‘A poem is never finished, only abandoned.’
Paul Valery
नये वर्ष में इससे बेहतर और क्या हो सकता है कि हम कविता से शुरू करें. महत्वपूर्ण कवयित्री तेजी ग्रोवर की तिब्बती बौध मरण-ग्रन्थ ‘बार्डो थोडोल’ को आधार बनाकर लिखी गयीं ‘तुमने कहा ऐसे जाना चाहिए हमें’ शीर्षक से २१ कविताएँ यहाँ प्रकाशित की जा रहीं हैं साथ में कवि से कविता के रिश्तों पर एक टिप्पणी भी है.
तेजी ग्रोवर को गुजरे वर्ष में स्वीडी शाही दम्पति द्वारा Knight की उपाधि, रॉयल आर्डर ऑफ पोलर स्टार सम्मान प्रदान किया गया. संभवत: हिंदी की वह पहली लेखिका हैं जिन्हें स्वीडन ने अपना यह प्रतिष्ठित सम्मान दिया है.
ये कविताएँ जन्म और मृत्यु और उससे परे की मानवीय चेतना को सम्बोधित हैं. हिंदी में अपनी तरह की पहली श्रृंखला है. यह बार-बार, धीरे-धीरे और धैर्य से पढ़ी जाने वाली कविताएँ हैं. सभी पेंटिग तेजी ग्रोवर के ही हैं.
नव वर्ष शुभ हो.
“कविता क्यों” उर्फ़ “और है भी क्या करने को?”
मैं लिखती हूँ क्योंकि मेरे पास कुछ न करने की ताक़त नहीं है.
— मार्ग्रीत ड्यूरास
एक)
कभी लगता है इस प्रश्न पर अलग से विचार किया ही नहीं जा सकता कि कविता क्यों लिखता है कोई कवि. कवि अपनी कविता के भीतर ही इस प्रश्न को समाहित किये होता है, और इस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर उसके पास कभी नहीं होता. होता तो शायद उसे लिखने की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती. फिर भी यह ऐसा प्रश्न है जो उसके सनाभि और सहोदर कवि भी उससे कभी-कभी पूछ सकते है, पूछ लेते हैं. और वह इसके बारे में सोचते-सोचते अपने रास्ते से भटक कर या तो कहीं और ही जा निकलता है, या फिर पुन: अपनी कविता के भीतर ख़ुद को पाता है; इस प्रश्न से मुक्त होकर वहीँ पहुँच जाता है जहाँ उसे या उसके कवि को सबसे अच्छा लगता है. (उसे ख़ुद को कहीं और अच्छा लग सकता है, उसके कवि को कहीं और. वह जिद्दोजेहद करता है कि वे जगहें या वे एहसासात कभी एक हो जाएँ, लेकन वे हो नहीं पाते हैं. इसलिए वह अच्छा लगने के समय भी एक चीथड़े की तरह ही तेज़ हवा में थपेड़े खाता-फिरता है.) चैन उसके हिस्से में बदा ही नहीं है.
लेकिन कविता क्यों जैसे प्रश्न से अधिकांश बार उसे लगने लगता है उसकी अपनी कविता में कोई कमी होगी, जिसकी वजह से यह सवाल अलग से उससे पूछ लिया जाता है, या फिर उसकी कविता के पाठक को यह बात समझ में नहीं आ रही कि उसकी कविता ऐसे प्रश्नों के शमन या उनके पाठ में नितान्त घुलनशील होने का साक्ष्य प्रस्तुत कर रही है. क्या वाक़ई किसी को किसी कवि विशेष के बार में ऐसी उत्सुकता होती होगी कि बचपन में ऐसी कौन-सी असाधारण घटनाएँ और परिस्थितियां रही होंगी जिन्होंने उसे कविता लिखने की ओर मोड़ दिया होगा? ज़रूर होती होंगी, और किसी कवि को अन्य कवियों को लेकर तो और भी शिद्दत से होती होंगी. किसी कवि के लिए भी कविता-कर्म उतना ही रहस्यमय है, जितना किसी और के लिए. और वह जिन कवियों से बेपनाह प्रेम करता है, उन्हें भी वह मुँह बाये, आँखें फाड़े ऐसे देखता है जैसे वे कोई अजूबा हों, ठीक वैसे ही जैसे वह खुद उनके लिए होता है जो उसकी कविता से प्रेम करते हैं.
