वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी की कविताओं को लेकर हिंदी आलोचना में उत्साह और आरोप के दोनों खेमें सक्रिय रहे हैं. किसी भी भाषा का कोई भी कवि केवल प्रेम या रति का कवि नहीं हो सकता क्योंकि जीवन इसके अलावा भी है, राग के साथ विराग भी है. उत्तर अशोक की कविताएँ यही कहती हैं. अशोक वजपेयी अपने कवि कर्म के साथ साहित्य और कलाओं के अनुरागी संस्था के रूप में भी पहचाने और माने जाते हैं. उनका होना और बने रहना कलाओं के सौंदर्यसंस्कार के लिए बहुत जरूरी है. उनके ७२ वें जन्म दिन पर वरिष्ठ समीक्षक ओम निश्चल का आत्मीय आलेख जो अशोक के कवि कर्म के देश – प्रदेश की यात्रा और पड़ताल तो करता ही है खुद अपनी वाग्मिता और सहृदयता से विस्मि़त भी करता है. सृजनात्मक आस्वाद के इस आयोजन में आप का स्वागत है.
कविता के भव्य भुवन में अशोक वाजपेयी
आधुनिक कवियों में अशोक वाजपेयी अरसे से प्रेम के एकाधिकारी कवि बने हुए हैं और यह उत्सवता सत्तर पार की उनकी शब्दचर्या में भी उतना ही दखल रखती है जितना कभी उनके युवा समय में. सच कहें तो प्रेम का कवि कभी बूढ़ा नहीं होता. उसकी कविताओं का संसार सदैव अनुराग की कोमल व्यंजनाओं से भरा होता है. वह कभी यह भूल नहीं जाना चाहता कि जीवन राग-अनुराग और आसक्तियों का ही दूसरा नाम है. यों तो मैं यह मानता आया हूँ कि दुनिया के सारे कवि अंतत: प्रेम के ही कवि हैं—एक वृहत्तर अर्थ में; किन्तु अशोक वाजपेयी ने ऐंद्रिय प्रेम की अभिव्यक्ति को अपनी कविता के केंद्र में सँजो रखा है. इसलिए वे बुनियादी रूप से प्रेम के कवि ठहरते हैं.
अशोक वाजपेयी के विगत यानी शहर अब भी संभावना है वाले दिनों की याद करें तो वाकई वे उनके वैभव भरे दिन थे —खास तौर से कविता को लेकर. आसन्नप्रसवा मॉंके लिए एक गीत तथा शहर अब भी एक संभावना है जैसी कविताऍं लिख कर अशोक ने केवल शहर की ही नहीं, अपनी भी उज्ज्वल संभावना की एक लकीर खींची थी. हालॉंकि मॉं की बॉंहों को ऋतुओं से उपमेय बताना कुछ लोगों को भला न लगा था. इन दिनों औरों से कुछ अलग, अनूठा रचने की उत्कंठा से वे भरे भरे थे—किन्तु एक लंबी काव्ययात्रा के बाद आज भी उनका वही रूप प्रभावी दिखता है जो प्यार करते हुए सूर्य स्मरण में है. वे समाज, समय, जीवन और कलाओं को भले ही संबोधित करते रहे हों, प्रेम की सघन और सच्ची अनुभूति ही, वह भले ही दैहिक आभा में बदलती गयी हो, उनके यहॉं ज्यादा प्रबल रही है. इसे कोई लिविडो की लीलामयी अधीर पुकार कहे या देह और गेह की अभिव्यक्ति, वे अपने प्रेममय संसार के लिए अपनी भाषा का एक नया स्थापत्य गढ़ने-रचने में मशगूल रहे हैं. वे प्रेम के लिए भले ही थोड़ी सी जगह के अभिलाषी हों,किन्तु समय सब पर एक दिन भारी पड़ता है. अशोक भी इस परिवर्तन को महसूस करते हैं.
समय नही हम में वे इस परिवर्तन को यों लक्षित करते हैं: पत्तियॉं नहीं झर रही हैं: हम झर रहे हैं. यह वही प्रेक्षण है जो हमारे पुरखों ने लक्ष्य किया है: कालो न यात: वयमेव यात:.क्या कवि के माध्यम से उसका समय बोल रहा है. यही अशोक हैं जो कामातुर भोर की तरह उठने की बात करते रहे हैं यहॉं वे आध्यात्मिक भोर की ओर कविता को ले जाते प्रतीत होते हैं. शहर अब भी संभावना है के बाद अशोक जी के अब तक कोई तेरह संग्रह आ चुके हैं. एक पतंग अनंत में, कहीं नहीं वहीं, समय के पास समय, अगर इतने से, कुछ रफू कुछ थिगड़े, दुख चिट्ठीरसा है इत्यादि. ऐसा नहीं कि उनकी कविताओं में समय कहीं ठहर सा गया है वह उनके बीच से सरकता हुआ महसूस होता है. कहते हैं कविता कवि की आत्मकथा भी होती हैं. इंगितों में, कथ्य में, रीति में, व्यंजनाओं में वह आख्यान की तरह गुंथी होती है. कवि सूक्तियों में बात करता है. अशोक जी खुद कहते हैं: जो लोग कविता लिखते हैं, वे कभी कभी थोड़ा-सा समय भी लिख जाते हैं.
कहा गया है प्रेम करने की कोई उम्र नहीं होती. अशोक वाजपेयी अपनी कविताओं में यदि आज भी प्रेम की उत्ंकठा मिलन विरह आशा निराशा और प्रतीक्षाओं से भरे लगते हैं तो इसका आशय यह है कि वे इसे जीवन के सारभूत तत्व के रूप में महत्व देते जान पड़ते हैं. उनकी कविताओं में पदार्थ का रोमांच भी है और आत्मा की चिंहुकभरी टेर भी. कदाचित यही वह तत्व है जो उनके मन को वानप्रस्थी नही होने देता. वे बार बार यावत्स्वस्थमिदम् शरीरं–यावच्चदूरेजरा—जैसी अवधारणा को अपने जीवन और रचनाओं में चरितार्थ करते दीखते हैं. पर प्रेम पर एकमुश्त लिखने के एकाधिकारी और प्रणयानुशीलन में निष्णात अशोक वाजपेयी भी आखिरकार हमेशा समरजयी नहीं रहे हैं हताशाओं से भी उन्हें दो-चार होना पड़ा है. उनका अनुभव बताता है कि : प्रेम आसान नहीं है/उसमें इतनी निराशाऍं होती रही हैं फिर भी वही एक उम्मीद है/वही आग है/वही लौ है/वही अर्थ की दहलीज है.–-इस तरह प्रेम को लेकर अशोक वाजपेयी उम्मीद के विरुद्ध उम्मीद की हद तक जाते हैं.
प्रेम प्रतीक्षा कामना और पुकार की अनुरागमयी भाषा से आलोकित अशोक वाजपेयी की कविताएं जीवन के उल्लास से भरी हैं. अपने उत्तरजीवन में भी प्रणय के अक्षय कोष से भरे अशोक प्रेम की अपनी लौकिक दुनिया सजा कर अनुतृप्त नजर आते हैं. अपनी एक कविता में वे परिपक्वता में एक और भराव का जिक्र करते हैं. क्या यह भराव उनकी प्रणय-व्यंजनाओं से लक्षित होता है. यह देखने की बात है कि वे देह से जुड़ी त्वचा के उल्लसित कंपन और शरीर में समाने की अधीर हड़बड़ी का चित्र खींचते हुए जिस पृथ्वी की कसमसाती कामना का उल्लेख करते हैं वह भी दरअसल देह की ही अभिव्यक्ति है. अचरच नहीं कि उन्हें देह और गेह का कवि कहे जाने का कोई क्षोभ और मलाल नहीं है. बल्कि अब वे इस संदर्भ में ऐसी रूढ़ विशेषताओं और व्यंजनाओं को सुनने गुनने के अभ्यस्त -से हो चले हैं. यह भी अचरज का विषय है कि इस उम्र में जब लोग वानप्रस्थी भाव से भक्ति और वैराग्य की आध्यात्मिक पदावलियों में लौ लगाते हैं अशोक वाजपेयी जीवन के इस राग-व्यापार को एक अनिवार्य तत्व के रूप में देखते हैं. उनकी कविताओं में जहॉं तहॉं उनके अनुराग से अभिषिक्त छवियॉं बिखरी हैं. वहॉं यहॉं कविता में निहित व्यंजना सामान्यत: दुर्लभ हो चली कल्पनाओं में एक है:–
वहाँ वह बेहद गर्मी में
पानी का गिलास उठाती है
यहां मैं जानता हूँ
कि ठीक उसी समय
मेरी प्यास बुझ रही है.
देह-सुख की यों तो बहुतेरी सुखद व्यंजनाऍं यहां हैं जिनमें नाक की कील की तरह देह में तृप्ति सुख दमकता है बारी बारी से मदनारूढ़ होकर रतिश्लथ होती देहयुग्म है ; रतिऋतु में प्रेम के अरण्य में कसमसा कर सिर उठाते कत्थई गुलाब हैंकिन्तु अशोक के यहॉं प्रेम की ऐसी भी व्यंजनाऍं हैं जो दैहिक स्थापत्य से परे जाकर कभी कभी कुछ अलक्षित बिम्ब चुन लाती हैं. मुझे कभी कभी अचरज सा लगता है कि यह कवि जिसने अपने लिखने की शुरुआत ही प्रेम कविताओं से ही की. शहर अब भी संभावना है आखिकारकार प्रेमाभिव्यक्ति के कूट विनियोजन की ही एक सुविन्यस्त व्यंजना रही है —उसकी प्रेम कवितासक्ति वार्धक्य के कारण कुछ तो मलिन पड़ेगी–पर देखता हूँ कि यह उत्तरोत्तर प्रदीप्त होकर नई नई व्यंजनाऍं पाने रचने के लिए व्यग्र सी दिखती है. \”उम्मीद का दूसरा नाम\” में एक कविता है – वे.
