हरिओम कथाकार के रूप में चर्चित हैं उनका एक कहानी संग्रह ‘अमरीका मेरी जान’ प्रकाशित है. प्रस्तुत कहानी में वह नक्सल-आदिवासी ज़िला मिर्ज़ापुर में तैनात सब इन्स्पेक्टर रनबहादुर की हत्या से रोचक ढंग से एक-एक कर पर्दा उठाते चलते हैं. अक्सर हम इस तरह की घटनाओं को अख़बारों के माध्यम से समझते हैं पर एक कथाकार जब ऐसी घटनाओं को बुनता है तब उसमें छोड़ दी गयी सच्चाई भी अपना आकर लेने लगती है. भाषा में रवानी है और कहानी अंत तक बांधे रखती है.
दास्तान-ए-शहादत
छाया : पीयूष दईया
हरिओम
उधर इक हक़ीक़त इधर इक फ़साना
बयां किसको कीजे ये लफड़ा पुराना
अगर सच कहूं तो यकीं किसको होगा
बयां किसको कीजे ये लफड़ा पुराना
अगर सच कहूं तो यकीं किसको होगा
फ़साने का आशिक है सारा ज़माना
इधर इक फ़साना
रनबहादुर सीधी भर्ती के नौजवान सब-इंस्पेक्टर थे. उनमें वे सभी गुण थे जो हमारे दौर के नौजवानों में पाए जाते हैं. वह जात-पात, ऊंच-नीच, धरम-करम-पाखंड से दूर थे. औरत-मरद का फ़र्क नहीं करते थे. देश के लिए तो उनके मन में बहुत जज़्बा था ही. छात्र जीवन से ही देश के लिए कुछ भी कर गुज़रने की इच्छा उनके मन में पली-बढ़ी थी. राजनीति और सोशल वर्क की मास्टरी तालीम हासिल करने के बाद उन्होंने पुलिस की नौकरी करने का इरादा किया था और अपने पक्के इरादे की बदौलत सब-इंस्पेक्टरी का कड़ा इम्तहान पास भी कर लिया था. इस करियर को चुनने के पीछे कहीं न कहीं ग़रीब-गुरबा के ख़िलाफ़ अन्याय-अत्याचार और औरत जात से ज़ोर-जबरदस्ती को लेकर उनकी बेचैनी भी एक वजह थी. खैर रनबहादुर ने पुलिस महकमे में दारोगा बन अपनी जिंदगी को एक तरह से भय, आतंक और अपराध के ख़िलाफ़ संघर्ष को समर्पित कर दिया था. ये परिवार से मिले संस्कारों का असर था, तालीम की तासीर थी या चुनौतियों का सामना करने का उनका तेवर- जो भी था, रनबहादुर को ज़िन्दगी और नौकरी दोनों में आराम पसंद नहीं था. सीतापुर पुलिस ट्रेनिंग सेंटर में नौ महीने का दिमागी और जिस्मानी करतब सीखने के बाद उन्हें फील्ड ट्रेनिंग के लिए ‘नक्सल ज़िला’ मिर्ज़ापुर में तैनाती मिली. यक़ीनन यह तैनाती उन्होंने अपने स्वभाव के मुताबिक़ ख़ुद चुनी होगी. चाहते तो आगरा, मेरठ, कानपुर, लखनऊ कहीं भी सेट हो जाते. पूर्वांचल में ही जाना होता तो बनारस, गोरखपुर कहीं भी जम के वर्दी की हनक दिखाते लेकिन देश और समाज की फ़िक्र करने वाले अपने ऐशो-आराम की कब सोचते हैं. पहली तैनाती में रनबहादुर न सिर्फ नक्सल-आदिवासी ज़िला मिर्ज़ापुर आये बल्कि वहां भी पहुँच के लिहाज़ से दुर्गम, सुविधाओं के लिहाज़ से विपन्न और पुलिसिया काम के लिहाज़ से बेहद मुश्किल अहरौरा थाने में नायब दारोगा के बतौर तैनात हुए. काली, लाल और कहीं-कहीं पीली मिट्टी वाला ये इलाक़ा साल, खैर, धावरा जैसे पेड़ों के जंगलात और कीमती पत्थरों-खनिजों से भरा पड़ा था. दूर बहती गंगा से निकली कुछ जल-धाराएं भले ही इन जंगलों को संजीवनी देती रहीं हों वर्ना इनमें इतनी ताक़त थी कि ये चट्टानों की छाती तोड़ ज़मीन के नीचे अतल गहराइयों से अपना जीवन खींच सकते थे. ठीक वैसे जैसे यहाँ के भुइया, कोल, बैगा और बियार लोग- आदिवासी, जिन्हें इन पत्थरों और जंगलों ने जाने कितनी पीढ़ियों से सहेज रखा था. रनबहादुर जिस अहरौरा थाने में तैनात हुए थे वह ज़रूर सड़क से जुड़ा एक कस्बाई गाँव था मगर सड़क के दोनों ओर फैला थाने का पूरा हलका पगडंडियों के जाल में उलझा लाल चट्टानों और घने वीरान जंगलों में समाया हुआ था. बीच-बीच में कुछ गाँव आबाद थे जिनमें ज़्यादातर ग़रीब परिवार थे लेकिन उनमें कमंडल और मंडल से निकली कुछ बड़ी जातियों के भी घर थे. अहरौरा वाली सड़क पर ही कुछ दूर आगे जाकर मुसलमानों की एक बस्ती थी लतीफ़पुर जहां के बाशिंदों की ज़िन्दगी अमूमन मवेशियों की ख़रीद-फ़रोख्त पर चलती थी. यही सड़क जहां आगे जाकर सोनभद्र होते हुए मध्यप्रदेश में उतर जाती थी वहीँ उसके समानांतर दक्षिण-पूर्व की तरफ़ कई जंगली रास्ते चंदौली होते हुए बिहार की सीमा में समा जाते थे. रनबहादुर को इस इलाक़े के भूगोल, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र से ज्यादा लेना-देना न था. पुलिसिया काम के कारण उनका कुछ साबका राजनीतिशास्त्र से ज़रूर पड़ता था लेकिन वे अपने काम में समर्पण के भाव से उलझे रहते. यूँ तो नेता, हाकिम और पत्रकार- इन तीन तबकों के बीच ही उनका ज़्यादा वक़्त गुज़रता, बाक़ी उत्साही नौजवान होने के नाते वे अपने इलाक़े की बाक़ी चीज़ों के बारे में भी ज़्यादा से ज़्यादा जान लेना चाहते थे.
