फराज बेरकदर
अनुवाद : यादवेन्द्र
मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकता कि पिता के रूप में मैं सफल रहा या नहीं- दरअसल परिस्थितियाँ ही कुछ ऐसी रहीं कि इस विषय पर विस्तार से सोचना विचारना हो नहीं पाया. जब बेटी का जन्म हुआ मुझे अपने राजनैतिक कामों के चलते भूमिगत होना पड़ा, वह चार वर्ष की हुई तो मुझे गिरफ़्तार कर लिया गया. गिरफ़्तारी के शुरू के पाँच साल न तो मुझ तक कोई सूचना पहुँचने दी जाती न किसी से मिलने दिया जाता. इन सब पाबंदियों के बावजूद, मुझे लगता है मैं ऐसा बदनसीब पिता हूँ जिसकी आँखों में आँसू हमेशा हमेशा के लिए ठहर गए हैं.
जब मैं भूमिगत था कभी कभार बेटी को देख लेता था, उसका नाम लेकर बुलाता पर वह अलग-अलग मौकों पर मुझे अलग-अलग नाम से सम्बोधित करती- पहचान उजागर न होने देने की खातिर अपने काल्पनिक नामों के बारे में हमने ही उसे बताया था. मैंने उसे सिखा दिया था कि किसी बाहरी के सामने मुझे बाबा कह कर न पुकारा करे और वह बड़ी सावधानी के साथ इस हिदायत का पालन करती. जब उसे किसी ख़ास चीज की इच्छा होती तो मेरी सिखाई हुई बात की जान बूझ कर अनदेखी करती- बार-बार कहने पर भी जब उसकी माँ सोडा खरीद कर नहीं देती तो वह मेरी ओर देख कर टूटे हुए रिकॉर्ड की तरह तेज और हठीली आवाज में सबको सुना कर बार बार दुहराती : बाबा..बाबा..बाबा.. और वह तब तक यह प्यारी सी शरारत करती रहती जबतक उसके मन माफ़िक काम हो नहीं जाता, या उसका आश्वासन न मिल जाता.
जब उसकी माँ भी मेरी तरह गिरफ़्तार गयी तो उसके बाद सिर्फ़ दो बार बेटी को देखने का मौका मिल पाया. जब वह मेरे साथ होती तो मुझे उसकी सुरक्षा को लेकर सबसे ज्यादा चिंता रहती इसलिए कभी यहाँ तो कभी वहाँ छुपते छुपाते भागना पड़ता था. जब कभी हड़बड़ी में उसको अकेले छोड़ कर भागना पड़ा सबसे ज्यादा चिंता यह रहती कि उसको तो अपने पिता का असली नाम भी नहीं मालूम है, वह तो तमाम काल्पनिक नामों से मुझे जानती है. अपना नाम भी वह किसी तरह टूटी फूटी भाषा में बोल सकती थी. मेरे मन में हमेशा यह डर बना रहता कि लुकाछिपी के इस खेल में कहीं वह मुझसे हमेशा के लिए बिछुड़ न जाए.
उस समय बेटी के पास एक छोटा सा सूटकेस हुआ करता था, मुझे मालूम नहीं किसने दिया पर वह उस सूटकेस को खूब सहेज संभाल कर रखती. एक दिन मैंने उसकी नज़रें बचा कर उस सूटकेस में कागज का एक टुकड़ा रख दिया जिस पर बेटी का नाम और परिवार का पता साफ़ साफ़ लिख दिया था. फिर बाद में उसको बता भी दिया कि वह उस कागज को कभी भी न तो बाहर निकाल कर फेंके न फाड़ कर नष्ट करे.
एकदिन मुझे कुछ ऐसा काम पूरा करना था जिसमें बेटी को साथ रखना संभव नहीं था इसलिए उसे एक परिचित परिवार में छोड़ना पड़ा जहाँ से शाम होने पर उसको मेरे पास कोई पहुँचा देता. पर शाम को जब वह मेरे पास घर लौटी उसके पास न तो वह सूटकेस था और न ही मेरा लिखा हुआ कागज़.
