प्रेम के क्षणों में भी बिट्टी को अपने भीतर के अलंघ्य कोटर–किनारों को सहेजने का बोध बना रहता है. इस उपन्यास में एकांत की तड़प और ख़ुद को पा लेने की आकांक्षा स्त्री में पुरुष की अपेक्षा कहीं अधिक है. जिस आकांक्षा की जगह उपन्यास की पिछली पीढ़ी की स्त्री के पास लगभग नहीं थी वह निर्मल के किरदारों में पूर्ण होती है. जयदेव ने निर्मल की कथाओं को विदेशी कहा है लेकिन अगर आत्म–बोध भारतीय संस्कृति के बुनियादी मूल्यों में है, क्या इरा और बिट्टी तमाम जोखिम उठा कर उस दिशा में चलती नहीं दिखाई देतीं?
निर्मल के गल्प संसार की स्त्री को अरुंधती रॉय के द गॉड अव स्मॉल थिंग्सकी अम्मू के बरक्स देख सकते हैं.[7] केरल में रहती एक तलाक़शुदा सिरियन ईसाई माँ जो एक अछूत के साथ सम्बंध बनाती है.
जब कभी अम्मू रेडियो पर अपने पसंदीदा गाने सुनती थी, उसके भीतर कुछ फिसलने लगता था. एक तरल दर्द उसकी त्वचा पर बह आता,और वह किसी जादूगरनी की तरह इस दुनिया से बाहर निकल किसी बेहतर और सुखी जगह चली जाती. ऐसे दिनों में उसके भीतर एक छटपटाहट,एक बनैलापन समा जाता, मानो उसने मातृत्व और तलाक की नैतिकता को कुछ समय के लिए परे कर दिया हो…वह बालों में गजरा लगाती,उसकी आँखों में जादुई रहस्य चमकने लगते. वह किसी से बात नहीं करती, अपने रेडियो के साथ नदी किनारे घंटों बैठी रहती. वह सिगरेट पीती और आधी रात को नदी में तैरती…जिन दिनों रेडियो अम्मू के गाने बजाता था हर कोई उसे देख सशंकित हो जाता. उन्हें मालूम चल जाता था कि वह दो दुनिया के बीच ठहरे छायालोक में जी रही है, उनके अधिकार क्षेत्र से परे. कि जिस औरत को वे पहले ही तिरस्कृत कर चुके हैं, उसके पास अब खोने के लिए कुछ नहीं था, और इसलिए वह घातक हो सकती थी.[8]
अम्मू अपने एकांत में जीती नज़र आती है, लेकिन क्या वाक़ई ऐसा है? उसके जीवन को दो सम्भावनाओं के ज़रिए देख सकते है. अम्मू ने अपने तलाक़ को स्वीकार कर लिया है लेकिन वह कहीं और भाग जाना चाहती है. अम्मू का अपनेपरिवार और सामाजिकनियमों के ख़िलाफ़विद्रोह उपन्यास की बुनियाद है.लेकिन सतह कोथोड़ा खुरचिये, उसकाविद्रोह अपने भाईचाको और उसकीविदेश से लौटीपत्नी मार्ग्रेट कोचम्मा के बीचसहसा उमड़े प्रेमके ख़िलाफ़ नज़रआता है. उपन्यास का अंत इस भाव पर होता है जो अम्मू के भीतर वेलुथा के साथ पहली बार संबंध बनाने के बाद उमड़ता है — हाँ, मार्ग्रेट, अम्मू ने ख़ुद से कहा. हम भी ऐसा करते हैं!
उपन्यास का यह अंत अम्मू के विद्रोह को समझनेकी कुंजी है.अंतरंगता के इस दुर्लभ क्षण जो अम्मू को न मालूम कितने सालों बाद हासिल हुआ है उसे अपने भाई की पत्नी एक ईर्ष्यालु विजय के साथ क्यों याद आ रही है? क्या अम्मू का विद्रोह ईर्ष्या से जन्मा है? क्या यह वाक़ई “प्रेम के नियम” तोड़ने की आकांक्षा थी — “नियम जो तय करते थे किसे प्रेम किया जाएगा, कितना और किस तरह से” —जिसका यह उपन्यास बार–बार दावा करता है? या अम्मू का विद्रोह अपने भाई और उसकी पत्नी के ख़िलाफ़ था? अपने बच्चों की उपेक्षा देखती एक माँ घर में आयी दूसरी स्त्री और उसकी बच्ची पर उड़ेले जा रहे प्यार से झुलस जाती है. किसी कीड़े की तरह उसे कुरेदता यह घाव एक अछूत से सम्बंध बनाने के निर्णय में तब्दील होता है. एक पुरुष जो उसके पड़ोस में अरसे से रहता आया था लेकिन जिसके साथ उसका कभी कोई संवाद नहीं था. उन दोनों के बीच कोई जुड़ाव या लगाव नहीं था जिसका अवसर आने पर विस्फोट हुआ हो. क्या यहाँ “प्रेम के नियम” नहीं थे जिन्हें चुनौती देनी थी, बल्कि सिर्फ़ प्रेम का आघात था जिसका बदला एक ऐसी स्त्री लेना चाह रही थी जिसे “पहले ही तिरस्कृत किया जा चुका था, उसके पास अब खोने के लिए कुछ नहीं था,और इसलिए वह घातक हो सकती थी”?