भले ही हर कवि की परिस्थितियाँ अलग-अलग हों, उसे एक भीतरी अन्याय का आभास किसी वक़्त पर आकर इस कदर सालने लगता है कि दुनिया और उसके बीच एक फांक पैदा हो जाती है. कभी-कभी यह फांक इतने नाटकीय ढंग से कवि के देहात्म पर तारी होती है कि उन क्षणों की शिनाख्त वह कई वर्ष के बाद भी कर सकता है, भले ही उस क्षण को वह उसी वक़्त न पहचान पाए.
ऐसे कुछ क्षणों की एक मिसाल ज़रूर पेश की जा सकती है. मसलन, उस लड़की के बारे में सोचिए जो हाथ में एक सूखी रोटी लिए छत पर खड़ी है, उसे मालूम है इसी एक रोटी को देर तक चबाते रहकर उसे अपना पेट भरना है. वह कोई “मामूली” लड़की नहीं है. उसे अच्छे से समझा दिया गया है कि उसे एक कवि का जीवन जीना है, उसके पास इसके सिवा कोई और चारा नहीं है. जिसने उसे यह समझाया है वह खुद भी एक लेखक है, लेकिन लड़की को अभी यह पता नहीं है कि उसके अब्बू लेखक़ हैं और जो अपने लिखे एक-एक शब्द को लकड़ी की एक पेटी में दफ़ना दिया करते हैं… लड़की का एक कमरे का घर किताबों से भरा पड़ा है, एक फ़ोन भी है, कई रिसाले और अख़बार आते हैं, और उत्कृष्ट संगीत की कमी भी इस घर में कतई नहीं है. अभाव है तो सिर्फ पैसे का और स्पेस का. वह हर शाम स्कूल से लौटकर लाल फ़र्श वाले कमरे को चाक से चार हिस्सों में बांटती है. एक हिस्से में अपना नाम लिखती है, और उसी में बैठी रहती है. इस एक चौथाई घर में हर रोज़ अपनी स्टडी को नए सिरे से बनाती इस लड़की का परिवार उसके जन्म से पहले दो बार शरणार्थी हो चुका है… पहले बर्मा और फिर पाकिस्तान ! पुरखों की शानो-शौक़त के किस्से रोज़ घर में सुनने को मिलते हैं. उसे किताबों और संगीत से भरे हुए घर में मुफ़लिसी महसूस नहीं होती, लेकिन एक दिन कौवा जब हाथ से रोटी छीनकर ले जाता है तो माँ उसकी पिटाई कर देती है. किसने कहा था छत पर खड़ी होकर रोटी खाने को? फिर एक और दिन घर में खाने को कुछ भी नहीं है. माँ की तबियत ठीक नहीं है, न वह अब्बू की सेवा कर पा रही है न सिलाई का काम. उसी दिन भूख से बिलबिलाती अपनी नन्ही कवि को अब्बू एलियट की Wasteland पढ़कर सुनाते हैं. “Come under the shadow of this red rock/I will show you fear in a handful of dust.” भाई को नहीं सिर्फ उसी को.
