संजय जोठे
नाकोहस एक सामान्य उपन्यास नहीं है. अपनी बुनावट में ये जिन मुद्दों और सरोकारों को शामिल करता है वे समाज, शिक्षा, राजनीति, संस्कृति, प्रगतिशीलता और सामान्य बोध से गहराई से जुड़े हैं. बीते कुछ दशकों में खासकर वैश्वीकरण और उत्तर आधुनिकता की छांव में आधुनिकता को नकारते हुए अस्मिता की लड़ाइयों या राजनीतियों ने बहुत सारे रूप धरे हैं. विश्वस्तर पर अस्मिता की खोज और अस्मिताओं को उभारने – नकारने के जो आन्दोलन या प्रवृत्तियाँ जन्मी हैं, उनके घमासान में भावनाओं, आस्थाओं और निष्ठाओं का प्रश्न अब बहुत महत्वपूर्ण बनता जा रहा है, और बनाया भी जा रहा है. इसके जो नकारात्मक पक्ष हैं वे किन्हीं खेमों की षड्यंत्रकारी राजनीति के हाथ में पड़कर भयानक हथियारों में बदलते जा रहे हैं. “आहत भावना” ऐसा ही एक भयानक हथियार है जो बहुत बारीकी से हर “राष्ट्रभक्त” “धर्मप्राण” संस्कृति गर्वी” “भारतीय” या “देशप्रेमी” के मन में आसानी से निर्मित किया जा सकता है. इस हथियार की स्वीकृति, मारक क्षमता और पहुँच अद्भुत है, ये गजब का आविष्कार है जो मरणासन्न समाज खुद अपने ही खिलाफ इस्तेमाल करता है और उस समाज को आत्मघात हेतु उकसाने वाले धर्म, संस्कृति और समाज के ठेकेदार आदरणीय भी बने रहते हैं.
आहत भावनाओं और इन पर सवार एक नये किस्म के फासीवाद के इस पूरे मनोविज्ञान को उजागर करती यह रचना असल में बीत गये से ज्यादा चल रहे की बात करती है और शायद उससे भी ज्यादा उसकी बात करती है जो आने वाला है. आधुनिकता का नकार जिस तरह से दक्षिणपंथ और कारपोरेट के गठजोड़ को ताकत दे रहा है उसकी पृष्ठभूमि में भारत में धर्म, संस्कृति, वर्ण, परम्परा और सर्वाधिक महत्वपूर्ण – जाति और जेंडर के उभरते विमर्शों को अनेकों रंगों में रंगने का प्रयास हो रहा है. इतिहास, संस्कृति, भाषा, दर्शन, लोक-साहित्य, परंपरा, पुरातत्व और मानवशास्त्र की खोज ऐसा बहुत कुछ नया ला रही है जिससे भारत में ज्ञात और प्रयासपूर्वक निर्मित “मेटा नेरेटिव” को बहुत दिशाओं से चोट पहुँचने वाली है. ऐसे में स्वदेशी इंडोलोजी या पौराणिक मिथकों में आधुनिकता के सूत्र प्रक्षिप्त करके स्वयं आधुनिकता को ही नकारकर प्राचीन सतयुग में खींच ले जाने वाले प्रयास भी अब बढ़ते जाने वाले हैं.
