क्या आपने कभी सोचा है कि भाषा की भी अपनी लैंगिक राजनीति होती है. एक ही शब्द पुरुष और स्त्री के लिए अलग मायने रखते हैं. \’महा\’ अगर पुरुष के आगे लगे तो वह महापुरुष होकर आदरणीय हो जाता है जबकि स्त्री के आगे \’महा\’ लगा दें तो महास्त्री व्यंग्यात्मक अर्थ देने लगती है. इसका एक बड़ा कारण यह है कि हमारी भाषाएँ पुरुष-लिंग केंद्रित हैं.
युवा आलोचक अनुराधा का एक बड़ा ही विचारोत्तेजक और शोधपूर्ण आलेख समालोचन इस विषय पर दे रहा है. लेख बड़ी मेहनत से तैयार किया गया है, यह शुष्क और नीरस नहीं है. अनुराधा ने इसे समकालीन स्त्री विमर्श से जोड़कर धारदार बनाया है. विचारणीय और संग्रहण योग्य.
भाषाई व्याकरण की राजनीति, जनविसर्जन और स्त्रीलिंग
अनुराधा
भाषा में “लिंग विषयक चिन्तन” की परम्परा बहुत पुरानी है, भारतीय परिप्रेक्ष्य में पाणिनी से और ग्रीक में अरस्तू से ही चली आती है. इस चिन्तन में दो पक्ष उभर कर आते हैं- लिंग प्राकृतिक है अथवा सुविधानुसार है, सादृश्य पर आधारित है अथवा विसंगतियों पर आधारित है. तब से लेकर चली आती इस परम्परा में सत्रहवीं सदी में “बिना कारण के व आदतन” प्रयोग का पहलू जुड़ गया और अर्नाल्ड और लान्सलाट ने इसे इसी रूप में लिया. 18वीं व 19वीं सदी में भारोपीय भाषाओं में लिंग की उत्पत्ति के विषय पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा. हर्डर 1772, एडलंग 1783, हम्बोल्ट1827, और ग्रिम 1890 आदि ने “कल्पना” और “मानवीकरण” की प्रवृत्तियों को भाषा में लिंग की उत्पत्ति का कारण बताया. इनमें सबसे महत्वपूर्ण ‘ग्रिम के सिद्धान्त’ को माना गया जिसके अनुसार ‘प्राकृतिक लिंग मनुष्यों और उच्च जानवरों में स्त्रीलिंगः पुल्लिंग के भेद का परावर्तन है, जबकि व्याकरणिक लिंग में कल्पना से “किसी भी और सभी नामांकनों” तक प्राकृतिक लिंग का विस्तार कर लिया है.’[1]ब्रुगमैन ने इस विवाद में कहा कि “व्याकरणिक लिंग पहले से ही वहाँ था, यह केवल कल्पना की शक्ति का इस्तेमाल किया गया.” ब्रुगमैन का कहना है कि भारोपीय भाषाओं में आ, ई प्रत्यय मूलरूप में स्त्रीलिंग को व्यक्त नहीं करते. यह मूल रूपों mama (माता), gena(नानी) पर निर्भर करता है कि ‘आ’ प्रत्यय को स्त्रीलिंग के बनाने वाले के रूप में देखा जाय और कुछ चेतन संज्ञाओं के मामले में सादृश्यतावश ऐसा होता है. ब्रुगमैन के सिद्धान्त को रोथ ने ‘अविश्वसनीय का शिखर सम्मेलन करार दिया’. यह बहस चलते चलते जब संरचनावादी ब्लूमफील्ड तक आयी तो उसने कहा कि भाषा में लिंग का प्रयोग “यादृच्छिक” होता है. इसके बाद सही माइने में लिंग को लेकर जो बहस चली वह स्त्रीवाद के दायरे में चली. इस लेख का विषय इन बहसों से जुड़ा होकर भी इनसे अलग उन सन्दर्भों को उजागर करना है जिनसे रूबरू होकर ‘भाषा में लिंग’ के मसले पर सार्थक बहस हो सके.
भाषा विकास के इतिहास का एक जरूरी पहलू यह भी है कि उसकी “लैंगिक पहचान” के सन्दर्भों पर गम्भीर चिन्तन किया जाय. भाषा के परम्परागत व्याकरण के नियमों में ही लिंग आधारित विभेदीकरण के तमाम ऐसे सन्दर्भ मौजूद हैं जिनको “लैंगिक अस्मिता” और “स्त्री पक्षधरतावादी” विचार सरणियों के लिए स्वीकार करना आसान नहीं है. लाजमी है कि इन पर सवाल उठें. भाषा जब सामाजिक संरचना के विभिन्न पक्षों को व्यक्त करने के लिए इस्तेमाल होती है तो अपनी अभिव्यक्ति क्षमता के विकास के दौरान उसके अपने भीतर वे तत्व जगह बना लेते हैं जिनमें भाषा की विशिष्ट संरचना की जरूरत के बीज छिपे होते हैं, ये एक तरह का इतिहास बताने के सन्दर्भ भी होते हैं जिन्हें “सत्ताई विचार और जरूरत” ने हासिये पर धकेल दिया होता है या जिनकी पहचान को खुर्द-बुर्द कर दिया होता है. स्त्रीवादी भाषाविद मानते हैं कि भाषा के मौजूदा मतवाद विधिवतरूप से स्त्री के अनुभव और लैंगिक सांगठनिकता की उपेक्षा करते हैं.[2]भारतीय सन्दर्भ में हमारा एक अपना भाषाशास्त्र रहा है जिसकी इस परिप्रेक्ष्य में परीक्षा होनी चाहिए. लिंग को अनुशासित करने की परम्परा में ही लिंगानुशासन जैसी अवधारणा यहाँ पायी जाती है (लिंगानुशासन नाम से 25 से अधिक ग्रन्थ भाषा शास्त्र के लिखे गये हैं). भाषा संरचना और व्याकरण के नियमों के भीतर चाहे वह वर्णमाला हो, विलोम शब्द हों अथवा लिंग या वचन, समास हों अथवा प्रत्यय जगह जगह एक सुविचारित फलसफ़ा देखने को मिलता है जो उस भाषा की स्वीकार की स्थिति भर में “स्त्री के मनोबल” पर आघात करता है, उसके आत्मविश्वास को ध्वस्त करता है और उसकी दोयमता का फर्जी इतिहास उसकी आत्मा में बिठा देता है.
स्त्री की बात करने से पहले यह सवाल यह उठाया जा सकता है कि भाषा के व्याकरण में “लिंग विधान” की क्या आवश्यकता है?(जबकि आज भी ऐसे दुराग्रहों से मुक्त भाषायें हैं और बखूबी अपनी भूमिका निभा रही हैं, मुण्डारी में लिंग व्याकरणिक नहीं है जीवित चीजें पुल्लिंग है और अजीवित चीजें स्त्रीलिंग हैं.) इसका जबाव केवल “भाषायी जरूरत” के परिप्रेक्ष्य में नहीं दिया जा सकता, भाषा के स्वरूप की सामाजिक एतिहासिक “माँग का स्वरूप और परिपूर्ति प्रकरण” और सत्ता का प्रारूप इस सवाल का जबाव दे सकते हैं. यह माना जाना चाहिए कि लिंग विधान एक socio-political अवधारणा है. भाषाविदों के मतों में – जैसे डॉ.चाटुर्ज्या(1957) इसे प्राकृतिक से वैयाकरणिक की ओर विकसित मानते हैं तो बरो लिंग चयन में यादृच्छिकता और तर्कविहीनता की बात करते हैं और लिंग विधान को भारतीय भाषाओं में दूसरी भाषाओं की अपेक्षा बाद में विकसित हुआ बताते हैं तो एन्टविसल(1945) एटीशन की भूमिका स्त्रीलिंग के रूप परिवर्तन में दिखती है और ज्यूल ब्लाख का मानना है कि आधुनिक भारतीय भाषाओं में संस्कृत के लिंगों का अनुसरण नहीं किया गया है.
