कभी-कभी कुछ बातें कहनी ही पड़ती हैं चाहे वह कितनी ही कठिन हों. और कहने की मुश्किल किसी तरह से कम नहीं होती बात कह देने से, क्योंकि जो कहा जाना है उसका अस्तित्व ‘कहे’ जाने में है–‘कैसे कहूँ वो बात जो कहे जाने में ही है’! कहने की इस मुश्किल को समझते हुए कुछ बातें शमशेर बहादुर सिंह के काव्य संसार के बारे में कहने जा रही हूँ.
शमशेर बहादुर सिंह जिन्होंने हिन्दी भाषा को उसकी सुन्दरतम कविताएँ दीं- यानी सुन्दरता के कुछ ऐसे फूल, जिनसे उनके कुछ अंतरंग कवि मित्र भय खाते थे. उनकी पवित्रता भयावह लगती थी उन्हें. मैं भी इसे अपने तौर पर समझना चाहती हूँ. अपने ढंग से कहना भी चाहती हूँ इस पर कुछ. हालांकि हिन्दी की आलोचनात्मक दुनिया में स्त्री की आवाज़ कुछ भी नहीं लेकिन इधर कुछ ऐसा होता सा लगता है जिसमें ऐसी एक आवाज़ अपने को अलग से अभिव्यक्त कर रही है, पुराने पाठों का पुनर्पाठ करना चाहती है, जो अर्थ स्थिर से हो चले हैं, उन्हें अस्थिर करना चाहती है. उसे उम्मीद है कि उसे नये पाठक मिलेंगे जिनको ऐसे दुस्साहस की सख़्त दरकार है.
यह कहते हुए मैं अपने पाठकों को फिर से सावधान करना चाहती हूँ कि जो कुछ कहने जा रही हूँ उसका महत्व रेत पर पैरों के निशान के बराबर ही है- लेकिन यह एक निशान तो है, एक व्याख्या. और एक व्याख्या (इंटरप्रटेशन) दूसरी व्याख्या को हमेशा जगह देती है, कुछ हद तक ख़ुद मिटती हुई.
आज हम पहले से कहीं अधिक इस बात को लेकर स्पष्ट हैं कि सत्य को उसकी संपूर्णता में जानने के लगभग सारे दार्शनिक प्रयत्न असफल साबित हुए हैं और यह भी कि ऐसे प्रयत्न उनके लिए ज्यादा फायदेमंद रहे हैं जिन्होंने उसे जानने के सिद्धांत बनाए बनिस्बत उनके जिन्हें इनमें विश्वास करने के लिए प्रेरित या कहें बाध्य किया गया.
सिमोन द बुवा अपने एक लेख में एक जगह कहती हैं कि चूंकि इतिहास में ज्यादातर दार्शनिक पुरुष हुए, उन्होंने संसार और इसके सत्य को अपने दृष्टिकोण से परिभाषित किया जो बाद में सत्य का रूप धारण करता गया, जिसे व्याख्यायित किया जाता गया. वह लिखती हैं
‘संसार की तरह ही, पुरुषों के शास्त्र भी हैं, वे उसे अपनी दृष्टि से व्याख्यायित करते हैं, जिसे वह सम्पूर्ण सत्य, गलतफ़हमी में समझने लगते हैं’’.
यहाँ यह कहना आवश्यक है कि ऐसी स्त्राीवादी आलोचना अपने दृष्टिकोण को सत्य के विमर्श में सम्मिलित किये जाने के लिए व्यग्र होती रही है ताकि संसार और उसे समझे जाने की पद्धतियों पर, सत्य पर, फिर से विचार हो, उसके रूप को थोड़ा और पहचानने लायक बनाया जाये. दर्शन में पुनर्व्याख्या की शुरुआत ने इस काम को आसान किया, सत्य के वर्चस्व को कम किया और उसके दरवाजे़ को थोड़ा खोल दिया. एक लोकतांत्रिक पहल थी यह. इससे यह माना जाने लगा कि हर पक्ष के हिस्से का सत्य विमर्श के लायक है और वह सम्पूर्ण सत्य की खोज में ख़ुद को ध्वस्त नहीं करना चाहता. स्त्राीवादी चिंतन इस अर्थ में एक इंटरप्रटेशन है और वह इंटरप्रटेशन की असंपूर्णता में आश्वस्त भी. इसलिए जो हमारे समक्ष है, हमें घेरे हुए है, जो कुछ हम समझना चाहते हैं उसका हम एक पाठ ही कर सकते हैं. यह लेख एक इस अर्थ में एक पाठ ही है–अपूर्ण अपने ‘कहे’ में, मगर एक पाठ, स्त्री पाठ यह भी. स्त्री के सत्य का अंश इसमें है, कैसा–मगर? तीक्ष्ण, तल्ख, स्त्री की पराधीनता के दर्द की पहचान लिये.
शमशेर बहादुर की कविता ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ अगर सौंदर्य का एक अप्रतिम फूल है अपने कवित्व में, तो स्त्री के लिए वह एक ‘सुंदर भयावह’ फूल है जिसकी पंखुरियों पर ‘चोट’ के निशान हैं- ‘किसकी चोट है यह?’
शमशेर बहादुर सिंह की इस कविता के जरिये उनके संसार में प्रवेश कर उनके सौंदर्य के तिलिस्म, उसके जादू को समझने का शायद यह मुनासिब रास्ता है.
वैसे यहाँ कहना ज़रूरी है कि स्त्री सौंदर्य से नहीं बल्कि पुरुषोचित सौंदर्य रचना, रचना विधान से असमंजस में पड़ी हुई है. उसकी भयावहता को वह फटी-फटी आंखों देखती है. ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ का पुनर्पाठ जतन से गढ़े गये एक ऐसे संसार का पाठ है जिसमें पुरुष स्त्री को रचता है, उसकी सुंदरता को चुराता है, उसके सौंदर्य में ही उसे कुरूप बनाता है. ‘स्त्री’ इस संसार में जागती है अपने फूलों को ढूंढ़ती हुई, जिन्हें सीने से लगा वह सोने गयी थी’. मगर उसे उसके फूलों को ढूंढ़ता हुआ कोई नहीं देखता, उसकी ‘अस्मिता’ यहाँ कविता की विषय वस्तु ही नहीं.