क्या अम्मू का विद्रोह निहायत ही रूढ़िगत कर्म है जहाँ एक घायल स्त्री आवेश में आ सामाजिक पायदान में अपने से कहीं निचले पुरुष के साथ संबंध बनाती है?
क्या उपन्यास अम्मू को इसके अलावा कोई और विकल्प देता है? क्या ऐसा भी विद्रोह हो सकता था जो इस हिंसक और तात्कालिक चोट से कम अम्मू की सघन आकांक्षा से अधिक संचालित होता था? वह बेचैन है, लेकिन आंतरिक साधना या तलाश उसका लक्ष्य नहीं है. क्या अम्मू का किरदार उस निरीहता को चिन्हित करने में मदद कर सकता है जो एकांत से उपजी प्रतीत तो होती है, लेकिन उसका स्रोत शायद कहीं और भी है?
लेकिन इस उपन्यास को दूसरी तरह से भी पढ़ा जा सकता है. अगर अम्मू के विद्रोह के बीज ईर्ष्या में हैं तो उसका वेलुथा के साथ संबंध प्रश्नांकित हो जाता है. वेलुथा अम्मू के लिए महज़ एक औज़ार बन जाता है जिसके ज़रिए वह अपनी बग़ावत को अंजाम देती है. उपन्यास दोनों के सम्बंध को इतनी नज़ाकत और ख़ूबसूरती के साथ चित्रित करता है कि यह एक ईर्ष्यालु स्त्री की सम्भावना से आसानी से मेल नहीं खाता. भले ही अम्मू का विद्रोह परिवार और समाज,और शायद उसके भूतपूर्व पति के भी ख़िलाफ़ था लेकिन यह सार्वजनिक कर्म नहीं था, सार्वजनिक करने की आकांक्षा लिए नहीं था. यह एक अत्यंत निजी कर्म था, जो उसके द्वारा निर्मित स्पेस में घटित हुआ था, और इसने उसे सम्पूर्ण किया था. इस पर ईर्ष्या की बूँदें भले गिरी हों, लेकिन इसने अम्मू को ऐसे सुख में डुबो दिया था जो उसने शायद कभी अनुभूत न किया था. शायद यही उसकी तलाश थी —- बेलौस सुकून के कुछ लम्हे जहाँ वह ख़ुद को मुक्त आकाश में पाती थी, अपने खोए स्व को हासिल करती थी.
इसे थोड़ा और जटिल बनाते हैं, दूसरी सम्भावना को एक चिथड़ा सुख के बरक्स रखते हैं. इरा का प्रेम भी कथित सामाजिक नियमों के विरुद्ध है. वह अपनी आकांक्षा की असंभाव्यता से वाक़िफ़ है, लेकिन उसकी प्रतिक्रिया आंतरिक है. अम्मू मार्ग्रेट कोचम्मा को सामने पा ईर्ष्या से सुलग जाती है, इरा नित्ती भाई की पत्नी को देख घनघोर ग्लानि से भर उठती है, पीछे हट जाना चाहती है. क्या इन दोनों उपन्यासों की स्त्रियों का प्रेम के आघात के प्रति दृष्टिकोण बुनियादी तौर पर भिन्न है? अम्मू का विद्रोह “मातृत्व और तलाक़ की नैतिकता” के खिलाफ है. उपन्यास मानता है कि प्रेम–नियमों को तोड़े बग़ैर अम्मू अपने जीवन में सार्थक हस्तक्षेप नहीं कर सकती.
इरा और बिट्टी भी प्रेम के नियमों को तोड़ती हैं, लेकिन वे अपने निर्णयों की कड़ी आलोचक हैं, उन्हें निरंतर परखती हैं.वे कोई कमतर विद्रोही नहीं हैं, वे परिवार को बहुत कम उम्र में छोड़ अपने सपनों की तलाश में निकल पड़ी हैं. लेकिन उनके कर्म का मानदंड सामाजिक नियम नहीं, उनका अपना स्व है जो सही और ग़लत का भेद करता है. वे ख़ुद को कटघरे में खड़ा करती हैं, अपने ख़िलाफ़ सबूत पेश करती हैं, गवाह भी बनती हैं, और ख़ुद पर बिना हिचक फ़ैसला सुनाती हैं.