भारतीय भाषाओं के ज्ञात प्रारूपों में सबसे पहले वैदिक भाषा आती है और वैदिक समय के समाज में जब युद्धों का निर्णय समान बल के कारण नहीं हो पाता था तो वाक् युद्ध होते थे और भाषा में लिंग का अज्ञान (संस्कृत वैयाकरणिक प्रतिमानों के परिप्रेक्ष्य में) या अल्प ज्ञान पराजय का कारण होता था. देव और दानव युद्ध में देवताओं की विजय का कारण दानवों द्वारा प्रयुक्त अशुद्ध लिंग ही बताया जाता है.[3]क्या यह मिथकीय आख्यान भर हैॽ इससे एक तथ्य स्पष्ट रूप से सामने आता है कि उस समय में वैदिक से इतर भाषाओं की उपस्थिति है जिनका लिंग विधान वैदिक प्रकार से भिन्न है. क्योंकि निर्णय की कुंजी वैदिक भाषा का व्याकरणिक नियम ही हैं (निर्णायक की “रूपधारण” पद्धति का छल इसे स्वीकार्य परिभाषित करता है) इसलिए ‘अन्य’ प्रकार के लिंग प्रयोग अशुद्ध कहे जाते हैं. एक और सन्दर्भ यह कि विष्णु का बार-बार स्त्री का छद्म रूप धारण करने का भाषाई आख्यान किसलिए है? क्यों एक स्त्री(स्वरूप) ही मन्थन के उपरान्त प्राप्त विवादित रत्नों को बाँटने की अधिकारी समझी जाती है? क्या ऐसा नहीं लगता कि ‘स्त्री रूप धारण करने की तकनीक और कूटनीति’ की विष्णु की सिद्धहस्तता उसके चरित्र के वे महार्थ(अमहार्थ) हैं जिनको पाकर ही वह ऐसा इतिहास(आख्यनिक) रच पाया. ये सन्दर्भ एक तनाव को कहने की सामर्थ्य रखते हैं. यह सन्दर्भ बहुआयामी हैं. भाषा में लिंग प्रयोग के आधार पर युद्ध निर्णय, असुरों को परास्त करने के लिए देवों द्वारा स्त्री का छद्म रुप धारण कर छल करना, अधिकार के निर्णयों में देवों द्वारा स्त्री बनकर(स्वरूप धारणकर) अन्यों के सभी अधिकारों को ग्रस लेना – ये ऐसी कुछ गुँथी हुई कडियाँ है जिनके गम्भीर निहितार्थ हैं. तमाम आख्यानिक तथ्यों से एक बात तय है कि स्त्री उस समय तक “पंच” की भूमिका निभाने लायक सत्ता सम्पन्न है और असुर स्त्री पर विश्वास करते हैं, उनके साथ सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण रखते हैं और अभी तक स्त्री की सत्ता इतनी हीन नहीं हुई है कि उसे मूल्य दिये बिना सत्ता संतुलन के एकतरफा किये जाने का सम्भावन किया जा सके. इससे यह निष्कर्ष आसानी से निकाला जा सकता है कि असुरों की भाषा का लैंगिक विधान देवों की भाषा के लैंगिक विधान से अलग है जिसमें लिंग प्रयोग विभेदीकरण के संस्कृत व्याकरणिक नियमों का अनुपालन नहीं करता. दूसरी बात यह भी विचारणीय है कि किसी भाषा में किसी दूसरी भाषा की तुलना के आधार पर लिंग की अशुद्धता का मूल्य-निर्णय कहाँ तक उचित है. कहना ही होगा कि भाषा में लिंग के प्रयोग की राजनीति भाषाई निर्माण प्रक्रिया की देन है. भाषा के निर्मित करने वाले आयाम- सत्ता स्वरूप, जनविसर्जन, सामाजिक गतिविधियाँ, सामाजिक सांस्कृतिक प्रक्रियायें लिंग के प्रयोग को नियामित करते हैं और भाषाचार्यों की परिभाषायें इन्हें लागू करने के उपकरण बनते हैं.
भाषा पर विचार की चर्चा में सबसे महत्वपूर्ण चर्चा पाणिनी के अष्टाध्यायी की मानी जाती है (हालाँकि सूचीबद्ध करने के लिए और भी नाम हैं). यह ग्रन्थ भाषा की राजनीतिक विचारधारा निरपेक्ष व्याख्या रहित नहीं कहा जा सकता है. उसकी व्याख्या के विभाव भले ही वे बाहरी उदाहरण हैं जो प्रचलित हैं पर इस प्रचलन में भी एक ऐतिहासिक सामाजिक संरचना दिखाई पड़ ही जाती है जिसकी व्याख्या आवश्यक है. अष्टाध्यायी में जितनी चर्चा भाषा पर है उससे ‘कहीं अधिक तनाव स्त्री भाषा और विभाषा’ का है. अष्टाध्यायी में स्त्री भाषा पर वे स्पष्ट टिप्पणी करते चलते हैं. स्त्रियों की भाषा को विभाषा[4]और कई बार जानवरों की भाषा के समान[5]वे कहते हैं. वे विभाषा को तरह तरह से स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं. विभाषा विप्रलापे, विभाषा कर्मकात, विभाषा समीपे, विभाषा सेनासुराच्छायाशाला निशानाम्, विभाषा मनुष्ये, विभाषा रोगातपयो, ‘विभाषा बहोर्धाविप्रकृष्ट काले’. (सभी अष्ठाध्यायी से- और भी ऐसे बहुत से उदाहरण हैं.) विभाषा के प्रति जो रवैया यहाँ दिखता है वह एक अकेले व्याकरणाचार्य पाणिनी का नहीं है, एक भाषाई सत्ता का रवैया है. यह विभाषा को अपने “अन्य” के रूप में देखता है. यही वह कारण है जिसमें पाणिनी को भाषाई अनुशासन के लिए व्याकरण रचने की आवश्यकता पड़ती है. संस्कृत को शुद्ध बनाने और रखने के अभियान की आधारशिला यहीं रखी जाती है और उसे ‘देववाणी’ का दर्जा मिलता है. यहाँ भी एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठ ही जाता है कि जिन कारणों से पाणिनी को संस्कृत के लिए व्याकरण रचने की आवश्यकता हो रही थी क्या वे ही कारण इस बात के लिए उत्तरदायी नहीं हैं कि संस्कृत का लिंगविधान ऐसा रचा गयाॽ इस समय के बाद का रचा गया इतिहास और भाषा की लिंग संरचना के बहुत से आयाम एक दूसरे के साथ मेल खाते हैं.
