सहित्य और विचारों की दुनिया का गहरा नाता है. विचारों ने कला की दुनिया को बेतरह प्रभावित किया है. समालोचन कला के साथ ही साथ वैचारिकता और सरोकारों को भी साथ लेकर चलता है. विश्व स्तर पर दर्शन और साहित्य में जो कुछ घटित हो रहा है उसे समझने- बूझने और भारतीय परिवेश में उसकी उपयोगिता टटोलने की अपनी क्षमता भर कोशिश भी करता है. वह विवेक, विविधता और प्रश्नाकुलता को एक आवश्यक मूल्य समझता है और स्थापित मान्यताओं पर सार्थक प्रश्नवाचकता चाहता है.
‘मीमांसा’ के अंतर्गत इसकी शुरुआत कार्ल पॉपर से हो रही है. युवा विमर्शकार और अनुवादक सुशील कृष्ण गोरे के इस आलेख की सबसे बड़ी विशेषता विषय की गंभीरता की रक्षा करते हुए अन्त तक दिलचस्पी बनाए रखना है. एक जिज्ञासा मूलक और पठनीय आलेख.
कार्ल पॉपर : बुल इन ए चाइना शॉप
सुशील कृष्ण गोरे
आधी हक़ीकत-आधा फ़साना की संधि-रेखा पर विज्ञान से एक जरूरी जिरह
कार्ल पॉपर एक ऐसे बुद्धिजीवी दार्शनिक हैं जिनका पूरा लेखन अपने प्रश्नवाची तेवरों के लिए जाना जाता है. उनकी नज़र से देख लेने पर यह संसार हमारे लिए पहले जैसा ही नहीं रह जाता है. उन्होंने ज्ञानात्मक विमर्श को अपने ढंग से विश्लेषित किया. वैज्ञानिकता की पहचान और परख को नए कोण से देखा. देखने का उनका अंदाज़ इतना निराला था कि उन्होंने अपने ज़माने के कई ऐसे बेहद प्रतिष्ठित सिद्धांतों की बुनियादें हिला दी थीं जो वैज्ञानिक होने का दम भरते थे. पॉपर की निग़ाह ने पहली बार पकड़ा कि कुछ चीजें इस कायनात में कुदरती ढंग से घटती हैं लेकिन वे मानस में बसी बौद्धिक रूढ़ियों या स्वयंस्वीकृतियों की बदौलत एक औसत बुद्धि को किसी चर्चित दर्शन या सिद्धांत के अनुरूप घटती दिखाई देती हैं. दार्शनिक चिंतन के क्षेत्र में कार्ल पॉपर का यह एक जबरदस्त हस्तक्षेप था जो उन्हें एकबारगी 20वीं सदी के एक सेलेब्रिटी दार्शनिक के दर्जे में पहुँचा देता है.
वे दर्शन में अपने ‘आलोचनात्मक तर्कवाद’ तथा विज्ञान में ‘अवधारणात्मक-निगमनात्मक’ विधि के लिए जाने जाते हैं. उनका सबसे यादगार काम यह था कि उन्होंने वैज्ञानिक तथा छद्म-वैज्ञानिक स्थापनाओं के बीच एक लक्ष्मण-रेखा खींची. इसे Line of demarcation कहा जाता है. उनका यह काम कम चुनौतीपूर्ण नहीं था; लेकिन स्वभाव से निरा तार्किक होने के चलते उन्होंने दार्शनिक चिंतन के इतिहास की कई मूर्तियों को ध्वस्त करने का अदम्य साहस दिखाया. एक दार्शनिक हेनरी विच ने पॉपर की इस मूर्तिभंजक मेधा को रेखांकित करते हुए उन्हें \’सेकुलर पोप\’ कहा है.
आइए, समझा जाए कि जनाब़ पॉपर ने वैज्ञानिकता और अ-वैज्ञानिकता के दो फाँक कैसे किए. बहुत गहराई में जाने की बजाय हमारी कोशिश रहेगी की पॉपर के अध्ययन से किसी सिद्धांत या अवधारणा के वैज्ञानिक होने या न होने की जो नई कसौटियां निर्मित हुईं और जो कुछ खास दृष्टिकोणों का उन्मेष हुआ उन पर एक सरसरी नजर डाली जाए. वैसे यह विचारक है बड़ा अजीबोगरीब जिसे अंग्रेजी में ‘मैवेरिक’ कह सकते हैं. उनको पढ़ते समय लगता है कि हम सीधी दिशा में बढ़ रहे हैं परंतु बार-बार पीछे मुड़कर उनके भाष्य का एक पुनर्पाठ करना पड़ता है. इस क्रम में पॉपर का एक अजब अंदाज उभरता है जो किसी उलटबांसी-सा कथ्य या प्रतिपाद्य का निरालापन स्थापित करता चलता है.