वे हो सकती थीं
सुख की जड़ें
वे महज दुख की शिराऍं हैं
या एक अन्य कविता: दूसरे नाम से. जिसमें वे कहते हैं:
मैं उम्मीद को दूसरे नाम से
पुकारना चाहता हूँ
मैं पलटता हूँ
कामना का कोश
एक नया शब्द पाने के लिए (दूसरे नाम से, पृष्ठ 53)
जीवनानुभवों की ये व्यंजनाऍं और उन्हें रखने का सलीका हमें वशीभूत कर लेता है. एक और कविता है: उसके लिए शब्द–जिसकी पंक्तियॉं हैं:
जब मैं उसके लिए शब्द चुनता हूँ
तो दरअसल अपने जीवन के कण चुनता हूँ
हर इबारत
मेरे जीवन का छोटा-सा विन्यास है
जिसका व्याकरण वह है (उम्मीद का दूसरा नाम, पृष्ठ 27)
इन कविताओं को देखें तो इनमें अशोक वाजपेयी की कल्पना जीवनानुभवों के नए स्वरों का संधान करती है. ऐसा नहीं है कि ये कविताऍं केवल नख-शिख का निरूपण हैं—अशोक वाजपेयी ने अपने शुरुआती दिनों में आसन्नप्रसवा मॉं के लिए तीन गीत लिखते हुए मॉं के सौंदर्य को इस रूप में मुखरित देखा था: तुम्हारी बॉंहें ऋतुओं की तरह युवा हैं/तुम्हारे कितने जीवित जल तुम्हें घेरते ही जा रहे हैं/और तुम हो कि फिर खड़ी हो/अलसायी, धूप-तपा मुख लिये/एक नए झरने का कलरव सुनतीं—एक घाटी की पूरी हरी महिमा के साथ.इस कवि ने तब यह महसूस किया था कि मॉं ही है जो कॉंच के आसमानी टुकड़े से बिछलती सूर्य की करुणा को सहेज लेती है,कि उसके होठो पर नई बोली की चुप्पी है और उसकी उंगलियों के पास कुछ नए स्पर्श हैं.
सौंदर्य के ऑंगन में मॉं को इस और इन रूपों में निहारने वाला उसका बेटा जब कुछ बड़ा होता है तो लौट कर जब आऊँगा क्या लाऊँगा?जैसी भावसिक्त कविताऍं लिखता है और उसके दिवंगता हो जाने पर \’मौत की ट्रेन में दिदिया\’ जैसी भावविह्वल कर देने वाली कविता लिखता है. वह निरगुनिया मॉं की अमरता का गान करता हुआ पूछता है कि मृत्यु के चिकने-चुपड़े भवन में क्या वह एक नीरव स्त्री गाती होगी काया की अमरता का गान या वहॉं भी चुप बैठी होगी गरम दूध से भरा गिलास लिये? एक मां जब बेटे से बिछड़ती है तो जैसे यह दुनिया बहुत पीछे छूट जाती है. अहरह उसकी याद कविताओं में फूटती है, कभी दिवंगता के नाम पत्र में, कभी छब्बीसवीं बरसी में, कभी पूर्वजों की अस्थियों में, कभी फिर घर में—-उसे हरिचंदन और पारिजात की देवच्छाया दिखती है जो कभी रहने का ठीहा हुआ करता था. याद आता है 44 गोपालगंज सागर का मकान, कुएँ और हरसिंगार के पेड़वाला, जहॉं शुरू हुई कविता—जहॉं हुआ प्रेमारम्भ, जहॉं मृत्यु हमेशा खाली हाथ वापस जाने वाले अतिथि की तरह बैठी हुई होती थी—–जिसकी अब केवल याद है जो पुरखों को याद करते हुए बेतरह इन शब्दों में कचोटती है:
वह घर
अंसभव है उस तक पहुंचना
वह है: पर उस तक जाने का रास्ता
किसी को नहीं मालूम—
न ही वह इस जिन्दगी
या इन शब्दों से होकर जाता है—
कहां है वह घर? (विवक्षा, पृष्ठ 234)
यह क्या! अशोक पूछ रहे हैं—कहॉं है वह घर? यह सन् सतासी की कविता है. इसी साल अज्ञेय दिवंगत हुए थे. वे भी 1986 के अपने संग्रह \’ऐसा कोई घर आपने देखा है?\’ में ऐसी ही पृच्छाओं के साथ घर की खोज कर रहे थे— बेघरों की हमदर्दी के घेरे वाला घर. अंतर केवल इतना है, अज्ञेय ने पूछा था, ऐसा कोई घर आपने देखा है? अशोकपूछ रहे हैं: कहॉं है घर ? दो कवियों की यह पारस्परिकता है, पूर्वज प्रेम है यह. आश्चर्य नहीं कि कृष्णा सोबती उनकी कविता पंक्तियों में सहज, घनीले कल्पना-लोक की प्रशंसा करती हैं तथा कहती हैं कि उनकी कविता महज पांडित्य और वैरागय की कविता नहीं. जीवन के तत्काल और यथार्थ को स्पर्श करती, शब्दों में लहराती भारतीयता के आत्मिक ध्वनि संसार की तरंगें हैं.(हम हशमत, पृष्ठ 72) वे यहीं ठहर नहीं जातीं बल्कि पुरअसर लहजे में आगे कहती हैं कि \’उनके भाषायी गुंजान में ऐसी शाब्दिक आकृतियॉं,आवृत्तियॉं झलकती तैरती हैं जो लंबे समय से भारतीय मानस के सचेत संवेदन में उमगती-उभरती रही हैं. पुख्तगी से, परंपरा से जुड़ा अशोक वाजपेयी का कवि नए प्रतीकों को तरलता से बुन सकने में भी सक्षम है.
उसका आत्मिक संस्कार अपनी संपन्नता में,उसकी काव्य-अभिव्यक्तिमें लगातार धड़कता है. कविता की गूँज और गूँथ में मांसलता और शुचिता एक साथ झिलमिलाती है. देह वहॉंसे ओझल नहीं हो जाती. एक दूसरे की निकटता और निकटता से दूरी की मुलायमियत में से झॉंकती है—अनोखी काव्य-छवियॉं. (वही, पृष्ठ 76) अशोक वाजपेयी की दैहिकता में सनी अभिव्यक्ति को लेकर आलोचकों का रुख बेशक सख्त रहा है पर वे इस पर कहती हैं: \’हम जैसे पाठकों का कहना इतना ही कि क्यों न हम अध्यात्म के उस घुलनशील स्पंदन को भी महसूस करें जिसके स्पर्श का अनुभव देह ही कर सकती है. करती है. कविता दर्शन का कोरा निर्लिप्त वैराग्य विवेचन और शास्त्रीय व्याकरण नहीं, लोक में व्यक्ति के तन, मन, देह, आत्मा के सॉंझे एकांत में स्फुरित उस अलौकिक भावनात्मक शक्ति का भी उद्गम है जिसे कवि की कविता पंक्तियॉं शब्दों में आबद्ध करती हैं.\’
यह कथन हिंदी की जानी मानी उपन्यासकार कृष्णा सोबती का है जिनकी कलम से एक प्रोफाइल लिखवाने के लिए लोग वैसी ही मन्नतें मानते हैं जैसे एक पंक्ति-भर की तारीफ के लिए कविगण नामवर सिंह की ओर टकटकी बांधे रहते हैं. नामवर जी की कृपाकोर भले ही सुलभ हो सकती हो, कृष्णा जी की तारीफ पाने के लिए केवल रचनात्मक मशक्कत के अलावा और कोई चारा नहीं. अशोक से भी निर्ब्याज प्रशंसा पा लेना आकाशकुसुम तोड़ लाना है. ऐसे में कृष्णा सोबती ने अशोक पर एक नहीं, दो-दो प्रोफाइलें लिखी हैं. हम हशमत:2 और हम हशमत:3 दोनों में. वे उनकी एक पुरानी दोस्त के हवाले से कहती हैं कि अशोक की सहजमुख हँसी से जो उमड़ता, उमगता है, वह मात्र शिष्ट सँवरन नहीं–कवि के संवेदनकाउल्लासहै जो उसमें निहित संवादिता को प्रकट करता है. संप्रेषित करता है एक रची मँजी परिष्कृत स्फूर्ति जो अशोक के अंतरंग की निकटतम संबोधी है.(हम हशमत:3)
कृष्णा जी ने सागर से आए ताजा ताजा युवा युवा अशोक वाजपेयी की एक आत्मीय तस्वीर उकेरी है जिसने दिल्ली की साहित्यिक बिरादरी में तभी अपनी पहचान बना ली थी, जब वे सेंट स्टीफेंस कॉलेज के छात्र हुआ करते थे. अपने समकालीनों में अपनी साफ सुथरी छवि और अप्रतिहत वक्तृता से वे दूर से ही पहचाने जाते थे. श्रीकांत वर्मा से उनका सघन अपनापा था. मुक्तिबोधकी बीमारी के दिनों में एक दुर्लभ तस्वीर में वे उनकी चारपाई के पास खड़े दिखाई देते हैं. अशोक का चाकचिक्य इस बात से विमुख नहीं रह पाता था कि हिंदी का एक महाकवि बीमारी के दिनों में भी अलक्षित रहे. बिल्कुल सेवा टहल वाले भाव से वे उनके सान्निध्य में रहे.इसीलिए उनकी यह पंक्ति पढ कर कि\’ जो जाता है, थोड़ा थोड़ा हमें भी ले जाता है, और इसीलिए कभी पूरी तरह नहीं जाता\’ कृष्णा जी का कहना था कि जाने क्यों हमें लगता है कि इनकी प्रतीति अशोक को जरूर उस शाम मुक्तिबोध के जाने पर हुई होगी.