एक बात यह देखने में आती है कि लिंग को प्राकृतिक और वैयाकरणिक दो विभेद में बाँटने के बाद भारतीय आचार्य परम्परा वैयाकरणिक लिंग पर किसी भी सामाजिक आरोप या प्रभाव का बल पूर्वक खण्डन करती है. वे कहते हैं कि जाति, व्यक्ति, लिंग, संख्या और कारक के आधार पर पाँच अर्थ प्रतिपादक के स्वरूप को निर्मित करते हैं और ये विशुद्ध वैयाकरणिक होते हैं.[6]यदि संस्कृत व्याकरण के निर्धारणकाल की सामाजिक संरचना और जरूरतों पर ध्यान दिया जाय तो क्या यही पाँच कारक सत्ता को पाने और बनाये रखने की जरूरी शर्तें नहीं हैं? हालांकि आचार्य जोर देकर यही कहते रहना पसन्द करते हैं कि स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और नपुंसक लिंग शब्द की तीन अवस्था भर हैं और भाषा की संरचना को समाज की संरचना के समानान्तर पढ़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिए.[7]
पातंजलि ने महाभाष्य में लिखा कि प्रयोगानुसारेण वैदित्यम् शेषं तु ज्ञैयम् शिष्ट प्रयोगात.[8]लिंग प्रयोग समाज में शिष्टता का पैमाना बन चुका था यह बात उक्त कथन से स्पष्ट हो रही है फिर भी आग्रह यही कि इसे लौकिक मत मानो, वैयाकरणिक मानो. लौकिकता के निषेध का यह आग्रह भाषा के परिप्रेक्ष्य में ही नहीं है इसके और भी तमाम सन्दर्भ है जहाँ भारतीय आचार्य परम्परा ज्ञान के भौतिक परिप्रेक्ष्य को रोकती है. मसलन भरत रस की शुद्ध भौतिक आधार पर व्याख्या करते करते एक झटके से यह कहने लगते हैं कि यह अव्याख्येय और ब्रह्मानन्द सहोदर है इसका लौकिक रस से कोई लेना देना नहीं है. भाषा, ज्ञान शास्त्र, साहित्यशास्त्र, दर्शन, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र किसी भी क्षेत्र पर यह बात लागू होती है कि उन्हें सुविचारित तरीके से भौतिकवादी आधारों से हटाकर आदर्श के ऐसे ढ़ाँचे पर जा टिकाया जो स्त्री के प्रति विषमता के मूल्य को प्रश्रय देते थे और गौरवान्वित करते थे.
लिंग पर बात करते समय यदि जनविसर्जन को छोड़ दिया जाय तो तमाम ऐसे सवाल अनसुलझे रह जाते हैं जो भाषा के लिंग पक्ष की सामाजिकता को धुँधला करते हैं. संस्कृत से इतर भाषा की परम्परा में लिंगों के नियमों में “भिन्नता“ या “अतन्त्रता” पाये जाने के दो कराण हो सकते हैं – या तो संस्कृत से पहले की इस इलाके की भाषाओं में लिंग की वही संरचना नहीं थी जो कि संस्कृत की थी, या तो संस्कृत के बाद के जनविसर्जनों में आने वाली भाषाओं में लिंग की भिन्न संरचना थी या तो ये दोनों ही स्थितियाँ अलग अलग समय पर या एक ही समय पर विद्यमान रही. इन स्थितियों का निर्धारण एक कठिन समस्या है, भाषाओं के अपने तथ्यों के अवशेष इन स्थितियों का खुलासा कर सकते हैं. इस प्रक्रिया का पहला चरण है भाषा के भीतर से उन विसंगतियों को सामने लाना जिन पर व्याकरणाचार्य निर्वाक् स्थितियों का कठिन निर्वाह करते रहे हैं.
संस्कृत के व्याकरण में लिंग निर्धारण के लिए जो आधार माने गये उनमें सबसे ऊपर रखा गया “अर्थ” को- लिंग अर्थ के अनुसार निर्धारित होते हैं. यदि ऐसा है तो समानार्थी या पर्यायवाची भी उसी लिंग के होने चाहिए थे क्योंकि वे अर्थ के आधार पर ही एक समान सम्बन्ध रचनाओं में रखे गये हैं, पर ऐसा है नहीं. कितने ही ऐसे समानार्थी पाये जाते हैं जो पुल्लिंग स्त्रीलिंग और नपुसंक लिंग एक साथ माने जाते हैं. इस सम्बन्ध में पहले तो पर्यायवाची की अवधारणा ही उसके एक भाषा की पैदाइश होने पर सवाल उठाती है, फिर लिंग भिन्नता का आयाम उन्हें जनविसर्जनों की देन होने का मजबूत आधार देता है. भार्या स्त्रीलिंग है, कलत्र पुल्लिंग है और दारा नपुंसक लिंग है तीनों पर्यायवाची हैं पर यह भी देखना होगा कि क्या ये एक ही भाषा के हैं. मसलन आपस में पर्याय सम्बन्ध रखने वाले चन्द्रमा, शशि, इन्दु, कलाधर, शशांक, द्विज आदि इस लिंग निर्धारण के अर्थ आधार को निरामूल साबित करते हैं.
यदि एक ही शब्द दो लिंगों में प्रयोग में लाया जाता है तो इसे जनविसर्जन की दृष्टि से देखना चाहिए. हिन्दी भाषा के बारे में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने दिखाया है कि “हिन्दी बहुत व्यापक भाषा है एवं उसके लेखक भिन्न भिन्न बोलियों के बोलने वाले हैं. एक प्रदेश में जो शब्द पुल्लिंग में बोला जाता है वही दूसरे प्रदेश में स्त्रीलिंग में.”[9]यह भौगोलिक भिन्नता का विकास जनविसर्जनों के व्यापक फलक पर ही देखा जा सकता है. लिंग के प्रयोग के मामले में अधिकांशतः यह देखा गया है कि क्षेत्र विशेष के पूरे जातिगत ढ़ाँचे में एक ही तरह से लिंग प्रयोग होते हैं, कहीं कहीं ही ऐसा है कि जातियों के आधार पर लिंग प्रयोग में फर्क पाया जाता है. इसका सीधी अर्थ यह है कि क्षेत्र विशेष के जातिगत ढ़ाँचे एक ही दौर के जनविसर्जनों से पैदा हुए हैं अथवा जातीय सम्मिलन इस तरह हुआ है कि लिंग भेद या स्त्री के प्रति सब का रवैया एक जैसा हो गया है.