रनबहादुर ने अपनी छह-सात महीने की फ़ील्ड ट्रेनिंग मन लगाकर की. आई.पी.सी.,सी.आर.पी.सी.,गुंडा, गैंगस्टर जैसी क़ानून की ज़रूरी किताबों के पन्ने तो उन्होंने ट्रेनिंग सेंटर में पहले ही देख लिए थे, यहाँ आने पर उन्हें अवैध खनन, जंगली पेड़ों की चोरी-छुपे कटान, कच्ची शराब के कारोबार, गोवंशीय पशुओं की तस्करी, कमज़ोर जात की ज़मीनों पर दबंगों के कब्ज़े, आदिवासी लड़कियों और औरतों पर की जाने वाली बड़ी जात वालों की ज़ोर-ज़बरदस्ती रोकने और ऐसे अपराधियों को सज़ा दिलाने वाले क़ानूनों की जानकारी ज़्यादा काम की लगी. सो, उन्होंने इन सबका भी भरपूर ज्ञान अर्जित किया. रही थाने की जी.डी., सी.डी., समन-वारंट, गश्ती, शिकायत, संदर्भ, हलका, अपराध, हिस्ट्री-शीट, मालखाना और अस्लाह रजिस्टर वगैरह की, तो यह उनका रोज़ का काम था. लेकिन यहाँ इस सबसे अलग और ऊपर एक और काम था जो रनबहादुर के मत्थे आन पड़ा था- लाल झंडाधारी जंगल पार्टी की हरक़तों पर नज़र रखने का काम. पार्टी के सभी- गाँव से थाना स्तर के छोटे-बड़े ओहदेदारों के नाम-पते, उनकी हर बैठक, धरने, आंदोलन की ख़बर रखने का काम और इस सबसे हलके की क़ानून-व्यवस्था पर पड़ने वाले असर का लेखा रखने की ज़िम्मेदारी रनबहादुर पर थी. रनबहादुर की सामाजिक पृष्ठभूमि, तालीम और संवेदनशीलता के मद्देनज़र यह काम ख़ुद जिला कप्तान ने उसे दिया था. इस मामले में सरकारी फ़रमान बिलकुल साफ़ था- ग़रीब-कमज़ोर-आदिवासी, सबको सुरक्षा देने, ख़ुशहाल ज़िन्दगी देने का काम सरकार का है. उसके लिए क़ानून थे, विकास योजनायें थीं और अनुदान थे. ग़रीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी और बलात्कार को मुद्दा बनाकर भोली-भाली मजदूर-किसान जनता को बरगलाना, उन्हें सरकार के ख़िलाफ़ मूवमेंट और हिंसा के लिए भड़काना न सिर्फ ग़ैरकानूनी था बल्कि एक तरह से देश-द्रोह भी था. हालांकि रनबहादुर इससे इत्तेफ़ाक नहीं रखते थे. उनके मन में ग़रीब-मज़दूर-किसान-आदिवासी जनता के लिए सच्चा दर्द था. वे जंगल पार्टी को ग़रीब जनता की हितैषी मानते थे. ये और बात है कि आंदोलन के नाम पर देश के कुछ हिस्सों में जंगल पार्टी द्वारा की जा रही मार-काट के वे सख्त ख़िलाफ़ थे. वे अपनी बात सरकार तक पहुंचाने के लिए गाँधी जी के सविनय अवज्ञा आंदोलन और अहिंसा को सबसे कारगर तरीक़ा मानते थे.
बहरहाल रनबहादुर ने थोड़े ही दिन में अहरौरा थाने के चप्पे-चप्पे की जानकारी कर ली. हाकिम उन्हें बताते थे कि एक नायब दारोगा के बतौर उन्हें क्या-क्या करना है. नेता उन्हें बताते थे कि वो सब कब-कहाँ-कैसे करना है. और पत्रकार इस सबके लिए ज़रूरी जानकारी मुहैया कराने के साथ ही रनबहादुर की ईमानदार कारगुज़ारियों को लोकल अखबार के लोकल पन्ने पर छापकर समाज और देश की सेवा में अपना कीमती योगदान दे रहे थे. यह रनबहादुर की समर्पित सेवा का ही फल था कि इलाक़े के सभी असरदार नेता और पत्रकार उनसे खुश थे. और जब ये सब खुश थे तो जनता भी खुश थी. और जब सारे खुश तो फील्ड ट्रेनिंग के बाद कहीं, किसी और थाने में रनबहादुर को तैनात करना पुलिस कप्तान को ग़ैर मुनासिब लगा. सो, रनबहादुर बाक़ायदा वर्दी की पूरी हनक के साथ सब-इंस्पेक्टर थाना अहरौरा के पद पर जनहित में तैनात कर दिए गए. थानेदार बुज़ुर्ग थे. शुगर, ब्लड-प्रेशर और सांस फूलने जैसी कुछ सामान्य बीमारियों और ढेर सारी घरेलू जिम्मेदारियों के बोझ से दबे भी हुए थे जबकि रनबहादुर छड़े (ग़ैर-शादीशुदा), गबरू, तंदुरुस्त नौजवान थे. इसलिए नायब होने के बावजूद इलाक़े में थानेदार जैसी हनक और पहचान थी उनकी. इसमें थानेदार को भी कोई दिक्कत नहीं थी. उन्हें ज़रूरी आराम और वक़्त-बेवक्त छुट्टियाँ मिल जाती थीं जबकि रनबहादुर अकेले होने के कारण थाने के पीछे वाले अपने क्वाटर में ही जमे रहते थे. साल बीतते न बीतते रनबहादुर न सिर्फ़ थाने के भूगोल से भली भांति परिचित हो गए, कौन-कहाँ-किस गोरखधंधे में शामिल है, किसका-कहाँ-किस पार्टी से तार जुड़ा हुआ है, किस-किस सरकारी-जाती ज़मीन पर किस-किस का कब्ज़ा है, कहाँ-कैसे चोरी से पेड़ काटे जाते हैं, पत्थर-गिट्टी खोदी जाती है या किसकी औरत लड़की को कब किस नेता, लम्बरदार, ठेकेदार, लम्पट ने उठाया-उठवाया वगैरह-वगैरह, देर-सवेर सब रनबहादुर को पता चल जाता था. फिर रनबहादुर क़ानून के मुताबिक अपना फ़र्ज़ निभाते थे. ज़रूरी लिखा-पढ़ी करने से पहले हाकिम को बताते थे, इलाके के विधायक से ज़रूरी हिदायत लेते थे फिर कहीं जाकर पूरे मसले को जनहित में पत्रकारों से साझा करते थे.