अशोक वाजपेयी ने प्रेम की अनुराग की स्फूर्ति की उल्लास की दुनिया कविता में रची तो उसके बरक्स जीवन के कठोर अनुभवों का ताप भी महसूस किया. हालॉंकि एक कवि सारे रसों का कवि नहीं हो सकता. एक रस उसके भीतर स्थायी भाव की तरह विद्यमान रहता है, बाकी रस संचारी भाव की तरह आते जाते रहते हैं. अशोक के व्यापक काव्य संसार में यों तो शुद्ध प्रेम की कविताऍं जिसमें किसी प्रेमिका की आमद या उसकी छवियों, अनुभूतियों का अंकन हो, चालीस प्रतिशत से ज्यादा नहीं होंगी,और दस प्रतिशत पारिवारिकता की कविताऍं होंगी. पूर्वजों, कलाकारों के प्रति कृतज्ञताबोध की होंगी. पर बाकी कविताऍं जीवन से, समाज से, प्रकृति से जुड़ी हुई हैं. यों कोई भी कवि—निरा प्रेम अथवा वैराग्य को गाता हुआ — असामाजिक कवि नहीं होता.वह समाज से बँधा हुआ होता है. इसी परिधि में उसकी वैयक्तिकता प्रसार पाती है. वैयक्तिकता का यह गुण प्रभावी भले हो,उसके कवित्व की परिधि को लॉंघ नहीं पाता. उसका प्रेम, उसकी प्रार्थना इतनी निजी नहीं होती कि जीवन के घमासान में उसकी कोई जगह न हो. बल्कि अशोक तो यथार्थ के बीचोबीच अपने स्वप्निल प्रेम को भी रखने की इज़ाजत देते हैं: मुलाहिजा हो–
वहीं रख दो जहां रखे हैं शस्त्र और आभूषण
जहां रखा है समय
जहॉं रखी है प्रार्थना
वहीं रख दो
यही प्रेम
ये शब्द.
दरअसल अशोक वाजपेयी की कविताओं में विपर्ययों का वर्चस्व रहा है. कभी वे मृत्यु को गाते हैं कभी जीवन की आसक्तियों को कभी प्रेम और रति की लीलाओं का बखान करते हैं कभी अवसान का. मॉं की मृत्यु से द्रवित होकर उन्होंने मौत की ट्रेन में दिदियाजैसी मार्मिक कविता लिखी. वे मां को दिदिया और पिता को काका कहा करते थे. मॉं को खो देने का अहसास उन पर इतना भारी रहा है कि वे जैसे सारी स्त्रियों में सख्य और मातृत्व की खोज करते रहे. परिवारजनों की मृत्यु से द्रवित होकर उन्होंने कभी विछोह और अवसान की कविताऍं लिखीं (जो नहीं है)तो कभी प्रेम श्रृंगार और रति में डूबो देने वाली.(उम्मीद का दूसरा नाम) कभी ग्वालियर तबादले पर खिन्नमन विस्थापन बोध प्रबल रहा है(कहीं नहीं वहीं) तो कभी कविता के आकाश को सामाजिक जरूरतों से जोड़ने में भी वे संलग्न रहे.(समय के पास समय) संगीत और कला के प्रति उनकी दिलचस्पी तो उनकी कविताओं से जगजाहिर ही है.
रजा का समय हो या बहुरि अकेला—कविता में ऐसे व्यक्तिचित्र विरल हैं. अपने समय के मूर्धन्यों के प्रति उनका सहज स्नेह सुविदित है. उनमें पारिवारिकता की छवियॉं भी कम प्रभावी नहीं हैं. इसके बावजूद उनकी कविताओं पर ऐंद्रियता का एक ऐसा दबाव प्राय: दृष्टिगत होता है जिसकी आभा में ही उनकी कल्पना अपने चित्र ऑंकती है. उनकी कविता अपनी कोशिशों के बावजूद व्यक्तिवाद की लक्ष्मण रेखा नहीं लॉंघ पाती तो कदाचित इसलिए कि अशोक का समूचा कृतित्व उनके व्यक्तिगत का ही प्रकाशन है उनकी ही चित्तवृत्तियों का ज्ञापन है]उनकी ही सुरुचि सौंदर्यबोध और सौष्ठवता का प्रफुल्ल विस्तार है. कभी कभी लगता है कि बहुत हो चुका प्रेम—अब उन्हें इसकी परिधि से बाहर आ जाना चाहिए किन्तु तभी एक कौंध उनकी कविता-कल्पना को भुलावा देकर धीरे धीरे नाविक की तरहप्रणय-लहरियों के कंपन की ओर उड़ा ले जाती है.
आकंठ प्रेम से भरी उनकी कविताओं के संसार को भले ही देह से गेह तक की यात्रा में विसर्जित कर देखने की कोशिश होती रही है, अशोक ने अब तक की अपनी कविताओं में उसके यौवन और उल्लास को कायम रखा है. बीच बीच में उनकी कविताऍं अपना रुख बदलती भी रही हैं. खास तौर से समय के पास समय और इबारत से गिरी मात्राऍं दोनों में उनकी सुपरिचित दैहिक वसना छवि बदली और वह किंचित गैरिकवसना हो चली है. इसलिए देखें तो उनमें विदेशी परिवेश के उमड़ आई स्मृतियों का आवेग अधिक है—अपनी जमीन अपने अस्तित्व अपने सगे-संबंधियों पितरों अपने देश और भूगोल को लेकर कवि का अनन्य अनुराग यहॉं व्यंजित हुआ है. यह जैसे कविता के उसके अपने ही जीवन का विहगावलोकन है. जीवन की उत्तरशती में पहुंचकर उसकी अपनी ही जीवनासक्ति का बखान—और इससे यह बात प्रमाणित होती है कि जीवन के उत्तरार्ध में प्रविष्ट व्यक्ति एक बार अपने जीवन के प्रारंभिक परिच्छेद की ओर लौटता अवश्य है. इबारत से गिरी मात्राऍं–की इस कविता पर जरा गौर करें–
वह अब भी युवा और हराभरा है
जबकि मैं अधेड़ हो चुका:
उसमें जो शहर अब भी संभावना था
वह इतना बदल गया है
कि कई बार मुझे पहचान में नहीं आता—
उसका तालाब सिकुड़ गया है
…..मैं चकित और कृतज्ञ हूँ
सचाई के बदल जाने से नहीं
शब्दों के फिर भी सच बने रहने से.
सचाई बदली है—शब्द नहीं. शब्द वैसे ही सच्चे हैं जैसे पहले थे. जिन शब्दों में पहले से ही आस्था बलवती रही हो उन्होंने अधेड़ होने के बावजूद साथ नहीं छोड़ा. अपनी नैतिक शुचिता के साथ वे कवि के साथ खड़े दिखते हैं. अशोक वाजपेयी की कविता जो है के बखान और जो नहीं है उसके अभाव की मार्मिकता दोनों का विरल उदाहरण है. अशोक का जीवन कुल मिलाकर ऐश्वर्य के ताने बाने से बुना है. अध्यवसायिता ने उन्हें समय से पहले परिपक्व बनाया और साहित्य संवेदना ने निरंतर उनकी हार्दिकता को रोशन बनाए रखा. एक उच्च प्रशासनिक अधिकारी के रूप में उन्होंने अपनी तेजस्विता को फाइलों में ही विसर्जित नहीं हो जाने दिया और महत्वाकांक्षा उन्हें बराबर प्रशासनिक भूगोल से खींच कर साहित्य के दालान में धकेल कर ले जाती रही. लिहाजा प्रशासनिक गलियारों में अपना वर्चस्व कायम करने के बजाय अशोक वाजपेयी ने साहित्यिक घमासान में ज्यादा दिलचस्पी ली. अपने पड़ोस के किंचित संपन्न व्यक्ति को संदेह और मानवसुलभ ईर्ष्या से देखने की जो आदत समाज ने डाल ली है उसका शिकार अशोक वाजपेयी भी रहे हैं और शब्दों से लोहा लेने की उनकी चित्तवृत्ति को हमेशासंदेह के दायरे में रख कर देखा गया है.
बहुतों को लगता है कि अशोक जिन्दगी के जद्दोजेहद को क्या समझेंगे, वे तो प्रेम आसक्ति दैहिकता और ऐश्वर्य-भरे वातावरण में केवल वाग्विलास के अभ्यासी हैं. किन्तु प्रकट विनय और भूमिगत दर्प दोनों के मिले जुले तत्वों से बने अशोक वाजपेयी ने साहित्य के अपने विरोधी धड़े को हमेशा ठेंगे पर रखा और अपनी जिद व जिजीविषा के भूगोल में साहित्य की अपने ढंग से मनोविलासकारी दुनिया रचाते बसाते रहे हैं जिसमें अपने समय के बड़े प्रश्नों से टकराहट के बावजूद लगता रहा है कि वे वाकई आम जीवन के नहीं भरे हुए पेट और अघाई हुई मानसिकता के सवाल हैं. ऐसा बूझते समझते हुए साहित्यिक बिरादरी अक्सर अशोक वाजपेयी के साहित्यिक अवदान का आकलन किए बिना क्षुब्धमुख बगल से गुजर जाती रही है. प्रश्न यह है कि क्या यह सब उचित है और शब्दों की गवाही देने के लिए खड़े अशोक वाजपेयी हमारे लिए अस्पृश्य हैं?
