कविता शब्दों के बोझ से भारी नहीं होनी चाहिए, यह एक तरह से कवि-कर्म की प्राथमिक सीख है. देवयानी चाहती हैं कि उनके शब्द तितली की तरह कथ्य पर बैठें. देवयानी की कविताएँ ख़ासकर जब वे अंदर की तरफ़ मुड़ती हैं, इसे देखा जा सकता है, सघन अनुभव ने इन्हें और परिपक्व किया है. दुःख ने इन्हें मांजा है.
देवयानी भारद्वाज की आठ नई कविताएँ प्रस्तुत हैं.
देवयानी भारद्वाज की कविताएँ
१.
मेरी कविता
मैं नहीं चाहती
शब्दों का बोझ उठाते
हाँफने लगे मेरी कविता
मैं तो चाहती हूँ
तितली की तरह बैठे
वह किसी फूल पर
गोरैया सी आँगन में चहके
कबूतर की तरह जुटाए तिनके
और जुटी रहे बनाने में घोंसला
एक असंभव सी जगह में
इतने सरल हों
मेरे वाक्यों के विन्यास
जैसे सदाबहार के फूल
उग आएं किसी भी ज़मीन पर
सफ़ेद-गुलाबी रंगों में
न मांगें अतिरिक्त खाद-पानी
और सांज-संवार
रहे बस
चूल्हे में आग की तरह
पेट में
भूख की तरह
अखबार में समाचार की तरह
खेत में फसल की तरह
आँख में पानी की तरह
मनुष्य में प्यार की तरह
निरंकुश होते समय में
आक्रोश की तरह
जनता की आवाज़ में
इंकलाब की तरह.
२.
ख्वाब में देखा जाएगा
मैं स्मृतियों में
अल्बम पलटती हूं
आज किससे बात की जाए
कौन है
जो इस वक्त सुनेगा
क्या वह बूढ़ा प्रेमी
जो अक्सर खुद से ही
रहा खफा
या वह जो
विह्वल रहा इस कदर
कि थाह न पा सका
मेरे मन की
वह जो अभी गया है
लौट कर
या जिसने समझाया
शादी, प्रेम और सेक्स
एक ही जगह हों ज़रूरी नहीं
मैं सिर्फ कांधे पर
सर रख कर सोना चाहती थी
मेरी नींद के लिए
किसी के पास जगह न थी
जागती हुई कामनाएं
तुम्हें प्रिय रहीं
मैं लौट आई घर
तकिए पर सर रख
मैंने पुकारा \’तुम\’
पलटने लगी अल्बम
ख्वाब में देखा जाएगा
आज किससे मुलाकात हो.
३.
पूरी नहीं हुई
कहीं भी
लिख कर
मिटाई नहीं जा सकती
कोई इबारत
न लिखा बाकी रहता है
न मिटता है
लिखे के निशान रह जाते हैं
तुम्हारे चले जाने से
मिट नहीं जाती वो इबारत
जो लिख दी थी तुमने
देह पर
निशान जिसके हृदय पर
रह गए हैं
मैं तुम्हारा नाम
लिखती हूँ कागज़ पर
मिटा देती हूँ
घर में बिखरे पड़े हैं कागज़
बच्चे पूछते हैं
क्या लिख रही थीं मम्मा
मैं बताती हूँ
कविता थी
पूरी नहीं हुई.
४.
उदासी
जैसे सोख्ता पर
गिर रही हों स्याही की बूंदें
टप-टप-टप
और जज्ब होती जाती हों
कागज़ पर
उदासी घिरती जाती है
समय बीत कर भी
बीतता नहीं
रोज सुबह होती है
शाम होती है
सारे काम होते हैं
घर के
दफ्तर के
बाजार के
तरह-तरह के भोजन
सबसे बातें
हंसी-मजाक
प्यार-दुलार
फोन पर
आमने-सामने
इनबॉक्स में
मन के किसी कोने में
काली चादर
फैलती जाती है
कोने डूबे हैं जिसके
स्याह काले में
और कोई रंग नहीं चढ़ता
हवा का कोई झोंका
इसे उड़ा नहीं ले जाता
दुआ करती हूं
कुछ समय और
अभी
डूबा नहीं जा सकता पूरा
अभी
बाकी पड़े हैं
कई जरूरी काम
मैं रोज समेटती हूं इसे
जैसे कि
अभी
जब भी पाती हूं थोड़ा एकांत
स्याह चादर
फैली मिलती है
फिर वहीं.
५.
बांध, नदी और समंदर
बांध रोक लेता है नदी को
रुक भी जाती है कुछ देर नदी
मिलने वह फिर भी
समंदर से जाती है
बांध न समंदर हो सकता
न समंदर बन सकता है बांध ही
यह मनुष्य ही है
जो कहीं बांध
और कहीं समंदर हुआ जाता है
किसी को तोड़
गुजर जाती है नदी
किसी से
मिलने चली आती है
बांध के द्वार
कभी खुलते हैं
कभी बंद रहते हैं
नदी चादर सी बह जाती है
समंदर वहीं खड़ा रहता है
इंतजार में उछाल मारता
हरहराता.