इस पुनर्पाठ में ‘उस स्त्री के जगने और अपने सुन्दर फूलों को ढूँढने को’ एक वाज़िब संभावना की तौर पर स्वीकार किया गया है जिससे पाठ में नये अर्थ के समावेश होने की भी संभावना उत्पन्न होती है. इस तरह के पाठ की कई मुश्किलें हैं. एक तो शमशेर बहादुर सिंह का अपना संसार इतना ‘खफ़ीफ’ है कि वह फेमिनिन होने का भ्रम पैदा करता है. दूसरे, एक कवि होने के रूप में मैं स्वयं ‘सौंदर्य’ को पाना चाहती हूँ, उसे पाने के लिए उसे रचती हूँ. हम दोनों का रचना क्रम एक सा है, मिलता-जुलता, बहुत हद तक. ऐसे में उनके फेमिनिन से दिखते ‘विपर्ययित पौरुष’ (इनवर्टेड मैस्कुलिनिटी) को समझना एक लम्बी व्याख्या की मांग करता है जो विश्वसनीय हो. मुझे ख़ुद इसे समझने के लिए उनकी कविताओं को कितनी ही बार पढ़ना पड़ा. कितने ही संशयों से मैं गुज़री, मुझे भय होता रहा, कहीं ऐसा तो नहीं ‘जो कहने जा रही हूँ बात वह सुनने वाले की स्वायत्तता को प्रभावित करे’ कहीं यह एक दुराग्रह तो नहीं?
मगर मुझे बार बार ऐसा लगता रहा कि यह सुनहरी रौशनियों से बुना गया कविता प्रासाद सुंदर तो है, आनन्दकर नहीं. इसमें अनगिनत बेचैनियाँ हैं, व्यग्र करने वाली, इसका मौन आवाज़ों से भरा हुआ है- दबी आवाज़ों से, चुप कराई गयी आवाज़ों से. यह स्त्री का मौन नहीं. यह बहता हुआ भी मौन नहीं, यह कायदे से ठहराया गया है, इसमें बड़ी-बड़ी बातें हैं, झगड़े, लड़ाईयाँ, धमकियाँ, लांछन और जाने क्या-क्या.
यहाँ मैं आश्वस्त हो ठहर न पाई, यह मुझे गड़ता रहा, किसी की नींद से लौट आई दूब की एक नोक ज्यों चुभती रही. इस मौन में बस एक ही चुप्पी थी, उस स्त्री की, जिसके बारे में यह कविता है यानी टूटी हुई बिखरी हुई. उसकी कोई आवाज़ कहीं नहीं थी, बेआवाज़ वह एक प्रेत सी थी. बस उसकी आँखें दिखती थीं, हँसती हुई नहीं, डबडबाई सी. उसके बारे में जो बातें कही गयी हैं, कवि की तमाम कविताओं में वह उसे कितना क्षतिग्रस्त करती हैं! कितनी मारक हैं वे बातें. वह अपनी आंखों में परास्त दिखी.
सौंदर्य में तो मृत्यु भी खुशी से अपनायी जाती है क्योंकि तब वह मृत्यु सी लगती नहीं है, सुन्दर लगती है. यह भ्रम, यह धोखा, मगर कितने समय तक कारगर रह सकता है? सौंदर्य का जादू टूटेगा ही. बहुत हद तक यह जादू शमशेर के मित्रों, आलोचकों तथा प्रशंसकों द्वारा रचा गया है, कंस्ट्रक्ट किया गया है. इसलिए भी कि भारतीय इतिहास के जिस दौर में शमशेर बहादुर सिंह अपनी कविताएं लिख रहे थे उस समय भारत आज़ाद हो रहा था, हुआ भी उन्हीं के लेखन काल में. और आज़ाद होते भारत में, बदलते भारत के कई-कई स्वप्न तैर रहे थे इसकी जनता को आँखों में. उन स्वप्निल आँखों का यह रोमान था जिससे शमशेर की कविता की जटिल जमीन तैयार हुई. उनका कम्युनिस्ट होना, भारत के लिए एक ज्यादा समानता और स्वतंत्रता भरे समाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध होना, साथ में सुन्दर भी, वह भी रचना और उसकी बुर्जुवा अवधारणाओं को शैली के स्तर पर बिना क्रांतिकारी ढंग से परिवर्तित किये. शमशेर को दरअसल इसलिए भी मार्क्सवादी- गतिशील, और उदारवादी प्रयोगशील कवि के तौर पर व्याख्यायित करते रहे (हैं).
यह द्वन्द कुछ इस तरह हिन्दी जगत में चलता रहा कि कुछ और कहने सुनने, उनके ‘मौन’ की सघन पितृसत्तात्मक बनावट पर कोई सारगर्भित चर्चा ही न हो सकी. इस द्वंद्व ने जैसे उसे ढके रखा. हमारे बड़े से बड़े आलोचक इसी द्वंद्व को पुष्ट करते रहे, जैसे शमशेर यदि प्रगतिशील कवि मान लिये गये तो इससे देश में क्रांति आ जाएगी, या फिर यदि वे ‘विशुद्ध सौंदर्य के कवि’ मान लिये गये तो भद्दा सा दिखता बुर्जुवा जीवन सुंदर हो जाएगा.अपने आप में यह द्वंद्व हमारी बौद्धिक दुनिया को पितृसत्तात्मक बनाये रखने के लिए ही शायद था. यदि सपाट ढंग से कहें, तो अपने आप में यह द्वंद्वात्मक आलोचना और विमर्श भी पितृसत्तात्मक था और है. मिसाल के तौर पर नामवर सिंह शमशेर को प्रयोगशीलों से उबारते हैं, जैसे कि शमशेर किसी बड़े ख़तरे में हों, जैसे गलत व्याख्या सत्य का ही गला घोंट देगी, न कि शमशेर का. वे लिखते हैं
‘कला की विजय का स्रोत क्या है कवि की निष्कंप प्रतिबद्धता के सिवा? इस विषय में संदेह भ्रम औरों को चाहे जितना हो, स्वयं शमशेर अपनी आस्था में अडिग हैं. जिस कवि ने अपनी काव्य यात्रा के प्रथम चरण में ‘वाम-वाम-वाम दिशा/समय साम्यवादी जैसा ओजस्वी गीत लिखा, वही पचास वर्ष बाद ‘काल तुझसे होड़ है मेरी शीर्षक कविता में सहज भाव से स्वीकार करता है: क्रांतियाँ, कम्यून, कम्युनिस्ट समाज के/नाना कला विज्ञान और समाज के/जीवन्त वैभव से समन्वित व्यक्ति में!