अभी वह खुद को लेकर अब्बू के स्वप्न को ठीक से समझ भी नहीं पाई है कि एक दिन अब्बू उसके सामने दम तोड़ देते हैं. उस समय जब वह घर में बिलकुल अकेली है. बहुत ऊंची आवाज़ में उसे आवाज़ लगाने के एकदम बाद. जो अन्तिम शब्द उनके मुँह से चीख की शक्ल में निकला वह था “कविता” जो उस लड़की के घर का नाम है, अब्बू का दिया हुआ. स्कूल में लड़की का नाम कोई और था. फिर अब्बू के जाने के कुछ दिन के बाद लड़की उस लकड़ी की पेटी को खोलकर बैठ गयी है जिसमे अब्बू का लेखन दफ़न है. उस पेटी के भीतर बहुत सी पांडुलिपियाँ है. लेकिन उन सबको दीमक पढ़ चुकी है. और किसी के पढने को कुछ बच ही नहीं पाया है. उर्दू में अब्बू की मोतियों जैसे लिखाई में लिखा एक उपन्यास है, जिसका सिर्फ़ नाम बचा है: रूसा. बाक़ी ऐसा एक भी जुमला नहीं जिसे दीमक ने अन्त तक पूरा रहने दिया हो. अब उसे ताउम्र उन जुमलों का क़यास लगाते रहना है जिन्हें सिर्फ़ दीमक ने पढ़ा है. उसे बस यही करना है, यही करते रहना है, और कुछ नहीं. उसे इस बात का पूरा इल्म अभी से है: कि यह महज़ एक कहानी है जिसे पेटी के सामने बैठकर गढ़ लिया है. उसे एहसास है कि इसकी जगह कोई और कहानी भी गढ़ी जा सकती है. इस पेटी के सामने बैठी-बैठी वह भाषा से ख़ूब खेलती है. ज़ार-ज़ार रो भी रही है, लेकिन उसे मालूम है वह कविता से कभी नहीं खेल सकती.
दो)
कविता क्यों जैसे प्रश्न से उसे उस कवि की स्मृति हो आती है जो गायक भी है, लेकिन रोज़मर्रा की बातचीत में हकलाकर बात करता है. जब वह गाने लगता है तो वह क्यों हकलाकर नहीं गाता? क्या कोई उससे पूछ सकता है कि जब वह गाता है, उसकी हकलाहट कहाँ चली जाती है? क्या कवि की हस्ती ही संदिग्ध होती है, कोई वायावी इकाई जिसे किसी भी क्षण प्रश्नांकित किया जा सकता है? क्या उसका भाषा के साथ हकलाहट का सम्बन्ध है? क्या हर कवि को ऐसा नहीं लगता कि कविता लिखने का रियाज़ नहीं किया जा सकता? क्या कविता लिखने से पहले उसके पास ऐसा कुछ नहीं है, भाषा तक नहीं, जो एक कविता में रूपान्तरित हो पायेगा? क्या हर कविता में उसे नए सिरे से हकलाते हुए गायन तक पहुंचना होता है? आख़िर वह क्या चीज़ है जो भाषा से ठगे हुए मनुष्य को, भाषा से सम्मोहित एक जीव के समूचे अस्तित्व को निष्कवच कर उसे कविता के प्रान्त में स्थित कर देता है? उसे इन प्रश्नों का उत्तर देना नहीं आता, या वह देना नहीं चाहता, या वह जवाब में इतना सच बोलने की कोशिश करने लगता है कि आप उसका विश्वास ही नहीं कर पाते.
जो उसे मुँह ज़बानी याद हैं, ऐसे कुछ सच हैं:
§ मैं लिखती हूँ क्योंकि मेरे पास कुछ न करने की ताक़त नहीं है.
— मार्ग्रीत ड्यूरास
§ और है भी क्या करने को? (?)
§ यूँ भी जो आप लिखते हैं उसे कोई समझ नहीं पायेगा. फिर आप वही क्यों न लिखें जो आपको ख़ुद भी शायद ही समझ में आता हो?
— गुन्नार ब्यर्लिंग
§ कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और
§
§ तुमको भी चाहूँ तो छूकर तरंग
पकड़ रखूँ संग
कितने दिन कहाँ-कहाँ रख लूँगा रंग
अपना भी मनचाहा रूप नहीं बनता.
— त्रिलोचन
§ मुझको प्यास के पहाड़ों पर लिटा दो जहाँ मैं
एक झरने की तरह तड़प रहा हूँ.