लागा चुनरी में दाग यानी विज्ञान से अहं ब्रह्माष्मि का विस्थापन
हम पॉपर के कुछ मुहावरों से बात आगे बढ़ाते हैं जिन्हें उनको समझने का आधारभूत प्रस्थान भी कहा जा सकता है. मसलन, ‘झूठा या गलत साबित होना’ या ‘जोड़-तोड़ से किसी स्थापना के पक्ष में दलीलें जुटाना’. पॉपर के अध्ययन में इनके लिए क्रमश: falsifiability तथा corroboration शब्दों का प्रयोग किया गया है. यह जो गलत साबित हो जाने का प्रत्यय है वही विज्ञान तथा अ-विज्ञान के बीच की बारीक सूत है. इसी को ढंग से समझाना चाहता है यह दार्शनिक क्योंकि वह शुरू से ही यह देखकर हैरान था कि कुछ सिद्धांत या थ्योरी मुफ़्त में वैज्ञानिक सिद्धांत के रूप में हीरो बने हुए हैं. वहीं कुछ बेचारे हमेशा खतरों के साए में जी रहे हैं क्योंकि वास्तव में वे वैज्ञानिक होने के कारण एक दिन झूठा या गलत साबित होने के लिए अभिशप्त हैं. यानी जो सिद्धांत ‘फाल्सिफायबल’ है वही साइंटिफिक है और जिस सिद्धांत को चालाकी से अनुमोदित कर दिया जाता है या उसे औचित्यपूर्ण ठहरा दिया जाता है वह स्यूडो-साइंटिफिक है.
पॉपर ने कभी नहीं माना कि जो कुछ प्रत्यक्ष अवलोकन के हमारे दायरे में आता है यानी ज्ञानेंद्रियों के सहारे अनुभूत हमारा ‘आब्जर्वेशन’ एक शाश्वत सत्य का साक्षात्कार कराता है. इसलिए यह कतई सच नहीं है कि उसमें कोई गलती नहीं होगी या उसका दामन दाग़दार नहीं होगा. यह ख़ुदा की कोई ज़लवा नुमाई नहीं है कि उसके सामने आत्मसमर्पण कर दिया जाए. उनकी दलील है कि हमारा अनुभव हमारी ज्ञानेंद्रियों द्वारा हमारी ज्ञान-संवेदनाओं पर उत्कीर्ण मृत लिपियां मात्र नहीं हैं. यहां वे कांटवादी दर्शन की ठीक उलटी धारा पकड़ते हैं. पॉपर के शब्दों में कहें तो our basic statements are not mere ‘reports’ of passively registered sensations. तो फिर इन्हें क्या कहा जाए? उनका जवाब़ है कि हमारा अवलोकन या ज्ञान-संवेदना अनाहत या आदिम नहीं होती बल्कि उसमें पर्यवेक्षक की पूर्व-निर्धारित दृष्टि समाई रहती है. इसलिए इसको अनिंद्य मानना ही गलत है. यह अमोघ नहीं होती. ज्ञान का ‘अधिगम’ ख़ुद एक सक्रिय और सजग प्रक्रिया के तहत होता है. उस पर किसी न किसी थ्योरी का भार जरूर होता है. वह theory-laden होता ही है. यही कारण है कि कुछ सिद्धांतों की वैज्ञानिकता प्रमाणित करने के हिसाब से तथ्यों को गोलमोल ढंग से विश्लेषित कर दिया जाता है. पॉपर की लीक से हटकर सोचने वाले विचारक की छवि इसी आधार पर बनी कि वे दर्शन के समूचे इतिहास में ज्ञान की नॉन-जस्टिफिकेशनल आलोचना धारा के पहले दार्शनिक हैं.