जाहिर है कि मार्क्सवाद और कम्युनिज्म शमशेर की कविता के हाशिए पर न तब थे, न अब . हमेशा वह उस कवि व्यक्तित्व का अभिन्न अंग रहा है जो कविता का केन्द्र है’
(उद्भावना,शमशेर अंक, फरवरी 2012, पृ. 61)
विजयदेव नारायण साही, या फिर अशोक वाजपेयी दूसरी तरफ़ लिखते हैं कि शमशेर चिंतक तो मार्क्सवादी थे, मगर मार्क्सवादी कवि नहीं. कवि तो वे कलावादी ही थे, और चाहते हैं कि इसी अंतर्विरोध पर शमशेर की रचनाओं की व्याख्या को ठहरा दिया जाये. इस व्याख्या के पीछे यह अवधारणा काम कर रही होती है कि इससे कला का कम से कम भला होगा, वह स्वतंत्रता सांस ले सकेगी, फूलों से ही दूसरे फूल खिल सकेंगे, कितने ही शमशेर तब और हो सकेंगे. मनुष्य भी अपने व्यक्ति होने का सुखद, उल्लासमय अर्थ पा सकेगा जो उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखेगा. अशोक वाजपेयी के शब्दों में-
“शमशेर मार्क्सवाद में विश्वास करते थे इसमें कोई संदेह नहीं, लेकिन वो मार्क्सवादी कवि नहीं थे, कोई भी बड़ा लेखक वादी-विवादी या प्रवादी नहीं हो सकता. लेखक अपनी दृष्टि स्वयं विकसित करता है, अनेक चीजों से अपनी दृष्टि के विकास में सहायता ले सकता है. बड़ा लेखक वही है जो जरूरी होने पर अपनी आस्था का भी अतिक्रमण कर सके. वो बड़ा लेखक कैसे होगा जो अपनी आस्था के भीतर परिक्रमा करता रहे. शमशेर के यहां जो सौंदर्य और प्रेम की अवधारणा है वह मार्क्सवाद की सामाजिक आस्था के तथाकथित चोंचलों से बिल्कुल अलग करती है.”
(उद्भावना, शमशेर अंक, पृ. 102-103)
किसी हद तक द्वंद्व के इन दो छोरों को मार्क्सवाद के पक्ष में सुलझाने की कोशिश प्रगतिशील कवि वीरेन डंगवाल करते हैं. इस तरह के विमर्शात्मक हस्तक्षेप का उल्लेख इसलिए ज़रुरी है कि इसमें एक प्रयत्न है शमशेर की अपनी उद्दात्मकता को समझने की. लेकिन कहीं से यह प्रयास भी विमर्श में कोई स्पेस पैदा नहीं करता कि कोई तीसरा पाठ संभव हो सके. वीरेन डंगवाल लिखते हैं
“मुक्तिबोध ने शमशेर को एक प्रभाववादी कलाकार माना है. इस रूप में उनकी कविताएं संवेदना पर पड़े यथार्थ के प्रभाव की उत्कट और तीव्र प्रतिक्रिया हैं. एक विशिष्ट रूप में अनुभव होने का अनुभव. परन्तु उनका सौंदर्य और प्रेम छायावाद का इन्द्रियातीत और अगम्य वायवीय सौंदर्य और प्रेम नहीं, बाह्य जगत का मांसल सौंदर्य और प्रेम है जो अनुभव के स्तर पर स्वतःस्फूर्त शीघ्रता से परिवर्तित होता है और संवेदना में बदल जाता है कि इन्द्रियातीतता का भ्रम पैदा करता है. अपनी संवेदना और दृष्टि की गहनता में वह उत्तर छाया वादियों से भी भिन्न है. वस्तुतः यथार्थ को उनका कवि मनश्चेतना के स्तर पर ग्रहण करता है और उसी स्तर पर उनकी कविता के अनूठे संतुलन कायम होते हैं.”
शमशेर के रचना संसार में उपस्थित द्वंद्व को मार्क्सवादी ख़ित्ते में लाकर सुलझाते हुए वे लिखते हैं,
“उनकी कविता के भाव प्रसंगों द्वारा जनित समूचे वैविध्य के बावजूद उनके मूल कथ्य के स्तर पर बहुत सारी परतें नहीं दिखाई देतीं; एकनिष्ठ, अमूर्तीकरण तथा प्रतीकात्मक—बिम्बात्मक अभिव्यक्ति शैली की बहुलता के बावजूद, उनके उस मूल यथार्थवादी स्वरूप की परिचायक है जो ‘प्रत्यक्ष के परे’ के अनुभवातीत यथार्थ को ग्रहण करने की चेष्टा नहीं करता–उसके बजाय प्रत्यक्ष अनुभव का यथार्थ ही कविता में संवेदनात्मक पराकाष्ठा प्राप्त करता है और उस बिन्दु पर अमूर्त होता है, रंग और संगीत की तरलता प्राप्त करता है.”
शमशेर के रचना संसार में अवस्थित अंतर्विरोध-सा प्रतीत होता विचारों, कला दृष्टियों तथा जिये गये जीवन की मिताहारिता के आंतरिक फर्क को दरअसल शमशेर ने अपने लेखों में बहुत सुलझे ढंग से साफ़ किया है. उन्होंने लिखा है,
“कलाकार का धंधा ही वस्तु और शिल्प के प्रयोग से कलात्मक सत्य के यथार्थ को पाना है. प्रयोग इसी धंधे का नाम है. …..प्रयोग एक तरीक़ा है–अपने आप में पाने वाली स्वायत्त स्थिति नहीं… बयान की बेहतरी के लिए अंदाज़ पर ज़ोर देना उतना कलावाद नहीं जितना अंदाज़ (शैली) को बयान बना देना.”
अपने को अपने पाठकों के सामने और खोलते हुए वे लिखते हैं,
“यथार्थवाद का झंडा उठाने का मतलब अगर यह हो जाता है कि प्रतीक, रहस्य या केवल गीत के ताल-छन्द को व्यक्त करने वाली कला के हम सिरे से विरोधी हैं, तो यह मेरे खयाल से यथार्थवाद के साथ भी अन्याय होगा. कोई यथार्थवादी आलोचक अगर यह कहे, मसलन कि हिन्दी कविता में छायावाद एक निरर्थक चीज़ थी, तो वह न यथार्थवाद को समझ सकता है, न छायावाद को.”
(‘‘कुछ और गद्य रचनाएँ’’, संपादक रंजना अरगड़े, उद्भावना शमशेर अंक पृ. 167)
इतनी स्पष्टता के बावजूद शमशेर को लगातार दो खेमों की बौद्धिक क्रीड़ा की विषय वस्तु क्यों बनाए रखा गया यह अपने आप में एक गहरे विमर्श की ज़रूरत की तरफ़ इशारा करता है. क्या भारतीय बौद्धिक जगत में सामाजिक यर्थाथवाद को लेकर कोई बड़ी उम्मीद थी कि कला चिंतन की यह पद्धति क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकती थी, या कि स्वतंत्रता आंदोलन के जरिये अर्जित की गयी पूंजीवादी व्यवस्था इससे ध्वस्त हो जाती? यहाँ पर यह कहना आवश्यक है कि ऐंगल्स ने ‘यर्थाथवाद’ को बुर्जुवा कला चिंतन में प्रयुक्त होने के लिए उसकी प्रशंसा की थी. उदाहरण के तौर पर मारगरेट हार्कनेस (1888) को उन्होंने इस बात के लिए सराहा कि उन्होंने अपना उपन्यास ‘सिटीगर्ल’ समाजवादी उपन्यास की तरह नहीं लिखा. बल्कि उन्होंने बाल्जाक की प्रशंसा इसलिए की कि प्रक्रियावादी होते हुए भी उनके उपन्यास की जमीन यथार्थवादी थी. यानि इस दृष्टि से समाजवादी यथार्थवाद बुर्जुआ कला चिंतन का ही एक फार्म है. यह फार्म बुर्जुवा लेखक के लिए भी उपयोगी और सटीक है, कारगर भी. (रेमान सेलडेन, ए रीडर्स गाईड टू कनटेम्पोरेरी लिटररी थियोरी पृ. 2 )
(दो)
मुझे ऐसा लग रहा है कि शमशेर बहादुर सिंह के काव्य जगत, उनके रचना संसार का स्त्रीवादी पाठ इस द्वंद्वात्मक पाठ से बाहर आने पर ही संभव है.
