मुश्किल काम, असग़र वजाहत
किताबघर प्रकाशन, अंसारी रोड, दरियागंज, नयी दिल्ली 110002
मूल्य 140 रुपये
___________
समीक्षा : आभा शर्मा
असग़र वज़ाहत का नाम हिन्दी के प्रमुख साहित्यकारों में गिना जाता हैं. वे एक लंबे समय से लेखन-कार्य कर रहे हैं. उन्होंने साहित्य की अनेक विधाओं में लिखा है. अब तक उनके पांच उपन्यास, छह नाटक, पांच कहानी-संग्रह, एक नुक्कड़ नाटक-संग्रह और एक आलोचनात्मक पुस्तक प्रकाशित हो चुकी हैं. वे पिछले तीस वर्षों से फिल्मों के लिए भी लिखते रहे हैं. उनके लेखन की विशेषता यह रही है कि उनका साहित्य आम जनजीवन के मुद्दों पर केन्द्रित रहा है. चाहे उनकी कहानियां हों, उपन्यास हों अथवा नुक्कड़ नाटक सभी जगह आम लोगों के जीवन की समस्याओं के प्रति उनकी प्रतिबद्धता प्रमुख रूप से उभर कर सामने आती है. वे बड़ी से बड़ी बात को इतनी आसानी से और सहजता से कह जाते हैं कि पाठक के मन पर उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता. उन्होंने लंबी-लंबी कहानियां बहुत नहीं लिखी हैं और न ही अपनी बात को बहुत घुमा फिराकर कहने की उनकी शैली रही है. वे तो अपनी विशिष्ट शैली में प्रभावकारी ढंग से बात कहने के आदी हैं. यही कारण है कि उनके कहानी-संग्रहों में भी अनेक छोटी कहानियां संकलित हैं. कम शब्दों में लेकिन असरदार तरीके से और विभिन्न प्रतीकों को माध्यम बनाकर बात कहने का एक सशक्त रूप लघुकथाएं रही हैं. परिणामस्वरूप आज भी पंचतंत्र की कहानियों की प्रसिदिध में कोई कमी नही आई है. बच्चे और बड़े सभी बड़ी रुचि के साथ उन कहानियों का रसास्वादन करते हैं. यह उन नीति कथाओं तथा विभिन्न कालों में लिखी गयीं ऐसी ही अनेक लघु क्थाओं की सफलता का बहुत बड़ा प्रमाण है.
असग़र वजाहत की आरंभिक छोटी-छोटी लेकिन आकर्षक कहानियां यद्यपि पंचतंत्र की कहानियों की शैली में लिखी गयी हैं जैसाकि वे मानते भी हैं, लेकिन उनकी लघुकथाएं किसी लघु कथा परंपरा की पूर्णतः नकल नहीं लगती हैं बल्कि वे लेखक की अपनी विशिष्ट शैली के कारण चर्चा का विषय रही हैं. वजाहत लगभग पैंतीस वर्षों से लघु कथाएं लिख रहे हैं और अब भी उनका लेखन-कार्य जारी है. सद्य प्रकाशित उनका कहानी-संग्रह ‘मुश्किल काम’ ऐसी ही लघुकथाओं का संकलन है जिसमें पुरानी और नयी अनेक कहानियां संकलित हैं. उनकी लघुकथाएं इन अर्थों में अन्य लघुकथाओं से भिन्न हैं कि वे किसी विशेष शैली के सामने समर्पण नहीं करती हैं. उनकी शैली अपनी है जो उन्होंने स्वयं विकसित की है. उन्होंने संकलन की भूमिका में लिखा भी है कि ‘नये-नये रास्ते बनाने का जो मजा़ है, वह बने बनाए रास्ते पर चलने में नहीं आता’. यही कारण है कि पंचतंत्र की शैली से लेकर अत्याधुनिक अमूर्तन शैलियों की परिघि को अपने अंदर समेटे हुए असग़र वजाहत की लघुकथाएं व्यापक अनुभव जगत से पाठक का साक्षात्कार कराती हैं. ‘मुश्किल काम’ संकलन की कथाएं अपने में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक आदि अनेक विषयों को समाहित किए हुए हैं. व्यक्ति, समाज, परिवेश और देश के प्रति लेखक की जागरूकता इन लघुकथाओं में सहज ही उजागर हो जाती है.