पॉपर बीसवीं सदी के पहले दो दशकों में दुनिया के तीन महान विचारकों और उनके सिद्धांतों के इर्द-गिर्द बने आभामंडल से काफी प्रभावित रहे. एक तो फ्रायड एवं एडलर की जोड़ी तथा दूसरे आइंस्टाइन. नजदीक से देखने पर उन्हें लगा कि फ्रायड एवं एडलर के मनोविश्लेषण सिद्धांत के तो बड़े मजे हैं क्योंकि वह हर घटना या तथ्य को अपने फ्रेमवर्क में फिट कर लेता है. इस उस्तादी से वह हर बार मनोविज्ञान या मानव-व्यवहार से जुड़ी हर घटना का मनोविश्लेषण अपने हिसाब से कर देता है. भाष्य की यह कला उसकी वैज्ञानिकता की पुष्टि में हर बार एक नई इबारत लिख देती है. लेकिन पॉपर ने इसकी चालबाजी को पकड़ लिया. वे कहते हैं कि नहीं, यह इस सिद्धांत को झूठा साबित होने से बचाने की एक चाल है. इस सिद्धांत की स्वीकार्यता खुद को ‘फाल्सिफिकेशन’ से बचाने के सफल उपक्रम में कहीं छिपी है. इसकी कलाबाजी की दाद देनी होगी कि यह न केवल अपने को झूठा साबित होने से बचा लेता है बल्कि हर तथ्य या ब्यौरे को अपनी ढाल बना लेने में भी कामयाब हो जाता है. इस प्रकार उसके नैरंतर्य पर हर बार पुष्टि या अनुमोदन (कोरोबोरेशन) का एक नया मुहर लग जाता है जो इस प्रकार के तमाम तथाकथित वैज्ञानिक सिद्धांतों को कुछ इस कदर अपराजेय या अप्रश्नेय बना देता है कि वे आदिकाल के मिथक सदृश सजह मान्य या पूज्य टाइप के लगने लगते हैं. यह थ्योरी साइंटिफिक कैसे हो सकती है?
इसी तरह का एक मामला डार्विनवाद को लेकर भी है. पॉपर कहते हैं कि इसका भी ‘टेस्ट’ नहीं किया जा सकता. वे इसे एक मेटाफिजिकल रिसर्च प्रोग्राम मानते हैं. लेकिन इतना तय है कि वे ‘जीवन के विकासवादी सिद्धांत’ को ही तार्किक मानते हैं. ईश्वरीय उद्भव उनको नहीं सुहाता. इसलिए, वे डार्विन के ‘विकासवाद’ या ‘प्राकृतिक चयन के सिद्धांत’ पर, उसके परीक्षणीय न होने के बावजूद, अपना मुहर लगाते हैं. इसके लिए वे तर्क देते हैं कि डार्विन के विकासवाद को कहीं-न-कहीं से मेंडल के ‘उत्परिवर्तनवाद’ का भी समर्थन हासिल है. दोनों को मिलाकर विकासवाद का पाठ किया जाए तो जीवों के विकास का क्रम समझना आसान हो जाता है. अनुकूलन ही वह सूत्र है जो जीवों को विकास की सीढ़ी पर चढ़ना सिखाता है. प्रयोगों से सिद्ध हुआ है कि बहुत सारे बैक्टीरिया पैंसिलीनयुक्त परिवेश को भी आत्मसात् कर लेते हैं. अर्थात अनुकूलन स्थापित कर लेते हैं. फिर भी, पॉपर को संकोच के साथ मानना ही पड़ता है कि डार्विनवाद भी शाश्वत नहीं है. अगर वह दावा करता है कि उसने जीवन की उत्पत्ति और उसके विकास को पूरी तरह से समझा दिया है तो यह उसका बड़बोलापन ही होगा.
इसी धुन में पॉपर साहब ने मार्क्सवाद की भी काफी धज्जियां उड़ाई हैं. उन्होंने कहा कि कार्ल मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद या इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या भी वैज्ञानिक नहीं है. हालांकि वे यह भी मानते हैं कि मार्क्सवाद का मामला वैसा नहीं है जैसा कि फ्रायड के मनोविश्लेषण के सिद्धांत का था.