अपनी माँ के बारे में वह मुझसे पूछती- कभी याचना के स्वर में तो कभी कभी तल्ख़ होकर भी, ऐसे मौकों पर मेरी आवाज भर्रा जाती और मेरा अपने आँसुओं पर से नियंत्रण छूट जाता. एक नहीं सी जान इस तरह मेरी लाचारियों और दुर्बलताओं को नंगा उधेड़ कर रख देती. जब मैं गिरफ़्तार कर लिया गया तो एकबारगी लगा चलो अच्छा हुआ, बेटी के तमाम सवालों से मैं मुक्त हो गया, पर जैसे ही जेल में यातना और पूछताछ का सिलसिला थमता माँ के बारे में बेटी के किये सवाल मुँह बाकर मेरे सामने आ खड़े होते और मैं लाचारी तथा असमंजस में कालकोठरी की दीवारों पर अपना सिर पटकने लगता.
इतना लाचार और शक्तिहीन होकर मैं कैसे जियूँगा, मन ही मन मैं बेटी से कहता. गनीमत है कि बेटी को गिरफ़्तार नहीं किया गया था- अचानक मेरे मन में बिजली की तरह यह ख्याल कौंधा कि जरूरत पड़ी तो उसे मैं उसकी माँ तक पहुँचाने की अर्जी दे सकता हूँ… या अपने पास रख सकता हूँ. क्या होता यदि बेटी को कोख में लिए हुए मेरी पत्नी गिरफ़्तार हो जाती, जाहिर है उसको माँ के पास ही जेल में रहने दिया जाता. कुछ लोगों को यह बात बेतुकी और सनक भरी लग सकती है- पर दीना का मामला सबके सामने है जिसका जन्म जेल के अंदर ही हुआ और अब वह वहीँ अपनी माँ के साथ रह रही है- जेल में उस बच्ची के रहने पर कहीं कोई विवाद नहीं है. आप कह सकते हैं कि दीना का मामला अपवाद है पर उस से पहले भी तो मारिया को जेल में उसकी माँ के साथ रहने दिया गया था. जब आँखों के सामने ऐसे उदाहरण हैं तो फिर मेरी बेटी के साथ अलग बर्ताव कैसे किया जाएगा. मुझे इसकी कतई परवाह नहीं कि मेरे बारे में आप क्या सोचते हैं, सुरक्षाबलों को यह समझाना जरुरी था कि वे उस बच्ची को गिरफ़्तार कर लें जो ढंग से बोल भी नहीं सकती.
किसी को राजनैतिक विचारों के लिए गिरफ़्तार करना जायज नहीं है, यह अन्यायपूर्ण और अमानवीय है. पर बच्ची के मामले में गिरफ़्तारी को जायज ठहराया जा सकता है, आवश्यक और सामान्य कहा जा सकता है. इसी आधार पर मैं देश की सर्वोच्च कानूनी संस्था से अपील करूँगा और अनुरोध न स्वीकार करने की स्थिति में कटघरे में घसीट लाऊँगा कि उसने मेरी बेटी को गिरफ़्तार क्यों नहीं किया. मेरी यह बात कितनी भी निष्ठुर क्यों न लगे पर उन्हें इस मानवीय मुद्दे का हल निकालना ही पड़ेगा.
जेल में सालों साल की तोड़ने वाली बेचैनी ने जैसे मेरे पूरे अस्तित्व पर जड़ता की एक मोटी परत चढ़ा दी थी, बिन बताये एक दिन यह जड़ता अचानक टूट गयी जब कैमरे से खींची तस्वीरों का एक पैकेट जेल में आ पहुँचा. एक-एक कर सभी फ़ोटो साथी कैदियों ने पहचान लिए, सिर्फ़ एक फ़ोटो बची रह गयी. इस बची हुई फ़ोटो को एक-एक कर सभी कैदियों के सामने रखा गया कि शायद किसी से पहचानने में चूक हुई हो. मैंने तय कर लिया था कि मैं उनकी तरफ़ तभी निगाह डालूँगा जब सभी अन्य कैदी देख पहचान लेंगे. तभी एक साथी कैदी ने ज़िद की कि मैं बची हुई इकलौती तस्वीर एक बार देख तो लूँ, हो सकता है मेरा कोई जानने वाला हो.
