(विकास कुमार झा , उषा उथुप और सतीश जायसवाल)
कैलकटा में मैकलुस्की गंज का एक दिन
सतीश जायसवाल
प्रभा खेतान फाउण्डेशन, कोलकता ने विकास कुमार झा के उपन्यास — मैकलुस्कीगंज — पर एक पैनल डिस्कशन का आयोजन किया. उस अवसर पर वहाँ मौजूद रहना मेरे लिए एक सार्थक अनुभव था.अपने अनुभव के अतिरिक्त भी मैंने वहाँ कुछ उल्लेखनीय पाया. वृहत्तर संवेदनाओं और सन्दर्भों में उल्लेखनीय.
अपने उपन्यास–मैकलुस्कीगंज– पर आयोजित इस \”पैनल डिस्कशन\” के अपने लेखकीय वक्तव्य में विकास ने कहा – “यह उपन्यास मैंने नहीं लिखा बल्कि मैकलुस्कीगंज ने मुझसे यह उपन्यास लिखवा लिया. इस उपन्यास लेखन के लिए मैक्लुस्कीगंज ने मुझे अपना लेखक चुना.\”
विकास के इस भावनात्मक वक्तव्य को मंजूर करने में मुझे थोड़ी दुविधा हुयी. उनकी इस भावनात्मकता में मुझे एक आत्मीय अधिकार भाव दिखा. दम्भ की हद तक पहुंचता अधिकार भाव. लेकिन इसे तो होना ही था. मनुष्य जाति की एक बस्ती ने अपने उपन्यास लेखन के लिए जिस एक व्यक्ति का चयन किया उसके पास इस दम्भ को तो होना ही था. मनुष्य जाति की किसी एक जीती, जागती लेकिन अपने समय के लिए अपने पीछे एक गहरा अवसाद छोड़ती बस्ती का अंततः एक उपन्यास में रूपांतरित हो जाना साहित्य लेखन की एक असाधारण घटना होगी. और उतनी ही त्रासद भी. विकास कुमार झा का उपन्यास इस त्रासद घटना का एक रचनात्मक दस्तावेज़ीकरण है. यह उपन्यास मैकलुस्की गंज का जीवित-जागृत दस्तावेज़ है. इसमें मैकलुस्की गंज स्पन्दित मिलता है.
(एक)
विकास कुमार झा का यह उपन्यास मूल हिन्दी में २०१० में ही प्रकाशित हो चुका था. उसका इंग्लिश संस्करण अभी-अभी आया है, जिस पर यह\” पैनल डिस्कशन\” आयोजित है.
अंग्रेजी के इस \”पैनल डिस्कशन\” के लिए हिन्दी में कोई पर्याय ढूंढने से अधिक सार्थक मुझे यह लगा कि मैं उसके यथासंभव नज़दीक तक पहुँच सकूं. हिन्दी में यह नज़दीकी मुझे \”रचना-भागीदारी\” में मिली.
प्रभा खेतान फाउण्डेशन द्वारा आयोजित यह पैनल डिस्कशन एक उपन्यास के साथ रचना-भागीदारी का ही अवसर था. इस आयोजन में मैकलुस्कीगंज की वह पीढ़ी मौजूद मिली जो अब वहाँ से कहीं और नहीं जाने वाली. और वह पीढ़ी भी मौजूद मिली जो अब वहाँ से बाहर रह रही है फिर भी वहाँ बनी हुयी है. अपनी जातीय स्मृतियों के साथ. इन दोनों पीढ़ियों के साथ उपन्यास लेखक की जान-पहिचान उनके नामों और उनके साथ आपसी बातचीत की हद तक निर्विरोध मिली. परस्पर संवादिता का वह एक बिलकुल अनौपचारिक और खुला अवसर था जिसमें उपन्यास के पात्र भी मौजूद हैं. अपने होने का पता दे रहे हैं. अपने लेखक के साथ बातचीत कर रहे हैं एक-दूसरे के हाल-चाल पूछ,बता रहे हैं. और हम, पढ़ने वाले लोग सुन रहे हैं, देख रहे हैं !
(दो )
दिसम्बर का महीना मेरे लिए भटकाने वाला होता है. कभी, बिलासपुर की रेलवे कॉलोनी अपने ऐंग्लो इंडियन समुदाय से कुछ ऐसे ही आबाद थी जैसे ऐंग्लो-इंडियन समुदाय का अपना यह गांव — मैकलुस्कीगंज. विकास ने मैकलुस्की गंज को उनका गांव ही कहा है. और अपने उपन्यास को इस गांव की महा-गाथा कहा है. गाथा कोई एक शब्द नहीं बल्कि एक परम्परा है. प्रेम गाथाओं की परम्परा को गाथा कहा गया. ये प्रेम गाथाएं शोकांतिकाएँ होती हैं. लेकिन उनका जीवन उनके बाद तक बना रहता है. हमारे समय में सुनने और सुनाने के लिए.