एक तो यह द्वंद्व वास्तव में कृत्रिम है, दूसरे यह आइडियोलोजिकल है- अपने पितृसत्तात्मक अर्थ नियंत्रण में. तीसरे, यह शमशेर बहादुर सिंह की अपनी पितृसत्तात्मकता को भी स्त्री पाठ के लिए उपलब्ध नहीं होने दे रहा है, उनके सौंदर्य विधान को एक हद तक एक रहस्यमय, अस्पृश्य किवाड़ की तरह बनाये हुए है.
लेकिन उस पर एक स्त्री अब दस्तक देना चाहती है, बल्कि दे रही है. शमशेर की रचनाओं के स्त्री पाठ के लिए एक प्रवेश द्वार, मेरे ख्याल में रंजना अरगड़े ही दिखाती हैं, बल्कि हल्के से खोलती भी है जब वे शमशेर पर चली प्रगतिशील और प्रयोगशील बहसों को ध्यान में रखते हुए लिखती हैं
‘‘आज तक रूपवाद और मार्क्सवाद की लड़ाई में असली कविता मानो हमारे हाथों से जैसे फिसल गयी’’
(रंजना अरगड़े, भूमिका, शमशेर बहादुर सिंह, कहीं बहुत दूर से सुन रहा हूं, 1995)
शमशेर की दुनिया में उपस्थित स्त्री के चेहरे पर जैसे नयी रौशनी पड़ती है इस हल्के से खुले किवाड़ के कारण. रंजना अरगड़े का अपना पाठ भले स्त्री वादी पाठ न हो लेकिन वे कवि जीवन के बारे में जो बताती हैं, वह भी इस पाठ का एक सब टेक्स्ट बन कर अर्थ पैदा कर सकता है. वे शमशेर को ‘भीतर से गहरे तक कहीं आध्यात्मिक’ पाती हैं और उम्मीद करती हैं कि उनके इस पहलू पर कभी विचार होगा.
शमशेर ‘गहरे तक क्या थे’ यह तो उनकी रचनाओं के पुनर्पाठ से ही अर्थ पा सकेगा, लेकिन यह अवश्य स्पष्ट है कि अब तक शमशेर बहादुर सिंह का जो पाठ हुआ है वह पितृसत्तात्मक रहा है. स्त्रियों ने भी उन्हें या तो एक मार्क्सवादी कवि या फिर प्रयोगवादी कवि के ही रूप में पढ़ा है.
नारीवादी सौंदर्य बोध की दृष्टि से यहाँ यह कहना उचित होगा कि नारीवादी विमर्शकारों ने ‘सौंदर्य शास्त्र’ को भी लैंगिक संरचना का ही प्रतिपादन माना है, पुरुषों की दृष्टि से देखा गया सौंदर्य स्त्री को उसकी देह में घटा कर उसे उसके अपने अस्तित्व की विराटता से वंचित कर देता है. इसलिए स्त्री वादी चिंतन की एक धारा ‘बियोंड एसथेटिक’ वाली है, वह सौंदर्यशास्त्र के पार जाना चाहती है. अपने लिए अपने ही अनुभवों से अर्जित अभिज्ञान के आधार पर एक नया शास्त्र गढ़ना चाहती है जिसमें उसके ऐतिहासिक दमन और उससे उपजे दुःख की वस्तुपरक-चित्रण हो.
इस अर्थ में स्त्री वादी चिंतकों के लिए कला अपने आप में नहीं, अपने सामाजिक प्रभाव से ही अपने अर्थ तलाशे तभी वह स्त्री के किसी काम की हो सकती है. यदि उसका असर पितृसत्तात्मक व्यवस्था के लिए चुनौती पूर्ण नहीं है, तब उसका आंशिक महत्व ही उनके लिए है. टेरिल मोय अमेरिकन साहित्य आलोचना पर लिखती हुई कहती हैं-
‘स्त्रीवाद एक ऐसे सिद्धान्त को विकसित करने का प्रयास कर रहा है जो स्त्रियों की संवेदना को, उनके अनुभवों को, सहानुभूति पूर्ण ढंग से देखे और महत्व दे’.
इस अर्थ में यथार्थवाद से लेकर उत्तरआधुनिकतावाद तक न वे किसी एक फार्म को चुनती हैं न उसे त्याज्य समझती हैं. हर फार्म में उपस्थित उन क्षणों को तलाशती हैं जिसमें स्त्री की पीड़ा, उसका पितृसत्तात्मक संरचनाओं में पिस दिये जाने का अनुभव सिचिंत है. इसलिए वे ऑटो बायोग्राफी, नैरेटिविटी या फिर कनफेशनल साहित्य को पुराने फार्म में लिखी गयी रचना या साहित्य मानकर अस्वीकृत नहीं करना चाहती. इन विधाओं में लिखे साहित्य के विपुल सौंदर्य की सम्पदा उनके लिए उनमें संचित है चाहे वह सामाजिक यथार्थवाद हो, आधुनिकतावाद हो या फिर अतियथार्थवाद, इन तमाम सोच पद्धतियों, कला शैलियों की ज़मीन पितृसत्तात्मक ही रही है, और सौंदर्य दृष्टि लैंगिक. इस अर्थ में ‘सौंदर्य बोध या शास्त्र’ उनके लिए रहस्यात्मक नहीं. और इस अर्थ में शमशेर का कलाबोध भी स्त्री के लिए जादुई नहीं. उसका यथार्थ भी कलाएँ ढक नहीं सकीं. चाहे वह मार्क्सवाद से शनैःशनैः बर्हिगमन करते हुए अति यर्थाथवाद की तरफ गये हों, या फिर अपने पाँव धीरे से फिर पीछे खींच लिए हों, स्त्री वादी चिंतन में अब इतनी स्पष्टता आ गयी है कि ‘शिला का खून पीती थी…’ जैसी कविता का डीमिस्टीफीकेशन वह कर सके.