— शमशेर
§ प्रेम कविताओं के शिल्प अपराध सब मुआफ़ हैं
मुआफ़ हैं शमशेर
मुआफ़ हैं मुआफ़ हैं
मरीना स्वेतायेवा.
— तेजी ग्रोवर
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तेजी ग्रोवर की कविताएँ
(तिब्बती मरण-ग्रन्थ “बार्डो थोडोल” से प्रेरित काव्य श्रंखला)
बहुत साल पहले जब मैं अंग्रेजी कवि टेड ह्यूज़ की कविता पर शोध कर रही थी तो मैंने उनकी एक इंटरव्यू में पढ़ा कि उनकी कविता का बीज तिब्बती बौध मरण-ग्रन्थ बार्डो थोडोल(BARDO THODOL) में स्थित है. अंग्रेजी में W. Y. EVANS-WENTZ द्वारा इस ग्रन्थ का संपादन और संकलन लामा काज़ी दावा-साम्दुप के अंग्रेज़ी अनुवाद पर आधारित है और अंग्रेजी में इसका शीर्षक है THE TIBETAN BOOK OF THE DEAD.
टेड ह्यूज़ की कविता के बीज की खोज में मैंने इस ग्रन्थ का अध्ययन शुरू किया तो बहुत साल मैं टेड ह्यूज़ की कविता की ओर लौट ही न पाई. मुझे इस ग्रन्थ ने एक ऐसे धरातल पर ला खड़ा किया कि जीते-जी मरणोपरांत (मानवीय) चेतना के स्वरूप में मेरी रुचि बहुत वर्ष तक बनी रही. आज के सन्दर्भ में इस ग्रन्थ के पुन: अध्ययन का प्रयोजन यह था कि इस बार ऐसे सभी ग्रंथों की मनुष्य-केंद्रीयता से रूबरू हो सकूँ. मरणोपरांत चेतना जब देवों, असुरों, प्रेतों, पशुओं तथा नारकीय लोकों से उपजी विचित्र दृश्य-श्रव्य अनुभूतिओं से गुज़रती है तो उसके पास यह विकल्प रहता है कि वह पुन: इन लोकों में जन्म न लेने से ख़ुद को बचा सकती है.
कोई लामा या आत्मज अपने पूरे आध्यात्मिक सरोकार से मृतक को पूरे उनचास दिन तक प्रेमपूर्वक सद्बुद्धि देता रहता है कि वह इन लोकों में जन्म लेने से कैसे बच सकता है. जैसे कि कार्ल युंग इस ग्रन्थ के बारे में लिखते हुए कहा है कि यह ग्रन्थ मृतक की चेतना को इस परम सत्य से रूबरू भी करवाता है कि ये सभी लोक चेतना की अपनी ही प्रतिच्छाया हैं, और कुछ भी नहीं, और कि वह इस सब से उबर सकता है.
इस ग्रन्थ में किसी भी कवि की कविता के बीज हो सकते हैं, क्योंकि यह ग्रन्थ स्वयं ही आला दर्जे के कविता है. लेकिन शून्य की ओर निर्देशित चेतना तब भी मनुष्य-केन्द्रित ही है, और अपने जीवन के इस मुकाम पर मेरी चेतना मनुष्य-केन्द्रीयता से नजात पाने की लगभग नाकाम कोशिश कर रही है.
जिस किताब को आधार बना ये कविताएँ लिखी गयी है, उसकी प्रामाणिकता पर बहुत जायज़ सवाल उठ चुके हैं, लेकिन मेरी रुचि उस वाद-विवाद में नहीं है, इसलिए इन कविताओं को पाठक चाहें तो स्वतंत्र रूप से पढ़ सकते हैं. इस ग्रन्थ को मैं एक विशुद्ध साहित्यिक कृति के तरह ही बरत रही हूँ.
तुमने कहा ऐसे जाना चाहिए हमें
1.
