१. इस किताब में मेरी कुल १४९ कविताएँ हैं. मैं चाहता हूँ कि लोग मुझे इन्हीं कविताओं से जानें – पहचानें. यही मेरी ‘सम्पूर्ण कविताएँ’ हैं हालांकि इनके श्रेष्ठ होने के बारे में मेरा कोई दावा नहीं है.
२. ऐसा नहीं है कि मेरी काव्य-रचना इतनी भर रही है. हर कवि की तरह मेरे पास भी अभ्यास- कविताओं का एक ज़खीरा था जिसे मैंने दिल कड़ा कर नष्ट कर दिया है. ऐसी कविताओं की संख्या लगभग ३०० रही होगी – १९५६ से अब तक की अवधि में. इसके लिए मुझे अपने घनिष्ठ मित्रों तक की मलामत सहनी पड़ी है. उनका कहना है कि इन कविताओं पर फिर से काम किया जा सकता था. पर मुझे इसका रत्ती भर संताप नहीं है.
३. मुझे अक्सर ‘अकविता’ के खाँचें में रख दिया जाता है लेकिन मेरी गति और नियति वही नहीं है. मैंने कविता को अपने ढंग से बरता है – इसमें अतियथार्थवादी बिम्बों, फैंटेसी और इरॉटिक सन्दर्भों का भरपूर प्रयोग हुआ है. अपनी दुनिया को समझने का यह मेरा तरीका है. जो बाहर है, वही भीतर है. मेरे लिए यथार्थ के दो अलग स्तर नहीं हैं.
४. मैं उस दौर का हिस्सा रहा हूँ. जिसने अपने से पहले की पीढ़ी को धकेल कर अपने लिए जगह बनाई थी. इस नई पीढ़ी ने कविता को एक नया ‘डिक्सन’ दिया था और मध्यवर्गीय सामाजिकता तथा भ्रष्ट शासन –तन्त्र पर खुल कर चोट की थी – अश्लील कहलाए जाने का जोखिम उठा कर.
५. १९६० के दशक में हुए लेखन को जोरदार आलोचक नहीं मिले अन्यथा इस पीढ़ी को ‘अराजक’ कहे जाने की शर्म नहीं उठानी पड़ती.
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(रेखांकन : जय झरोटिया) |
पहला प्यार
गृहस्तिन
दोपहर में विश्राम
स्मृति भ्रम
बारहमासा -१
बारहमासा – २
साक्ष्य
पश्चात् – संवेदन
पूर्णिमा
मई – जून
वय : संधि
ब्लैक आउट
निंदा