एक तो यहाँ बताना आवश्यक है इस रहस्यमय जादू के असर को कम करने के लिए कि अवांगार्द या ऐसे शैलीगत पैंतरे आपस में कोई मार्क्सवाद से अंतर्विरोध नहीं रखते थे. अवांगार्द और उसकी कई कलात्मक वैचारिक अभिव्यक्तियाँ मार्क्सवादियों द्वारा ही प्रेरित थीं. बुर्जुवा संस्कृति का खुद से मोहभंग पैदा करने के लिए, उसे अपने स्थिर से हो गये सौंदर्यबोध को तोड़ने के लिए, कला-विरोधी (एंटी-आर्ट) आंदोलन चलाया गया.
सूरयलिज्म इसका सबसे प्रभावशाली फ़ार्म आखिरकार साबित हुआ. इसलिए यदि शमशेर ने भी इस तरह के प्रयोग किये, तो वह कहीं से भी अपनी मूल चेतना से विचलित नहीं हुए. यह सिर्फ बुर्जुवा स्वतंत्रता के लिए आत्मक्रंदन नहीं था, इसके उससे भी ज्यादा गहरे आशय और प्रतिबद्धता थी. लेकिन इन कला आंदोलनों में अंततः पूंजीवाद तो निशाने पर आता गया, पितृसत्तात्मक व्यवस्था आँखों से ओझल रही.
स्त्री अपनी मनुष्यता में किसी को पूरी तरह से नहीं दिखी. शमशेर की कविताओं में अगर हम अब जाएँ और देखें कैसे उनके यहाँ सौंदर्य निर्मित होता है, उसमें स्त्री कहाँ है, उसकी क्या भूमिका है-
क्या कहीं स्त्री का ऐसा चित्रण हुआ है या उसका जोखि़म कवि ने उठाया जहाँ उसकी सुंदरता उसकी देह पर लोटती हुई ना हो-जहाँ वो एक ‘सलोना जिस्म’ भर ना हो, जहाँ वो एक खटती हुई, घिसती जाती हुई, बच्चे पैदा करती, पालती हुई- जीवन के तमाम काँव-कीच में फँसी हुई स्त्री हो, जिसे अपने बाल बाँधने या खोलने तक की फुर्सत ना हो, लहराने की तो बात ही अलग है, तब सौंदर्य विधान का श्रमपूर्वक तैयार किया गया महाजाल अपनी बुनावट में साफ़ दिखने लगता है कि वह क्या है.
इस संदर्भ में रीटा फेलस्की, जो एक महत्वपूर्ण नारीवादी चिंतक हैं, उनकी पुस्तक ‘बियोंड फेमिनिस्ट एसथेटिक्स’ में इन्हीं रहस्यों का खुलासा किया गया है. वे लिखती हैं कि,
‘‘स्त्रीवाद सामाजिक यथार्थवाद को पूरी तरह ख़ारिज नहीं करना चाहता, जिस तरह मार्डनिज्म ने किया, ना ही वह आधुनिकतावादी दौर के उस परिवर्तनकारी प्राप्य को ही गंवाना चाहता है जो उसने अपने अतिवादी दौर में पैदा किया. वैसे चूंकि ये सारे कलात्मक कार्य पितृसत्ता की जकड़नों पर कभी पूरी गहराई से प्रहार नहीं कर सके इसलिए हम जुलिया क्रिस्टेवा और तमाम बाकी पोस्टमाडर्न फेमिनिस्टों के संदर्भ में भी यही कह सकते हैं कि ‘परम्पराओं को तोड़ना भी एक परम्परा बन सकती है’’.
इस कलावादी- मार्क्सवादी सौंदर्य चिंतन के विमर्शों को खंगालते हुए नारीवादी आलोचना फिर स्त्री के अपने अनुभवों पर आ टिकती है. अपने साहित्य आलोचना के लिए- यही अवधारणा इसके लिए ज्यादा विश्वसनीय है. कला अपने सामाजिक असर में ही अपने अर्थ की गरिमा पा सकती है, और समाज में स्त्रियाँ भी हैं और उनका जीवन भी. यह कहना शायद शमशेर के क्लिष्ट, गहन ऐंद्रिकता को सरलीकृत करने जैसा होगा, लेकिन जहाँ तक स्त्री वादी आलोचना की दृष्टि से उनके काव्य संसार को समझने की कोशिश करती हूँ, उनकी ढेर सारी प्रेम कविताएँ, ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ का ही मुझे या तो विस्तार लगती हैं या फिर ऐसी संरचनाएँ जो अपनी छोटी काया में भी उस बड़ी काया की हल्की धूप सी उपस्थितियाँ हों. जैसे ही हम यहाँ टिकते हैं, उनका ‘मैस्कुलिन’ संसार अपनी अधखुली और ऐंठी सी (‘सादा और रचना में सरल’ कहीं से नहीं, जैसे अरगड़े कहती हैं) बनावट में सामने आने लगता है, वहाँ एक पुरुष, अपने आत्म परिष्कार में बेहद जटिल ढंग से अपनी भाषा में छिपा-सा दिखता है. उसी में उसने एक मौन आविष्कृत कर लिया है जिसमें ज्यादा पीड़ादायक ढंग से वह स्त्री से रू-ब-रू है.
स्त्री अपने ‘स्त्रीत्व में’ कवि के लिए प्रेम और विकट चाहत के बावजूद उसे नहीं प्राप्त कर सकने की हताशा से उपजे पीड़ा के अनुभव का नाम है, उसकी मनुष्यता इसी से परिभाषित होती मालूम होती है यहाँ. पुरुष के संदर्भ में ही स्त्री की पहचान होती है. अलग से एक व्यक्ति के रूप में वह शायद उनके सरोकार की वस्तु नहीं है क्योंकि तब वह एक ‘सबजेक्ट’ (स्वायत्त व्यक्ति) रूप से भी पहचानी जाए, इसका विकट प्रश्न खड़ा हो जाएगा. वह कवि की रुचि का विषय नहीं. बाकी वस्तु-जगत शमशेर के यहाँ ज्यादा वस्तुनिष्ठ ढंग से चित्रित और निरूपित है, जानवर से लेकर पुरुष श्रमिक तक उनकी एक्स-रे निगाह से अपनी पूरी सब्जेक्टीविटी में जगह पाते हैं, उनका सहानुभूतिपरक अंतर-लयन होता है साहित्य में, परन्तु स्त्री अपनी देह में ही, उसकी कमनीयता में ही महदूद रहती है- वही देह जो इतना दुख उपजाती है कवि के लिए.
शमशेर की ‘बैल’ कविता यहाँ प्रासंगिक ढंग से उल्लिखित की जा सकती है. यदि ‘बैल’ शीर्षक की जगह हम ‘स्त्री’ रख दें, तो क्या उस पूरी कविता की विषय वस्तु में सिवाय उसके लिंग बदलने के क्या कोई परिवर्तन करना पड़ सकता, अपनी मार्क्सवादी चेतना में वे ‘पूरी दुनिया को बैल’की तरह देखते हुए प्रशंसित किये जा सकते हैं, लेकिन बैल से भी ज्यादा श्रम करती हुई स्त्रियों के श्रम को क्यों यहाँ वैसी ही सहानुभूति नहीं प्राप्त है? शमशेर के यहाँ दरअसल स्त्री एक ‘सलोना जिस्म’ ही है, हाड़ कूटती, मरती खपती, श्रमिक नहीं- स्त्रियाँ
‘तितलियाँ गोया चमन की फिज़ा में नश्तर लगाती हैं.