जब मैंने पहली बार उस तस्वीर पर नज़र डाली तो पूरी तरह से अनिच्छा का भाव मन पर छाया हुआ था- तस्वीर एक छोटी बच्ची की थी जो पीले रंग का स्वेटर पहने हुए थी और ऊपर से गुलाबी रंग की हलके लगभग पारदर्शी कपडे की गोल घेर वाली ड्रेस. स्वेटर का कुछ हिस्सा कॉलर के पास से बाहर झाँक रहा था- उसे देख कर लगता था जैसे स्वेटर पुराना और बदरंग हो चुका था. पर कपड़ों से एकदम उलट उस लड़की का चेहरा किसी ताजे गुलाब सा खिला-खिला था. मुझे लगा निर्जीव कपड़ों में और सजीव चेहरे में कितना विरोधाभास था- दोनों एक दूसरे से उलट.
\”इस चेहरे को मैं नहीं पहचानता, और इस समय मेरे परिवार में है कौन जो मेरे लिए कोई सामान भेजेगा, और किसी तरह भेज भी दे तो उसका मुझ तक पहुँचना बिलकुल असंभव है.\”, फ़ोटो देख कर अनमने भाव से मैंने कहा.
यह बात सही है कि तस्वीर देख कर मुझे अपनी बेटी सोमर की याद आ गयी थी पर मन में उसकी छवि जो दर्ज थी वह आखिरी बार घर छोड़ते समय की थी, बड़े जतन से मैंने वह छवि अपने मन में बसा रखी थी, कोई और फोटो मुझे अजनबी लगती थी. अपने मन को समझाने के लिए मैंने यह सोचा कि सोमर तो अभी छोटी सी बच्ची है, इतनी बड़ी कहाँ हुई, पर साथी के आग्रह पर मैंने तस्वीर पर दुबारा नज़र दौड़ाई. जाने कैसे मुझे यह एहसास होने लगा कि हो न हो इस तस्वीर में जो लड़की है वह मेरी दुलारी बेटी सोमर ही है. फिर भी मैं पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो पा रहा था, मेरे मन में घबराहट, उदासी, दुःख और निराशा के भाव एकसाथ उमड़ने घुमड़ने लगे – हो सकता है यह मेरी बेटी सोमर ही हो.
मेरा मन हुआ उछल उछल कर सब को वह फोटो दिखाऊँ और बताऊँ कि देखो यह मेरी प्यारी बेटी सोमर है. अब बड़ी हो गयी है. पर उसी समय मेरे मन में दूसरा सवाल उभरा और हावी होने लगा- जब मैं अपनी बेटी के सामने आऊँगा, क्या वह मुझे पहचान लेगी ? कोई असमंजस तो उसके मन में नहीं आएगा? फिर मैंने अपने मन के दुचित्तीपन पर कस कर लगाम कसी, नहीं ऐसा कभी नहीं हो सकता, सामने आते ही उसका मन जोर जोर से कहेगा: सोमर, यह तुम्हारे सामने जो इंसान खड़ा है वह तुम्हारा बाबा ही है.
आखिरकार मुझे मिलने जुलने वालों को अपने पास बुलाने की इजाजत मिल गयी- मेरे साथियों ने इधर उधर से मेरे लिए कुछ ठीक ठाक कपड़ों का जुगाड़ कर दिया और बड़े उत्साह से मुलाकातियों से मिलने वाली जगह पहुँच गया. आये हुए लोगों को एक एक कर मैंने गौर से देखना शुरू किया हाँलाकि किसी ख़ास व्यक्ति पर मेरी नज़र नहीं थी- जैसे ही मेरी नज़र मेरी माँ के पीछे छुपने और मुझे देख लेने की असफल कोशिश करती हुई एक लड़की पड़ी समझ गया वह सोमर ही है. जब उसके सामने आया तो मैंने अपने आपको संयत और सहज रखने भरपूर कोशिश की.. बरसों पहले भी ऐसा करने का वाकया याद आ गया.