बौद्धो में लिंग प्रयोग के वही रूप नहीं मिलते हैं जो कि संस्कृत में हैं. संज्ञा शब्दों में सादृश्य संज्ञा शब्दों का भिन्न लिंग में प्रयोग होता है. बौद्धों में लिंग विपर्यय यह बताता है कि वर्तमान दलितों का सम्बन्ध बौद्धों से नहीं है क्योंकि हिन्दी प्रदेश की दलित जन की भाषा में लिंग विपर्यय नहीं मिलता है. यह बात देखने में आती है कि बौद्धकालीन भाषा या संघों में प्रयोग होने वाली भाषा में लिंग सम्बन्धी नियम कड़े नहीं है.[10] यह इस सवाल के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय कि क्या यह संयोग भर था कि स्त्रियाँ संघों में प्रवेश पा सकी ? अथवा वे बुद्ध के समाज में अभी तक इतना हीनता की स्थिति में नहीं गिर पायी थी कि उन्हें उपेक्षित किया जा सके? इस स्थिति पर व्याकरण के आचार्यों को यह कहना पड़ा कि यहाँ “लिंगं अतन्त्रम्”[11]की स्थिति है. मेरा तर्क यह है कि इस आधार पर लिंग को तन्त्र बनाने की प्रक्रिया को स्पष्ट लिंग आधारित सामाजिक विभेदीकरण प्रक्रिया के पितृपक्षीय हथकंडे से जोड़कर देखा जाना चाहिए. प्राकृत भी पालि की तरह लिंग में संस्कृत के अनुकूल नहीं है इसी कारण जब हेमचन्द्र प्राकृत की संस्कृत के आधार पर व्याख्या करते हैं तो उन्हें प्राकृत में लिंग की अव्यवस्था (लिंगम् अतन्त्रम्) दिखाई पड़ती है.लिंग की पहचान के लिए एक महत्वपूर्ण तथ्य अन्त्यज वर्ण या व्यंजन या सुर को माना गया. पालि में अन्त्य वर्ण व्यंजन नहीं है और यह लिंग निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. पालि में संस्कृत के पुल्लिंग नपुंसक की तरह आते हैं और संस्कृत के नपुंसक पुल्लिंग की तरह आते हैं और पालि में ऐसे नपुंसक और स्त्रीलिंग मिलते हैं जिनमें अन्तमें आ होता है. प्राकृत में अनुनासिक को छोड़कर अन्त्य व्यंजन नहीं पाया जाता जबकि संस्कृत में क, म, ट, य,ण,प,भ,र,न अन्त्य शब्द पुल्लिंग हैं और उपान्त्य क, ष, ण, भ, म, र पुल्लिंग हैं. जाहिर सी बात है कि संस्कृत के नियमों के आधार पर प्राकृत में पुल्लिंगों का संख्या और रूप भिन्न होंगे. प्राकृतों की आरम्भिक स्वरान्तता उसे स्त्रीलिंग प्रधान बनायेगी अथवा पुल्लिंगता के बराबर करने के लिए अनुरूपता लाने के लिए भाषा के भीतर राजनीति करने के का अवसर मिलेगा. प्राकृतों के अनुगामिनियों पर भी जनानी भाषा होने के ठप्पे लगे हैं. अपभ्रंश में संज्ञा रूपों में ‘अ’, इ ,उ पर समाप्त होने वाले शब्दों का अधिकता है और संस्कृत के अनुसार ‘अ’, इ ,उ पर समाप्त होने वाली संज्ञाएं स्त्री लिंग होती हैं. अपभ्रंश और बाद में ब्रज भाषा को जनानी भाषा कहा गया. जिसे “उ” बहुलता कहा जाता है यह वही पहचान है जिसे स्त्रीलिंग को पहचाना जा सकता है. वीसलदेव रासो-
“अवहट्ट काल के बाद हिन्दी से नपुंसक लिंग एक दम से समाप्त हो गया. बहुत से नपुंसक लिंग शब्द या तो पुल्लिंग में प्रयुक्त होने लगे या स्त्रीलिंग में, अधिकांश पुल्लिंग में.”[12]
भक्तिकाल के कवियों में लिंग के मामले में लिंग की एक प्रकार की अनियमितता कई बार दिखती है जिसे व्याकरणिक लिंगदोष के रूप में देखा जाता रहा. जैसे कबीर ‘दिल’ का प्रयोग स्त्रीलिंग और पुल्लिंग दोनों में करते है, सूरदास ‘धीर’, कुंज, पुंज, हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ऐसे तमाम उदाहरण रामचरित मानस से भी दिये हैं जिनमें लिंग की अशुद्धता है. संस्कृत की त्रिलिंगता अवहट्ट, अपभ्रंश की द्विलिंगता के साथ मेल नहीं खाती थी. बोलचाल में हम संस्कृत के निकट होते हुए भी लिंग निर्णय में संस्कृत से बहुत दूर चले जाते है और संस्कृत में पुल्लिंगवत् प्रयुक्त होने वाले बहुत से शब्द हिन्दी में स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होते हैं जैसे आत्मा, अग्नि, देह, पवन, राशि, शपथ. सबसे विचित्र बात है कि आत्मा को स्त्री लिंग मानते हुए भी उसके यौगिक शब्द का प्रयोग पुल्लिंग में किया जाता है- धर्मात्मा, पुण्यात्मा, परमात्मा.[13] यहीं वह राजनीति देखी जा सकती है जो भाषा के प्रतिमान बनाती है.
“हम संस्कृत के निकट हैं” का अर्थ है कि हम भाषा की दूसरी तीसरी परम्परा से दूर हैं, प्राकृतों, अपभ्रंशों, बोलियों से हमारा रिश्ता तभी तक है जब तक कि हम संस्कृत की व्यवस्था के अनुरूप हैं. इसी राजनीति का हिस्सा है कि स्त्रीलिंग (आत्मा) जब भी पुल्लिंग (धर्म, पुण्य, पाप) के साथ जायेगी तो पितृपक्षीय व्यवस्थाओं के ठीक ठीक सादृश्य में विलीन होकर पुल्लिंग(धर्मात्मा, पुण्यात्मा, पापत्मा) का निर्माण ही करेगी. हिन्दी की समास रचना इस गठजोड़ का बेहतरीन उपकरण है.
ऐतिहासिक रूप में जो हिन्दी के रूप में भाषा स्वीकृत हुई उसमें नपुंसक लिंग नहीं था इस पर विचार करना जरूरी है. यहाँ दो बातों पर बात की जा सकती है 1. नपुसंक के बारे में कहा गया कि जिसमें स्त्री लिंग और पुल्लिंग दोनों के गुणों का साम्य हो वह क्लीव या नपुंसक है. यह क्लीव सामाजिक संरचना में संतुलन कारक इस माइने में है कि साम्यता में स्त्री जो कि दोयम बनाये जाने की प्रक्रिया से गुजर रही है, उसका पक्ष यह ले सकता है. इसका उन्मूलन भाषाई विकास में इस सन्दर्भ में भी पढ़ा जाना चाहिए. 2. नपुंसक(Neutral) को न+पुंसक के रूप में पढ़ा गया, न कि न+स्त्री के रूप में जो इस बात का आग्रह था कि इसको अन्ततः शामिल किसमें करना है. (भाषाशास्त्र में न+पुंसक को पुंसक बनाया जा सकता है, पर न+स्त्री को पुंसक नहीं बनाया जा सकता है. व्याकरणिक नियम के अनुसार क्रियार्थ -जैसे धातु शब्द नियमतः स्त्रीलिंग होते हैं और कृतर्थक जैसे पुल्लिंग[14]और यह भी कि वैदिक संस्कृत में पुल्लिंग स्त्रीलिंग की अपेक्षा बहुत कम हैं और नपुंसक सर्वाधिक विरल.[15]
वैदिक से लेकर संस्कृत व्याकरण के व्यवस्थित होने तक भाषा की संरचना में गम्भीर परिवर्तनों के कारण स्थिति बिल्कुल उलट हो गयी. न केवल पुल्लिंग की संख्या में बृद्धि हुई बल्कि नपुंसकों की संख्या में अच्छी बृद्धि हुई. भाषा के विकास के सन्दर्भ में यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि सबसे पहले क्रिया शब्द इसलिये निर्मित हुए क्योंकि क्रिया को अभिव्यक्त करने के लिए भाषा का अभाव था. यह अनुपस्थिति का सिद्धान्त संस्कृत के इस परिवर्तन के पीछे भी देखा जाना चाहिए. मेरा सवाल यह है कि नपुंसक को पुंस् के परिप्रेक्ष्य में ही क्यों पहचाना गया यह भी तो सम्भव था कि उस वर्ग की कोई स्वतन्त्र सत्ता और पहचान होती. पर ऐसा न होने देने की राजनीति को लिंग विभाजन के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए) सामाजिक व्यवहार में इसे हीन और उपहास्य बनाकर इस प्रक्रिया को और तेज किया गया. एक शब्द है मूरत या मूर्ति- यह नपुंसक के लिए प्रयोग में लाया जाता है साथ ही देवताओं के प्रतिकृत स्वरूप को भी. विष्णु एक ऐसे देवता हैं जो अपनी विजय के लिए बार बार मोहिनी (स्त्री) रूप धारण करते हैं. सम्भवतः मोहिनी मूरत से ही मूर्ति शब्द का प्रचलन धार्मिक प्रकोष्ठ में हुआ. पुरापाषाणकालीन प्रतिमाओं को मूर्ति कहना एक भाषाई भ्रम का सूचक है यह किसी ऐसे भाषाशास्त्रीय साक्ष्य पर आधारित नहीं है कि उन्हें मूर्ति कहा जा सके. (भास के समय तक प्रतिमा का चलन था- प्रतिमा नाटकम् उनकी सुप्रसिद्ध रचना का नाम है.) विष्णु, मुर्ति, स्त्री समुदाय, नपुंसक लिंग इनमें गहरा रिश्ता है और नपुसंक की संरचना संस्कृत भाषा के परिनिष्ठित व्याकरण तन्त्र की देन है. विष्णु जब मोहिनी है तो स्त्री है, मूरत है तो नपुंसक है और विष्णु है तो पुरुष.