वह एक जिस्म है ‘अजब’ सा (पुरुष श्रमिक जिस्म से अलग). इस जिस्म में तलाश की वस्तु श्रम नहीं, कमनीयता है, वासना- उचित वासना. कवि श्रमिकों से खुद को आत्म रूप करते हैं, वर्ग च्युत भी करते हैं अपने को एक मध्य वर्गीय बुद्धिजीवी के रूप में, लेकिन स्त्री के सम्मुख वही सदियों पुरानी पोजीशनिंग है- ‘गोलाईयों का आइना’ वह एक ‘ठोस बदन अज़ब तौर से’– ऐसी ही स्त्री उनके बाहर-भीतर बसी हुई है.
वह ‘काँसे का चिकना बदन’ हवा में हिलता-सा कुछ’ है, या फिर‘ठोस अष्ट धातु का-सा’ कुछ जिसकी ठोस जंघाएँ ‘दरिया से ठहरे हुए से’ हैं. लेकिन यह इतना ही नहीं है, रीतिकालीन कवियों की तरह शमशेर नहीं है, आधुनिक सौंदर्य संरचना की सारी उन्नत अवधारणाओं से लैस, उन्हें मालूम है कि सौंदर्यबोध को उत्पन्न करने के लिए, उसे ‘आईडियोलिजी’ की तरह इस्तेमाल करने के लिए अब नई प्रविधियां भी उपलब्ध हैं.
वे ‘अनुभव होने के अनुभव’ को कविता में लाना जानते हैं. वे इसलिए बुर्जुआ ऐस्थेटिक्स की शैलियों को अपने काव्य संसार को रचने के लिए प्रयोग करते हैं- यह जटिलता ही शमशेर की ‘शमशेरियत’ है. इसपर इतनी ही साफ़गोई से बातचीत होनी चाहिए ताकि उनके साहित्य की विषय वस्तु पर ज्यादा ध्यान केन्द्रित किया जा सके. शमशेर रीतिकालीन कवियों के मांसल संसार में परिवर्तन करते हैं, प्रवीणता से वह भी, क्योंकि बुर्जुआ सौंदर्य शास्त्र ने ऐसे वैचारिक उपकरण अब उपलब्ध करा दिये हैं कि इसके सौंदर्यबोध के सहारे अपने को, अपने ‘वस्तुनिष्ठ आत्म को’ उसके सत्य को, प्रछन्न रखा जा सकता है, एक ओट में, और अपने विषय वस्तु की सब्जेक्टिविटी को उसकी वस्तुता में तब्दील किया जा सकता है.
टूटी हुई बिखरी हुई’ की स्त्री सबके सामने है- अपनी नृशंसता और बेवफाई में- और उसी में वह सुन्दर दिखाई जा रही है. यह कितना घातक है स्त्री के अपने ‘आत्मछवि’ के लिए!
पूरी कविता, ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ कवि के आत्म-प्रतिलोमन की कविता है, (सेल्फ इनवरजन) जिसमें कवि स्वयं ‘स्त्री से भी ज्यादा कोमल मन वाला दिखता है, इतना कोमल और पवित्र कि उसमें प्रवेश करने में बड़े-बड़े दूसरे कवि डरते हैं.
कवि अपने को उस स्त्री की तुलना में कहीं बेहतर, ‘बड़ा’ और उच्च मनुष्य के तौर पर स्थापित करता है, और नये स्वतंत्र भारत में उभरी हुई स्त्री, स्वतंत्रता को चाहने वाली स्त्री को अपने इस परिष्कृत संसार में वह फिर से दोयम दर्जे की स्थिति में डाल देता है, उसका पुराना चरित्र जिसे सामंतवादी पितृसत्तात्मक संरचना ने यत्नपूर्वक तैयार किया था पुन: स्थापित कर देता है नये सन्दर्भ में.
रीटा फेल्क्सी की व्याख्या को हम यहाँ याद करें, जिसमें वह कहती हैं कि सौंदर्यशास्त्र और उसके कलात्मक बोध के लिये किए गये अनगिनत परिवर्तनकारी उपक्रम पूंजीवाद को तो चुनौती देते रहे, उसका एक उच्च बुर्जुवा फार्म तो तैयार करते रहे, परन्तु उन्होंने पितृसत्ता को कभी नहीं चुनौती दी. नतीजतन ये सारे कलात्मक प्रयत्न क्षणभंगुर ही साबित हुए, यहाँ तक की अवांगार्द भी पूंजीवाद के लिए आख़िरकार ‘कलात्मक’ कला का ही उत्पाद करता रहा, या फिर वह स्वयं ही बुर्जुवा संस्कृति का अपना एक कलात्मक उत्पाद साबित हुआ. स्त्री के सौंदर्य का घटाटोप जो स्वयं बुर्जुआ संस्कृति ने रचा, वह भी अवांगार्द में आकर ध्वस्त होने लगा. स्त्री देह अजब-अजब प्रयोग की वस्तु बनी.
शमशेर के यहाँ भी कुछ ऐसा ही होता प्रतीत होता है. इसमें एक नयापन यह है कि वह उस सौंदर्य को पूरी तरह ध्वस्त नहीं करते, जो अवांगार्द की एक सीमा भी थी, बल्कि उसे अपने पौरुष के परिष्कृत रूप की सर्वोच्चता स्थापित करने के लिए बचा लेते हैं. अपने बोध में शमशेर अपनी प्रेयसी से भी ज्यादा सुंदर है. उनके उस सौंदर्य-संधान की जटिल प्रक्रिया में स्त्री की सुंदरता संदिग्ध हो जाती है. उसके अंतःपुर में किसी और की घुसपैठ यहां होती दिखती हैं, उसके अन्तर-मन की पुनः सर्जना करता है कवि जिसमें वह कोई दख़ल नहीं देती सी दिखती. उसका अपना व्यक्ति विशिष्ट पोजीशन कभी नहीं उभर कर आता–वह क्या सोचती है कवि के इस एक ‘तरफ़ा प्रेम पर’, उसकी बदहवासी पर, यह जानने का कोई तरीक़ा नहीं है क्योंकि उनकी कविताओं में असल ‘मौन’ उस स्त्री का ही है–अवरुद्ध, रुद्ध और ‘ताकता’ सा, बहता सा नहीं.