रनबहादुर तनहा ज़रूर थे पर तनहा रहना-दिखना उन्हें पसंद न था. वह दिन रात पुलिसिया काम-काज में उलझे रहते. थाने पर तैनाती के एक माह के भीतर ही उन्होंने हीरो स्प्लेंडर ले ली थी जिससे उनकी चाल और बढ़ गई थी. थाने की जीप कभी-कभार ही उन्हें मिलती और ऊपर से थाने का तीन चौथाई इलाक़ा ऐसा था जिस पर मोटर सायकिल से ही जाया जा सकता था. कहीं, किसी की बकरी चोरी हो गई, कहीं मुर्गी. कहीं, किसी की औरत अपने आशिक़ के साथ भाग गई तो कहीं, किसी की बेटी को पड़ोस का छोकरा भगा ले गया. किसी ने किसी की ज़मीन दाब ली तो किसी ने किसी का रूपया. बिना रवन्ना-पर्ची गिट्टी-पत्थर की खुदाई-ढुलाई हो, पेड़ों की कटान हो या मवेशियों की तस्करी- सब जगह रनबहादुर. जंगल पार्टी की हरक़तें अलग. रात-बिरात, देर-सवेर की दौड़-भाग. रनबहादुर कभी हमराह के साथ, अक्सर अकेले.
ट्रेनिंग पूरी होने के बाद से रनबहादुर वर्दी कम ही पहनते थे, ज़्यादातर सादे में ही रहते. लोकल नेता, पत्रकार और हाकिम सब यही मानते थे कि जंगल पार्टी मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल के बीच अफ़ीम, गांजा, चरस और असलहे की तस्करी करती है लेकिन इस मामले में रनबहादुर के पास एक ‘पोलिटिकल विज़न’ था. वे समझते थे कि छत्तीसगढ़ से चल मध्य प्रदेश होते हुए एक लाल गलियारा सोनभद्र के रस्ते उनके हलके में घुसता है जंगल-जंगल चंदौली को चीर बिहार-झारखण्ड होते हुए पश्चिम बंगाल में उतर जाता है. ये गलियारा देश की मज़लूम और सताई हुई जनता का घर है. उनके हिसाब से यह लाल गलियारा भ्रष्ट, अत्याचारी, निरंकुश और हिंसक राज्य सत्ता और सामंती-पूंजीवादी समाज के ख़िलाफ़ जनसंघर्ष की रणभूमि भी है. रनबहादुर अक्सर सोचते कि आखिर जंगल पार्टी के नुमाइंदों और मेम्बरान में इलाक़े के सारे आदिवासी-किसान-मजदूर ही क्यों हैं, कोई बड़ा रईस, पैसों वाला क्यों नहीं इस पार्टी का झंडा बुलंद करता! ऐसा सोचते हुए वे गहरी साँसे लेते कभी-कभी दार्शनिक भी हो उठते.
थाने में पक्की तैनाती मिलने के बाद एक साल तक रनबहादुर ने अपनी जांबाजी के किस्सों से हलके में इतना नाम कमाया कि नेता-हाकिम-पत्रकार सब उनकी ईमानदारी और मुस्तैदी के क़ायल हो गए. पुलिस कप्तान की मासिक क्राइम मीटिंग में भी रनबहादुर को तारीफ़ मिलती. कुछ दिनों तक तो सबकुछ ठीक-ठाक चलता रहा पर कहानी में मोड़ तब आया जब रनबहादुर को एक आदिवासी लड़की से प्रेम हो गया. रनबहादुर ऊँच-नीच मानते नहीं थे, सो कोल-कन्या भा गई. अब रोज़ नायब दारोगा साहेब उसके गाँव के इर्द-गिर्द पाए जाते. इलाक़े में जंगल-नदी-चट्टान- सब जगह उनकी मुलाक़ातों की अनकही दास्तानें दर्ज़ होने लगीं थीं. एकाध बार उसे चोरी-छिपे थाने के पीछे अपने क्वाटर में लाये रनबहादुर. लड़की इंटर-बी.ए कुछ पढ़ी थी लेकिन जो सबसे खास था उसमें वो था उसकी आज़ाद-खयाली और उस जंगल में अकेले घूमने की उसकी हिम्मत. रनबहादुर अपने जैसा ही बहादुर जीवनसाथी चाहते थे खुद के लिए. सोच से तरक्की पसंद थे ही. कहते हैं रनबहादुर ने उसके बारे में अपने खास लोगों को भी बता दिया था. नेता-ख़बरनबीस और हाकिमों के बीच भी कुछ खुसर-फुसर इस बाबत शुरू हो चुकी थी. पर ‘प्यार किया तो डरना क्या’ टाइप रनबहादुर इसे अपना जाती मामला मानते थे. इस वाक़ये ने जंगल और वहां के लोगों के लिए रनबहादुर के मन में लगाव और बढ़ा दिया था. मगर होनी को कुछ और ही मंज़ूर था शायद. दो-तीन महीने के जानी इश्क़ के बाद अचानक पता चला कि लड़की और उसका परिवार जंगल पार्टी के लिए काम करते थे. हुआ यूँ कि लड़की के ही गाँव के एक नौजवान को पुलिस ने कट्टा-कारतूस के साथ एक दफ़ा गिरफ़्तार किया. पुलिसिया पूछ-ताछ में ये सामने आया कि वो जंगल पार्टी को असलहे पहुंचाता है. ये भी पता चला कि उस लड़की से भी उसका पुराना लफड़ा है. अब इस बेवफ़ाई को रनबहादुर कैसे बर्दाश्त करते. उनका दिल टूट गया. फ़र्ज़ के हाथों मजबूर रनबहादुर ने अपने हाथों रपट लिखी और बाकियों के साथ अपनी माशूका को भी जेल भिजवाया. खबर का यह एंगल खुल के अखबारों में नहीं आया लेकिन लोकल पत्रकारों में रनबहादुर के इस बलिदान की चर्चा काफी दिनों तक गरम रही.
खैर रनबहादुर जल्दी ही इस सदमे से बाहर निकल आए और पुलिसिया फ़र्ज़ की उछाल भरी तेज़ पिच पर ताबड़-तोड़ रन बनाने में जुट गये. यह बात दीगर है कि इस तरह के खेल में खिलाड़ी कैसा भी हो, देर-सवेर उसे आउट होना ही पड़ता है. रनबहादुर भी आउट हुए. हाँ, बात उनके आउट होने में भी थी. वह ऐसे आउट हुए जैसा किसी ने कभी सोचा न रहा होगा.