जैसा कि मैंने कहा है, समय के पास समय के साथ उनके कविता संसार में थोड़ी तब्दीली दिखती है. लगता है कि वे देह से पार जाने की कोशिश कर रहे हैं. इसमें उनका कवि कुम्हार, लुहार, बढ़ई, मछुआरे, कबाड़ी और कुँजड़े से अपना तादात्म्य जोड़ता है. अपने नवजात पोते के लिए लिखे स्वागत गीत के बहाने वे अपने बचपन और स्मृतियों की ओर लौटते हैं. किन्तु मृत्यु, अवसान और नश्वरता का धूसर रंग उन पर बार बार प्रभावी होता है और वे अपनी ही दुनिया में बेगाने होने की क्षुब्धता का बयान ईश्वर के चार विलाप में यों करते हैं:
मैंने यह दुनिया बनाई थी
क्योंकि मैं खुद को देखना चाहता था
और अब पछताता हूँ कि इस आइने को क्या हुआ
यह कैसे ऐसा हो गया कि
मेरा अक्स उसमे टुकड़ों-टुकड़ों में बिखरा नज़र आता है:
रोता हूँ कि या तो मैं अब साबुत और पूरा नहीं रहा
या कि मेरी ही दुनिया ने मुझे टुकड़े टुकड़े कर डाला
एक साथ अनेकार्थ लिए ये पंक्तियॉं जितनी अलौकिक हैं उतनी संसारी भी—और अशोक में धीरे धीरे उदित होते गार्हस्थ्य वैराग्य ने ये पंक्तियाँ कोई ईश्वर के विलाप के निमित्त ही नहीं लिखीं, इनमें उनका अपना विलाप भी ध्वनित है. इस दुनिया के धीरे धीरे टूटते जाने की वेदना और अब वक्त ही कहॉं बचा है जैसी उद्भावनाऍं अशोक के उत्तरवर्ती रचना संसार में जगह बनाने लगी हैं. एक दौर में कामना के उत्कट बोल व प्रेम का समुज्ज्वल उल्लास रचने वाला यह शख्स इन दिनों जैसे उत्तरोत्तर वैराग्य की ओर अग्रसर है. उसकी कविताऍ जैसे अपने किए धरे का हिसाब लेने बैठे घोर संसार के कंठी-माला ले लेने के बाद की अभिव्यक्ति हों.
अशोक वाजपेयी के संग्रह इबारत से गिरी मात्राऍं की कविताओं से गुजरते हुए लगता था कि अब शायद उनकी वाणी में गैरिकवसना छवि जगह बनाने लगी है. इसकी अनेक कविताओं में न्यस्त छवि उन्हें प्रेम के परिसर में ही डूबे रहने वाली कवि-छवि से अलग ले जाती प्रतीत होती थी किन्तु इसे अब उनका लगभग स्थायी भाव मान लिया जाना चाहिए कि वे प्रथमत: और अंतत: प्रेम के ही कवि हैं महज अल्पविराम के लिए वे बेशक अन्य भावबोध की ओर उन्मुख हुए हों उनकी कविता का समूचा स्थापत्य प्रेम]कामना]उम्मीदी नाउम्मीदी प्रार्थना प्रतीक्षा और दीप्ति के रसायन से बुना गया है. उम्मीद का दूसरा नाम में वे फिर कभी न बुढाने वाले प्रेम को जिजीविषा के पर्याय के रूप में घोषित करते दृष्टिगत होते हैं और इसे वे उम्मीद का ही दूसरा नाम कहते हैं. उनके शब्दों में प्रेम करना अपने आपसे उम्मीद बांधना है. यह एक ऐसा शरण्य है जो जीवन की हताशा के विरुद्ध उम्मीद का आखिरी मुकाम है.
इबारत से गिरी मात्राऍं में अशोक वाजपेयी स्मृति और उपस्थिति के अंतराल को भरते हुए दीखते हैं. यह संग्रह उनकी काव्यात्मक प्रौढि का परिचायक है. इससे गुजरते हुए लगता है कि कविता व्यक्ति की चित्तवृत्ति के साथ साथ उसके अपने समय और समयांतर की भी अभिव्यक्ति होती है. यहॉं एक प्रश्नाकुलता कवि के भीतर है और यह क्षोभ भी कि उसे उसकी जिज्ञासाओं को शांत करने वाले देवताओं से प्रश्न पूछने का अवसर नहीं मिला, मां से पूछने के लिए भी जब समय था, तब वैसी समझ न थी. अकेले पड़ते जाने का दारुण विलाप न तो पत्तियॉं सुनती हैं न पक्षी न नक्षत्र और न ही पड़ोस के फूल. प्रार्थना के लिए उसके पास एक भी शब्द नहीं. यहॉं तक कि उसमें जो शहर एक संभावना की तरह था, वह भी इतना बदल गया है कि पहचान में नहीं आता. एक खास किस्म की आइडेंटिटी क्राइसिस से ये कविताऍं जन्म लेती हैं जिसके लिए वे कभी बचपन के घर के सामने के कठचंदन और मौलश्री को याद करते हैं और कभी गरम दूध मे ताजी रोटी मसल कर खाने को. अपना बचपन और कैशोर्य उन्हें खींचता है.
उन्हें शिकायत है कि वे जिसके पास भी जाते हैं उसके पास उनके लिए समय नहीं है. जल के पास उनके लिए समय न था, सूर्य हवा अग्नि किसी को उनकी याद नहीं. वे बचे हुए को बीते हुए की तरह देखना चाहते हैं और लिखना चाहते हैं उम्मीद की एक नई वर्णमाला. अशोक बार बार कविता से दूर छिटक कर समय की गोद में जा गिरते हैं जहॉं उन्हें जिन्दगी को कुतरते हुए समय की सिर्फ एक आवाज़ सुन पड़ती है. उन्हें दीखते हैं जल रही कविता पुस्तकों के मध्य हड्डियों की तरह अनजले बचे थोड़े से शब्द. एक उत्सवी कवि के यहॉं ऐसे धूमगंधी बिम्ब अचरज में डालते हैं, तब यह सोचना लाजिमी हो जाता है कि ये संकट वाकई कविता के हैं या समय के?वे इस बात से मुतमइन हैं कि कम से कम उनके पास दुनिया को बदलने का कोई विकराल सपना नहीं है, बल्कि कुछ रूपक, कुछ शब्द, कुछ विन्यास बदलने की टुच्ची आकांक्षा-भर है.
कुछ रफू कुछ थिगड़े में भी उनका अंदाज संजीदा दिखता है. यह अवश्य है कि बैसवारे की सिक्के-सरीखी कुछ देशज पदावली उनके वाक्यों के मध्य कहीं कहीं खनकती और उनकी अभिव्यक्ति को निर्मल बनाती है, परन्तु इसके बावजूद उनकी कविता का चिर परिचित अंदाज बहुत बदला हुआ नहीं लगता. यहां वे सांप्रदायिक शक्तियों के प्रति अपने सात्विक क्रोध कापरिचय देते हैं. गोधरा जैसी हिंसक घटना पर अपना मुखर विरोध दर्ज करते हैं. वे लिखते हैं:
प्रार्थना बन गई है एक खूँखार गाली
पड़ोस हत्याघर, गलियॉं हिंसा की वीथिकाऍं
…….
हत्यारों के चेहरे पर खून के दाग नहीं
दिग्विजय की आभा है.
वे कहते हैं, उम्मीद की कोई जगह नहीं बची. कविता में उदास अंधेरा छाया रहा. शब्दों के बजाय चुप्पियों से काम चलाया लोगों ने. हत्यारे आए जश्न मनाते हुए रक्तरंजित गौरव से दमकते हुए और उनकी ऑंखों में कोई ऑंसू कोई किरकिरी न थे. हालांकि हर वक्त देवताओं पर कवि का दबाव बहुत अच्छा नहीं लगता पर अशोक वाजपेयी के भीतर न जाने कैसी दुर्बलता है जो अपने हर किए धरे के लिए देवताओं का शरण्य खोजती है. यद्यपि एक मानवीय पीड़ा भी उनकी कविताओं में झॉंकती है जो कि केवल सजावटी भंगिमाओं से संभव नहीं है. यह अच्छी बात है कि यहॉं जीवन इतना तो मिला होता जैसी कातर गुहार नहीं है बल्कि एक ऐसे घर की ख्वाहिश है जिसमें दिदिया, काका, अम्मा, दादा, बाबा और ऋभु साथ साथ रहते. यानी कई पीढ़ियॉं एक साथ सॉंस लेतीं. पर क्या ऐसा हो सका. दिदिया और काका तो स्मृतियों में ही रहे आए.
अशोक वाजपेयी की रतिश्लथ कविताओं और आसक्तियों की बराबर आलोचना करते हुए भी उन्हें जॉंचने परखने सुनने समझने की प्रक्रिया शिथिल नहीं होती. उसमें कुछ जड़ीभूत, कुछ संचारी भाव विद्यमान रहता है. कविता में न कोई आदि है न अंत. वह सतत है. उनके यहॉं अनुभवों का एक सूक्तिमय संसार भी है जैसे अनकहे देवकथन. नश्वरता, अनश्वरता, मनुष्य, प्रेम, पड़ोस, अनंत और स्त्री पर अनेक पदावलियॉं उनके यहॉं हैं. वे कहते हैं: दुख आता है तो देर तक ठहरता है/ सुख को जाने की हमेशा जल्दी होती है. अब आप लाख अशोक की कविताओं की आलोचना करें उनकी कोई भंगिमा आपको इस कदर छू लेती है कि आप ठिठक जाते हैं. वे धरती पर वनस्पतियों और जल की तरह फैले दुख को न देख सकने वाले आकाश को इन शब्दों में पुकारते हैं.