(तीन)
जर्मन ग्रेयर ने इस संदर्भ में प्रेम में एकाधिकार चाहने वाले, या फिर एक तरफ़ा प्रेम करने वाले पुरुषों के बारे में लिखा है कि अंततः वे स्त्री के संतुलन को क्षतिग्रस्त कर देते हैं, उसका वस्तुनिष्टिकरण करते हुए उसके आत्म संयम को नष्ट कर देते हैं.
यहाँ कहीं से प्रेम की जा रही स्त्री की अपनी मंशा का पता नहीं चलता, इस पर कोई विचार नहीं होता कि यदि उसने किसी और से प्रेम करने का जो फैसला लिया है तो वह वाज़िब ही होगा. वैसे भी यह उसका अधिकार है. एक कवि जो अपनी श्रेष्ठता इस बात में ज़ाहिर करता है कि ‘वजुज़ एक सुराही के’, ‘एक चटाई’ के उसके पास कुछ भी नहीं, ऐशोआराम की ख्वाईश से जो कोसों दूर है, उसे स्त्री के प्रेम पर एकाधिकार चाहिए. उसका सारा दुख इससे ही पैदा होता है. जब ऐसा वह नहीं कर पाता प्रत्यक्ष रूप से, अप्रत्यक्ष रूप से ऐसा अधिकार वह भाषा में दो तरह से पाने की चेष्टा करता है- अपने पौरुष का विपर्ययन करके (सेल्फ इनवरजन) जिसमें वह अपना फेमिनाईजेशन करता है, आंशिक ढंग से.
दूसरे जितना स्वतः स्फूर्त वह दिखता है अपनी अभिव्यक्ति में उतना ही भाषा में स्ट्रैटजिक ढंग से अर्थ को नियंत्रित करता खुद को बचाता है. टेकनीक का मास्टर, वह सफल भी होता है. अपनी कविताओं के अर्थ पर उसी तरह का नियंत्रण और अधिकार चाहता है, या पाता है, जैसी स्त्री देह पर, स्त्री के प्रेम पर. जब स्त्री देह पर उसकी वस्तुता में यह संभव नहीं हो पाता, तब स्त्री-स्वरूप भाषा की देह पर उसे हासिल करता है.
यह वह इतने कुशल ढंग से करता है कि उसका ‘आत्म’ भाषा में उत्पन्न हो रहे अर्थों में छिपा रहता है, बल्कि भाषा ही सबकुछ करती दिखती है उसके बजाय. यानी स्त्री खुद. यह कितना सफल प्रयोग है पितृसत्ता का! स्त्री सा दिखता, कोमल मन वाला पुरुष कवि यह सब कैसे कर सकता है, भला उसे इस बारीक ढंग से काम करते कोई कैसे देख सकता है. वह तो हारा हुआ है, असहाय, प्रेम में तिरस्कृत. उसकी प्रवीणता, उसका असली पुरुषार्थ, उसकी सजगता ओझल ही रहती है.
जब हम ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ का स्त्री वादी पाठ करते हैं तब यह कुछ हद तक अनावृत होता है- स्वातंत्रोत्तर भारत के बुर्जुवा ‘पुरुष’ का विकसित सौंदर्य शास्त्र अपने सामाजिक यथार्थवाद में पितृसत्तात्मक साफ़-साफ़ दिखता है. पर वह आत्म दया नहीं, जो ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ की काव्यवस्तु में दिखती है, यहां पर उनकी पितृसत्तात्मक प्रवीणता, ज्यादा अमूर्त है अपने बुर्जुआपन में. वह भाषा का मामला बनी रहती है, स्त्री देह की मांसलता से विलग, जबकि ऐसा नहीं है. इस ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ का पुनर्पाठ करें यह देखने के लिए कि कविता की रचना में वे किस तरह सफल हुए हैं, वही अर्थ पैदा करने में जो वे चाहते हैं, किस तरह एक-एक स्टैंजा वे उन सैनिकों की तरह खड़ा करते हैं जिन्हें एक युद्ध जीतना है. पुनर्पाठ में हम यदि उनकी संरचना में तब्दीली कर दें, तब वह कविता एक सपाट प्रेम में आहत कवि का रूदन और उसी पीड़ा में अनाप-शनाप बोलने जैसा कुछ प्रतीत होगा, लेकिन जिस रूप में वह कविता में है, कला का अप्रतिम रूप धारण कर लेती है–‘विशुद्ध सौंदर्य की कविता’ वह बन जाती है.
यहां शायद यह प्रसंग लाना अनुचित न होगा किस तरह शमशेर अपनी कविता संग्रहों की छपाई में यह विशेष खयाल रखते थे कि कविता की पंक्तियां, दूसरे चित्रात्मक संकेत डिस्टर्ब न किए जाएं जिसका ज़िक्र सुरेश सलिल अपने लेख (उद्भावना विशेषांक) में करते हैं.
टूटी हुई बिखरी हुई’ का पाठ करते हुए मुझे यह कविता अपनी सुन्दरता में मारक लगी. अपनी राजनीति में स्त्री को पुनः पितृसत्तात्मक संरचना में फिक्स करती हुई. रचना की अपनी संरचना में ही इतनी शक्ति का प्रयोग किया गया है कि स्त्री इसके केंद्र में होती हुई कहीं और खड़ी कर दी जाती है- संदिग्ध, अविश्वसनीय और निष्ठाहीन. उसकी विश्वसनीयता पूरी तरह से ख़तरे में है. कवि खुद को अपनी कविता की संरचना में पहले अपने को नैतिक रूप से बेहतर स्थिति में बहुत ही कुशलता से अवस्थित करता है, अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता को उजागर करता हुआ अपनी सर्वोच्चता को असंदिग्ध बताता है. फिर अपनी प्रेमिका की नृशंसता को ज़ाहिर करता हुआ, आत्मदया से भरा हुआ, अपने को भेद्य दिखाता है. इस तरह अपने प्रति दूसरों की सहानुभूति पक्की करता है. इससे वह अपने को सिर्फ एक सच्चा कम्युनिस्ट ही नहीं, बेहतर इंसान भी बताता है जो उदार है, जो दूसरों की स्वतंत्रता का भी सम्मान करता है, यह स्वातंत्रोत्तर भारत में नयी स्त्री और नये पुरुष के वर्चस्व के पुनर्गठन का नया पितृसत्तात्मक मुक्त काव्य है.
(अपने आशय में ज्यादा, वृतांत में कम)
इस कविता को बाद में हम पुनः संरचित करेंगे यह दिखाने के लिए कि यदि कवि स्वयं इतना सावधान न होता, खुद को अपने टेक्स्ट से ढक छुपाकर न रखता, टेक्स्ट के अर्थ पर इतना भीषण नियंत्रण न रखता, तब शायद यह कविता सपाट ढंग की एक प्रेम में आहत कवि की पीड़ा गाथा ही होती जो वर्षों से कवियों ने लिखी है, और जिसका असर पुरानी किसी ऐसी ही कविता जैसा होता. परंतु यह कविता इतनी सजग है अपनी पितृसत्तात्मक संरचना में कि वह लगभग, जैसे सीमोन ने कहा है, सत्य का दर्पण लगती है, विश्वसनीय, अपने सौंदर्य में तीक्ष्ण और अपूर्व.