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पुरुषोत्तम अग्रवाल : फोटो आभार Hans Katha Masik |
इस प्राचीन नेरेटिव में बहुत सारे निहित स्वार्थों की प्रेरणाएं हैं जो अतीत और भविष्य को अपने-अपने ढंग से रंगना चाहती हैं. ऐसे में वह खेमा जो पश्चिम से ही नहीं बल्कि भारत की देशज प्रगतिशीलता के आवश्यक तत्वों को भी भविष्य निर्माण के लिए सावधानी से चुन लेना चाहता है, उसकी लड़ाई उस विपक्षी खेमे से होनी तय है जो कि पूर्वाग्रहों और निहित स्वार्थों से प्रेरित उस प्राचीन मेटा नेरेटिव के स्वघोषित रक्षक बने हुए हैं, या रक्षक नजर आते हुए कुछ अन्य ही राजनीती खेलते आये हैं. ये मेटा नेरेटिव भारत के इतिहास को एक विश्वगुरु और धर्मप्राण भारतवर्ष की तरह देखना चाहता है जिसमे आई खराबियां और गुलामियाँ सब दूसरों की दी हुई हैं और जिसमे उभरी श्रेष्ठताएँ इतनी दिव्य हैं कि उनको समझना स्वयं भारतीयों के लिए कठिन है, ऐसे में स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है कि ये श्रेष्ठताएँ भारतीय समाज को सभ्य, लोकतान्त्रिक, वैज्ञानिक और प्रगतिशील क्यों नहीं बना सकीं? अब ऐसे प्रश्न उठते ही बहुतों की भावनाएं ‘आहत’ हो जाती हैं. फिर शुरू होता है आहत भावनाओं का तांडव और इसके समानांतर रचे गये षड्यंत्र जो अब हर खेमे की राजनीति का मुख्य स्वर बनते जा रहे हैं. ये आहत भावनाएं और इनके रक्षण के आग्रहों का दबाव और खेल ही इस “नेशनल कमीशन फॉर हर्ट सेंटिमेंट – नाकोहस” की प्रेरणा है.
यह उपन्यास जिस खतरे को उजागर करता है उसे एक अन्य दिशा में भी पलता हुआ देखा जाना चाहिए. हालाँकि उस दिशा में इशारा करना खतरनाक है लेकिन ये खतरा मोल लेना ही होगा. भारत में न सिर्फ सनातन संस्कृति के रक्षकों की भावनाओं से ही खिलवाड़ नहीं हो रहा है. इस उपन्यास में गिनाये गये बौनेसर (बौद्धिक नैतिक संस्कृति रक्षक), या चौड़ासिंग और सपाटचन्द सभी खेमों और अस्मिताओं की राजनीतियों में फ़ैल गये हैं. मुस्लिमों की अपनी आहत भावनाएं हैं, दलितों आदिवासियों के शोषकों ने अपनी तरफ से दलितों की आहत भावनाओं की इबारत बनाकर पेश करना शुरू कर दिया है अब दलित आन्दोलन या जेंडर विमर्श को भी आहत भावनाओं के खेल की मदद से बौद्धिक यात्रा से भटकाने का प्रयास चलने लगा है.
मुस्लिम आहत भावनाओं को षड्यंत्रपूर्वक इस्तेमाल करते हुए बीते साठ सत्तर सालों में उन्हें मदरसों, बुर्कों और तीन तलाकों में कैद करके रखा गया है. इसी तरह दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों के खेमों से आने वाली ‘आहत भावनाओं’ की जोर शोर से खोज हो रही है और अब वे अधिकाधिक महत्वपूर्ण होती जायेंगी और इन भावनाओं के आहत होने की घोषणा करने वाले आश्चर्यजनक रूप से वे लोग हैं जिन्हें इन भावनाओं को षड्यंत्र की तरह इस्तेमाल करके दलितों, मुसलमानों और आदिवासियों का शोषण करना है. ऐसे में इन खेमों में एक ईमानदार विमर्श की या बौद्धिक नवाचारों की संभावनाओं को आहत भावनाओं के हथियार से कुचला जायेगा. अंबेडकर के ब्राह्मणीकरण के प्रयास के समानांतर उन्हें एक हिन्दू समाज सुधारक बनाने का या एक देवता बनाने का जो प्रयास है उसमे इस खतरे को सूंघा जा सकता है. दलितों, पिछड़ों, मुसलमानों और स्त्रियों को उनकी “आहत भावनाओं” के प्रति सेलेक्टिव ढंग से कंडीशन किया जा सकता है और उनके आहत होने या न होने का निर्णय भी कहीं दूर बैठकर लिया जाएगा. इस तरह न केवल हिन्दू समाज के संस्कृति रक्षकों और धर्म भीरुओं की भावनाओं का शोषण बढ़ता जायेगा बल्कि इससे कहीं भयानक खेल जो अब शुरू हो रहा है वह है – पिछड़ों, बहुजनों की आहत भावनाओं से खिलवाड़ – जो खुद उन्ही के खिलाफ उन्ही से खिलवाया जाएगा. मेरे लिए इस उपन्यास से मिलने वाला सबसे बड़ा सन्देश यही है. इस खतरे के संकेत साफ़ देखे जा सकते हैं. बहुजनों, पिछड़ों दलितों के नायकों की प्रचलित छवियों में देवत्व आरोपित करके उस देवत्व की महिमा या अपमान की परिभाषा को नियंत्रित करके इन समुदायों को बौद्धिक रूप से सक्षम होने से रोका जाएगा – रोका जाने लगा है. इस खेल में ये समुदाय स्वयं भी कब शामिल हो जायेंगे यह भी कहना कठिन है.