पॉपर के अनुसार मार्क्स ने काफी कायदे से अपना एक सिद्धांत गढ़ा था जो शुरू-शुरू में काफी हद तक वैज्ञानिक भी था. वह वर्तमान तक के इतिहास पर एक विवेचनात्मक पुनर्दृष्टि तो डालता ही है, उसके भीतर से भविष्य के इतिहास की एक ब्लूप्रिंट भी झलकती है. लेकिन वही बीमारी उसको भी लगी कि उसकी भविष्यवाणियां गलत साबित हुईं. वह ‘प्रीडिक्टिव’ नहीं रहा लेकिन उसे जबरदस्ती भविष्यदर्शी बनाने पर तुले लोगों ने उसे नए तथ्यों के साथ ‘एडजस्ट’ और ‘एलाइन’ करने की कोशिश की. उसे रिवाइज किया. फिर समय के नए लेकिन असुविधाजनक अध्यायों को समेटने के लिए तदर्थ अवधारणाएं या क्षेपक जोड़कर मार्क्सवाद को हर बार टेलर-मेड बनाया जाता रहा. तालमेल बिठाने के इस खेल का मकसद सिर्फ मार्क्सवाद को झूठा साबित होने से बचाना था (saving Marxist theory from falsification). इस तरह एक अच्छे-खासे मानवीय चेहरे वाले वैज्ञानिक मार्क्सवाद को एक हठधर्मी मतवाद का चोला पहना दिया गया. उसका विज्ञान से एक ‘छद्म-विज्ञान’ में कायापलट हो गया. बस, होना क्या था, देखते ही देखते बाबा मार्क्स भी एक पोंगा पंडित में बदल दिए गए.
सभी वैज्ञानिक सिद्धांत हवा में मुक्का मारना यानी एक कयास या अटकलबाजी (कंजेक्चर) ही होते हैं. भले ही वे तमाम कठिन परीक्षणों को सफलतापूर्वक पार कर चुके हों. पॉपर का यह ‘नॉन-जस्टिफिकेशनल’ दृष्टिकोण ही उन्हें एक अभूतपूर्व दार्शनिक बनाता है.
विज्ञान के कंधे पर ‘इंडक्शन’ का बेताल या किसी अलादीन के चिराग की तलाश
दूसरी तरफ पॉपर की खोजी निगाहों ने यह भी देखा कि आइंस्टाइन का सापेक्षता सिद्धांत लगातार झूठा साबित हो जाने का जोख़िम उठा रहा है. उसकी परीक्षणीयता (टेस्टेबिलिटी) ही उसके गले की हड्डी बन गई है. यही उसे एक कंटकाकीर्ण रास्ते से गुजारती रहती है. इस संबंध में वे 1919 के एडिंगटन सूर्यग्रहण की याद दिलाते हैं जो एक प्रकार से आइंस्टाइन के सापेक्षता सिद्धांत के लिए एक अग्निपरीक्षा थी. इस घटना को लेकर आइंस्टाइन के पूर्वानुमान यदि गलत निकलते तो उनका सिद्धांत खतरे में पड़ता. पॉपर मानते हैं आइंस्टाइन एक बड़ा जोखिम उठा रहे थे क्योंकि एडिंगटन एपिसोड पर उनका अपना स्टैंड न्यूटोनियन फिजिक्स की धाक से टकरा रहा था. इसलिए, उन्हें सही करार देना लगभग असंभव था.
ग़ौर से देखा जाए तो पॉपर का मौलिक तर्क ‘फाल्सिफाइबिलिटी’ के ही इर्द-गिर्द रचा-बसा है. यदि कोई थ्योरी इससे बचते हुए सिर्फ अपने सत्यापन का तर्क या विवेक जुटाती है या तथ्यों का घपला करती है तो वह एक छद्म-विज्ञान है. वे वैज्ञानिकता के आधार या उसकी विधि को निगमनात्मक (deductive) ठहराते हैं न कि आगमनात्मक (inductive). कोई मूल्य या प्रतिमान पहले से तय कर लिया जाए और अनुभवात्मक ज्ञान के ब्यौरों को उसके लिए बने-बनाए ढांचे में फिट कर दिया जाए और उसे प्यार से कह दिया जाए – ‘इति सिद्धम’. पॉपर इसे विज्ञान के नाम पर एक शुद्ध पाखंड मानते हैं.