यह दशहरा-दिवाली के बीच का कोई दिन था. मौसम में ठंडक और दिशाओं में अन्धेरा उतरने लगा था. रनबहादुर शाम को ही अपनी स्प्लेंडर पर एक हमराह के साथ सादे में जंगल की ओर निकल पड़े थे. उन्हें थाने के चंदौली बार्डर से लगी सीमा पर किसी गिरोह के मूवमेंट की ख़ुफ़िया जानकारी मिली थी. यह मूवमेंट तस्करों का था, वनकटों का या जंगल पार्टी का, यह साफ़ न था लेकिन यह तय था कि जंगल से घिरे एक गाँव में कोई बड़ा जमावड़ा होना था. रनबहादुर को खुद पर बड़ा भरोसा था इसलिए कभी ज़्यादा लाव-लश्कर के साथ नहीं चले वह. हमराह भी वक़्त-ज़रूरत चाय-सिगरेट का इन्तेज़ाम करने, अँधेरे में टार्च दिखाने या पड़ताल के दौरान लोगों को पकड़ने-बुलाने के लिए ही होता था. बाकी इलाके में उनकी हनक थी और ज़्यादातर अपराधी उनसे डर-बच के रहते थे. इस खबर पे एक बारगी तो उन्हें ताज्जुब भी हुआ था. किसकी ऐसी हिम्मत उनके इलाक़े में, बिना उनकी जानकारी के. लतीफ़पुर के जितने भी गैंग इस काम में लगे थे, सब उनसे खौफ़ खाते थे. तो उस शाम रनबहादुर जंगल में समा गए. बाद में पता चला कि देर रात हमराह वापस लौट आया था लेकिन उसने किसी से कुछ नहीं कहा. पूरा मुन्न मार गया. रनबहादुर पूरी रात नहीं उबरे थे. अगले दिन भी जब दोपहर तक रनबहादुर नहीं लौटे तो थानेदार ने कप्तान को खबर की और फिर पूरा अमला नायब दारोगा की खोजबीन में जुट गया. डिप्टी कप्तान, खोजी कुत्ते और ढेर सी पुलिस-पीएसी. हमराह सिर्फ़ इतना बता पाया था कि जंगल घनाते ही रनबहादुर ने उसे लौटा दिया था. रनबहादुर अक्सर ऐसा करते थे इसलिए उसने भी ज्यादा हुज्जत नहीं की. शाम से लेकर रात भर रनबहादुर की खोजाई हुई तब कहीं जाकर तड़के कोलों की बस्ती के पास रास्ते से पचासेक मीटर भीतर एक पेड़ से बंधा हुआ उनका बेजान शरीर मिला था. बदन पर एक भी कपड़ा नहीं था. ऊपर से उनका लिंग कटा हुआ था. लगता था वे अपने फ़र्ज़ के लिए शहीद हो गए थे. यह बात जंगल में आग जैसी फैली थी कि जंगल पार्टी ने एक बार फिर अपना बेरहम खूनी चेहरा दिखाया था. इस बार उसने एक मासूम पुलिस अफ़सर को अपना शिकार बनाया था. पास की पूरी कोल बस्ती लगभग खाली थी. पुलिस ने आसपास की बस्तियों में बाक़ायदा तफ़्तीश की थी. इलाक़े में दिन भर घटना पर चर्चा होती रही. नेता-हाकिम-पत्रकार सबकी एक ही राय थी. अहरौरा से लखनऊ-दिल्ली वाया मिर्ज़ापुर फोन घनघनाए. पहले टीवी चैनलों ने एक बहादुर पुलिस सब-इंस्पेक्टर की शहादत और उसके साथ जंगल पार्टी के नए-पुराने कारनामे ब्रेकिंग न्यूज़ में लगातार चलाए फिर अगले दिन अखबारों ने घटना से जुड़ी अपनी कहानियाँ छापीं.
ज़रुरी जांच-पड़ताल, लिखा-पढ़ी के बाद रनबहादुर का बेजान शरीर तिरंगे में लपेट पुलिस लाइन लाया गया. बैंड-बाजे की शहीदाना धुनों के बीच हाकिमों ने उन्हें श्रद्दा के फूल चढ़ाए और सलामी गारद ने उन्हें बंदूकों के धमाकों से आखिरी सलामी दी. रनबहादुर बाक़ायदा शहीद हुए थे. हाकिमों ने अपनी रपट तैयार की, ख़बरनाबीसों ने उसको ओके किया और नेताओं ने उसे लखनऊ-दिल्ली पहुंचाया. ख़बरों के कानाफूसी गलियारे में यह चर्चा भी गरम थी कि रनबहादुर को उनके पुराने प्यार ने ही धोखे से जंगल बुलाया था और फिर जंगल पार्टी ने घात लगाकर उनका काम तमाम किया.
उधर इक हक़ीक़त
रनबहादुर मंडल कमीशन के बाद हिंदी प्रदेशों में उभरी एक दबंग जात से ताल्लुक़ रखते थे जिनका सपना भी (बाकियों की तरह जिन्हें मंडल का फायदा मिलना था) टॉप क्लास सरकारी नौकरी पाकर खूब पैसा और शोहरत कमाने का था. इसके लिए उन्होंने कोशिश भी बहुत की. इलाहाबाद से दिल्ली तक का सफ़र तय किया. लाखों कोचिंग-कुंजी पर खर्च किया पर तकदीर को कुछ और ही मंज़ूर था. आखिरकार थोड़ी तैयारी और स्वजातीय नेताओं की ज़ोरदार सिफारिश के बाद उन्हें नायब दारोगा की सीधी भरती मिली थी. ट्रेनिंग के दौरान ही बनारस के एक सियासी खानदान में मुंह मांगे दहेज़ पर उनकी शादी भी हो गयी थी. इससे उनकी वर्दी का जलवा डबल हो गया था. नौकरी पाते ही उन्होंने अपनी बिरादरी के अफ़सरों और नेताओं से नेटवर्किंग शुरू कर दी थी जिससे बाद में उन्हें मनचाही पोस्टिंग पाने में बड़ी आसानी हुई. उन्होंने बाक़ायदा हिसाब-किताब के बाद बनारस से लगे हुए मिर्ज़ापुर ज़िले में अपनी तैनाती कराई. इसमें ससुराल पक्ष और ज़िले के एक स्वजातीय विधायक की बड़ी भूमिका रही. मिर्ज़ापुर में जंगली लकड़ी के अलावा गोवंशीय पशुओं की तस्करी, खनन और कच्ची शराब का भी अच्छा कारोबार था. फिर जंगल पार्टी के असर के कारण जनकल्याण की तमाम स्कीमों में भी पुलिसिया दखल ज़्यादा था. पुलिस महकमें की जांच करने वाली बाहरी टीमें और आला हाकिम इस जिले में कम ही आते थे. जो आते भी थे वे माँ विंध्यवासिनी के दरबार में मत्था टेक ‘सद्वचनों और सत्कर्मों का संकल्प’ ले वापस हो लेते थे. ऊपर से सेवा के लिए कोल-बेयार-भुईया लोग, जीभ के लिए जंगली मुर्गे और जाँघों के लिए चिक्कन मुर्गियां. यह सोचते-सोचते कई बार रनबहादुर के मुंह में पानी आ जाता था. इतना सब पाकर वह टॉप क्लास सरकारी नौकरी न पाने का ग़म सचमुच भूलने लगते थे और उनके मन में ‘अपने समाज और देश’ के लिए कुछ कर गुजरने का जज़्बा हिलकोर लेने लगता था. अपनी ससुराल के क़रीब तैनाती का भी अपना अलग ही मज़ा था. छिन में यहाँ, छिन में वहां. भविष्य में घर-परिवार भी उन्हें बनारस में ही बसाना था, सो इस लिहाज़ से भी ये तैनाती मस्त थी. विधायक जी ने ज़िले के बाद थाने की तैनाती चुनने-पाने में भी रनबहादुर की मदद की. उनकी विधानसभा क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा अहरौरा थाने में पड़ता था.