इस उपन्यास के तीन मुख्य किरदार जिस प्रष्ठभूमि में इन प्रश्नों से जूझ रहे हैं वह प्रष्ठभूमि कॉमरेड चंद्रशेखर, रोहित वेमुला, कन्हैया या नजीब अहमद के बाद के उभरते प्रश्नों से निर्मित होती है. विश्वविद्यालय न सिर्फ भविष्य का बल्कि अतीत का भी आइना होता है जहां जीवित वर्तमान इन दोनों को तौलते हुए अपने लिए करणीय की तलाश करता है. इसी तलाश में इस उपन्यास के तीन मुख्य किरदार अपनी आधी उम्र इन प्रश्नों से जूझते हुए गुजार चुके हैं. ये तीनों किरदार जो तीन भिन्न धर्मों से आते हुए भी धर्म मात्र की राजनीति को नकारते आये हैं – उनकी व्यथा कथा हमारे पूरे समाज की पोस्टमार्टम रिपोर्ट नजर आती है.
उपन्यास की शुरुआत पौराणिक आख्यान ‘गजेन्द्र मोक्ष’ के रूपक से होती है और बुद्धि, बल के प्रतीक हाथी को शैतानी और धूर्त मगरमच्छों के जबड़े में फंसता हुआ दिखाया जाता है जो उपन्यास के अंत तक जारी रहता है. निश्चित ही रेंगने वाला मगरमच्छ हाथी के पाँव दबोचकर उस कीचड में ले जाना चाहता है जहां निशाचरों और मगरमच्छों का साम्राज्य है, वहीं इस बुद्धि और बल की ह्त्या की जा सकती है. ये बल या बुद्धि आधुनिकता और सूचना क्रांति से हासिल हुई है जिससे सजे गजेन्द्र को दिन दहाड़े उस कीचड में खींचा जा रहा है जहां से कमल पैदा होते हैं. इस हत्या के षड्यंत्र को देखते हुए भी नारायण या विष्णु का कहीं कोई अता-पता नहीं है. यह रूपक आज की पीढ़ी की समझ और रुझान के बाहर होते हुए भी महत्वपूर्ण है. दो “बौनेसर” मगरमच्छ – चौड़ा सिंह और सपाट चन्द – जो राजनीति और कारपोरेट के प्रतिनिधि हैं वे उस हाथी को डुबाये जा रहे हैं जो काल के तीनों खण्डों की श्रेष्ठताओं के सत्व को समेटकर जीनेवाले उन तीन भिन्न धर्मों से आने वाले मित्रों का सम्मिलित प्रतीक है. ये बौनेसर मगरमच्छ क्या कर रहे हैं? कमल के फूलों से पटे पड़े दलदल में बैठकर ये देशप्रेम, देशद्रोह, प्रगतिशीलता और संस्कार की परिभाषाएं तय कर रहे हैं और भावनाओं के आहत होने का फतवा जारी कर रहे हैं. भगत सिंह जैसे नास्तिक को पगड़ी पहनाकर एक धर्म विशेष से जोड़ना हो या गीता जयंती पर पोस्टरों में अंबेडकर की तस्वीर इस्तेमाल करना हो. या फिर मकबूल फ़िदा हुसैन की पेंटिंग्स में नग्नता खोजनी हो या अनंतमूर्ति के लेखन में ईशनिंदा या संस्कृति निंदा खोजनी हो – सबमे एक ही खेल चल रहा है. अनंतमूर्ति और हुसैन के साथ रचे खेल को तो हमने देखा लेकिन भगतसिंह और अंबेडकर का हिन्दूकरण या ब्राह्मणीकरण इससे भी आगे का खेल है और निस्संदेह वह भी इसी आहत भावना के रथ पर बैठे महारथी ही खेलेंगे.