६.
विनोद पदरज जी की कविता को पढ़ कर
जिसने प्रेम किया वह स्त्री
एक तनी हुई रस्सी पर चली
वहीं नहाती धोती रही
बच्चे पालती रही
घर संभालती रही
पति को प्यार करती रही
और तनी हुई रस्सी पर ही चलते चलते सोती रही
एक दिन वह
अपने बच्चों के हाथ पकड़
धीरे से रस्सी से
नीचे उतर आई
उसने पति के घर का दरवाजा बंद किया
अनजान राहों पर निकल गई
सास ससुर छिटक गए
पति नींद में सोया
रस्सी पर चलने के लिए
अन्य स्त्री का सपना देखता रहा
देखा उसने सपने में
स्त्रियों ने
तनी हुई रस्सियों से
बगावत कर दी है
गैस पर दूध उफन रहा है
अलमारी में कपड़े बिखरे पड़े हैं
उसे नहीं मिल रही
नहा कर पहनने के लिए
धुली हुई जांघिया
दफ्तर में फाइलों का ढेर है
सारे मर्दों के कानों के पीछे
मैल जमा है
वह पसीना-पसीना हो गया
तभी पत्नी की आवाज सुनाई दी
उठो दफ्तर के लिए देर हो जायेगी
चाय ठंडी हो रही है
पति उसे देखकर मुस्कुराता है.
७.
जब कोई औरत
1.
जब कोई औरत
तुमसे कुछ न चाहे
दैहिक संसर्ग के सिवा
समझ लेना
उसने छोड़ दिया है
तुम्हारी प्रजाति से
मनुष्य होने की
उम्मीद करना.
2.
जब कोई औरत कहे
मुझसे दिन के उजाले में नहीं
अंधेरी रात में मिल
रुक मेरे साथ सुबह तक
बस एक रात के लिए ही सही
वह देह नहीं मांगती तुमसे
अपना सुकून खोजती है
तुम्हारा साथ उसे
महफूज लगता होगा
तुम्हारे अंधेरे
तुम्हें सुबह तक ठहरने नहीं देते
वह अपनी जलती हुई लौ लिए
लौट जाती है
जलाए रखती है
उस मुहब्बत को
जो उसने तुम्हारे होने में
महसूस की
यह सोचते हुए
शायद वह आंच
तुम्हें छू न सकी थी.
3.
जब कोई औरत
संशय और भरोसे के बीच झूलती है
ठुकरा देती है
प्रथम चुंबन का प्रस्ताव
और खुद ही हो जाती है रुआंसी
पिघलने देती है तुम्हारे हाथ में
अपना हाथ और अपना आप
कभी झेंप कर संभालती है आंचल
कभी उलझ जाती है बेशर्मी से
तुम्हारी आंखों से
एक पल में बढाने लगती है
प्रेम की पींगे
दूजे पल में फिर
संशय की सूली पर टंग जाती है
गुलाब की टहनियों ने
लहुलुहान किया है उसके हाथों को
कमल की तरफ बढ़ाया हाथ
और कीचड़ में सन गए पांव
चमेली की बेल में
बैठा मिल गया था उसको सांप
उसने खिलते हुए नहीं
अक्सर झरते हुए ही देखा हरसिंगार
वह अपनी शंकाओं की गठरी
तुम्हारे सामने खोलना चाहती है
उसे मालूम है
तुम्हें पसंद नहीं है
आधा-अधूरा प्यार
उसका पूरा मन
उससे कहीं गिर गया था
मिलता नहीं है.
8.
मेरे दिल में एक छेद है
ऐसा मुझे डॉक्टर ने नहीं बताया
ऐसे बहुत दिन आते है
जब यह एक गहरे गड्ढे में बदल जाता है
कई बार जैसे गड्ढे में
दबा दिया हो भारी पत्थर
मैं इस पत्थर के नीचे
ज़मीन कुरेदती हूँ
मेरी आँखों के आगे
इस दुनिया के नक्श उभरते जाते हैं
इस दुनिया में फरेब
कम भी हो सकता था
झूठ यदि वोट के लिए न बोले जाते
तो प्रेम भी बचा रह सकता था झूठ से
फरेब यदि शासन का चरित्र न होता
रिश्तों में भी कम जगह रहती फरेब की
वोट यदि जाति के नाम पर न पड़ता
तो मोहल्लों में रहने वाले
मिलजुल कर मनाते त्योहार
संसद में अगर ज़्यादा होती औरतें
तो मेरे पक्ष में मजबूती से खड़े होते कानून
हाथ झटक कर नहीं
जेब झाड़ कर जाना पड़ता तुम्हें
मेरा जीवन दुष्कर नहीं होता
तुम्हारे दूर होने से
दूरी का दुख
दूरी का दुख होता
काम के बोझ से
दब जाने का दुख न होता
मुझे अपने दुखों को जीने की फुर्सत होती
तुम्हें कमाने पड़ते अपने सुख
मेरे दिल के गड्ढे में रखा पत्थर
नारंगी की ढेरी में बदल सकता था
मैं उसके रस के भार में दबे रह सकती थी.
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