थाने में अपनी तैनाती के महीने भर के भीतर ही रनबहादुर ने इलाक़े का इतिहास-भूगोल-राजनीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र पढ़ डाला था. थाने के रिवायती रजिस्टरों के अलावा कुछ नए रजिस्टर भी उन्होंने तैयार किए. एक में इलाक़े के नेता-अफ़सर-सेठ-ठेकेदार-पत्रकार व गिने-चुने वकीलों के साथ कुछ संत-महात्माओं और पंडों का ब्योरा था तो दूसरे में ज़रायम पेशे से जुड़ी हुई बारीक़ जानकारियाँ थीं. बड़े दारोगा से मशवरे के बाद उन्होंने हलका-वार बीट सिपाहियों के लिए एक हफ़्ता रजिस्टर भी बनाया था. उसमें थाने की सीमा में गोरखधंधा करने वालों की पेशेवार फ़ेहरिस्त थी जिसके आगे आपसी सहमति से तय वो रकम लिखी थी जो महीने की पहली तारीख़ को उनसे मिलनी थी या कहिये कि उनसे वसूली जानी थी. एक छोटी डायरी अलग से थी जिसमें आमद के बाद हर महीने कहाँ क्या-कितना पहुंचाना-भिजवाना था, उसका भी डिटेल था. यह शुरुआती नौकरी की वह दस्तावेज़ी तैयारी थी जो आगे पूरे कैरियर में काम आनी थी और जिसके बारे में ट्रेनिंग सेंटर में कुछ भी पढ़ाया-बताया नहीं गया था. रनबहादुर को इस बात पे ताज्जुब होता था कि जो बात नौकरी में सबसे ज़्यादा काम की थी उसका ट्रेनिंग के दौरान कोई ज़िक्र नहीं किया गया. बड़े दारोगा ने एक बार उसे नसीहत देते हुए अपना मटके जैसा पेट हिलाकर कहा था- ““दारोगा का मतलब होता है- दा..अ..अ, चाहे रो के, चाहे गा के.”” (‘दा’ मतलब है ‘देना’. यह अवधी का प्रयोग है).
रनबहादुर किस्मत के भी धनी थे. एक बार जंगली लकड़ी की एक बड़ी कटान पकड़ में आई थी. फारेस्ट रेंजर की सिफ़ारिश पर रनबहादुर ने उसे छोड़ा था और हफ्ते भर के अन्दर नई ‘स्प्लेंडर’ मय कागज़ात थाने के पीछे रनबहादुर निवास के सामने आ खड़ी हुई थी. उसी स्प्लेंडर पर बैठ उन्होंने जंगल के भीतर होने वाले अवैध खनन की गहरी शिनाख्त की थी. बाद में कारोबारियों ने वादा किया था कि बंधी माहवारी के अलावा साहेब जब भी बनारस में अपना बंगला बनवाएंगे गिट्टी पत्थर की सेवा मुफ्त में की जाएगी. आखिर रनबहादुर अकेले यह सब रोक भी नहीं सकते थे. और फिर पुलिस का ‘मेन काम’ आईपीसी, सीआरपीसी, गुंडा, गैंगस्टर देखना है, यह सब रोकना नहीं. और फिर आये दिन जंगल पार्टी का धरना-प्रदर्शन-जलूस-मीटिंग-कान्फरेंस. जंगल कटान रोको, अवैध खनन बंद करो. इन्हें रोज़गार दो, उन्हें मजूरी दो. जंगल बचाओ, नदी बचाओ, आदिवासी बचाओ वगैरह. रनबहादुर ठठाकर हँसते- “सब बचाने के लिए तो ई ससुरी पार्टी है ही, फिर हम भला काहे को लोड लें.” उन्हें जो करना था वह उन्होंने किया था. उन्हें माल बनाना था, शोहरत पानी थी और वर्दी पहन ‘अपने देश-समाज की सेवा’ करनी थी. वे यही सब करने में रमे रहे.
रनबहादुर को अपने रूटीन काम में सबसे ज़्यादा साबका जंगल पार्टी से होता. जंगल पार्टी के बारे में ज़िले के नेता-हाकिम और पत्रकारों की जो राय थी, वही रनबहादुर की भी थी. उनका मानना था कि ये पार्टी अफ़ीम-गांजा-चरस और असलहों की अन्तर्राज्यीय तस्करी में लगी है और वह, जिसे सब ‘लाल गलियारा’ कहते हैं, कुछ और नहीं बस देश में क़ानून के राज को चुनौती देने वाले अपराधियों की खुलेआम आवा-जाही का जंगली रास्ता है. उनका दिल से मानना था कि ये लाल झंडाधारी अपने ‘इंटेलेक्चुअल जार्गन्स’ से भोली-भाली ग़रीब जनता को न सिर्फ़ सामजिक-नैतिक-धार्मिक मूल्यों से भटकाते हैं बल्कि उनके मन में जनता की चुनी हुई सरकारों के ख़िलाफ़ भी आक्रोश और हिंसा भड़काते हैं. पुलिसिया नज़रिए से देखा जाय तो यह लड़ाई उन्हें दरअसल कानून के राज और अराजकता के बीच लगती थी और कानून का एक जांबाज़ सिपाही होने के नाते उन्हें ऐसी सभी ताकतों को अपने इलाक़े में पछाड़ना था. सो, रनबहादुर ने अभियान चलाकर तमाम नई उम्र के आदिवासी-मुसलमान और दूसरी छोटी जात के लड़कों को अफ़ीम-गांजा-चरस-अस्लाह रखने के जुर्म में पकड़ा. कुछ का चालान गोवध कानून में किया तो कुछ पर जुआ-शराब बंदी की धारा ठोकी. जिन पर कुछ न बन पड़ा उन्हें दंगा-बलवा, गुंडई दिखा एक सौ सात सोलह सीआरपीसी में उलझाया. कुछ लड़कियां-औरतें भी उनके फंदे में आईं. जो इस लायक थीं और बुलावे या डांट-डपट पर जंगल-नार-खोर मिलने को राज़ी थीं, उन्हें छोड़ बाकियों पर जंगल पार्टी की मदद का जुर्म ठोका गया. जाने कितने जेल गए और कितने ज़िलाबदर हुए. रनबहादुर कभी भावुक होते तो ईश्वर से जैसे पूछते –“भगवन! अपने भक्त से आप क्या-क्या करवा रहे हो?”