उपन्यास के एक नायक सुकेत की प्रष्ठभूमि, उसका जीवन उसके रुझान और उसकी सीमाएं बहुत कुछ व्यक्त करती हैं. उसके साथ एक मध्यकालीन बर्बरता जिस तरह का व्यवहार करती है उसके समानांतर भी एक अन्य कथा चल रही है. विश्वविद्यालयों में प्रेम की उष्मा की चाह और देह की मांग के दबाव के साथ जीने का प्रयास करने वाली युवा बौद्धिकता कदम-कदम पर खुद अपनी ही प्रगतिशीलता की इबारतों में संशोधन करना चाहती है. नारीवाद, सेक्युलरिज्म, प्रगतिवाद, रिश्तों की पारदर्शिता और प्रेम की राजनीति में भी आहत भावनाएं समानांतर बह रही हैं. इस तरह यह उपन्यास समाज की राजनीति के साथ व्यक्तिगत रिश्तों की राजनीति की तरफ भी गहराई से संकेत करता चलता है और बहुत खूबसूरती से इन दो समानांतर धाराओं में एक दिशासाम्य खोजकर सिद्ध कर देता है – यह आवश्यक भी है क्योंकि जो समाज अपने सार्वजनिक जीवन में षड्यंत्र का शिकार है उसके एकांत जीवन में और बेडरूम तक में भी षड्यंत्र फ़ैल ही जाने वाला है. ये एक अन्य समानांतर सन्देश है जो बहुत मुखर होकर इस उपन्यास में मौजूद है और जिसे युवा पीढ़ी नजरअंदाज नहीं कर सकती.
उपन्यास के तीन अधेड़ नायकों का नाकोहस के ‘बौनेसर’ प्रतिनिधियों द्वारा उत्पीडन और उन्हें समझाने का जो उपक्रम है वह भी बहुत सूचक है. ये बौनेसर अन्तर्यामी प्रतीत होते हैं सुकेत की चिंताओं और इतिहास को पढ़ लेते हैं. यह बहुत गहरा संकेत है. सुकेत, रघु या शम्स जैसे प्रगतिशील भी जिस सामूहिक अतीत का हिस्सा हैं उसी से ये बौनेसर भी आते हैं, उस बर्बर मध्यकालीन सामूहिक अवचेतन में इन बौनेसरों के या सुकेतों के भय एक जैसे हैं, उनकी भावनाएं भी बहुत हद तक एक जैसी हैं और इस समानता के पुल पर चलते हुए न केवल सुकेत बौनेसर के भयों और भावनाओं में सेंध मार सकता है बल्कि इसी पुल से आते हुए ये बौनेसर भी सुकेतों के भयों को पढ़ लेते हैं. यही वो पुल है जो उपन्यासकार ने सार्वजनिक आहत भावनाओं और व्यक्तिगत आहत भावनाओं के बीच भी खूबसूरती से निर्मित किया है, जो सुकेत की प्रेमिकाओं – करुणा और रचना के छोटे से प्रकरण में नजर आता है, ‘मुनकिर’ शम्स से नफरत करने वाले ‘ईमानदार’ और ‘परहेजगार’ माता पिता की संतान ‘फलक’ के संबंधों की त्रासदी के एक अन्य उल्लेख में भी यह पुल नजर आता है जो विशेष रूप से युवा पीढ़ी के प्रेम और रूढीयों के बीच चलते आये संघर्ष के एक महत्वपूर्ण विषय की तरफ संकेत करता है.