इसके विपरीत विज्ञान की ललक अपने पिष्टपेषण के प्रति न होकर अपनी किसी भी अवधारणा के पूर्ण या आंशिक खंडन के प्रति होना श्रेयस्कर है. यह खंडन ही विज्ञान के किसी सिद्धांत को टिकाता है. आइंस्टाइन भी इस चीज को महत्व देते थे. एडिंगटन सूर्यग्रहण के समय अपने पूर्वानुमानों को लेकर वे किसी कठमुल्लावादी ग्रंथि से परेशान नहीं थे. बल्कि उन्होंने स्पष्ट कहा था कि उलटे नतीजों से गुरुत्वाकर्षण के संबंध में उनके सापेक्षता सिद्धांत को तार्किक रूप से टिकने का आधार मिलेगा. इसलिए विज्ञान को हमेशा निर्णायक परीक्षणों से खंडित होने के लिए तैयार रहना चाहिए. पॉपर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि आइंस्टाइन के प्रति उनका सम्मान इसलिए और बढ़ गया. आनुभविक प्रयोगों से कोई सिद्धांत पूरा या आंशिक रूप से खंडित ही होता है न कि सत्यापित. इससे विज्ञान पूर्णत्व की खोज की तरफ उन्मुख रहता है. पॉपर के हाथों विज्ञान की यह यात्रा एक अनंत यात्रा बन जाती है जिसमें हर अगला पड़ाव हमें सत्यान्वेषण के करीब पहुँचाता है जिसके लिए उन्होंने एक खास शब्द ‘सत्याभास’ (verisimilitude) का प्रयोग किया है. इस शब्द के चुनाव से ही उनकी सतर्कता और संवेदनशीलता का अंदाज लगाया जा सकता है. सतर्कता इसलिए कि न तो विज्ञान कभी अंतिम सत्य का कोई दावा कर सके और न ही अनुसंधान का उसका जज्ब़ा कभी पस्त हो. आप देखेंगे कि पॉपर की अटपटी जिद ही उनको एक साथ विज्ञान के दर्शन एवं ज्ञान के दर्शन की भी एक धुरंधर शख्सियत बना देती है. यही वैज्ञानिक तार्किकता का उनका अपना खंडनवादी दर्शनशास्त्र (Popper’s falsificationist philosophy of scientific criticism) है.
चलिए! थोड़ा यह भी देखा जाए कि वे स्वीकार्यता के प्रति पिष्टपेषणवादी मानसिकता की खबर कैसे लेते हैं. यहां आपको एक शुद्ध दार्शनिक पॉपर के दर्शन होंगे जिसका काम जितना मौलिक है उतना ही वह मनोविज्ञानवाद, आगमनात्मक पद्धति और शब्दार्थ विज्ञान के किले में सेंध लगाने वाला भी है. उनका कहना है कि इन तीनों के इंटरप्ले से वस्तुपरक ज्ञान कभी भी हासिल नहीं किया जा सकता है. (1) खेल शुरू करती है आगमनात्मक पद्धति. वह सामान्य अवधारणाएं प्रस्तावित करती है. (2) एक मनोरचना जिसका काम प्रस्तावित अवधारणाओं के समर्थन में आनुभविक प्रत्यय खड़े करना है. (3) भाषा में इन दोनों का मन-मुताबिक रूप से समन्वय इस खेल का तीसरा पहलू है. यही सिमैन्टिक्स यानी शब्दार्थ विज्ञान का क्षेत्र है.
पॉपर ने इन तीनों को सिरे नकार दिया और कहा कि प्रत्यक्षवादियों (पॉजिटिविस्ट) ने इनका घालमाल करके सारा मामला उलझा रखा है. वे ज्ञान के मनोवैज्ञानिक तथा ज्ञान के तार्किक स्वरूपों को आपस में उलझा दिया है. वे शिकायत ही नहीं करते बल्कि वस्तुपरक ज्ञान का अपना मॉडल भी प्रस्तुत करते हैं. उन्होंने यथार्थ के तीन संसार बताए – संसार 1 यानी वस्तुपरक भौतिक क्षेत्र, संसार 2 यानी मन का आत्मपरक क्षेत्र और संसार 3 यानी ज्ञान का वस्तुपरक क्षेत्र. इसे पाठक उनकी पुस्तक ऑब्जेक्टिव नॉलेज के अंतर्गत Epistemology Without a Knowing Subject तथा On the Theory of the Objective Mind नामक तीसरे एवं चौथे अध्यायों में विस्तार से पढ़ सकते हैं.