वक़्त बीतने के साथ रनबहादुर क़ानून के मंजे हुए खिलाड़ी हो चले थे- फ़र्ज़ को खेल और खेल को फ़र्ज़ बनाने में माहिर. आए दिन रनबहादुर निवास पर, जिसे उनके कुछ पत्रकार दोस्त संक्षेप में ‘रनिवास’ कहते थे, किसी न किसी कामयाबी का जश्न होता. शराब और जंगली मुर्गे के साथ कभी-कभार जंगली मुर्गी भी आ जाती. इस जश्न में एकाध बार देर रात विधायक जी भी शामिल हो जाते थे. महीने भर की आमद और खर्चे का हिसाब भी यहीं होता. बड़े मसले-सौदे यहीं सुलझते. क़ानूनी तौर पर अपराधियों के ख़िलाफ़ पुख्ता फाइलें तैयार करने के लिए ज़रूरी अफ़ीम-गांजा-चरस-कट्टा-कारतूस का स्टॉक भी इसी आवास में एक अलमारी में लगातार बना रहता. रनबहादुर ‘रनिवास’ में अकेले रहते थे इसीलिए दिन-रात वर्दी के लिए समर्पित थे. अहरौरा सुदूर जंगल का थाना था इसलिए वहाँ किसी महिला सिपाही या होमगार्ड की तैनाती नहीं थी. हफ़्ते में एक बार वे बनारस जाते थे लेकिन उस उम्र में देह की ज़रूरत उससे कहाँ पूरी होनी थी. ऐसे में रनबहादुर को अपनी नज़र से लेकर कमर तक की सुरसुरी जंगली मुर्गियों की तलाश में ही दूर करनी पड़ती थी. उनका कोल-कन्या से इश्क़ भी इसी तलाश का सुफल था.
जिस जंगली मुर्गी के इश्क़ में रनबहादुर पड़े थे वह जंगल, ज़मीन और आदिवासियों की छोटी-मोटी दिक्कतें लेकर थाना-तहसील आती-जाती थी. लड़की अल्हड़ थी. बेबात जंगल-नार-खोर मिलने को राज़ी होती नहीं लगती थी. रनबहादुर की पारखी नज़रों ने पहले ही उसे ताड़ लिया था और अपनी ‘भला मानुस दारोगा’ की छवि का पाशा उन्होंने उसकी तरफ़ फेक दिया था. रनबहादुर ने उसके कई काम कराये और एक दिन बातों-बातों में ही ख़ुद को कुंवारा बताकर उससे अपने बेचैन दिल का हाल कह डाला. पहले तो उसे यक़ीन नहीं हुआ पर जब उन्होंने रनिवास के एकांत में उसकी आखों में आखें डाल सोने की एक अंगूठी आगे बढ़ाई तो उसे यक़ीन आ ही गया. उसके बाद रनबहादुर ने उसके साथ रनिवास और जंगली ठिकानों पर इश्क़िया खेल की लम्बी पारी खेली. लड़की भी रनबहादुर में अपना ‘सिंहम’ तलाशने लगी थी लेकिन असल जिंदगी में सपने टूटते देर कहाँ लगती है. यहाँ भी वैसा ही हुआ.
एक शाम जब रनिवास के भावुक एकांत में गले में बाहें डाले रनबहादुर ने नाटकीय अंदाज़ में उसे बताया कि अभी थोड़ी देर में ही उसे आशीर्वाद देने विधायक जी आ रहे हैं तो लड़की को पहले अच्छा नहीं लगा फिर उसने सोचा कि हो सकता है कि अब रनबहादुर इस दबे-छिपे रिश्ते को दुनिया के सामने लाना चाहते हों. उसे एकबारगी फिर रनबहादुर पर बहुत प्यार उमड़ा और उसकी आँखों से एक चमक गुज़र गई. फिर वे दोनों ही खाने-पीने के इंतेज़ाम में लग गये. विधायक जी आये. अपने साथ मिठाई का एक डिब्बा और फूलों की माला भी लाए. उसे भरी नज़र से देखा. रनबहादुर को देख मुस्काराए फिर उनके कंधे पर हलका धौल जमा बोले-
“कमाल है! हमारे जंगल में ऐसी मुर्गी है और हमें ही नहीं पता. जियो, जियो.”” लड़की अपनी तारीफ़ सुन मुस्कराई और जवाब में रनिवास ठहाकों से गूँज उठा.
रनबहादुर ने इलाक़े की सबसे अच्छी ‘देसी’ का इंतेज़ाम किया था. दौर शुरू हुआ. बड़ी मनुहार के बाद लड़की ने भी दो-चार चुस्की मारी. दो-तीन गिलास के बाद विधायक जी आशीर्वाद देने के मूड में आ गये थे. लड़की को तब बिलकुल बुरा नहीं लगा जब विधायक जी ने उसे माला पहनाई और एक टुकड़ा मिठाई अपने हाथ से खिलाई. रनबहादुर ने इस मौके की तस्वीर अपने मोबाइल में उतारी. इधर लड़की आशीर्वाद लेने झुकी और उधर विधायक जी ने उसे अपनी गोद में खींचा. अचानक नज़ारा बदल चुका था. लड़की जब तक कुछ समझती-करती वह विधायक जी की बाहों में थी. लड़की ने रनबहादुर को मदद की गुहार, हिकारत और हैरत भरी नज़रों से देखा जो मुस्करा रहे थे और अब भी अपना मोबाइल उनकी तरफ किए खड़े थे. रनिवास के खिड़की-दरवाज़े वे जाने कब पहले ही बंद कर चुके थे. अब जो करना था विधायक जी को ही करना था. लड़की बचने की थोड़ी कोशिश के बाद विधायक जी की गिरफ़्त में निढाल हो गई. फिर बिधायक जी ने बाक़ायदा जंगली मुर्गी का शिकार किया और रनबहादुर ने इसका वीडियो बनाया. भोग से फारिग होने के बाद शिकार को कमरे में बेहाल छोड़ विधायक जी रनबहादुर के साथ बाहर आते हुए बोले-
“आगे सम्हाल लेना.”” रनबहादुर मुस्कराए.