हिन्दी के शब्द भण्डार के विकास में भी यह देखा जाना चाहिए कि ये शब्द अपने शब्द भण्डार के अभाव में कहाँ से आये हुए बताये गये है. देशज, तत्सम, तद्भव और विदेशी. इनमें सबसे अधिक संख्या तत्समों की है. इनके लिंगों पर विचार करने पर इनके उद्भव की ऐतिहासिक सामाजिक रूपरेखा अपने आप स्पष्ट हो जाती है. हिन्दी में जो तत्सम आये हैं वे संस्कृत के नियमें के अनुसार ही प्रत्यय ग्रहण करते हैं और लिंग धारण करते हैं. आ, ई, इनि, इका, आनी, इया, ना प्रत्यय से बड़े का बोध हो भी सकता है और नहीं भी यह पुल्लिंग में इस्तेमाल होता है लेकिन नी प्रत्यय आवश्यक रूप से छोटा ही करेगा और स्त्रीलिंग में प्रयोग होगा. आ प्रत्यय गुरुत्ववाचक भी है और लघुत्ववाचक भी पर स्त्रीलिंग बनाने के लिए अक्सर यह लघुत्ववाचक होगा. यह प्रत्यय प्रकरण इस बात को आधार मानकर चलता है कि पुल्लिंग से स्त्री लिंग बनते हैं और माने भी क्यों न जब यह व्याकरण के पुं.वादी ढ़ाँचे के तद्नुरूप है. लेकिन उन शब्दों पर ध्यान दें जो बिना प्रत्ययों के लिंग बोधन करते हैं- दल, झुण्ड, समूह पुल्लिंग है पर सेना, सभा, सरकार, भीड़ स्त्रीलिंग हैं. जिस तरह से इन्द्र के व्याकरण और पाणिनी के व्याकरण की टकराहट एक व्यर्थ की परिघटना नहीं हैं उसी तरह इन समूह वाचकों का लिंग मात्र व्याकरणिक परिघटना नहीं है. हिन्दी में तद्भवों का लिंग संस्कृत के समान नहीं है उसका कारण है कि तद्भव संस्कृत से भिन्न परम्परा के हैं. तद्भव भी भाषाई अधिग्रहण में उतने ही राजनीतिक निहितार्थों के साथ आये हैं.
एक दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष संलग्न या पड़ौसी भाषाओं के परिप्रेक्ष्य में भाषाई तथ्यों के समझने का है. संस्कृत में अग्नि पुल्लिंग है जो सिन्धी में आगि, पंजाबी लहंदा में अग्ग, हिन्दी में आग (ब्रजभाषा-आगि, भोजपुरी- आगि) में स्त्री लिंग है. कुक्षि संस्कृत में पुल्लिंग है जो कि कश्मीरी कोछ, पंजाबी कुक्ख, सिन्धी कुखि, हिन्दी में कोख (ब्रजभाषा-कोख, भोजपुरी- कोखि) में स्त्रीलिंग है. वायु संस्कृत में पुल्लिंग है सिन्धी वाउ हिन्दी बयार, हवा स्त्रीलिंग है. अक्षि संस्कृत में नपुसंक लिंग है जो सिन्धी में अक्खि, हिन्दी आँख (ब्रजभाषा- आँखि, भोजपुरी—आँखि) में स्त्रीलिंग है. यह लिंग की विभिन्नता एक प्रकार के मामकीकरण की विपरीत परिघटना है. जब इन भाषाओं में इतनी समानता हैं तो ये भिन्नतायें अपना खास मतलब रखती है- यह है जनविसर्जन का आयाम.
जनविसर्जन इतिहास के विभिन्न समयों में, विभिन्न कारणों से अलग अलग अगल तरह से घटित हुए है. भाषा के स्त्रीपक्ष के अवशेष तरह तरह से इनमें बचे हुए हैं अथवा भाषा को नियामित करने का असफलतायें इनमें हैं. किसी भाषा में लिंग के प्रयोग से सबसे बड़ा फर्क यह पड़ता है कि सन्दर्भित शब्द की ऐतिहासिक भूमिका समाज के बीच परिलक्षित होने लगती है. कुछ उदाहरण- गाय मारती है, इन्द्र मारती है, देवी मारती है, सेना मारती है, पिता मारती है. क्या इन उदाहरणों के लिंग प्रयोग को आदतन के या यादृच्छिक के तरह का कहकर निपटाया जा सकता है, वहीं आम खट्टा है, आम खट्टी है, मिर्च कड़ुवा है, मिर्च कड़ुवी है कहने से कोई बड़ा संकट नहीं आने वाला सिवाय अटपटा लगने के, लेकिन पिता मारती है कहने पर निश्चत रूप से पिता मारने लगेंगे, व्यवस्था का संकट खड़ा जो हो जायेगा.