प्रस्तुत संग्रह में कुल 136 लघुकथाएं संकलित हैं. विषय की दृष्टि से इन कहानियों में पर्याप्त विविधता और व्यापकता है. इन लघुकथाओं का रचनाकाल सन् 1975 में देश में आपातकाल की घोषणा से लेकर आज तक फैला है. जैसा कि लेखक ने भूमिका में स्वयं लिखा है कि कुत्ते, शेर और डंडा आपातकाल के दौरान लिखी गयीं लघुकथाएं हैं. कुछ बुदापैश्त में लिखी गयी कहानियां हैं और कुछ गुजरात दंगों के बाद की कहानियां हैं. इनमें से अधिकांश कहानियां पहले प्रकाशित भी हो चुकी हैं. इनमें वीरता, पहचान, योद्धा और बंदर आदि कहानियां समाज और देश की अराजक स्थिति को दर्शाने वाली कहानियां हैं. इन कहानियों में अंतर्निहित व्यंग्य सहज ही पाठक का घ्यान आकर्षित कर लेता है. ‘हरिराम और गुरु-संवाद’ का एक उदाहरण इस दृष्टि से घ्यान देने योग्य है –
‘हरिराम: क्रांति क्या है गुरुदेव?
गुरु: क्रांति एक चिड़िया है हरिराम.
हरिराम: वह कहां रहती है गुरुदेव?
गुरु: चतुर लोगों की जुबान पर और सरल लोगों के दिलों में.
हरिराम: चतुर लोग उसका क्या करते हैं?
गुरु: चतुर लोग उसकी प्रशंसा करते हैं और उसके गीत गाते हैं और समय आने पर
हरिराम: और सरल लोग उसका क्या करते हैं?
गुरु: वह उनके हाथ कभी नहीं आती.
अधिकारी किस प्रकार अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के साथ पेश आते है और उनके साथ अमानवीय व्यवहार करने से भी परहेज नहींे करते यह असग़र वजाहत की हंगेरी प्रवास के दौरान लिखी गयी कहानियों से पता चलता है. एक आदमी अधिकारी बनते ही मानवीय मूल्यों से अपने आप को किस प्रकार काट लेता है और अंततः अपने स्वयं के घर में भी अजनबी और अप्रासंगिक बन जाता है. यह ‘आदमी से आईएफएस हो जाने के बाद श्री त्रि के जीवन की कुछ उल्लेखनीय घटनाएं’ के अंतर्गत लिखी गयी कहानियों से सहज ही स्पष्ट हो जाता है. क्रांतिवीर के संदर्भ से लिखी गयी लघुकथाओं में मिथ्या क्रांतिकारी सिद्धांतों पर व्यंग्य मिलता है और ऐसे क्रांतिकारियों की आलोचना की गयी है जो अपनी आडंबरपूर्ण शैली के कारण न अपना हित कर पा रहे हैं और न ही समाज का. उदाहरण के लिए प्रस्तुत पंक्तियों को देखा जा सकता है –
क्रांतिवीर ने एक रात स्वप्न में कार्ल मार्क्स को देखा, पर यह आश्चर्य की बात थी कि कार्ल माक्र्स ने शेव कर रखा था.
क्रांतिवीर ने कहा, ‘‘प्रभु, ये आपने क्या कर डाला?’’
कार्ल मार्क्स बोले, ‘‘ये मैंने नहीं, तुम लोगों ने किया है.’’