बाहर आकर जब रनबहादुर ने विधायक जी को उनकी अपनी ही फ़िल्म दिखाई तो पहले उनकी आखों में शैतानी चमक आई फिर तुरंत ही उनके भीतर का नेता जाग गया. उन्होंने रनबहादुर को फ़िल्म डिलीट करने को कहा लेकिन रनबहादुर का तर्क उन्हें लाजवाब कर गया-
“सर! मुर्गी लाजवाब है. जब तक मन करे खाइए. जब जी भर जाए टंगड़ी पकड़ फेक दीजिएगा. सर! मुर्गी तलाशने-पकड़ने में वक़्त लगता है, मेहनत लगती है. यह फ़िल्म इसे वक़्त-ज़रूरत बुलाने में काम आएगी, बाकी जो आपका आदेश.”” रनबहादुर का पुलिसिया दिमाग शाम से ही तेज़ चल रहा था.
उनकी इस बात ने विधायक के भीतर का शैतान एक पल के लिए फिर जगा दिया था. वे रनबहादुर को आशीर्वाद दे निकल गए और इधर रनबहादुर ने बची हुई रात में तमाम कोशिशों के बाद लड़की को इस घटना को भूल जाने के लिए राज़ी कर लिया. इस राज़ी करने में वह फ़िल्म बड़ी काम आई. लड़की चुपचाप तड़के रनबहादुर की स्प्लेंडर पर पीछे बैठ अपने घर वापस आ गई थी.
इस घटना के बाद एक ओर जहां विधायक जी की जवानी लौट आई थी वहीँ रनबहादुर का रंग और बढ़ गया था. उधर रनिवास और दूसरे अड्डों पर विधायक जी बेबस मुर्गी का शिकार करने में मस्त रहे इधर रनबहादुर ने सभी गोरखधंधों में अपना हिस्सा डबल कर लिया. कुछ दिनों सब ऐसे ही चला. फिर एक दिन आजिज आकर लड़की ने सबको बेनक़ाब करने की धमकी देते हुए बुलावे पर आने से इंकार कर दिया. विधायक जी ने भी रनबहादुर को फ़िल्म डिलीट करने को कई बार कहा लेकिन उन्होंने अब-तब कर उन्हें टरकाए रखा. हां, इतना ज़रूर किया कि विधायक जी का ख़तरा कम करने के लिए उस लड़की और उसके कुछ साथियों को जंगल पार्टी का सक्रिय सदस्य बता कट्टा-कारतूस, गांजा बरामद कर जेल भिजवा दिया. यह कोई नई या मुश्किल बात नहीं थी रनबहादुर के लिए. पत्रकारों के लिए भी इसमें नया-सनसनीखेज़ कुछ न था. लड़की के मुंह खोलने का ख़तरा टल चुका था लेकिन विधायक जी की पिक्चर का पेंच बाक़ी था. रनबहादुर को अपनी बढ़ी हुए हनक का चस्का लग गया था और वह इसे बरक़रार रखने के लिए इस पेंच को बाक़ी रखना चाहते थे. अब वे कानून के कच्चे खिलाड़ी नहीं रह गये थे. नए ज़माने के पक्के दारोगा हो गए थे.
खैर चलिए इस क़िस्से का आख़िरी हिस्सा भी आपको सुना देते हैं- रनबहादुर की शहादत का असली क़िस्सा. यह वही दशहरा और दीवाली के बीच की कोई रात थी.जंगल के रास्ते बिहार के लिए मवेशी तस्करों के एक बड़े मूवमेंट की ख़बर रनबहादुर को फोन पर मिली थी. थाने में होने वाले ऐसे सभी मूवमेंट उन्हें पता होते थे क्यूंकि सबमें उनका हिस्सा होता था. मगर बिना उनकी जानकारी होने वाला ये मूवमेंट वाक़ई उनके लिए एक ख़बर जैसा था. और कोई मुखबिरी होती तो एक बार वे जंगल जाने से बच भी लेते लेकिन ख़बर गोवंशीय मवेशियों की तस्करी की थी. ऐसे में मामला सुलटने पर थाने का हिस्सा ज़्यादा होना था और न सुलटने पर मवेशियों की बरामदगी और तस्करों की धरपकड़ पर कप्तान से लेकर डीजीपी तक की शाबाशी मिलनी थी. कई बार राजधानी की गणतंत्र दिवस परेड पर मैडल भी मिल जाते थे. रनबहादुर ने तुरंत स्प्लेंडर निकाली, एक हमराह मय टार्च साथ लिया, सर्विस पिस्तौल हमराह के गले में लटकाई और थाने की जीडी में रूटीन गश्ती दर्ज़ कर मर्दाना अकड़ के साथ जंगल की तरफ़ रवाना हो गए. उनके मन में यह जानने की इच्छा ज़्यादा थी कि तस्करों का यह नया गिरोह कौन-सा है. वे आश्वस्त थे कि पुराने गिरोह यह हिम्मत नहीं कर सकते. ख़बर जैसी थी, उसमें मामला सुलटने पर एक लाख से ज़्यादा की आमद हो सकती थी. दीवाली के ठीक पहले इस ख़बर में रनबहादुर को लक्ष्मी के सधे क़दमों की आहट सुनाई दे रही थी. इसी तरह ख़यालों में डूबे हुए रनबहादुर को पता ही न चला कि कब उनकी गाड़ी सड़क से दूर घने जंगलों में उतर आई थी.
गाड़ी की हेडलाईट में कुछ दूर पर कुछ जमावड़ा दिखा. हालांकि कोई मवेशी नहीं था वहां. रनबहादुर ने बाइक पर बैठे-बैठे ललकारा-
“कौन हो सालों?”
जमावड़ा बिलकुल सामने आ गया. यह कसाईनुमा कुछ लोग थे जिनके हाथों में लाठी-डंडे और धारदार हथियार थे. उनके चेहरे गमछों से ढके हुए थे. यह देखते ही हमराह टार्च फेक जंगल में नौ दो ग्यारह हो गया. पिस्तौल भी उसके गले में ही पड़ी थी. रनबहादुर अब अकेले और निहत्थे थे. उनके साथ कुछ था तो उनका पुलिसिया रौब. उन्होंने गरजते हुए कहा-
“सालों हराम के! हिजड़े की औलादों! कितनी बार कहा है इस थाने में बिना मेरी मर्ज़ी पत्ता नहीं खड़कता फिर यहाँ इतनी रात क्यों अपनी माँ-बहन ठुकाने आ गये. और ये नामर्दों की तरह चेहरा क्यों ढक रखा है. मैं कौन-सा आँख मारने जा रहा हूँ.”
रनबहादुर गरजे जा रहे थे और जमावड़ा उनके चारो ओर जम-सा गया था. उनके चुप होने पर एक आवाज़ आई-
“हरामखोर! आज तो हम तुझे हिजड़ा बनाने आये हैं. गऊ माता की कसम. बहुत आग मूती है तूने अब तक जंगल में. अब माता तुझसे नाराज़ हो गई हैं.”