अगली मुलाक़ात में मैंने माँ से यह फिर पूछा कि सोमार सचमुच मुझे पहचान गयी थी …. या मेरा मन रखने को ऐसा कह रही थी? माँ ने कहा कि वह न सिर्फ़ मुझे पहचानती है बल्कि जब भी कोई मेरी बावत पूछता तो ख़ुशी से पागल हो जाती है. माँ के अनुसार मेरे बारे में वह बड़े गर्व से कहती : मेरे बाबा पूरी दुनिया निराले हैं …. मैंने उन्हें पहचानने में पल भर भी देर नहीं लगाया. वे जरा भी तो नहीं बदले, बल्कि पहले से ज्यादा खूबसूरत हो गए हैं.
अगले कुछ महीनों में बेटी का मुझसे मिलने जेल में आना मानों अंधेरे में उजाले कौंध जाना होता- मेरी लाचारियों के बीच शक्ति की तरह और गुलामी में आज़ादी की किरण की तरह वह मेरे पास आती. मेरी वह छोटी सी बच्ची- अपनी खामोशियों भी- मेरा जीवन उम्मीद से लबालब भर देती. दूसरी मुलाकात में उसने थोड़ी झिझक और संजीदगी के साथ मेरे कानों के पास आकर पूछा : बाबा, क्या आप सचमुच कवि हैं ?
पहले मैं उसकी बात समझ नहीं पाया पर जैसे ही पिछली मुलाकात वाली कविता का स्मरण हुआ, बोला : यदि तुम्हें वो कविता पसंद आयी और तुमने याद कर ली तो मुझे भी तो सुनाओ. उसने गहरी साँस भरी और कमरे में चारों तरफ़ सतर्क नज़रों से देखा और मुझे निगाहों-निगाहों में समझा दिया कि चोरी छुपे थमाई हुई कविता भला मैं सामने कैसे सुना सकती हूँ.
दमन और आतंक कितनी दूर तक जाता है उस छोटी सी बच्ची ने मुझे भली प्रकार समझा दिया …. कोई उससे अछूता नहीं था.
मुझे कभी नहीं समझ आया कि क्या फिर कभी उसकी सूरत मुझसे सचमुच इतनी दूर चली जायेगी ? लगने लगा है कि उसका गुम हो जाना मेरे जीवन का सबसे बड़ा सत्य बन गया है, उसके सिवा कुछ सूझता ही नहीं …..अन्य साथियों की तरह अपने मन को लाख समझाने पर भी मैं तसल्ली नहीं दे पा रहा हूँ. बार बार मुझे लगता है – भाषा निरर्थक है … और ख़ामोशी भी उतनी ही अर्थहीन है…. सत्य और भ्रम – और इन दो अतियों के बीच आवा जाही करने वाली तमाम चीजें और क्रियाएँ – यहाँ तक कि चारों तरफ़ दीवार से घिरी कालकोठरी भी सब कुछ पूरी तरह से बेमानी हैं.
1951 में सीरिया में जन्मे कवि, पत्रकार और पूर्व कम्युनिस्ट कार्यकर्ता फराज बेरकदर देश की एकाधिकारवादी सत्ता के प्रमुख विरोधियों में रहे हैं जिसके चलते लगभग पंद्रह वर्षों तक जेल में यातना झेलते रहे. उनका पूरा परिवार सीरिया के वामपंथी आंदोलन का हिस्सा रहा. युवावस्था से ही वे कवितायेँ लिखने लगे थे और एक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन करते थे. सीरिया के बुद्धिजीवियों की सज़ा माफ़ी के लिए चलाये गए विश्व्यापी आंदोलन के चलते उन्हें जेल से मुक्त किया गया पर उसके बाद वे अपने देश नहीं लौटे, स्वीडन जाकर बस गए.
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