हिन्दी में भाववाचक संज्ञायें स्त्रीलिंग हैं और अधिक भावुक होना स्त्रैण गुण माना जाता है. स्त्रीलिंग के अर्थवृत्त की स्मृति की कोडिंग इस तरह की है कि उसकी सार्थक सादृश्यता किसी न किसी रूप में दिख ही जाती है. “अवधी और आ भा आ में नपुंसक के लोप होने का कारण कदाचित यह है कि लोग जड़ पदार्थों में भी चेतनता का आरोप करने लगे थे. इसका दूसरा कारण अधःस्तर का प्रभाव भी हो सकता है. मिलेट के अनुसार आर्मेनियम में लिंग भेद लुप्त होना काकेसियन भाषा के अधःस्तर के कारण है. भारत में भी हम पाते हैं कि उन भाषाओं में, जो तिब्बती वर्मी भाषाओं के समीप हैं व्याकरण का लिंग भेद मिट गया है. पिशेल ने भी यह बात पायी है कि मागधी में नपुंसक का पुल्लिंग में परिवर्तन अधिक पाया जाता है अन्य प्राकृतों में कम.” [16]
भाषा में संज्ञा, सर्वनाम और विशेषण प्रतिपादकों को विशेष महत्वपूर्ण माना गया है और ये तीनों ही लिंग का दृष्टि से विशेष महत्व रखते हैं. प्रो.शेरिल क्लीमेन का कहना है कि पुरुष आधारित विशिष्टतायें सूचक हैं और महत्वपूर्ण हैं इस सन्दर्भ में कि ये मूर्त और अमूर्त पुरुष के द्वारा स्त्री के ऊपर विशेषाधिकार की व्यवस्था को लागू करती हैं. … शब्दों के मामले और हमारी भाषाई चुनाव महत्वपूर्ण हैं. यदि हम यह विश्वास रखते हैं कि स्त्री पुरुष को सामाजिक समता का अधिकार है, तो हमें यह विश्वास भाषा में दिखे इसके प्रयास करने होंगे.[17]
भाषा की दिखने वाली संरचना के रूप में संज्ञा, सर्वनाम आदि पर भी बात हो सकती है और शब्द संरचना विलोमादि तथा पद रचना मुहाविरे आदि पर भी इस दृष्टि से बात सम्भव है. मौजूदा भाषा का कोई भी हिस्सा ऐसा नहीं है जहाँ हाथ लगाया जाय और पपड़ी न झड़े, स्त्री के प्रति दोयम रवैया उभर कर सामने न आ जाय. यह अकेले हिन्दी में ही नहीं है अन्य भाषाओं में भी है.
संज्ञा में नामविधान (व्यक्तिवाचक) इसलिए अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि यह leveling का ही एक प्रतिरूप है. हिन्दी नामकरण में पुरुष नाम कमल और गुलाब होते है, स्त्रियों में चम्पा और चमेली. ये व्यतिक्रमित नहीं होते. क्या कमल और गुलाब चम्पा और चमेली से अधिक महत्वपूर्ण नहीं रहे हैं और हैं? गुलाब और कमल का इस्तेमाल और चम्पा चमेली आदि के इस्तेमाल का फर्क और भाषा का स्त्री के विरुद्ध निर्मितिकरण दोनों में गहरा सादृश्य है.
स्त्रियों के नाम इमरती, जलेबी, बरफी, मिठाई या ऐसी ही कोई खाद्य वस्तु हो सकते हैं पर पुरुषों के ऐसे नाम रखने के उदाहरण नहीं हैं किसी को पेड़ा, लड्डू, या खीरमोहन नहीं बुलाया जाता. स्त्रियों के नाम पुरुषों की प्रतिष्ठा के कारक हो सकते हैं यथा महिमा (मोहन की महिमा), गरिमा, प्रतिभा, प्रतिमा, हेमा, रूपा, सोना, पन्ना, कंचन पुरुषों के अलंकरण हो सकते हैं- श्री, विद्या, लक्ष्मी, पुरुषों का आकांक्षा हो सकते हैं- सुशीला, सुलक्षणा, सौम्या, सुनीता, लीलावती, विनीता, अनीता, माधुरी, मनोरमा, मृदुला, कल्याणी पुरुषों के भोग्य हो सकते हैं- सुधा, अमृता, खुशबू, मदन मंजरी, अंगूरी, अनारो, लौंगश्री, लवंगी, रम्भा, पुरुषों के आधिपत्य के प्रतिनिधि हो सकते हैं– ,
के छद्म पुरुषत्व के प्रतिरूप हो सकते हैं- सुदक्षिणा, वामा. स्त्रियों के मानस निर्माण के लिए यह नामपद्धति जो भूमिका निभाती आयी है उसका परिणाम यह है कि स्त्रियों को अपने नाम और नाम की प्रतिनिधायक संरचना से कदाचित विरोध के सम्बन्ध आसानी से विकसित नहीं हो पाते. यह भाषा का लिंग आधारित विधायन है जो स्त्री को अपने अनुकूल निर्मित करता है. ऐतिहासिक रूप में कैकेयी- कैकेय की, द्रौपदी- द्रौपद की, मैथिली- मैथिल की, जानकी- जनक की, गार्गी- गर्ग की, कपिला- कपिल की आदि संज्ञायें हैं जो समय के साथ लुप्त होकर स्त्री विभेदीकरण के इतिहास का एक पक्ष प्रस्तुत करने की सामर्थ्य रखते हैं. स्त्रियों के लिए नामों का एक संसार वह बनाया गया जहाँ वे पूजा, अर्चना, आरती, वन्दना, उपासना, आराधना के पवित्र मन्दिर में बिठा दी गई, एक संसार वह भी बनाया गया जिसमें उसे चन्दा, तारा, किरन, रश्मि, ऊषा, पूनम, पूर्णिमा के नैपथ्य-लोक में रच दिया गया, एक दुनियां वह भी बनायी गयी काजल, बिन्दिया, केश, नैना में सजाने की कोशिश रही, उसके भीतर दया, ममता, करुणा, भावना, प्रिया, प्रीति को बिठा दिया गया. संस्कृत युग में स्त्री नाम मदनमंचुका, मदनमंजरी, मदनसुन्दरी, अनंग मंजरी, मदन सेना, सुरत मंजरी रखकर उसे कामकला केन्द्र सा ही बना डाला. स्त्रियों के नाम में जब सारंगा, कोयल, कोकिला, सुगना, सुगिया, पपिहा, मैना, बुलबुल हो सकते हैं तो पुरुषों के नाम कौआ, तीतर, बगुला, मुर्गा, गिद्ध, क्यों नहीं हो सकते? यदि पंछियों के आधार पर ये नाम रखे जाते हैं तो पुरुषों या स्त्रियों के लिए समान रूप से पंछियों के नामों का प्रयोग हो सकता था पर ऐसा है नहीं, ये नाम एक विचार पर आधारित हैं जो स्त्री को सारंगा या मैना या सुगना तो देखना पसन्द करता है पर पुरुषों को कौआ या गिद्ध नहीं. यह लिंग आधारित लेविलिंग है.