बिलासपुर की रेलवे कॉलोनी कभी अपने ऐंग्लो इण्डियन समुदाय से दर्शनीय थी. हमारे यहां दिसम्बर का महीना उनसे,उनके धर्म-पद गायन से और उनकी आराधनाओं से गूंजता था.क्रिसमस के बहुत पहले से उत्सव का मौसम बनने लगता था. लेकिन अब यहां विषाद व्यापता है. इस विषाद में एक पूरी की पूरी मनुष्य जाति के विस्थापन और उसकी संस्कृति के विलोपन की नियति-कथा का वाचन सुनाई पड़ता रहता है. किसी पतझड़ की टपकन की तरह. अब बिलासपुर की रेलवे कॉलोनी में ऐंग्लो-इन्डियन नहीं रहे.
शायद मैकलुस्की गंज में भी ऐसा ही कुछ होता होगा. शायद वहाँ यह विषाद इससे भी सघन होगा. लेकिन रचना- भागीदारी के उस सत्र में वहाँ उपस्थित एक सुन्दर सी ऐग्लो इण्डियन लड़की, प्रिसिला ओ\’कॉनर्स ने अपनी एक कविता पढ़कर सुनाई और विषाद के अर्थ को जीवनी शक्ति में बदल दिया. ऐंग्लो-इन्डियन समुदाय को हाई-ब्रिड समुदाय कहा जाता है. एक समूची मनुष्य जाति की यह पहिचान व्यथित करने वाली हैं. लेकिन प्रिंसिला अपनी इस जातीय पहिचान के विरुद्ध अपनी कविता के साथ वहाँ खड़ी हुयी. और उस युवा कवयित्री ने हाईब्रिड समुदाय की अपनी पहिचान को वैश्विक समुदाय की पहिचान में परिभाषित कर दिया. अपनी वर्णसंकरता को वैश्विकता में परिभाषित कर रही उस उस युवा कवयित्री को देखना और उसकी कविता को सुनना किसी एक असाधारण घटना का साक्षात्कार ही था.
यद्यपि, वहाँ तल्खी भी थी. आरंभिक वक्तव्य बिलकुल सीधे और साफ़ शब्दों में सामने आया कि ब्रिटेन ने ऐंग्लो इंडियन समुदाय के साथ धोखा किया. अपने पितृ-कुल की तलाश में भटक रहे एक मनुष्य समुदाय के भीतर इस तल्खी को तो पनपना ही होगा. यह पीड़ा उस किसी भी मनुष्य जातीय समुदाय की पीड़ा से कहीं बड़ी और गहरी है जो अपने देश की तलाश में बेज़मीन घूमते रहे हैं. लेकिन एक युवा कवयित्री ने इस तल्खी को जिस तरह एक क्षमाशील उदारता में बदल दिया वह विस्मित करने वाला था. अपने पितृ-कुल की तलाश में कभी ब्रिटेन, कभी ऑस्ट्रेलिया की तरफ भटक रहे एक समुदाय को विश्व समुदाय का बना दिया !
(चार)
ऐंग्लो-इन्डियन समुदाय के लोग पूरी दुनिया में जहां कहीं भी मिलेंगे, भारतीय मूल के ही होंगे.
और भारत में हमें उनका मूल, शायद इस कैलकटा में ही ढूंढना होगा. इसकी तार्किक सम्भाव्यताएं भारत में ब्रिटिश उपनिवेश के इतिहास के साथ सीधे तौर पर जुडी हुयी मिलेंगी. और इसका विषाद पक्ष भी कैलकटा में ही किसी शोक गीत की तरह ध्वनित होता हुआ मिलेगा. संगीत में अपने जीवन-सौंदर्य को जीने वाली इस मनुष्य जातीय समुदाय के लिए रचा गया अंग्रेज़ी का एक यह मुहावरा हिन्दी वालों के लिए भी जाना-सुना हुआ है — नेवर से डाय… लेकिन इस समुदाय की विलुप्तिकरण का अवसाद भी अपनी पूरी सघनता में यहीं, इस कैलकटा में ध्वनित होता हुआ मिलता है. तभी \’\’३६ चौरंगी लेन \” जैसी हिन्दी फिल्म यहां बनती हैं. अवसाद की व्याप्ति किसी भी भाषा में एक जैसी होती है. और एक जैसी सम्प्रेषित होती है. वह अंग्रेज़ी में हो, हिन्दी में हो या किसी और भाषा में हो.