इन प्रेम संबंधों की त्रासदियाँ हमारे युवा वर्ग की आंतरिक टूटन को सामने लाती है. यह टूटन बहुत अर्थों में टूट चुके समाज की अनिवार्य परछाई है जो व्यक्तिगत संबंधों के छोटे डबरों में झलक रही है. समाज का वह भवन जो इन डबरों को घेरकर खड़ा है वह धीरे-धीरे दरक रहा है, और उसकी दरकन का प्रतिबिंब जैसे इन युवाओं के रिश्तों में उजागर हो रहा है. आगे बढ़ते हुए उपन्यास में जब यह प्रश्न उठता है कि
‘क्या कभी ऐसी कोई व्यवस्था बन पाएगी जिसके निर्माण में किसी इंसानी पहचान से नफ़रत का गारा न इस्तेमाल किया गया हो ?’ तो यह “इंसानी पहचान” राजनीतिक, सामाजिक पहचानों से परे लैंगिक भाषाई पहचानों कि राजनीति को भी कटघरे में खड़ा करती है.
नायकों से चर्चा के दौरान गिरगिट जिन शब्दों को दोहराता है और नायक स्वयं सड़कों पर लगे होर्डिंग्स में जो इबारत पढ़ते हैं वह अपने आप में एक पूरी कहानी है. “कला वही जो दिल बहलाए” “साहित्य वही जो मौज कराये” “चिन्तन वही जो झट चेतन कर जाए” “लेखन वही जो झट पल्ले पड़ जाए” और अंत में “बुद्धि वही जो नाकोहस दिलवाए”. इन सबके बाद एक खतरनाक लेकिन केन्द्रीय चेतावनी की तरह गिरगिट का घिनौना वाक्य अत है “अपन आहत वाहत होते नहीं, प्यारे अपन तो करते हैं … भगवान फगवान से नहीं, हमें मतलब है पावर से, मैनेजमेंट से”. इस वाक्य तक आते आते उपन्यास अपने सन्देश को चरम तक उठा लेता है और सब कुछ कह डालता है. इसके बाद एक अन्य संवाद और में गिरगिट के मुख से जाहिर होता है कि “सेक्युलरिज्म आहत भावनाओं का एम्ब्युलेंस है” “और नाकोहस सेक्युलर डेमोक्रेटिक कन्सेंट्स का देहधारी रूप है… यह सब पर निगाह रखता है”.
इसी तरह कुछ अन्य नए मुहारों का सृजन भी यहाँ हुआ है सबसे महत्वपूर्ण – ‘सूफ़ीयापे की कढ़ी’, ‘जिससे भय हो उसपर करुणा नहीं होती’ इनके साथ ही ‘कुंठित पुन्सत्व’ और कमर से फिसलते पजामे में ‘नैतिक चिंता का नाड़ा’ जैसे चुभते कटाक्षों ने भाषाई सर्जनात्मकता को भी समृद्ध किया है. इन पंक्तियों में सूचना क्रान्ति के युग में “इंटेलेक्चुअल होना पाप है और टेक-नेक्चुअल सबका बाप है” जैसे ‘महावाक्य’ से उभरते खतरे को साकार होता देखते हैं. उपन्यासकार ने इस अंतिम ‘महावाक्य’ में जैसे हमारे सारे भयों को साकार कर दिया है. टेक-नेक्चुअल असल में सबका बाप बनता जा रहा है. विषयों और सन्दर्भों की जानकारी के बिना सूचना क्रान्ति के घोड़ों पर अफवाहों और प्रोपेगेंडा की सवारी बड़ी तेजी से चल रही है और आहत भावनाओं के इंधन से इनकी रफ़्तार और पहुँच में चार चाँद लग गये हैं. इस प्रकार “होमो-इन्फोमेटीकस” में बदलती जा रही यह पीढी भीतर आहत भावनाएं लिए और बाहर सूचना क्रान्ति के हथियार लिए न जाने किन किन रिमोट कंट्रोल्स के द्वारा एक सामूहिक आत्मघात की तरफ धकियाये जा रही है और गिरगिट, चौडासिंह और सपाट चन्द जैसे पुराने जानकार लेकिन अपने अतीत से शर्माते हुए बौनेसर, संस्कृति-सभ्यता और धर्म का झंडा लहराते हुए हमारे समय को दिशा दे रहे हैं.