तुमने कहा ऐसे जाना चाहिए हमें
इस सुनील और श्वेत अग्नि में
जो टहल आयी है कहीं से हमारे पास
(इस जगह —
जहाँ से हम जाने की कोशिश में हैं)
मैंने कहा, इस घड़ी हृदय का थककर सो जाना
क्या निरा मख़मल का क्षण नहीं है यह
और बीच-बीच में, देखो,
अचानक
एक पशु-नीली धारी
जो श्वेत में छिपकर छू रही है हमें
(क्या तुम्हें भी दिखती है
या सिर्फ़ मेरा ही स्वप्न है यह)
तुमने कहा जो भी है
या
सिर्फ़ दिखता है हमें
बस इसे मान लेना होता है —
प्रश्नों का शमन-स्थल है यह
फिर
हैं हम पीठ के बल पड़े हुए
माचिस की तीलियों से सर जोड़े हुए ज़मीन पर
आसमान को आंकते हुए
2.
फिर तुम देखते हो या (कि) मैं
कितना सुन्दर है जला हुआ पाँव
पीली मुंडेर
और दो-दो इंच पर गिरने से बचने का एक लघु-चित्र
और हम में से किसी एक का कोई वस्त्र मंडराता है
फिर अग्नि का पूरा स्थल ही स्पर्श में बदल गया है
जिसे हम कभी दिशाएँ कहते थे
वे राख के निस्संग सौन्दर्य में सतह से उठ रही हैं.
3.
किसी एक के हाथ उठते हैं वस्त्र की दिशा में
जो अभी तक मंडराता है तीसरे दिन में
और देखो —
वहाँ उधर
जल जहाँ उड़ गया है मेघाकाश से
और उफ़ुक की रेख
हड्डी-सी साफ़ निकल आयी है
क्या जाना नहीं चाहिए हमें
उस जलपाखी के श्वेत मुंह-बायों के पास
जिन्हें वह रंग-बिरंगा कुछ अपथ्य खिला रहा है
4.
मोह के पाश में राख होती हुईं माचिस की तीलियाँ —
आह सौन्दर्य !
दक्षिण के द्वार से आता हुआ भस्मारती का यह कलश !
और पता नहीं चलता किसके आदेश पर
तितली कोई महाकाल के नाद में रंग अर्पण करती है
शहद में डूबकर मक्षिकाएँ
5.
हमारे पीछे-पीछे चली आ रही एक मनुष्य बच्ची पूछती है —
मेरा लंगड़ा घोड़ा तालाब में खड़ा है
क्या मैं उसका मांस खा सकती हूँ ?
तुम हो या (कि मैं)
उसकी ओर मुड़ता है एक स्वर —
ये जली हुई तीलियों का देश है
यहाँ किसी पेड़ के वार्षिक वलय
तुम्हारी कलाओं में होम हुए हैं
6.
आह, मैं नहीं जानता था —
(काएदो हमसे कहता है) —
ड्रोट्निंग-गाटा की उस प्राचीन दुकान में
एक किताब में सोया हुआ यह वाक्य
ताउम्र प्रतीक्षा कर रहा था हमारी —
Man is God’s Eye in this world —
तुम या फिर मैं
(क्या हो सकता है हम अब भी साथ–साथ हों)
इस मन्त्रोचार से ऊबकर कहीं और निकल आये हैं
7.
नहीं मालूम रुदन के ये स्वर किसके लिए हैं
रिक्ति के इस स्थल पर
क्यों जुटते हैं प्रणय में बिंधे हुए तांबे के पशु
दिख क्यों रहे हैं बार-बार
जो आहत हैं —
और पीछे-पीछे आते हैं
प्रश्न पूछने
प्रेम और प्यास के भेस में
आखिर क्यों
इस क़दर घनघोर हँसी गूँज-गूँज जाती है
जहाँ हंसों के तैरने का जल है
वह जो कभी “मैं” के भेस में देहात्म से रक्त-पान करता था
कभी “तुम” के भेस में
क्या अब भी आखेट करने आता है
साँस से छूट गए प्रान्त में
8.