इसी प्रकार ‘लकड़ियां’ शीर्षक से लिखी गयी लघुकथाओं में समाज के ऐसे रूप को उजागर किया गया है जहां हमारे समाज में दहेज के लालच में अनेक नवविवाहित लड़कियों को अग्नि में झोंक दिया जाता है और समाज मानवीय मूल्यों से हीन होता जा रहा है. प्रशासन, पुलिस और मीडिया सभी संवेदनशीलता खो चुके हैं.
समाज के इस तेजी से गिरते जा रहे पक्ष पर असग़र वजाहत ने बारीकी से विचार किया है और सही जगह चोट की है.
‘श्यामा की जली लाश जब बाज़ार से गुजर रही थी तो लोग अफसोस कर रहे थे.
‘‘यार, बेचारी को जलाकर मार डाला.’’
‘‘क्या करें यार… ये तो रोज का खेल हो गया है.’’
‘‘पर यार इस तरह…नव्वे परसेंट जली है.’’
‘‘अरे यार इसके पापा को चाहिए था कि मारुति दे ही देता.’’
‘‘कहां से लाता… उसके पास तो स्कूटर भी नहीं है.’’
‘‘तो फिर लड़की पैदा ही क्यों की?’’
‘‘इससे अच्छा था, एक मारुति पैदा कर देता.’
गुजरात दंगों पर आधारित ‘
शाह आलम कैंप की रूहें’
नामक लघुकथाओं में लेखक ने सांप्रदायिक दंगों के दौरान हुई अमानवीयता और नष्ट हुए मानवीय मूल्यों की ओर संकेत किया है. इन लघुकथाओं में मनुष्य द्वारा मनुष्य पर किए गए अत्याचारों का उल्लेख है और उसके बाद पैदा हुई डर और आतंक की स्थिति का वर्णन है. ‘
मुख्यमंत्री और डेमोक्रेरिस्या’
शीर्षक लघुकथाओं में हमारे देश की तेजी से गिरती जा रही वर्तमान राजनीति स्थिति पर चोट की गयी है और राजनेताओं के छद्म आचरण पर व्यंग्य किया गया है. बाढ़पीड़ित क्षेत्र में गए नेताजी का आचरण एवं संवेदनहीनता सहज ही दृष्टव्य है-
‘‘मुख्यमंत्री जी, बाढ़पीड़ितों को विरोधी दल वाले आज दही-चिउड़ा खिला रहे हैं.’’
‘‘तो कल हम दूध-जलेबी खिलायेंगे.’’
‘‘परसों वे हलवा-पूरी खिलायेंगे.’’
‘‘तो हम रसगुल्ला-गुलाबजामुन खिलायेंगे.’’
‘‘तो विरोधी दल वाले छप्पन भोज खिलायेंगे.’’
‘‘तो हम एक सौ आठ भोज खिलायेंगे.’’
‘‘इससे तो बाढ़पीड़ित मर जायेंगे.’’
\’‘भइया, यही तो डेमोक्रेरिस्या है.’’
सारांश में कहा जा सकता है कि असग़र वजाहत का प्रस्तुत लघुकथा संकलन ‘मुश्किल काम’ हमारे समाज में व्याप्त विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक आडंबरों पर स्पष्ट व्यंग्य करता है. उनका बारीक विश्लेषण और समाज में तेजी से फैल रहे रोग की उनकी पहचान इन लघुकथाओं के महत्व को और भी बढ़ा देता है. इस संकलन की कहानियां अवश्य ही पाठक के मन को गहरे स्तर पर प्रभावित करेंगी और हमारे समाज की संवेदनहीन हो रही स्थिति पर सोचने के लिए पाठक को अवश्य बाध्य करेंगी.
________________
डा. आभा शर्मा, एसोशिएट प्रोफेसर,
हिन्दी विभाग,
महाराजा अग्रसेन कालिज, मयूर विहार, नयी दिल्ली