मैं जानता हूँ
सब कुछ पर होने के बाद भी
उसका एकांत
मैंने सुना है उसका दूर किसी कोने में छिप कर
एक बच्चे की तरह सिसकना
मैं उसके लंबे पुराने लबादे को
थोड़ा रफू कर उसमें
थिगड़ा लगाना चाहता हूँ.
(जब मैं आकाश को पुकारता हूँ)
जीवन में कुछ भी पूर्वनियत न होने की व्यथा अंतत: उनकी कविता में व्यक्त हो ही जाती है—मैं आँसू, शब्द, उदासी और सपनों से घिरा/ अब भी अचरज कर रहा हूँ / कि यह तो नहीं था/मेरे लिए निर्धारित जीवन– यहॉं तक कि कविता करना भी उनके लिए एक संयोग ही है:
कविता करना भटकने जैसा था
कभी बियाबान में
कभी शहर के बीचोबीच
लोगों से बतकही में डूबने जैसा
चाय की दूकान पर वेवजह बिलमने जैसा
देवहीन मंदिर में एक चिड़िया की तरह
चीखने जैसा (यह नहीं)
इस संयोग को भी सुयोग में बदलते हुए कविता के अरण्य में पिछले कई दशकों से निर्भय विचरण करने वाले और एक सीमा तक कविता की राजनीति को भी अपने अनुकूल संतुलित करन सकने में कुशल अशोक वाजपेयी एक कविता में कहते हैं, मैं प्राचीनों के शब्द नबेरता हूँ.इसी कविता(स्वरलिपि) में वे खजुराहो की मिथुन मूर्तियों को देख यह भी कहते हैं: मैं सुन सकता हूँ उनकी अंतर्ध्वनियॉं—पत्थरों के अंदर/शिराओं की तरह कसमसा रहा है कुछ/ और वृक्षों में धीरे धीरे कुछ पथरा रहा है. यह तो अशोक ने अब तक की कविता यात्रा में सिद्ध ही किया है कि वे साहित्य की रणभूमि में किसी मासूमियत के साथ नहीं, बल्कि एक कुशल योद्धा की तरह अपनी जिदों, अपने स्वप्नों, अपनी प्रार्थनाओं और अपनी प्रतिश्रुतियों के साथ कविता का स्पेस बचाने के लिए कार्यरत हैं और इधर उन्होंने उन कोनों अँतरों पर भी निगाह डाली है जो कहीं न कहीं उनकी कविता के क्षेत्रफल को सामाजिक गुणवत्ता से जोड़ते हैं.
दुख चिट्ठीरसा हैअशोक वाजपेयी की कविता यात्रा का अहम पड़ाव है. जहॉं अशोक वाजपेयी की कविता में रागात्मकता का विपुल प्रसार है, वही उसमें विफलता, दुख, अवसाद और पछतावे की छाया भी नज़र आती है. वे बार बार देवताओं से शिकायतें और इसरार करते नजर आते हैं. वे एक साथ सुख-दुख, कामना और विरक्ति के कवि हैं. व्यग्रताओं और विचलनों से भरी उनकी कविता के अनेक संस्करण हैं. उसमें जहॉं दुख के अवाक् होते जाते शब्दों का नीरव संगीत है, वहीं ओस-सी द्रवित, किसलय-सी कोमल कल्पना का रमणीय पाठ भी. सुख की तो याद भी दुख देती है—अशोक कहते हैं. क्या वे अज्ञेय की इस अनुभूति के बगल से होकर गुजरे है: जहॉं सुख है वही हम चटक कर टूट जाते हैं बारम्बार/ जहॉं दुखता है/वहॉं पर एक सुलगन/पिघला कर हमें फिर से जोड़ देती है. हमें यह नही समझ आता कि अशोक वाजपेयी के मुखर हास्य के पीछे यह कैसी उदासी है जो दुख को चिट्ठीरसा की संज्ञा देती है.
देह और गेह के सांसारिक प्रत्ययों की अनुगूँज के बावजूद उनके यहॉं उदासियों और हताशाओं की व्यंजनाऍं कम नहीं हैं. वे भले ही प्रेम का उम्मीद का दूसरा नाम कहते हैं पर भीतर ही भीतर नैराश्य की ऑंच भी सुलगती दीखती है. क्या यह शुद्ध वीतराग है या कुछ न कर पाने का मनो मालिन्य. क्योंकि उम्मीद का दूसरा नाम में जो अनुराग की उत्तप्त छवियों से दीप्त है, वे ही कहते हैं: मैं अब रहता हूँ/ निराशा के घर में/उदासी की गली में / मैं दुख की बस पर सवार होता हूँ/ मैं उतरता हूँ मेट्रो से/हताशा के स्टेशन पर. कहॉं तो वे कुछ न कुछ बच ही जाएगा जैसी भरोसमंद अवधारणा के हामी रहे हैं कहॉं इस बोध से भी ग्रस्त दिखते हैं: वे हो सकती थीं सुख की जड़े/ वे महज दुख की शिराऍं हैं.
पर दुख चिट्ठीरसा है कहने के पीछे की अनेक व्यंजनाऍं हो सकती हैं. रति, अनुरक्ति और आसक्तियों के सहकार में दुख की कौंध अक्सर अलक्षित रहती आई है. दुख सर्जनात्मकता की आधारभित्ति है. दुखों ने निराला को यह कहने पर बाध्य किया कि दुख ही जीवन की कथा रहीं, मुक्तिबोध को आत्मसंघर्ष के लिए तैयार किया, शमशेर को ताकत दी और अज्ञेय को यह कहना पड़ा कि: दुख सबको मॉंजता है. अशोक वाजपेयी की प्रेम कविताओं का संसार भले ही ऐंद्रिय और इरोटिक इमेजरी से भरा हो, वह काव्यात्मकता से परिपक्व है. भाषा की सोंधी सोंधी और ताजा गंध का अहसास उन्हें पढ कर होता है. वे कहते भी रहे हैं कि उनकी कविता भाषा का अध्यात्म है. प्रेम के अलावा जीवन के अन्य रोजमर्रा के अनुभवों को अशोक वाजपेयी ने भाषा के चाक्षुष वैभव से भरने का यत्न किया है. उनके यहॉं सौंदर्य की अपूर्व अंतर्ध्वनियॉं हैं जिन्हें यदि कान लगा कर सुनें तो हम उनके कवित्व से तोष पा सकते हैं. कभी कभी उनकी कविता आत्मकथ्य के रूप में भी सामने आती है:
शब्द थे साँसत में
उन्हें आवाज़ से अलगाया जा सकता था
दिव्य वैभव के बरक्स एक सरल-सी प्रार्थना थी
जिसके लिए कहीं जगह न थी
इस विपर्यास के बीच कविता थी
किसी उजाड़ में थोडी-सी नम जगह पर फैली हरी घास की तरह
जिसे भरोसा था कि उसे कोई नहीं देखेगा
(एक उँगली उठती है/दुख चिट्ठीरसा है)
अशोक वाजपेयी ने भले ही अलक्षित ओर निंदित होते हुए भी हिंदी में कविता की एक ऐसी कलम रोपी है जो उन्हें कवियों में अलग पहचान देती है. अपने प्रेम और जीवन के सहसंबधों को बॉंचते हुए वे अंतत: प्रेम और पारिवारिकता के कवि हैं. पिता से स्वभाव में स्वाभाविक अंतर के बावजूद उनके स्वीकारोक्ति में लिखी कविता में वे यह स्वीकार करते हैं कि जीवन में आभिजात्य तो आ जाता है/ गरिमा बड़ी मुश्किल से आती है. पिता और पुत्र के अंतराल को बॉंचते हुए भी कवि का यह स्वीकार कि अंतत: मैं तुम्हारी फीकी आवृत्ति हूँ, पिता के प्रति प्रणति और कृतज्ञता का कितना मानवीय ज्ञापन है. पोते ऋभु पर वे कविताऍं लिखते हैं तो नातिन पर भी दो कविताऍं लिखी हैं. अशोक के शब्दों में : वह डगमग चलती है तो सारा ब्रह्मांड थम जाता है.
अशोक वाजपेयी को समझने के लिए हमें उनके बारे में प्रचारित अवधारणाओं से बाहर आना होगा. वे अंतत: ऐसे कवि हैं जो अपने उत्तरदायित्व को यह कहते हुए भूल नही जाते कि कवि वही है जो दूसरों की कातर पुकार सुनता है. ‘वहीं से आऊँगा’ की पंक्तियॉं हैं:
मैं वहीं से आऊँगा
जहॉं प्रार्थना में डूबे
अत्याचार के विरुद्ध उठी चीख को अनसुना नहीं करते
जहॉं कोई भी पुकारे दुखी या कोयल या राह भूल गयी बुढिया
उसे उत्तर मिलता है
मैं वहीं से आऊँगा.