पॉपर आइंस्टाइन की इस धारणा को याद करते हैं कि सृष्टि के रहस्य सुलझाने के लिए जिन सार्वभौम नियमों की खोज वैज्ञानिक करना चाहते हैं वह बेमानी है क्योंकि वहां तक पहुंचने का कोई तर्काश्रित रास्ता फिलहाल नहीं सूझता. इसी तरह डेविड ह्यूम भी पूछते हैं एक-एक घटना या एक-एक प्रमाण के बल पर सृष्टि या उसके सार्वभौम को भला कैसे समझाया जा सकता है. पॉपर ह्यूम से सहमत हैं और विटिंगस्टीन की इस धारणा से असहमत कि सार्थकता का आधार सत्यापन है जिसे बाद में कार्नप तथा दूसरे तार्किक प्रत्यक्षवादियों ने अपना लिया.
पॉपर कहते हैं जुगाड़ का यह खेल विज्ञान में नहीं चलेगा. विज्ञान फिनोमॉलाज़ी की गुत्थियों को सुलझाने लायक बना रहे, इसके लिए बहुत जरूरी है कि किसी भी प्रकार की बौद्धिक या पारंपरिक रुढ़ियां या उनके पक्ष में पूर्व-निर्धारित घेरेबंदियां ढाही जाएं. यह विज्ञान के मुक्ताकाश की रक्षा का भी एक ज्वलंत प्रश्न है. सामाजिक विज्ञानों में भी इसी वैज्ञानिक संस्कृति का होना जरूरी है. भले ही वे काफी हद तक परीक्षणीय नहीं हैं. मानव-व्यवहार के उदाहरणों को अपने हिसाब से तोड़-मरोड़कर किसी सिद्धांत की वैज्ञानिकता प्रतिपादित करना एक तरह की जालसाजी है. यह तथ्यों का इरादतन दुरुपयोग है. वे कहते हैं कि विज्ञान को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की मानसिकता ही बुरी है. सारी खुराफात इसी मानसिकता में जन्म लेती है. दरअसल विज्ञान को एक भविष्यदर्शी (predictive) के आसन पर बैठा देने पर कुछ उल्लू सधते हैं. विज्ञान काफी हद तक बहुत दूर तक का अपना एक ‘रोडमैप’ बनाता भी है. इसके लिए उसे कई चरणों से गुजरना पड़ता है. यह सब सुधी पाठक जानते हैं. लेकिन विज्ञान कभी अपनी यात्रा पर पूर्ण विराम नहीं लगाता. वह कभी असंदिग्ध या अप्रश्नेय नहीं बनता. शायद पॉपर हिंदी में लिखते तो वे जरूर लिखते कि “प्रश्नातीत या तर्कातीत होने की धार्मिक पवित्रता के मुक्त विरोध का ही दूसरा नाम विज्ञान है.“
विज्ञान और दर्शन दोनों के रास्ते एक ही मंजिल की तलाश करते हैं. यह ज़रूर है कि विज्ञान में अंध-आस्था की प्रवृत्तियों के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए. यह तभी होगा जब वह किसी भी अग्निपरीक्षा से न कतराए, चाहे इससे उसकी वैधता प्रमाणित हो या उसे झूठा ही साबित क्यों न होना पड़े. इसलिए, विज्ञान में ‘सत्य के साक्षात्कार’ का कोई दावा नहीं चलता. वहां गलत तो गलत हो ही जाता है. मज़े की बात यह है कि वहां समय के पिछले कई मोड़ों पर और कई बार अनुभवों की कसौटी पर सच साबित होने वाला कोई वैज्ञानिक सिद्धांत भी किसी आगामी समय में अचानक गलत साबित हो जाने के लिए अभिशप्त होता है. मतलब़ यह है कि कोई भी सिद्धांत अपने आप में कभी निरपेक्ष, अकाट्य या परमसत्य नहीं होता. वह स्वयंभू या स्वयंसिद्ध होने का दावा नहीं कर सकता. लेकिन जब तक वह गलत नहीं साबित हो तब तक वह सच ही माना जाता है. इस प्रकार कोई भी वैज्ञानिक अवधारणा चिन्मय-चिरंतन न होकर एक सापेक्ष अवधारणा होती है. वह अपने समय में एक तदर्थ सच्चाई ही बयां करती है.