इतना सुनते ही एक आदमी ने लपककर रनबहादुर को पीछे से चाप लिया और दूसरे ने बढ़कर एक ज़ोरदार घूसा उनके चेहरे पर जड़ दिया. रनबहादुर ने अपनी इस छोटी नौकरी में ही जाने कितने लोगों को, कहाँ-कहाँ, कितने घूसे मारे थे. उन्हें एक बारगी सब याद आ गया लेकिन यह याद नहीं आया कि इससे पहले उन्हें घूसा कब पड़ा था. मारने वाले ने टार्च की रोशनी सीधे रनबहादुर के चेहरे पर डालकर कहा था-
“क्यों दारोगा बाबू! पिच्चर देखने का बड़ा शौक है न तुझे. आज हम एक ताज़ी पिच्चर दिखाते है तुझे.” यह आवाज़ रनबहादुर को कुछ जानी-पहचानी सी लगी. लगा जैसे थाने या रनिवास में कहीं उन्होंने इस आवाज़ को बार-बार सुना है. अचानक उन्हें याद आया कि यह इलाक़ा तो विधायक जी का है लेकिन इस बीच विधायक जी कहाँ उसकी मदद को आने वाले थे. रनबहादुर सोचे जा रहे थे और उनके पूरे शरीर पर लात-घूसे पड़ते जा रहे थे. इस बीच तलवार जैसे तेज़ किसी हथियार ने उनके बदन को ऊपर से लेकर नीचे तक चीर दिया था. काली रात में जंगल की मिट्टी और काली होती जा रही थी. फिर जो हुआ वह पहले बताया जा चुका है.
सवेरे थानेदार और कप्तान को फ़ोन करके इस घटना के बारे में बताने वाले पहले इंसान विधायक जी थे क्यूंकि उनके इलाक़े में जो भी कुछ उल्टा-सीधा घटता था उसे, कानून का सच्चा हितुआ होने के नाते, वे हाकिमों और पत्रकारों की जानकारी में तुरंत लाते थे. फिर पुलिस और पत्रकारों की टीम के साथ विधायक जी घटना स्थल पर पहुँचे थे और रनबहादुर की जवांमर्दी की तारीफ़ करते हुए उन्होंने उनकी शहादत को ज़िला पुलिस के इतिहास में बेजोड़ बताया था. ऐसा करते हुए थोड़ी देर के लिए उनका गला भी भर आया था. पुलिस की टीमों ने पास की कोल बस्ती में जमकर पुलिसिया तफ़्तीश की. जवान पहले ही भाग चुके थे सो बूढ़ों, बच्चों और औरतों से पूछताछ हुई. जांच-पड़ताल में पुलिस ने जितने भी सुराग़ बटोरे सब इस दुस्साहसिक घटना के लिए जंगल पार्टी की ओर ही इशारा कर रहे थे. पुलिस को कहीं न कहीं इसमें रनबहादुर की आदिवासी प्रेमिका वाला एंगल भी दिख रहा था. हालांकि वह जेल में थी फिर भी उस बात के लिए रनबहादुर जंगल पार्टी के निशाने पर ज़रूर रहे होंगे ऐसा पुलिस के आला हाकिम मान रहे थे. वजह जो भी रही हो लेकिन जिस तरह से एक बहादुर पुलिस अफ़सर मारा गया था वह जंगल पार्टी के अलावा और किसी का काम नहीं हो सकता था. इस बात पर नेता-पत्रकार और हाकिम एक राय थे. और जब पंचों की यही राय थी तो पंचनामा भी उसी तरह भरा गया- ‘मौक़ा-ए-वारदात को देखते हुए पंचों की राय में पुलिस सब-इंस्पेक्टर रनबहादुर क़ानून की रक्षा के लिए जंगल पार्टी के ख़िलाफ़ बहादुरी से लड़ते हुए शहीद हो गए.’
क़िस्सा आखिर क़िस्सा है
तो प्रिय पाठकों! क़िस्सा आखिर क़िस्सा है. उसमे फ़साने और हक़ीक़त की पड़ताल बेमानी है. और क़िस्से को क़िस्सा बनाने में कई बार हक़ीक़त से कहीं ज़्यादा फ़साने का हिस्सा होता है. अब अगर हम इस कथाकार की तरह उसमें फ़र्क करने भी लगें और कुछ कामयाब भी हो जाएँ तब भी क़िस्से की सेहत पर क्या फ़र्क पड़ने वाला है. हमने देखा ही कि फ़साने और हक़ीक़त में कितना ही फ़र्क क्यों न हो, कथा के लिहाज़ से उसके अंत में कोई ख़ास फ़र्क नहीं आता. हमारे वक़्त में देश-दुनिया, समाज और घर-परिवार के बड़े मसलों के साथ ही क़िस्से-कहानियों के अंत का फ़ैसला भी पंचों की राय से ही होता आया है. सो, इस क़िस्से में भी वही हुआ. रनबहादुर बाक़ायदा शहीद हुए थे. उनका नंगा शव तिरंगे में लपेट बैंड-बाजे के साथ जंगल से पुलिस लाइन लाया गया. बंदूकों की सलामी दी गई. फिर आला हाकिमों ने रनबहादुर के निडर, सेवा के प्रति समर्पित व्यक्तित्व का बखान किया और उनके शव को फूलों से लाद दिया. कांस्टेबल से लेकर कप्तान तक सबने उन्हें सैल्यूट ठोका और दिवंगत आत्मा की शांति के लिए ईश्वर से प्रार्थना की. बाद में जंगल पार्टी के ख़िलाफ़ अहरौरा थाने में एक पुलिस अफ़सर की निर्मम हत्या और देश के क़ानून को खुलेआम चुनौती देने के जुर्म में एक और फाइल खुल गई. रणबहादुर की ज़िन्दगी भी एक केस बन फ़ाइल में बंद हो गई.
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हरिओम
उच्च शिक्षा जे.एन.यू. से. कविता, कहानी और ग़ज़लों में बराबर रचनात्मक दिलचस्पी. धूप का परचम (ग़ज़ल), अमरीका मेरी जान (कहानी) और ‘कपास के अगले मौसम में’(कविता) प्रकाशित. इसके अलावा रूमानी गायिकी में भी डूबे हुए. फैज़ को उनके सौवें जन्मवर्ष (२०११) पर अक़ीदत के बतौर फैज़ की लिखी हुई ग़ज़लों और नज्मों को अपनी आवाज़ में गाकर ‘इन्तिसाब’ नामक एक अलबम जारी किया.
फिलहाल लखनऊ में सरकारी मुलाज़िम.
हरिओम, २१ गुलिस्तां कॉलोनी, लखनऊ. 09838568852, sanvihari1@gmail.com