दोनों उपन्यासों में पुरुष की मृत्यु हो जाती है. नित्ती भाई आत्महत्या कर लेते हैं, वेलुथा की मौत पुलिस टॉर्चर से होती है. दोनों उपन्यास इस मृत्यु और स्त्री की भूमिका को कैसे देखते हैं? भिन्न परिस्थितियों में हुई दोनों मृत्यु एक साझा धुरी पर टिकी हैं — यह मृत्यु प्रेम की वजह से, “प्रेम के नियमों” के उल्लंघन की वजह से हुई है. अरुंधती के उपन्यास में मृत्यु की वजह सामाजिक–राजनैतिक अन्याय है, जो यह निसंदेह है. निर्मल के उपन्यास में यह मनुष्य के चुनावों का अनिवार्य परिणाम है. पाठक को शुरू में ही आभास हो जाता है कि इरा और नित्ती भाई की राह मृत्यु–आकांक्षा में डूबी हुई है, उसे यहीं ख़त्म होना था. यह उपन्यास समाज को ज़िम्मेदार नहीं ठहराता, हालाँकि सामाजिक नियमों को दोषी ठहराते बिंदु कथा में आराम से पिरोए जा सकते थे, लेकिन निर्मल अपने किरदारों के लिए कोई रहम, सहानुभूति नहीं चाहते.चूंकि इरा प्रेम के नियमों का उल्लंघन कर रही है इसलिए अपने प्रेमी की मृत्यु की ज़िम्मेदारी भी उसकी ही होगी. “एक अच्छा उपन्यासकार अपनी सहानुभूति को बराबर–बराबर मात्रा में सब पात्रों को देता है, एक महान उपन्यासकार अपनी सहानुभूति के विरुद्ध संघर्ष करता है,” निर्मल ने अन्यत्र कहीं लिखा है.
आधुनिक जीवन में स्वतंत्रता का अर्थ है अनेक उपलब्ध विकल्पों में किसी एक को चुन लेने का अधिकार. अम्मू अपने निर्णय लेने में कितनीस्वतंत्र है?
यहाँ स्त्री द्वारा किए गए भिन्न क़िस्म के चुनावों के बीच कोई श्रेणी पैदा करने का उद्देश्य नहीं, बल्कि आख्यान की अनेक संभावनाओं को परखने का प्रयास है.
इस लेख में जिन उपन्यासों का ज़िक्र हो पाया है वे ज़ाहिर है समूचे भारतीय उपन्यास और उसकी स्त्री का सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते. अम्मू और चंद्री के अलावा भी इरा जैसे अनेक स्त्री किरदार हैं जिनके पास कहीं अधिक विकल्प हैं. लेकिन इसके बावजूद यह कहने में कोई समस्या नहीं कि क़रीब सवा सौ वर्षों के दौरान अनेक भाषाओं में लिखे गए जिन उपन्यासों को यह लेख केंद्र में रखता है वे निसंदेह भारत के प्रतिनिधि उपन्यास कहे जा सकते हैं. कई और प्रतिनिधि स्त्री किरदार भी होंगी, लेकिन विष वृक्ष की कुंद से लेकर इंदुलेखा, सुचरिता, तारा, मित्रो, चंद्री और अम्मू इतिहास और साहित्य के एक ऐसे लम्बे धागे में पिरोयी हुई हैं जहाँ उनकी संगति में तमाम और स्त्रियाँ भी हैं. उपन्यास में, उसके बाहर भी.
इसलिए यह कहा जा सकता है कि भारतीय उपन्यास ने स्त्री को यह सहूलियत तो बहुत जल्द दे दी थी जहाँ वह अपने एकांत में इस विधा से संवाद कर सकती थी, लेकिन ऐसा एकांत जहाँ वह ख़ुद को बग़ैर किसी सहारे के तलाश सकती अभी भी हासिल नहीं हुआ है.
एक सच्चाई और भी है. अपूर्णता का विधान. अपने अस्तित्व की तलाश में निकली एकाकी स्त्री मानव इतिहास और साहित्य में चूँकि हाल ही आयी है, तमाम रचनाकार इसके सामने असहज महसूस करते हैं. बड़ी स्त्री रचनाकार भी जो स्त्री मसले पर अपने सशक्त वक्तव्यों के लिए जानी जाती हैं, उनकी स्त्री किरदार के पास भी सीमित विकल्प हैं. पीछे मुड़ कर देखने पर कोई इन किरदारों को अनेक संभावनाएँ दे सकता है, वे सभी राह उकेर सकता है जिनमें से वे सबसे समृद्ध को चुन सकती थीं, लेकिन अतीत को मनचाहे रंग देने से भले ही उनका जीवन कहीं अधिक परिपूर्ण और संतृप्त लगने लगे, उनकी इतिहास और उपन्यास में स्थिति के प्रति शायद यह न्याय नहीं होगा. उन्हें ऐसा ही जीवन जीना था जो भविष्य को अधूरा नज़र आता. उनका सौंदर्यशास्त्र अभाव का सरोवर है, भाषा हिचकियों का रेखाचित्र, साधना अपूर्णता का प्रतिबिम्ब.
उपन्यास की स्त्री अपूर्णता का विधानहै— लेकिन इस अपूर्णतामें भी वहकहीं मुकम्मल है.
—————————-