चौड़ासिंह से चर्चा में सुकेत और रघु को पता चलता है कि वह काफी कुछ जानकार है सुकेत सोचता है कि \”ऐसा आदमी नाकोहस का बौनेसर कैसे बन गया\” ठीक यही प्रश्न तीनों नायकों की पेशी के समय उठता है जब नाकोहस प्रमुख गिरगिट महाशय अपने ज्ञान से कटाक्ष करते हैं, तब रघु अपने मित्र सुकेत के आश्चर्य पर विराम लगाते हुए हल्के अंदाज में एक भयानक संकेत करता है. रघु कहता है \”मेरा तो कयास है कि इस जॉब में आने से पहले अपने वाले वोकेशन में ही थे… यहां जमाने के पहले खुद इंटेलेक्चुअल ही रहे होंगे\” यह सुनकर गिरगिट भभक पड़ता है और कहता है कि उसे अपने अतीत के रेशे रेशे से नफरत है. ये गजब का बिंदु है इस उपन्यास में और मेरी नजर में यही इसका सबसे महत्वपूर्ण सन्देश है, हर इंटेलेक्चुअल एक बिंदु पर आकर पुराना पड़ जाता है और उसकी भी आहत होने योग्य भावनाओं की अपनी लिस्ट तैयार हो जाती है. इंटेलेक्चुअल न जाने कब कैसे टेक-नेक्चुअल में बदलते बदलते “होमो-इन्फोमेटिकस” बनने की रपटीली राह पर फिसलने लगता है.
यह पतन आज के दौर के लिए बहुत प्रासंगिक है, खासकर प्रगतिशीलता की तरल और चिकनी सी परिभाषा को थामें रहने में असफल कई लोग अचानक पुराणपंथी, दक्षिणपंथी, ब्राह्मणवादी, पोंगापंथी, नक्सली, दलितवादी, नारीवादी, कम्युनिस्ट आदि न जाने क्या क्या करार दे दिए जाते हैं, और इस तरह वृहत्तर समाज से और सार्थक संवाद की संभावनाओं से काट दिए जाते हैं. यह अस्मिताओं के संघर्ष की राजनीति का एक अन्य काला पहलू है जो बहुत अलग किस्म की असुरक्षाओं और भयों का निर्माण कर रहा है. यह बिंदु इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यह स्वयं इस उपन्यास से जुडी एक समस्या को भी व्यक्त करता है. वह समस्या है ‘गजेन्द्र मोक्ष’ के रूपक के चुनाव से जुडी है, पहली समस्या यह कि इस पौराणिक रूपक से आज की युवा पीढ़ी का कोई सम्बन्ध नहीं रहा गया है और इसी चुनाव से कई अन्य आहत भावनाएं भडक सकती हैं और वह काल्पनिक लेकिन ठोस और सर्वव्यापी अन्तर्यामी नाकोहस अचानक स्वयं उपन्यासकार के खिलाफ ही सक्रिय हो सकता है. हालाँकि यह भी माना जा सकता है कि इस रूपक का चुनाव हमारी प्रगतिशीलता और प्राचीन भारतीय रूपकों के सार्थक सत्व के बीच नजर आने वाले द्वंद्व को लेकर एक नई बहस को सुलगा सकता है.
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संजय जोठे |
इस उम्मीद के साथ अंत में कहा जा सकता है कि यह हमारी युवा पीढ़ी के लिए एक अवश्य पठनीय उपन्यास है. विश्वविद्यालय, शिक्षण, मोबाइल, कंप्यूटर, टीवी, विज्ञापन, प्रेम, रोमांस और इन सबकी राजनीति के साथ संस्कृति और प्रगतिशीलता की यह बहस सबके काम की है. खासकर युवाओं के लिए यह भविष्य को लेकर तैयार होने में मदद कर सकने वाली कालजयी रचना है.
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संजय जोठे
Lead India Fellow,
M.A Development Studies,
I.D.S., University of Sussex U.K.
PhD. Scholar TISS, Mumbai India.
sanjayjothe@gmail.com