मैं भी —
तुम्हारा आत्मज —
तुम्हें रूबरू करता हूँ
लो,
तुम्हे दायीं करवट करता हूँ
लेटे हुए बाघ की मुद्रा में
धमनियों में अभी तक बजते हुए रक्त को उँगलियों से दबाता हुआ
निद्रा की अविद्या से बारम्बार खींच लाता हूँ तुम्हें —
लो,
अब आँख के बिना भी देख सकते हो इसे ––
पृथ्वी के पानी में धंसने के लक्षण प्रकट हो चुके हैं
9.
मैं सुनती हूँ अभी-अभी तुम्हारे तपते हुए कानों से —
एक स्वच्छ रोशनी सर उठाये मुख पर छा रही है —
मैं देखती हूँ उस ओर
श्वास को किसी लोरी की लय में लिये
वह सुई की नोंक सा रेशम के धागे पर
चला रही है प्राण को
आह
अब हवा में मेरी अनार की चाय का स्वाद है
और वह साफ़-शफ्फाफ़ लौ
हमारी किताबों की कगार पर झूमती हुई
किसी श्वेत मयूर के तरह टुकुर-टुकुर टोहती हुई हमें
जिस्म की हरारत से बुझ जाती है मेरी आँख में
मैं खुद को पूछते हुए सुनती हूँ —
क्या मुझे ठीक से सच बोलना
या फिर ठीक से झूठ बोलना
10.
पानी में
उतर आता है
पानी का चाँद
वस्त्र घुटने तक खींच कोई करता है पार
छिन्न होता है
वह जो सत्य है
बन-बन आता है पानी में
कई-कई बार
मनन करो अक्स की देह पर
मनन करो
11.
तुम्हें अभी तक दीख पड़ता है –
पूजा के स्थल पर
साँप की मुंडी में
खोंस दिए हैं नेवले के बाल
खून रिसता है आँख में
कोरे मखमल से पोंछ दी गयी है
तुम्हारी चट्टाई की नीचे की जगह
तुम सुन सकते हो भाईयों का रुदन
बच्चों का रुंधा हुआ मन
वे नहीं सुन सकते तुम्हारे बिलख रही आँख को
12.
वह बिंधा हुआ जीव
तुम्हें दिखता है
इस प्रान्त में भी —
भाईयों का रुदन चुभता है वक्ष में —
साँप की आँख से रिसता हुआ खून
और घड़ी की सुई !
13.
सफ़ेद
दन्तुर
मादा
यह हाथी
और यह शिशु उसका
सूंढ़ से उसके मुंह में सूंघता हुआ
लुटे हुए शहद के सामने
वैगल नृत्य में रमी हुईं
ये अनगिनत मक्षिकाएँ
और यहाँ —
इस जगह —
जुगनुओं से लबालब भरा हुआ
काँच का यह सुनील कलश
इस ज़ार-ज़ार से मौन में ठेलता हुआ
और कौन है मुझे
अब आगे के प्रान्त में
14.
जहाँ अभी-अभी
एक हाथ छूट गया मेरे हाथ से —
श्वेत एक लौ की छाया डोलती है
पीपल की छाल से स्पर्श को पुनः बुनती हुई उँगलियाँ
उनचास दिन
उनचास रात
कुकुरमुत्ते का ज़हर
या फिर सूअर के मांस का
यह क्या तुम्हारी आवाज़ है
सफ़ेद दन्तुर हाथी से कहती हुई —
यह आदमी एक किताब लिख रहा है —
दया करो
15.
और यहाँ
इस प्रान्त में
माँ है
(एक आततायी पुत्र की माँ)
वह हाथी-दांत के बने दन्तुर हाथियों के मस्तक से
अभी तक रिसता हुआ खून पोंछती बैठी है
एक ही दांत से तराशे हुए
उनचास
झूमते हुए हाथी
यहाँ इस बिंदु
और
लोमोमी पहाड़ी के बीच
16.