मसलन, कई सौ बरस तक न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत का किला अभेद्य ही माना जाता रहा. वह एक सचाई थी. लेकिन बाद में आइंस्टाइन के सिद्धांतों तथा क्वांटम फिजिक्स ने उसका खंडन प्रस्तुत किया. इसका मतलब़ यह भी नहीं कि अब न्यूटन का सिद्धांत बेमानी हो गया. आज भी अंतरिक्ष या ब्रह्मांड संबंधी अध्ययन हो या उपग्रहों का प्रक्षेपण, न्यूटन की गतिकी और गुरुत्व सिद्धांत ही काम में लाए जाते हैं. क्वांटम फिजिक्स के आगमन को दो तरह से देखा जा सकता है. एक, इसने न्यूटनवाद को झूठा करार दिया. दो, इससे न्यूटनवाद में एक नया अध्याय जुड़ा और न्यूटन का सिद्धांत परिष्कृत हो गया.
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो ……..
इसी प्रकार विज्ञान में हिग्स बोसान का एक पुराना मामला चल रहा है. ब्रह्मांड की गुत्थियां सुलझाने में इस कण की भूमिका कितनी अहम है – इसका अंदाजा मीडिया में बहुचर्चित इसके एक दूसरे नाम यानी गॉड पार्टिकल से ही लगाया जा सकता है. इस कण का अस्तित्व है या नहीं – यह जानने के लिए अभी दिसंबर 2011 में लार्ज हैडर्न कोलाइडर (एलएचसी) में दो मुख्य प्रयोग किए गए. दोनों के प्रारंभिक नतीजों से संकेत मिले हैं कि हिग्स बोसान का अस्तित्व है. सवाल उठता है कि इसे क्या कहा जाए? हिग्स बोसान की अवधारणा (पॉपर की शब्दावली में ‘कंजेक्चर’) का कंफर्मेशन या रोजर पेनरोज जैसे बड़े खगोल-भौतिकविदों के इस मत का ‘फाल्सिफिकेशन’ कि किसी हिग्स बोसान का अस्तित्व नहीं है? पॉपर को मानें तो दर्शन ख़ास तौर से विज्ञान के दर्शन में इसी प्रकार की तमाम उलटबांसियां पैदा हो जाती हैं.
20वीं सदी में कई ऐसी अवधारणाएं प्रस्तावित की गईं जो इस कोशिश में थीं कि कोई एक सिद्धांत ऐसा हो जो इस दुनिया और सृष्टि की सभी गुत्थियों को सुलझा दे. सभी मूलभूत पदार्थों तथा चार मूलभूत बलों को मिलाकर एकमात्र मॉडल की तलाश. यानी एक ‘एकीकृत सार्वभौम सिद्धांत’ (थ्योरी ऑफ एव्रीथिंग). लेकिन अभी तक इनमें से कोई अवधारणा सही साबित नहीं हो पाई है. स्ट्रिंग सिद्धांत इनमें सबसे मजबूत दावेदार है. यह कोशिश में है कि ‘क्वांटम यांत्रिकी’ तथा आइंस्टाइन की ‘सामान्य सापेक्षता’ को एक मंच पर लाया जा सके क्योंकि इन्हीं दोनों को एक साथ लाना इस ‘एकीकृत सार्वभौम सिद्धांत’ की पहली सबसे बड़ी चुनौती है. एम-सिद्धांत पर भी काम चल रहा है. सोचिए, पॉपर होते तो कैसे देखते विज्ञान में “रामबाण थ्योरी” (थ्योरी ऑफ एव्रीथिंग) या फिर “ईश्वर का कण” (God Particle) खोजने की इन परियोजनाओं या वैज्ञानिक सरगर्मियों को. शायद, वे मुस्कराते और यही कहते कि सृष्टि के मूलकण को खोजने से पहले ही जब उसे आपने भगवान का कण घोषित कर दिया है – तो अब मेरे बोलने के लिए बचा ही क्या है?