हिन्दी में नामवाची संज्ञाओं के अर्थ पर आधारित लिंग विधान की संरचना पर विचार किया जाय तो वृक्षों के नाम. धातुओं के नाम, पर्वतों के नाम, जल स्थल भागों के नाम, ग्रहों के नाम, वर्ण माला के अक्षरों के नाम, अनाजों के नाम, रत्नों के नाम, पेय और द्रव्य पदार्थों के नाम, महीनों और दिनों के नाम पुल्लिंग है और यहाँ तक कि भावों तक पर पुल्लिंग का ही कब्जा है जबकि नदियों, किराने की वस्तुओं और भोजनों के नाम स्त्री लिंग हैं( अपवादों को भाषाई विकास के प्रकरणों में पढ़ा जाना चाहिए). अलबरूनी भारतीय भाषाओं के बारे में लिखता है कि “वे अपनी भाषा की संज्ञाओं को स्त्रीलिंग देकर उसी प्रकार बड़ा बनाते है जिस प्रकार अरब उन्हें अल्पार्थी बनाकर करते हैं”[18]जैसे नद- से नदी जबकि अरब में कटोरा से कटोरी. आधुनिक भारतीय भाषाओं में अरब जनविसर्जन के फलस्वरूप अरब की तरह ही स्त्रीलिंग बनाकर छोटा बनाने की परिपाटी का पालन किया जाने लगा. भाषा के क्षेत्र में जनविसर्जन के प्रभाव का यह एक उल्लेखनीय उदाहरण है. देखने में बड़ी छोटी सी बात दिखती है पर यह लिंग की अनियमितता के सिद्धान्तों को खारिज करते हुए इस बात के लिए संकेत देती है कि लिंग की अनियमितता को जनविसर्जनों के परिप्रेक्ष्य में पढ़ते हुए उस कारण की खोज सम्भव है जिस कारण से ऐसी मान्यता को जमाया गया.
हिन्दी की बोली कही जाने वाली उपभाषाओं में लिंग का ढ़ाँचा वही नहीं है जो कि हिन्दी का है. भोजपुरी में भाषामें ऐसे प्रयोग पाये जाते है जिनके आधार पर यह पता लगाना सम्भव नहीं है कि भाषा का लिंग का स्वरूप क्या है जैसे कन्हैया जी के जनम भयो, आपन लड़का, राम के जाति बराति, वडारे पंडितवा के धीय, सियार के कहनी, मूसन की महितारी. भोजपुरी में कई बार क्रियाओं में भी खासकर भविष्यत काल में लिंग आधारित भेद नहीं होते जैसे- लइका वेद पढ़ी- लइकी वेद पढ़ी, लइका आई- लइकी आई, चलत आदमी- उड़त चिड़िया. बघेली में सम्बन्ध कारक में लिंग परिवर्तन नहीं होता और विशेषण के रूप भी स्थिर होते हैं. छत्तीसगढ़ी में लिंग प्रयोग बहुत साफ नहीं है कुछ विद्वानों के अनुसार “लिंग भेद का कुछ पता नहीं”[19] तैं खात हस, राजा के बेटा- राजा के बेटी, तबा के साग- तबा के रोटी. अवधी में क्रिया रूपों में लिंग परिवर्तनता बहुत बार पायी जाती है- जो सम्पदा (स्त्री.) नीच गृह सोहा (पु.), सात बार फिरि भाँवरि (स्त्री.) लीन्हा (पु.), अस्त्र शस्त्र सबु साज(पु.) बनाई (स्त्री.), रथी सारथिन(पु.) लिए बुलाई (स्त्री.) . इसी तरह से सम्बन्ध कारकों में लिंग भेद नहीं होता पेम के बैना, विरह कै आगि.
इस्लामिक जनविसर्जन के प्रभाव से हिन्दी में ऐसी निर्मितियाँ हुईं जो कि लिंग आधारित भाषा से अलग कुछ निर्मितियां दिखाती है ‘ये मेरी बनबाई हुई इमारत है’, ‘उसने हाथ में किताब खोली हुई थी’, ‘मुझसे बैठा नहीं जाता’. मैंने, मुझे, मुझसे. तुमको, तुम्हें, हमें, हमसे, इसने, इन्हें, इनसे,उसने के साथ क्रिया में लिंग आधारित भेद अब नहीं मिलता. इस तरह हिन्दी के लिंग विधान में तीन प्रक्रियायें एक साथ चलीं- देशी भाषाओं के शिथिल लिंग ढ़ाँचे ने अपनी क्षमताभर पुराने संस्कृत के लिंग ढ़ाँचे को अपनाने पर रोक लगाई, नई विकसित हिन्दी (हिन्दवी) का लिंग के परिप्रेक्ष्य में उदार रवैया रहा और तीसरे शुद्धीकरण ने इन सबों पर भारी पड़कर संस्कृत के उसी पुराने ढ़ाँचे को लागू किया. ऐसा करने से हिन्दी की प्रकृति में स्त्री दोयमता कायम रखने के बहुत सारे सन्दर्भ बने रह गये और आज भी बने हुए हैं. हिन्दी में लिंग की समस्या के व्याकरणिक पक्ष को देखते हुए सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या ने हिन्दी सुधार की प्रक्रिया में भाषा की निर्लिंगता प्रस्तावित की पर उनका उद्देश्य भाषा की व्यावहारिकता है. इस समस्या को भाषा की व्यावहारिकता के जोड़ना इसके स्त्री निहितार्थों पर पर्दा डालना ही है. हिन्दी में लिंग की संरचना के निहितार्थों से निकलने वाले कुछ बिन्दु विचारणीय हैं-
ससि को जब संस्कृत उद्गम के अनुसार लेते हैं तो शशि हो जाता है और चन्द्रमा का पर्यायवाची मान लिया जाता है और उसी के अनुसार उसका लिंग प्रयोग करने लगते हैं लेकिन ससी स्वात में बहन है और हिन्दी की बोलियों में भी बहिन के नामकरण में धडल्ले से चलता है. यहाँ से उसे स्त्री लिंग मानें तो कोई दिक्कत नहीं होगी. संस्कृत और जनविसर्जनों की परम्पराओं के द्वैत में ही वह गुत्थी है जहाँ पर लिंग सम्बन्धी जटिलताओं का ताना बाना सुलझने के सूत्र मिल सकने की सम्भावना है. व्हिटनी ने इस बात को उठाया है कि आधुनिक भारतीय भाषाओं का व्याकरणिक ढ़ाँचा पाणिनीय ही है. [20] पाणिनीय राजनीति की समझ पर पहले चर्चा की गई है.
इमन् शब्द प्राकृतों में आ लगाकर स्त्रीलिंग बनाये जाते हैं- गरिमा, महिमा, निर्लज्जिमा, धुत्तिमा जबकि ई और ऊ अन्त्यों को पुल्लिंग व नपुंसक माना गया. हिन्दी में इस स्थिति में लाख नियम बनाने की कोशिशों के बावजूद कोई स्पष्ट खाका तैयार नहीं हो पाता है. यहाँ सबसे आसान रास्ता खोज लिया गया है जिसे अपवादों का नियम कह दिया जाता है. लिंग विधान बहुत कुछ विधि के विधान का पर्याय सा कर दिया गया है जा कि अव्याख्येय है. व्याकरण के जितने हिस्से हैं सभी पर लिंग की राजनीति का प्रभाव दिखाई देता है. अपभ्रंश में पद्य में छन्द की मात्राएं और तुक का मेल खाना लिंग का निर्णय करता है. यह बेहद महत्वपूर्ण तथ्य है. इसको इस तरह भी देखा जा सकता है कि अपभ्रंश में बोलने वालों के दो समूह हैं (अपभ्रंश की गायनशैली की प्रमुखता यह बताती है कि यह गायन में ही प्रयोग में लायी जाती थी, बोलचाल में इसका रूप कुछ भिन्न रहा हो यह बहुत सम्भव है) एक स्त्री समूह है जो भिन्न प्रकार से गाता है उसके छन्द में मात्रायें भी कम – ज्यादा होती हैं, दूसरा पुल्लिंग है जो भिन्न तरह से गाता है और उसके छन्द में मात्राओं की संख्या वही नहीं है जो दूसरों में है. हिन्दी की बोलियों में लोकगीतों में इस तरह से साफ विभाजन पाये जाते हैं कि कौन से गीत स्त्रियों को गाने के लिए हैं और कौन से पुरुषों के गाये जाने के लिए हैं. यह तथ्य स्त्री इतिहास के अनुसंधान के लिए महत्वपूर्ण आधार स्रोत उपलब्ध कराता है.