इस जगह
जहाँ टिक नहीं पाए हमारे पाँव
कोई अचरज नहीं
कोई अचरज नहीं कि शोक में डूबे हुए हाथी रोते और सूंघते हैं
कि वे बुलाते हैं तुम्हें अपने मद्धिम नीले आलोक में —
आह, दुःख, हाथी-दांत का बना हुआ अपार दुःख
और हाथी-दांत के बने हुए सफ़ेद दन्तुर हाथी
जिनके लहू में डूबकर तुम्हें कहीं और जाना है
नील से बचते हुए
श्वेत की शरण में
और उसके भी पार
जहाँ दूर-दूर तक सिर्फ़ रूप का अन्त ही अन्त बिछा हुआ है
आकार का शमन
17.
यह भी क्या सुन रहे हैं अब इस प्रान्त में —
सहृदय ही
विलुप्त हुए हैं
पूरे जीव-जगत में —
उन्हीं का प्रस्थान ग्रन्थ है यह —
अक्षर-अक्षर मोतियों के प्रपात सा
पहाड़ी से उठता हुआ
वही है यह —
रोशनी और अँधेरे के उफ़ुक पर
मधु- मक्षिकाओं का मिटता हुआ नृत्य
वही ठीक वही —
सुनील एक कलश में
लबालब भरे हुए जुगनुओं का
दिशाभ्रम
18.
एक बार फिर मित्र दिखते हैं
जो कभी हँसते हुए
हर रविवार के दिन क्षमा करते थे हमें
काली स्याही से पुते हुए पितरों के नाम
पीछे-पीछे आते हैं
बर्फ़ में उकेरे हुए माओं के अश्रु
किन्हीं आँखों में
कुछ भी क्षम्य नहीं है इस प्रान्त में
न अब कह सकते हो यह ऐसा और वह वैसा है
मित्र भी लाचार हैं
पिता ने
अपनी मृत्यु को भी
मेरे खाते में मोतियों सा उतार दिया है
कैसे मना करूँ
19.
एक गुफा में
यहीं-कहीं
(भीषण छिपता हुआ)
कुण्डली-मार मित्र का प्रहार है
शत्रु का प्रहार —
सरेआम खुले में मासूम-सा
मधुमालती की झीनी-सी ओट में
गांजे की चिल्लम फूँकता
एक टांग पर घात लगाये खड़ा है कल शाम से
फुंफकारते हुए कुकुरमुत्तों और सर्पों को देखते-भालते
बीत गए उनचास दिन
सीख नहीं पाये मित्र को
तोड़ दिया है उसे भी दुःख ने
और माधुर्य बह चला है हृदय के छिद्र से
मनन करो मित्र के शब्द पर
मनन करो —
अस्थि-कलश —
तुम मनन करो
कैसा, ओह कैसा तो प्रहार था वह
20.
आह, मैं तुम्हारा आत्मज,
एक बार फिर तुम्हें रूबरू करता हूँ
अब लक्ष्य करो हृदय में वातास क़ा सप्तपर्णी झोंका !
वह सब जो किसी ग्रन्थ से सोख लिया था प्राण ने
मिट रहा है अरण्य की गन्ध से
अब विलुप्त हो चुके जीव
तैरते हुए लौट आयेंगे यहाँ तारों के प्रदेश से
अग्नि के दो दायरे विपरीत दिशाओं में घूमने लगें जब
ओ, भले जीव, विश्वास करना यह रम्य वन एक असुर-लोक है
रति-कर्म को घूरती हुई तुम्हारी आँखें
देह से भर देंगी तुम्हारे छूटे हुए प्राण को
बन्द करना है तुम्हे यहाँ खुलते हुए गर्भ के द्वार को
अपने इष्ट-देव या फिर मेरा ही, स्मरण करते हुए
21.