अशोक वाजपेयी ने हिंदी को अनेक अमूल्य कविताऍं दी हैं. साधारण की एक गाथा सहित कई ख्यात कवियों की पंक्तियों पर आधारित कविताऍं उन्होंने लिखी हैं. ये कविताऍं उनके भीतर की नि:शेष रागात्मकता का परिचय देती हैं. अशोक की कविताओं की बुनावट इधर कुछ सघन हुई है. वे जीवन को बिम्बों की सघन छवियों के बीच देखते हैं. उनकी कविताऍं एक भिन्न संसार, एक भिन्न आबोहवा निर्मित करती हुई चलती हैं, इसलिए उसमें प्रवेश का धीरज चाहिए. तुरत फुरत हाथ लगने वाले सुभाषितों, उद्धरणों से वे नहीं समझे जा सकते. अच्छे शब्दों का विपुल भंडार उनके पास है. जाने पहचाने पदों-प्रत्ययों की आवाजाही भी उनके यहॉं खूब है पर उन्हीं के बीच उनकी कविता अपने शिखर भी रचती है. देवताओं और पूर्वजों को तो आप उनकी कविता से बहिष्कृत नहीं कर सकते. वे हैं और रहेंगे, किन्तु राग और विराग दोनों किस्म की कविताओं की गहरी पारी खेलने वाले अशोक को अभी भी भाषा में रचती मथती भेदती और कौंधती अंतर्ध्वनियों में ही महसूस किया जा सकता है. उनकी कविता शब्दों की शोभायात्रा नहीं है. शमशेर के इस कथन में उनका आज भी भरोसा है कि शब्द का परिष्कार स्वयं दिशा है. इतना होते हुए भी कभी कभी सोचता हूँ कि इतने वैभव के बीच रहने बसने वाले इस कवि में यह नैराश्य कहॉं से आया है. क्योंकि कविताओं में प्राय: दैन्य का निर्वचन भी कूट कूट का भरा है.
प्रेम के बखान में अशोक वाजपेयी ने लगभग सारी जिन्दगी बिता दी पर यह विवक्षा आज भी मंद नहीं पड़ी है. उनके शब्द सजे सँवरे और रुचिर विन्यास की याद दिलाते हैं. वे इतने सुचिक्कन, सौंदर्यग्राही और अभिजात लगते हैं कि उनका स्थापत्य हमें खींचता है. इन कविताओं की सुललित शब्द-वीथियों में हम बिलम जाते हैं—कविताओं के हरे गलीचे और ओस-भीगी कल्पनाओं के सुघर विन्यास में अपने अंत:करण को भिगोते हुए. भले ही यहॉं दुनियावी झंझावातों के यक्षप्रश्न न हों, रोटी कपड़ा और मकान की चिंताऍं न हों, प्रेम के सारे रूपक और शब्दविधान किसी उदात्त और उज्ज्वल आकांक्षा की पूर्ति के लिए न होकर प्रिय समागम के लिए मदनारूढ़ इच्छाओं, लज्जारुण पृच्छाओं और कसमसाती वासना को उद्दीप्त करने के लिए हों, या तृप्ति के उदगम पर गौरैये की तरह फुदकने और सुख की दरार को भरने के लिए, कविता के इस चटक विलसित संसार में केवल त्वचा की उजास और अंगों की प्रभा हो, पानी के मन में तन के संस्मरण हों, श्रृंगार का यह काव्यवैभव भी हिंदी में अन्यत्र नही है.
यों तो वे प्राय: श्रृंगार की शस्य श्यामला मनोभूमि में ही रहते आए हैं किन्तु यदि हम अपने समय के संकटों को थोड़ी देर एक तरफ धर कर देखें तो कई प्रसंगों में अशोक अपनी अद्वितीयता भी जताते हैं. कविता में प्रार्थना, प्रतीक्षा और उम्मीद की कांपती रोशनी से बुने हुए पुकारों के बिम्ब स्मृति को एक कौंध की तरह जगाते हैं. कहा यही जाता है कि शहर अब भी संभावना है के बाद वह ताजगी उनके यहॉं दिखायी नहीं देती पर ऐसा कहना उनके उत्तरोत्तर सघन होते काव्यात्मक सरोकारों को नेपथ्य में डालना है. वे शब्दों के पारखी हैं. नेरूदा की तरह उनके यहॉं भी कविता और शब्दों को लेकर अनेक कविताएं हैं. कुछ सूक्तियॉं, शब्द नहीं बचे, शब्द नहीं गाते, शब्द गिरने से बचाते हैं आदि. यानी शब्द की सत्ता को लेकर अशोक निस्संशय है. उन्होंने लिखा है: अगर बच सका तो वही बचेगा हम सबमें थोड़ा-सा आदमी. यह अपरिग्रह और अपवर्जना से लैस व्यक्ति के लिए कहा गया है जो किसी के रोब के सामने गिड़गिड़ाता न हो. अक्सर तो ऐसे व्यक्ति को तोड़ने में सत्ताऍं अपनी पूरी ताकत लगा देती है, इसलिए अशोक की यह आशा दुराशा में बदलती नजर आती है. पर यह दूसरे अर्थो में कवि के स्वाभिमान की ओर भी इशारा है यानी ऐसा कवि जो प्रलोभनों के वशीभूत न हो, सत्ता का मुखापेक्षी न हो, वही बचेगा.
अशोक वाजपेयी की प्रेम कविताओं को कैसे पढा जाए यह समस्या बार बार उठती है. अक्सर कविता को अभिधा में पढने का अभ्यास रहा है. हम अभिधा से परे उसकी व्यंजनाओं में अलक्षित अर्थध्वनियों को पकड़ने का यत्न नहीं करते. यह भी बहुधा मान लिया जाता है कि प्रेम कविता लिख लेना कोई महान कवि कर्म नहीं है. पर हम अपनी कवि-परंपरा को देखें तो यह सहज ही लक्ष्य है कि शेक्सपियर हों या कालिदास, भवभूति हों या गालिब, देव हों या नेरूदा, हर बड़े कवि में श्रृंगार का वैभव भी उतना ही प्रखर है. यदि हम इस संकीर्णता के शिकार हों कि प्रेम कविता हमारे किसी काम की नहीं है, यह संघर्ष को स्वर नहीं देती, जीवन के दुख- दारिद्रय की बात नहीं करती, तो हम शायद अपने वक्त की बेहतरीन कविता से वंचित रह जाऍंगे. क्या हम ‘अभिज्ञान शाकुंतल’ और कुमार संभव को परे रख कर कालिदास को समझ सकते हैं.
क्या हम शेक्सपियर के प्रेमाख्यानक नाटकों को छोड़ कर शेक्सपियर के अवदान को समझ सकते हैं. क्या हम ट्वेंटी लव पोयम्स एंड अ सांग ऑव डिस्पेयर से गुज़रे बिना पाब्लो नेरूदा के कवित्व की खूबियों से परिचित हो सकते हैं. क्या हम उसे समझने के लिए उसके हंड्रेड लव सानेट्स से अवगत नहीं होना चाहेंगे और क्या इससे हम उसके कविता और जीवन के संवेदन से जुड़ सकेंगे ? शायद नहीं. एक सानेट में नेरूदा जब एक तरफ यह लिखते हैं कि: I want to eat the sunbeam flaring in your lovely body, the sovereign nose of your arrogant face, I want to eat the fleeting shade of your lashes तो वहीं दूसरी तरफ वे यह भी लिख रहे होते हैं: Tonight I can write the saddest lines. मिलन और उदासियों का यह स्थापत्य बड़े कवियों में प्राय: देखा जाता है. मातील्दा के लिए नेरूदा ने कितनी भावपूर्ण कविताऍं लिखीं. शेक्सपियर के नाटकों में प्रेम की कितनी गहराइयॉं ऊँचाइयॉं हैं, कितने उतार चढाव और कितनी बेचैनियॉं हैं. प्रेम और नफरत की दुनिया का अंतर साफ दीख पड़ता है वहॉं और तब लगता है, प्रेम इस दुनिया के लिए क्यों जरूरी है. यह इंसानियत को इंसानियत से जोड़े रखने का ऐडहेसिव है.
शायद यही वजह है कि दुनिया के बड़े से बड़े कवियों ने प्रेम को अपने सृजन के केंद्र में रखा है. प्रेम केवल स्त्री पुरुष का पारस्परिक प्रेम ही नहीं एक बड़े स्तर पर संबधों का सहकार और साहचर्य भी है. जहॉं तक अशोक वाजपेयी की कविताओं में इरोटिक मुद्राओं के बखान की बात है प्रेम में वह एक पड़ाव अवश्य है. वह प्रेम का परिपाक है. कृष्ण बलदेव वैद से एक बातचीत में कृष्णा सोबती स्वीकार करती हैं कि सेक्स हमारे जीवन का–साहित्य का महाभाव है. इसी प्रेम की व्यंजना गीत गोविंद में है, कनुप्रिया में है,यही ‘गुनाहों का देवता’में, यही ‘मुझे चॉंद चाहिए’ में. ‘शेखर:एक जीवनी’ के केंद्र में भी एक आबद्ध कर देने वाला अनुराग है. कनुप्रिया के अमर गायक धर्मवीर भारती को आखिरकार लिखना पड़ा: ‘न हो यह वासना तो जिंदगी की माप कैसे हो.‘वासना जीवन की कसौटी है. यह त्याज्य नहीं, काम्य है. अन्यथा, ऐसा क्या है उसके आने में कि सुबह के मंदिर जैसी घंटियां बज उठती हैं. अशोक के इस काव्यात्मक ब्यौरे को देखें जरा:
तो लगता है हो रही है सुबह—
आती है
फूलों में खिलखिलाहट
पत्तियों में कँपकँपाहट
चिड़ियों में चहचहाहट
वह आती है
तो क्षण भर में हो जाता है पूरा
एक ऋतुसंहार.