ऐंग्लो-इन्डियन समुदाय पर आधारित वह हिन्दी फिल्म — ३६ चौरंगी लेन — अभी जिनकी स्मृतियों में बनी हुयी है, शायद वो लोग इस फिल्म में एक अलग तरह की जगह-ज़मीन की तलाश को देख सके होंगे. महानगर में प्रेम के लिए एक छोटी सी लेकिन किसी सुरक्षित जगह की तलाश.
\”मैक्लुस्कीगंज\” पर केन्द्रित रचना-भागीदारी के इस सत्र में \”३६ चौरंगी लेन\” के वह युवा नायक, धृत्तिमान चैटर्जी भी उपस्थित थे. मुझे,पता नहीं क्यों लग रहा था कि इस बारीक सी तलाश पर उनसे कुछ सुनने मिलेगा. फिर भी, वहाँ जेनिफर केंडल को याद किया गया. सच तो यह है कि \”३६ चौरंगी लेन\” जेनिफर पर ही केंद्रित होकर रह गयी थी. वहाँ शशि कपूर को भी याद किया गया, जो अभी-अभी ही अपनी दिवंगता पत्नी जेनिफर से मिलने के लिए चले गये. अब वह हमारे बीच नहीं, अपनी जेनिफर के पास होंगे.
दोपहर के भोजन में मुझे उषा उथुप की खूब खुली-खिली हंसी मिली थी, जो बिलकुल उनकी ही तरह थी. फिर भी उनको सुनने का मन तो बाकी ही रहा था. इस रचना-भागीदारी के सत्र में भी वह हैं. एक तरह से इस सत्र का एक प्रमुख आकर्षण बनकर यहां हैं. विकास को उनका स्नेह प्राप्त है इसलिए भी वह यहां हैं. पॉप गायिका ने यहां गाकर सुनाया. पॉप गायिका ने गाना शुरू किया तो फिर सब के सब उनके साथ सुर मिलाकर गाने लगे. कुछ ऐसे जैसे इसी का रास्ता देख रहे थे. जो अभी तक दर्शक थे या सुन रहे थे, अब सब के सब गा रहे थे. और एक सुखद आश्चर्य रच रहे थे. एक उपन्यास पर केन्द्रित रचना-भागीदारी के सत्र का किसी समूह-गान में बदल जाना ! संगीत की यह भागीदारी ! शायद, कोलकता में ही ऐसा हो सकता है. जहां उषा उथुप हों वहाँ ऐसा हो सकता है. क्योंकि उषा उथुप कैलकटा की हैं.
(पांच)
कितना अच्छा होता कि इस सुन्दर से अवसर पर घाटशिला के मेरे मित्र प्रोफ़ेसर रवि रंजन और अभी कोलकता में ही रह रहे राकेश श्रीमाल भी साथ होते. रवि रंजन को तो उनके कॉलेज से अवकाश नहीं मिला. इसलिए नहीं आ सके. लेकिन यहां, कोलकता में रहते हुए भी राकेश श्रीमाल का नहीं आ पाना, मुझे दुखा गया. राकेश एक अच्छे कवि-आलोचक से अधिक एक संवेदनशील व्यक्ति हैं. इसलिए उनके प्रति मैं उतना ही संवेदनशील हूँ. लेकिन पता नहीं क्यों मैं उनके मन तक नहीं पहुँच पाया. राहुल राजेश भी तब पहुंचे जब सत्र अपने समापन की तरफ था.
(छह)
हाँ, सत्र के बाद हम वहीं, हयात रीजेंसी के लाउंज में बैठकर देर तक बतियाते रहे. उषा उथुप, विकास कुमार झा, उनकी मौसी और उनकी बहिन, तनवीर हसन, राहुल राजेश और मैं. उषा उथुप किसी सांता क्लाज़ की तरह का कोई एक जादुई थैला सा लिए बैठी थीं. और उसमें से कुछ-कुछ निकाल कर कुछ-कुछ को कुछ-कुछ देती रहीं. सुपात्र पाते रहे. एक पॉप गायिका मोह-पाश रच रही थी. उनके जाने से वह मोह-पाश टूटा.
हम विकास के कमरे में आ गए. यहां कुछ देर की हमारी आपसदारियाँ थीं. इसके बाद फिर कब और कहाँ मिलना होगा ? क्या पता ! विकास के पास एक सधी हुयी और खुली हुई आवाज़ भी है. और उनका मन भी था गाने का,सुनाने का. हमने भी उनके साथ अपनी ऊबड़-खाबड़ आवाज़ों की संगत की. और दोस्तों की विदा का वह समय समूह-गान में बदल गया.
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सतीश जायसवाल
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