चूंकि यही बात सभी वैज्ञानिक सिद्धांतों के मामले में लागू होती है इसीलिए यही पॉपर के ‘फाल्सिफिकेशन’ की सीमा भी बन जाती है. इसी जगह उनके आलोचकों ने उनकी जमकर खिंचाई भी की है. उनके आलोचकों का कहना था कि विज्ञान में यही तो पहले से भी होता चला आ रहा है. पॉपर जी ने इसमें नया क्या जोड़ दिया? जिस वैज्ञानिक निगमनात्मक पद्धति के पक्ष में वे कसीदे काढ़ते हैं वह आगमनात्मक पद्धति से एकदम अलग नहीं है. ये दोनों वैज्ञानिक पद्धति के चक्र में एक दूसरे के साथ गुंथे हुए हैं. यह देखने का अपना-अपना नज़रिया है. इसे एक जर्मन दार्शनिक कार्ल हेम्पेलने 1965 में काले कौवों के उदाहरण द्वारा बड़े ही रोचक ढंग से समझाया है. इसे हेम्पेल का Raven Paradox कहा जाता है. पाठक इस रोचक विरोधाभास को स्वयं खोजें और पढ़ें.
उन लोगों का यह भी कहना है कि विज्ञान मुख्य रूप से आगमन पद्धति (कंफर्मेशन) पर चलता है. विज्ञान की भाषा ज्यादातर पुष्टि की ही भाषा है न कि खंडन की. वह सीधे हाथ नाक पकड़ता है, हाथ उलटा घुमाकर पीछे से नहीं. इस आधार पर पॉपर की चुटकी इन शब्दों में ली गई है: यदि पॉपर महोदय किसी घोड़े पर बाजी लगाएं और कहें कि उनका घोड़ा रेस जीत जाएगा और यदि वह घोड़ा सचमुच रेस जीत जाता है तो क्या आपको उम्मीद है कि पॉपर खुशी से चिल्ला उठें, “वाह! मेरा घोड़ा हारने से बच गया.”
कोलंबिया विश्वविद्यालय में विज्ञान के दर्शन के एक प्रोफेसर अर्नस्ट नाजेल का कहना था, “फाल्सिफिकेशन की भूमिका के बारे में पॉपर की अवधारणा एक ऐसा अति-सरलीकरण है जो वैज्ञानिक प्रणाली का माखौल उड़ाता है.” पॉपर के विरोध में यह भी कहा जाता है कि यह दार्शनिक उन्हीं लोगों को बहुत भाता है जिन्होंने दर्शन का इतिहास नहीं पढ़ा है. विज्ञान में गणित या तर्कशास्त्र की तरह पक्कापन नहीं है. इसके गलत होने (corrigible) की संभावना हमेशा बनी रहती है और इसमें लगातार संशोधन होता रहता है. इत्यादि….इत्यादि. यह पॉपर की कोई नायाब खोज नहीं थी. उनसे बहुत पहले ही अमेरिकी दार्शनिक चार्ल्स पियर्स ने इसे ज्ञान-विज्ञान का fallibilism कहा था जिसकी जड़ें और पीछे प्राचीन ‘यूनानी संशयवाद’ में तलाशी जा सकती हैं.
कुछ भी कहिए, इस यहूदी दार्शनिक ने कई क्षेत्रों में अपनी मौलिक प्रतिभा से मील के नए पत्थर गाड़े. नई बुलंदियों को छुआ. चिंतन और विज्ञान के कई गढ़ों को ताश के पत्तों की तरह गिराया. वे विज्ञान के दर्शन, सामाजिक एवं राजनीतिक दर्शन के क्षेत्र में अध्ययन की अपनी सर्वथा नई पहल के लिए हमेशा याद किए जाएंगे. वे उदार लोकतंत्र तथा मुक्त समाजके प्रति अपनी अटल प्रतिबद्धता के लिए भी याद किए जाएंगे.
उन्होंने 92 बरस का एक लंबा और खोजपूर्ण जीवन जिया और 17 सितंबर 1994 को इस दुनिया से अंतिम बिदाई ली.
उनकी The Logic of Scientific Discovery (1934), The Poverty of Historicism 1936),The Open Society and Its Enemies (1945) तथा Conjectures and Refutations (1963) बेहद चर्चित एवं पठनीय किताबें हैं. Unended Quest (1992) नाम से उनकी आत्मकथा भी छपी है.