हे भले और भोले जीव,
पूरे उनचास दिन की रूबरू रस्मों के बाद
अधीर
अशरीर
तुम सहज ही अरण्य-वासी असुरों में जन्मना चाहते हो?
तुम उस अग्नि से अभी तक उबर नहीं पाए
जिसने किसी देव के आदेश पर भस्म कर दिया था
निमिष-भर में सकल वनवासी समाज को
असुरों ही में एक खुरदुरे गर्भ वाली
किसी कुलीन के पाश में तुम्हारी माँ है
पुआल के बिछौने पर
आनन्द-कणों को तुम्हारे ही रूप-रंग में ढालती हुई
और, लो देख लो,
कैसे एक तीली का सिर टूट गिरा है ख़ला में !
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तेजी ग्रोवर, जन्म १९५५. कवि, कथाकार, चित्रकार, अनुवादक. छह कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह, एक उपन्यास, एक निबंध संग्रह और लोक कथाओं के घरेलू और बाह्य संसार पर एक विवेचनात्मक पुस्तक. आधुनिक नोर्वीजी, स्वीडी, फ़्रांसीसी, लात्वी साहित्य से तेजी के तेरह पुस्तकाकार अनुवाद मुख्यतः वाणी प्रकाशन, दिल्ली, द्वारा प्रकाशित हैं. इसके अलावा स्वीडी भाषा में 2019 में उनकी कविताओं का संचयन।
भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार, रज़ा अवार्ड, और वरिष्ठ कलाकारों हेतु राष्ट्रीय सांस्कृतिक फ़ेलोशिप. १९९५-९७ के दौरान प्रेमचंद सृजनपीठ, उज्जैन, की अध्यक्षता. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में वाणी फाउंडेशन का विशिष्ट अनुवादक सम्मान (२०१९), स्वीडी शाही दम्पति द्वारा दी गयी Knight की उपाधि, रॉयल आर्डर ऑफ पोलर स्टार.
तेजी की कविताएँ देश-विदेश की तेरह भाषाओँ में, और नीला शीर्षक से एक उपन्यास और कई कहानियाँ पोलिश और अंग्रेजी में अनूदित हैं. उनकी अधिकांश किताबें वाणी प्रकाशन से छपी हैं.
अस्सी के दशक में तेजी ने ग्रामीण संस्था किशोर भारती से जुड़कर बाल-केन्द्रित शिक्षा के एक प्रयोग-धर्मी कार्यक्रम की परिकल्पना कर उसका संयोजन किया और इस सन्दर्भ में कई वर्ष जिला होशंगाबाद के बनखेड़ी ब्लाक के गांवों में काम किया. इस दौरान शिक्षा सम्बन्धी विश्व-प्रसिद्ध कृतियों के अनुवादों की एक श्रंखला का संपादन भी किया जो आगामी वर्षों में क्रमशः प्रकाशित होती रही. इससे पहले वे चंडीगढ़ शहर के एक कॉलेज में अंग्रेजी की प्राध्यापिका थीं और १९९० में मध्य प्रदेश से लौटकर २००३ तक वापिस उसी कॉलेज में कार्यरत रहीं. वर्ष २००४ से नौकरी छोड़ मध्य प्रदेश में होशंगाबाद और इन दिनों भोपाल में आवास.
बाल-साहित्य के क्षेत्र में लगातार सक्रिय और एकलव्य, भोपाल, के लिए तेजी ने कई बाल-पुस्तकें भी तैयार की हैं.
2016-17 के दौरान Institute of Advanced Study, Nantes, France, में फ़ेलोशिप पे रहीं जिसके तहत कविता और चित्रकला के अंतर्संबंध पर अध्ययन और लेखन. प्राकृतिक पदार्थों से चित्र बनाने में विशेष काम, और वानस्पतिक रंग बनाने की विभिन्न विधियों का दस्तावेजीकरण. अभी तक चित्रों की सात एकल और तीन समूह प्रदर्शनियां देश-विदेश में हो चुकी हैं.
tejigrover@yahoo.co.in
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