(वह आती है/दुख चिट्ठीरसा है)
ऐसा इसलिए कि उसी में है पत्तियॉं और फूल, उसी में किसलय और पराग, उसी में सब कुछ को हरा-भरा रखने का रसायन. ऐसा इसलिए कि: उसके हाथ छूते हैं तो रंग जागते हैं. आकार जागते हैं. स्पंदन के असंख्य रूपाकार जागते हैं. वह जागरण का दूसरा नाम है. वह इस कदर कवि को काम्य है कि निर्विकल्प है. कवि कहता है: ‘ जब आएगी/वही आएगी/जब गाएगी/वही गाएगी—प्रेम का असमाप्य गान. ‘ यानी अगवानी उस एक के आने की है जिसकी कंचन काया पंखों-पंखरियों की बनी है, जिसका प्रेम राग और पराग से रचा है. प्रतीक्षा भी उसी की है और यह प्रतीक्षा भी कोई मामूली नहीं, यह धूप में चिड़ियों के स्पंदन से ही तुलनीय है, यह हरी पत्तियों का नीरव उजला गान है. इसीलिए ऐसी ही प्रिया के लिए कवि कहता है: ‘जब मैं उसके लिए शब्द चुनता हूँ तो दरअसल अपने जीवन के कण चुनता हूँ.‘ अशोक के यहॉं प्रेम का यूटोपियाई स्वप्न नहीं देखा गया है, वहॉं हाड़ मॉंस के व्यक्ति से प्रेम का एक अनन्य अध्यात्म रचा गया है. तभी कवि देह से परे प्रेम की जीवित आभा को तलाशता है: ‘वह जो उसे खोजता है, भाषा में, व्यर्थ खोज रहा है—वह भाषा से बाहर बसती है: शब्दों के बीच की चुप्पियों में/चाहत के अर्धविरामों में/संकोच के विरामों में/ प्रेम की असंभव संस्कृत में.‘ ऐसी प्रतीक्षा के बाद जब वह तन्वंगी परिपक्वयौवना प्रिया पधारती है तो आकाश उसकी ओर झुकता प्रतीत होता है, पृथ्वी पर उसकी पदचाप सुनाई देती है, हवा में उसकी सुगंध बहकर आती है, जल दम साधे उसकी प्रतीक्षा में होता है: सब जैसे उसकी अगवानी में हों. यह कवि का उत्कट प्रेम ही है जो इस अभिलाषा और संशय में है कि “जैसे ओस भिगोती है, हरी घास के हर तिनके को, वैसे क्या मेरा प्रेम मुदित कर सकता है उसके एक एक रोम को ?” अचानक अशोक वाजपेयी की कल्पना हमें गच्चा दे देती है कि उनकी कविता किसी रतिक्रिया की उद्भावक है. बल्कि वे कविता में प्रेम की घुलनशीलता को अनूठे बिम्बों, रंगों, शब्दों, कल्पनाओं, रूपकों, उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं में नए ढंग से सजाते हैं.
प्रेम कविताओं की प्रजाति एक भले हो, उसका रंग हर कवि में अलहदा होता है. वह उसका अपना रंग होता है. अगर अज्ञेय की प्रेम कविताओं का अपना रंग है, शमशेर की कविताओं का अपना, केदारनाथ अग्रवाल का अपना तो अशोक वाजपेयी की कविताओं का भी अपना रंग है. युवा लेखक परितोष मणि ने एक बार उनसे जब पूछा कि आपकी प्रेम कविताऍं दूसरों की प्रेम कविताओं से किन अर्थों में अलग हैं तो उन्होंने कहा ‘जैसे उनकी प्रेमिकाऍं मेरी प्रेमिकाओं से अलग हैं. मेरा खयाल है कि एक तो रतिभाव के आग्रह में, दूसरे बखान की संकोचहीनता में और प्रेम के लिए कठिन, लगभग प्रेम-विमुख समय में प्रेम के इतने लंबे सेलिब्रेशन के अर्थ में.‘ तब इन कविताओं बचे रहने की गुंजाइश क्या है?, वे बोले, ‘इनके बचे रहने की गुंजाइश दूसरी कविताओं से कुछ अधिक ही है.‘ अंतिम सवाल कि प्रेम कविताऍं क्यों लिखते हैं?उन्होंने कहा, ‘क्योंकि मैं प्रेम करता हूँ, जीवन से, कविता से, शब्द से.‘
उनकी कविता देहोत्सव का सेलीब्रेशन है ऐसा मानने के विरुद्ध अशोक वाजपेयी इसी बातचीत में कहते हैं कि ‘कविता की काया भाषा की काया है, संवेदना की काया है, कविता की काया अनुभव की काया है. कविता की काया मे ये सब मिले जुले हैं, इनको आपस में संयोजित करने, उनको एक संगठन देने, सौष्ठव देने का काम मैं करता हूँ.‘वे कविता में जाने पहचाने पदों की आवृत्ति वैसा ही मानते हैं जैसे लोग बार बार प्रेम करते हैं और यदि इस प्रेम में दुहराहट या आवृत्ति की एकरसता नहीं मालूम होती तो कविताओं में ऐसी अनुरागमयी छवियों पदावलियों की आवृत्ति पर एतराज क्योंकर हो. यह पूरी बातचीत उनकी प्रेम कविताओं को पढने के सूत्र उपलब्ध कराती है. उनके लिए प्रेम मुक्ति की कामना है, समर्पण का राग है. रति से उनकी कविता की अनुरक्ति के पीछे संभवत: उनका सोचना यही है कि रतिमुक्त प्रेम के बारे में कविता लिखना आसान है, जबकि रति के रूपक रचना कठिन है. रति के रस को व्यंजित करते हुए यह सोचना कि कविता के पदलालित्य में उसकी उपस्थितियॉं और भंगिमाएँ शिष्टता के साथ चित्रित हो जाऍं यह काम कठिन है. यानी रति का रस कविता के रस में बदल जाए कुछ ऐसी कोशिश वे करते जान पड़ते हैं. वे अपनी परंपरा जयदेव, कालिदास, विद्यापति, बिहारी, देव और अन्य रीतिकालीन कवियों से जोड़ते हैं. इस मामले में वे विक्टोरियन नैतिकता से परिचालित नहीं होते . वे कहते हैं लोग तमाम सामंती प्रभावों के आकर्षण से बँधे बिंधे रहते हैं यानी नृत्य, संगीत आदि से. पर रति से मुँह मोड़ते हैं. रामविलास शर्मा नृत्य और संगीत सभाओं को सामंती मानते थे. क्योंकि इनका राजदरबार से रिश्ता रहा है. विलासिता का पुट है इनमें. इसीलिए वे संगीत में नदियों का, लहरों का, समुद्र का संगीत पिरोने की बात करते थे कि जरा इन्हें प्रगतिशील दृष्टिकोण से जोड़ा जाए. तो अशोक वाजपेयी का कहना यह कि संगीत, नृत्य जैसी ललित कलाओं के पीछे जो रति भाव दिखता है वह स्वीकार्य है पर जीवन में रति के रस को कविता के रस में पर्यवसित कर देना स्वीकार्य नहीं है, यह विडंबना ही है. इसीलिए वे शायद अपने को प्रेम का कवि कहे जाने की बजाय जिजीविषा और जीवनासक्ति का कवि कहा जाना ज्यादा उचित मानते हैं.
प्रेम कविता वही लिख सकता है, जिसके मन में संसार के प्रति अनुराग हो. यह संसार के अनुराग से ही उपजती है. बिना सांसारिक हुए आप कविता नहीं लिख सकते. प्रेम का अनुभव नहीं कर सकते. तब जिसे संसार से अनुराग न हो वह कविता न लिखे, कोई और काम करे. हमारे यहॉं श्रृंगार की महान परंपरा रही है. संसार की जितनी भी सभ्यताऍं हैं उनमें भारत में इसकी विपुलता रही है. विडंबना है कि आधुनिकता और नैतिकता की सतही समझ ने प्रेम को जैसे देश निकाला कर रखा है. प्रेम कविता को लेकर एक विचित्र किस्म का पूर्वग्रह व पाखंड काम करता रहा है. छायावाद के बाद शमशेर और केदारनाथ अग्रवाल के बाद प्रेम कविता की यह परंपरा हिंदी में गायब सी दिखती है. अशोक वाजपेयी की कविता श्रृंगारिक कविता को पुनरायत्त करने की चेष्टा है. अशोक वाजपेयी ने अपनी प्रेम की व्यंजनाओं के लिए शब्द और पद भी वैसे ही सुकोमल चुने हैं.
जैसे रति क्रिया के बाद \’चटक विलसित\’ जो विशिष्ट क्रिया का संकेतक है, यह वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’ से आयत्त है. जैसे उन्होंने अपनी कविता में कहीं प्रफुल्लकासावसुधा का चित्र ऑंका है जो कालिदास के यहॉं द्रष्टव्य है. अशोक वाजपेयी की प्रेम कविता प्रतीक्षा, मिलन, संयोग, वियोग और स्मृति का सहकार है. यहॉं अभिसार और अध्यात्म दोनों का सहमेल दिखता है. उनके विगत को याद करें तो हम देखते हैं कि उन्होंने शब्दों से ही देह को जगाने की बात कही है: शब्द से ही जागती है देह/जैसे एक पत्ती के आघात से होता है सबेरा. ये पंक्तियॉ मूल्यवान और श्रुतिमधुर हैं. पत्ती के आघात से सबेरा होने का बिम्ब अन्यत्र दुर्लभ है. और अशोक वाजपेयी ऐसे दुर्लभों के प्रणेता है. उनके यहां ‘और थोड़ी देर रहा होता प्यार की कसक है और अभिसार में यह संशय भी कि: मैं तुम्हें कैसे छुऊँ, हाथों से, ओठों से, शब्दों से.