व्याकरण में प्रत्यय की भूमिका महत्वपूर्ण है. प्रत्यय एक विचार है, एक अवधारणा है, एक कल्पना है, एक जुगाड़ है, एक युक्ति है. हिन्दी में लिंग की पहचान और निर्माण का आधार है. प्रत्यय लगाकर किसी भी शब्द का लिंग परिवर्तन सम्भव होता है. जिस तरह के जुगाड़ के लिए सामान्य और सार्वभौम नियम नहीं सम्भव हैं, सैद्धान्तिक परकल्पनायें पूर्ण जाँचनीय नहीं हो सकती है पर व्यावहारिक रूप में वह काम करता चला आता है, उसी तरह से प्रत्यय का मामला है. हिन्दी में प्रत्यय देशी विदेशी दोनों तरह से आते हैं. मजेदार बात यह है कि स्त्रीलिंग बनाने के लिए प्रयोग में आने वाले प्रत्यय एक ही प्रकार की राजनीत करते हैं. ‘आ’, ‘ई’ और ‘ऊ’ के लगने से बनने वाले लिंग परिवर्तनों का वर्चस्व वादी कोरिलेशन है, एक एक उदाहरण को लेकर गम्भीर विश्लेषण की जरूरत वहाँ है. हिन्दी में लगातार हुए जनविसर्जनों के कारण बहुत से प्रत्यय आकर जुड़ते गये हैं जिनमें से कुछ की पहचान फारसी आदि से आये प्रत्ययों के रूप में होती है पर बहुत से ऐसे हैं जो यादृच्छिकता के खाते में चले जाते हैं. वास्तव में इन प्रत्ययों में स्त्री के प्रति नजरियों के साथ समय समय पर हुए सम्पर्कों का इतिहास निहित है.
व्याकरण की ध्वनियों से लेकर हर जगह व्याप्त लिंग भेद के सिस्टम में जन विसर्जन से वे आधार सूत्र मिल सकते हैं जहाँ स्त्री प्रधान समाजों और पुरुष प्रधान समाजों के बीच के सम्बन्ध निर्धारण की प्रक्रिया आरम्भ हुई और वर्तमान रूप तक वे समाज पहुँचे. स्त्री दोयमता की कहानी इसी के बीच घटित हुई. अ, इ, उ, ए, क, ख, ग, घ, च, छ, य, र, ल, व और श पुल्लिंग है शेष स्त्री लिंग हैं. बहुत सम्भव है कि किसी समूह विशेष की भाषा में किसी एक ध्वनि का प्रभुत्व हो, जैसा कि आज भी देखने में आता है. उस प्रतिनिधि ध्वनि के आधार पर पहचाना जाना कोई बड़ी बात नहीं है. सामुदायिक सम्मिलन की स्थितियों में जिस तरह मौजूदा समाजों का निर्माण हुआ है उसी तरह भिन्न समुदायिक प्रतिनिधि ध्वनियों के एक साथ आने पर एक भाषा विशेष का निर्माण हुआ है. भाषा विद अभी भी कई बार इस बात का संकेत करते हैं कि किसी समुदाय विशेष में कोई ध्वनि विशेष नहीं पायी जाती है. यह खोजना आसान कि कौन सी ध्वनि नहीं पायी जाती है, वहीं यह खोजना थोड़ा कठिन है कि कौन सी ध्वनि किस समुदाय की प्रतिनिधि थी, पर लिंग के साथ एशोसियेशन यह बात निश्चित करते हैं कि कम से कम ऐसी लिंग पहचानें उसमें निहित है, जिनको सत्ता और राजनीतिक निहितार्थों के सचेत प्रयासों के बादजूद हटाया नहीं जा सका.
उपसर्गों पर इस दृष्टि से विचार से दे विचार होना चाहिए कि ये लिंग के बदलने में क्या भूमिका निभा रहे हैं. यथा राम (पु.) अभिराम (नपु.). प्रायः लघुत्व वाचक स्त्रीलिंग होते हैं और महत्ववाचक पुल्लिंग होते हैं पर कई बार महत्ववाचक भी स्त्री लिंग होते हैं पर ऐसा तभी होता है जब ये महत्ववाचक पुल्लिंग के, समाज व्यवस्था के , पितृपक्षीय निर्णयों और निहितार्थों के कारक होते हैं. समास में द्वन्द्व समास को लें जिसमें स्त्रीलिंग और पुल्लिंग द्वन्द्व में आयें तो पुल्लिंग ही शेष रहता है. मातापितरौ में द्वन्द्व की स्थिति में एक शेष में पितरौ बचता है. भ्राता च श्वसा च, पुत्रश्च दुहिताश्च. यह बताता है समाज की सामासिक संरचना के निर्माण की स्थितियों में समाहार का यही मात्र तरीका अपनाया गया. अलंकारों के मामले में श्लेष और यमक में भिन्नार्थों में प्रायः लिंगभेद देखने को मिलता है. जो महतार्थ का प्रतिपादक होता है वह पुल्लिंग होता है और शेषार्थ प्रतिपादक में स्त्रीलिंग को रखा जाता है ऐसा ही श्लेष उत्तम माना जाता है. लोक-व्यवहार विरुद्धता, प्रसिद्धि विरुद्धता, पात्र विरुद्धता, स्थिति विरुद्धता, शास्त्र विरुद्धता एवं सायास लिंग निर्धारण ये वे शास्तियाँ है जिनसे से लिंग निर्धारण की राजनीति की गई.
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स्त्री मुद्दों पर शोधरत. पिछले वर्षों में मीरा का काव्य और स्त्रीत्व का निर्माण,
स्त्री के वस्तुकरण की प्रक्रिया और राधा का विकास,
सती प्रथा, भक्ति काव्य और हिन्दी मानसिकता,
हिन्दी साहित्य के इतिहास पर एक स्त्री के नोट्स प्रकाशित
महारानी जया राजकीय महाविद्यालय, भरतपुर में पिछले 12 साल से अध्यापन
ई पता: drbanuradha@gmail.com
(सभी फोटोग्राफ क्लारे पार्क के हैं)
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[1] ग्रिम – Roethe, Gustav. 1890. Zum neuen Abdruck. In: Grimm, Jacob. Deutsche Grammatik. Vol 3. (2nd edition.) Güthersloh: C. Bertelsmann, IX-XXXI.
[2] Thorne and Stacey , “many gaps were there for a reason, i.e. that existing paradigms systematically ignore or erase the significance of women\’s experiences and the organization of gender\” (Thorne and Stacey 1993: 168).
नामार्थ इति सर्वेअपि यथाः शास्त्रंर्निरूपिता- वैयाकरण भूषणसार, कौण्ड भट्ट, पृ.49
[10] Confusion as to gender was charged against monks reputedly in Buddhas life time by their more learned brothers. Eranklin Adgerton, Buddhist hybrid Sanskrit Grammar and dictionary, part I, p.38
[17] Professor Sherryl Kleinman (2000:6)
[20] व्हिटनी, संस्कृत ग्रामर, पृ.22