कविता व ललित कलाओं के अरण्य में रमते हुए अशोक वाजपेयी को कोई अर्धशती से ऊपर होने को आए. सेंट स्टीफेंस कालेज में पढने वाला वह युवा अब अपनी परिपक्व वयस् में है. प्रेम करने और कविता लिखने को उसने सदैव एक अनुष्ठान की तरह लिया है, जिसका जजमान भी वही है, पुरोहित भी वही. वही राजा वही प्रजा. वही स्रष्टा वही भोक्ता. जीवन के सक्रिय पचास वर्षों में उसने अधिकार सुख की मादकता का अनुभव भी किया है और कलाओं व अभिरुचियों की अपनी एक अलग दुनिया भी बसाई है. प्रकृति, सांसारिकता, अवसान और अपने अकेलेपन को गाता हुआ यह कवि कुमार गंधर्व के आलाप में सुख पाता रहा है तो मल्लिकार्जुन मंसूर तथा पं.भीमसेन जोशी की अक्षय आवाज़ों के छिटके बिखरे सुरों की-सी मिठास अपनी कविताओं में भरता रहा है. रज़ा के पवित्र कला-भवन में वह एक अतिथि की तरह आता जाता हुआ रंग रेखाओं के साहचर्य से संवलित होता रहा है. एक वक्त था, वह कहा करता था, एक जीवित पत्थर की दो पत्तियॉं —रक्ताभ उत्सुक/कॉंप कर जुड़ गईं/ मैंने देखा मैं फूल खिला सकता हूँ. और सच यही है कि उसने कविता में फूल खिलाए हैं. उसकी कविता में भले ही किसी को प्रार्थना और चीख की पुकार सुनाई दे, मुझे वह एक अकेले की सृष्टि लगती है जहॉं वह सदियों से कवि परंपरा को गाता चला आ रहा है. मुक्तिबोध की सन्निधि में खड़ा यह कवि भाषा को बरतने के मामले में अज्ञेय की तरह सुरुचिवान है तो अपने ही संगी श्रीकांत वर्मा की तरह स्मृति के बोध से संपन्न.
पूर्वजों के प्रति उसमें अनन्य अनुराग और कृतज्ञता है. गोष्ठियों-सभाओं-अनुष्ठानों-महफिलों का यह निर्विकल्प नायक शब्दों के खेल रचने में माहिर है जैसे कि वह शब्दों का अभियंता हो. वह देवऋण, पितृ ऋण और ऋषि ऋण की तरह जैसे अनंत समय से आदिकवि का ऋण अदा कर रहा है. वह अपने से ही जैसे कहता हो: तुम कहीं नहीं जा सकते/ अपनी त्वचा और अस्थियों से/ अपनी भाषा से /अपने प्रेम से. जैसे जानता हो इसी भाषा में रमना है, इसी में रचना; कविता के इसी भव्य भवन में अंतत: निवास करना है. उसने भले ही भावुक होकर कभी मॉं से पूछा हो, मॉ, लौट कर जब आऊँगा, क्या लाऊँगा;पर वह तो अब अनुपस्थिति का गान बन गयी है. याद रहे कि \’दुख चिट्ठीरसा है\’ में एक लंबी कविता उसने निराला की कविता पंक्ति\’ दुख ही जीवन की कथा\’ को आधार बना कर रची है.
यह उसके जीवन की आड़ी तिरछी रची गयी आत्मकथा है. वह जानता है कि \’ दुख के दिनों में भी याद रहता है कि कपड़े गीले हैं और उन्हें ठीक से सूखने के लिए कुछ देर धूप या तेज़ हवा चाहिए.\’ मैने ऐसा कवि नहीं देखा जिसमें आसक्ति भी उतनी ही प्रबल हो जितनी अनासक्ति या उदासी. एक साथ विपरीतताओं को जीता हुआ कविता का यह वरिष्ठ नागरिक अंतत: इसी निष्कर्ष पर पहुँचता है कि हर कविता का हश्र अंतत: शोकगीत हो जाना है. जीवन के अजस्र उल्लास और नश्वरता दोनों को गाता हुआ यह कवि न तो प्रेम में रियायत चाहता है न देवताओं से किसी प्रकार की क्षमा. वह कहता है, जीवन में जिस पहले आदमी को अपनी आंखों के सामने मरता हुआ देखा, उसे मुक्तिबोध होना था तो उन्हें कम से कम अंतिम सांसें लेने से पहले होश में आकर विदा के दो शब्द कहना चाहिए था.
इस कवि ने अपने कृतित्व से यह जताया है जीवन जीने के लिए है. इसका अवसान निश्चित है किन्तु यह रो धोकर मरने का नहीं, हँस हँस कर जीने का नाम है. हालॉंकि एक कविता में उसने लिखा है: हँसने के लिए महफिलें बहुत थीं, रोने के लिए कंधे कम मिले. अपने भरे पूरे परिवार के बावजूद वह उसमें दिदिया और काका की कमी महसूस करता है. वह तमाम अनुपस्थितियों को उपस्थितियों में बदलना चाहता है. कहा जाता है अपने उत्तर जीवन में हर व्यक्ति अपने अतीत को ज्यादा स्मरण करता है. अशोक वाजपेयी में भी अतीत का व्यामोह कम नहीं है. घर गृहस्थी के मामले में भले ही पत्नी रश्मि की उनसे शिकायतें हों, पर अपनी बनाई कला-कविता-संगीत की उनकी गृहस्थी मुकम्मल है. जीना यहॉं मरना यहॉं इसके सिवा जाना कहॉं. कविता में यदि बिम्बों लड़ियॉं सजाई जाऍं तो इतने रुचिर और अलक्षित बिम्ब अन्य समकालीनों में न मिलेंगे. जैसी इस कवि की प्रिया अकेली और अद्वितीया है वैसी ही उसकी कविता भी . वह कविता को फिर फिर ऐसी संज्ञा देना चाहता है जो अद्वितीय हो. क्या \’फिर नाम\’ में कवि का यह कथन इस कविता-मिशन को नये वैशिष्ट्य से पूरित करने की प्रतिश्रुति नहीं है:
नाम जो हँसे, खिल जाए,
पुकारे, मचल जाए,
नाम जो उजाले के कंधों पर चढ़ जाए,
अंधेरे में ठिकाने पर पहुँच जाए.
नाम जो पंखुरी -सा हलका हो,
ओस-सा द्रवित हो,
किसलय-सा कोमल हो,
और सिर्फ तुम्हारा हो, किसी शब्दकोश में न हो…….
कहना न होगा कि हर बार अशोक वाजपेयी की कविता की तहें वैसे ही खुलती हैं, जैसे आश्चर्य की तरह खुलता है संसार. उन्हें पढ़ते हुए अक्सर लगता है कि हम कविता की किसी साफ सुथरी कालोनी से गुजर रहे हैं, जहॉं की आबोहवा हमारे निर्मल चित्त को एक नई आनुभूतिक बयार से भर रही है. यह नया रचने, नया नाम देने की उत्कंठा ही है जो उनसे कहलवाती है: मैं उम्मीद को दूसरे नाम से पुकारना चाहता हूँ/ मैं इस गहरी कामना को एक उपयुक्त संज्ञा देना चाहता हूँ/ मैं पलटता हूँ कामना का कोश/एक नया शब्द पाने के लिए.जो कवि अपनी मॉं को महसूस करते हुए लिख सकता है कि तुम्हारे होठों पर नई बोली की पहली चुप्पी है, तुम्हारी उँगलियों के पास कुछ नए स्पर्श हैं—वह अपनी कविता को सदैव नई बोली, नए स्पर्श देने के लिए प्रतिश्रुत रहेगा.
अशोक वाजपेयी की कविताएं—प्रेम कविताऍं हर बार एक नया शब्द पाने, रचने और गढ़ने का अनायास उद्यम हैं.
(आज ही लोकार्पित अशोक वाजपेयी पर एकाग्र \’आश्चर्य की तरह खुला है संसार की भूमिका \’)
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ओम निश्चल
15 दिसंबर, 1958, प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)
लखनऊ एवं अवध विश्वविद्यालय से संस्कृत व हिंदी में स्नातकोत्तर उपाधियॉं, पीएच.डी, भारतीय विद्या भवन, मुम्बई से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा.
संपादन सहयोग – उत्तर प्रदेश पत्रिका,डा.नगेन्द्र के पर्यवेक्षण में केंद्रीय हिंदी निदेशालय,मानव संसाधन मंत्रालय में कोश कार्य कृतियॉं: शब्द सक्रिय हैं (कविता संग्रह), द्वारिका प्रसाद माहेश्वरीः सृजन एवं मूल्यांकन, साठोत्तरी कविता में विचार-तत्व, कविता का स्थापत्य, कविता की अष्टाध्यायी, भाषा में बह आई फूलमालाएं युवा कविता के कुछ रूपाकार (आलोचना) प्रकाश्य.संपादन: द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी रचनावली, अधुनांतिक बॉंग्ला कविता, विश्वनाथप्रसाद तिवारीः साहित्य का स्वाधीन विवेक, अज्ञेय आलोचना संचयन, जियो उस प्यार में जो मैंने तुम्हें दिया है और अज्ञेय की प्रेम कविताएं व आश्चर्य की तरह खुला है संसार.भाषा विषयक पुस्तकें : बैंकिंग वाड़्मय (पॉंच खंडों में): बैंकिंग शब्दावली, बैंकिंग हिंदी पत्राचारः स्वरूप एवं संप्रेषण, बैंकों में हिंदी प्रशिक्षणःप्रबंध एवं पाठ्यक्रम, बैंकिंग अनुवादः प्रविधि और प्रक्रिया, बैंकिंग टिप्पण एवं आलेखन, व्यावसायिक हिंदी एवं तत्सम शब्दकोश (संपादकीय सहयोग)नवगीत अर्धशती एवं श्रेष्ठ हिंदी गीत संचयन सहित अनेक गद्य-पद्य संचयनों में रचनाएं सम्मिलित. हिंदी अकादमी, दिल्ली से पुरस्कृत.सम्प्रति : इलाहाबाद बैंक, वाराणसी मंडल में वरिष्ठ प्रबंधक (राजभाषा)ओम निश्चल, जी-1/506ए, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059मेल: omnishchal@gmail.comफोन: 09696718182