कविता का पाठ करते हुए ऐसा लगता है कि कविता शुरू किन्हीं और पंक्तियों से हो सकती थी, जैसे ‘एक फूल उषा की खिलखिलाहट पहनकर’ जहाँ से लगभग वह कविता मिल जाती है जिसे सपाट ढंग से लिखी एक प्रेम कविता मान सकते हैं. लेकिन नहीं, यह उतनी ही नहीं है. कवि सबसे पहले धीरे से यह बताता है कि उसकी कविता, उसकी आत्मा की छाया, वह भी कुछ नहीं उसके लिए जिसे वह प्रेम करता है. उसकी यह अवमानना भी शायद ऐसी सहानुभूति न बटोरती उसके लिए, जितनी उसके मनीषी आत्म की पवित्र अभिव्यक्ति की अवमानना बटोर सकती है- यानी उसकी कविता की स्थिति. कवि लिखता है —
जो हाल कविता का हुआ बना पड़ा है, उससे कुछ बेहतर नहीं ख़ुद का. कवि यहाँ इतनी आत्म दया उपजाता है कि सहज ही उसके प्रति सहानुभूति पैदा हो जाती है–
‘बाल, झड़े हुए, मैल से रूखे, गिरे हुए, गर्दन से फिर भी
लेकिन इस बदहाल स्थिति में भी वह अपनी सोच में विशिष्ट, अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता में निष्ठावान, तुरन्त अपने पोजीशन को, उसकी सर्वोच्चता को सिक्योर करता है-
दोपहर-वाद की धूप-छाँह में खड़ी इंतज़ार की ठेलेगाड़ियाँ
खाली बोरे सूजों से रफू किये जा रहे हैं….जो
फिर अपने दर्द को भी मामूली किसी दर्द से बेहतर बताते हुए पाठक को अपनी तरफ़ करते हुए लिखता है–
कबूतरों ने एक ग़ज़ल गुनगुनायी….
मैं समझ न सका, रदीफ़-क़ाफ़िये क्या थे,
इतना खफ़ीफ़, इतना हल्का, इतना मीठा
उनका दर्द था
दर्द को इस बारीकी से समझने वाला बहुत ही परिष्कृत मनुष्य होगा. और यह मनुष्य पीड़ा में है, उसके दर्द को महसूस करने वाले संवेदना के बेहद कोमल और तरल इलाके में ले जाये जाते हैं. जो इस दर्द की टीस के गवाह बन सके. फिर कवि अपने हृदय की स्थिति को और थोड़ा प्रकाश में लाता है, उसके पाठक जो अब उसके हो चले हैं, उनके साथ थोड़े आत्मविश्वास के साथ अपना हाल साझा कर सकता है- धीरे-धीरे उसके पाठक स्त्री के दर्द या फिर उसकी वास्तविक स्थिति में कोई रुचि नहीं रख सकेंगे. वह ऐसी स्थिति पैदा कर देता है. अब वे वही सुनेंगे और विश्वास करेंगे जो एक परिष्कृत, प्रतिबद्ध कवि, जो मानवता के परिष्कार और सुन्दर जीवन के लिए संघर्ष कर रहा है, कहेगा.
आसमान में गंगा रेत आईने की तरह हिल रही है.
मैं उसी में कीचड़ की तरह सो रहा हूं
मेरी बांसुरी है एक नाव की पतवार-
जिसके स्वर गीले हो गये हैं,
छप् छप् छप् मेरा हृदय कर रहा है…
अचानक वह अपने पाठक को टेंस कर देता है- यह नाटकीयता ही इस कविता की मूल शक्ति है जो बाक़ी सबों को अशक्त कर देती है- चाहे वह पाठक हो, या फिर प्रेयसी, प्रेम की पात्र, जिसकी स्थिति को खराब करना वह पहले से ही शुरू कर चुका है- अब धीरे-धीरे उसका वस्तुनिष्ठीकरण होगा और लोग इस गढ़े जा रहे सत्य को पूरी तरह से वस्तुनिष्ठ सत्य मान लेंगे.
‘‘वह पैदा हुआ है जो मेरी मृत्यु सँवारने वाला है.
वह दुकान मैंने खोली है जहां ‘प्वाइजन’ का लेबुल लिये हुए
उनके इंजेक्शन की चुकोटियों में बड़ा प्रेम है.
यह व्यंग इस कविता की स्त्री को ले डूबता है, पाठक स्वयं कभी इसकी रिकवरी नहीं कर सकता. यह ज़हर है, मीठा ज़हर, यह बात टेक्स्ट के अर्थ में पिरोई जा चुकी है. फिर उसके बारे में बातें कही जा सकती हैं, नाटकीयता और नाटकीय हो सकती है, हो भी जाती है–
‘वह मुझपर हँस रही है, जो मेरे होंठों पर एक तलुए
मगर उसके बाल मेरी पीठ के नीचे दबे हुए हैं
और मेरी पीठ को समय के बारीक़ तारों की तरह
उसके चुम्बन की स्पष्ट परछाईं मुहर बनकर उसके
तलुओं के ठप्पे से मेरे मुंह को कुचल चुकी है
उसका सीना मुझको पीसकर बराबर कर चुका है.
कवि अपने लिए इस बदहाली का एक देवदासीय रोमान रचता है, अपने को पूरी तरह बचाता, और उसको, जो उसका हिस्सा नहीं अब, जो अन्य हैं, उसे ख़तरे में डालता, उसकी विश्वसनीयता को, उसकी सब्जेक्टीविटी को नष्ट करता- टेक्स्ट में लगभग जीतता अपने को तैयार करता है कि जो ख़राब बातें वह कहने जा रहा है, जिसे वह और विस्तार देगा और गहरा करेगा, वह उसकी कलात्मकता को कहीं से रद्द न करे–
मुझको प्यास के पहाड़ों पर लिटा दो जहाँ मैं
एक झरने की तरह तड़प रहा हूँ.
मुझे सूरज की किरणों में जलने दो-
हाँ, तुम मुझसे बोलो, जैसे मेरे दरवाजे की शरमाती चूलें
सवाल करती है बार-बार… मेरे दिल के
फिर यह उदारता- यह रियायत, उस स्त्री को देकर नाटकीय ढंग से हमेशा के लिए उससे बेहतर स्थिति में आ जाता है, एक सब-टेक्स्ट कवि तैयार करता है, जैसे एक खिड़की खोलता है ताकि उसे पढ़ने वाले उसके मार्क्सवादी, उदार पहलू से भी वाकिफ हों जिसे अक्सर कट्टरपंथी मार्क्सवादी तरजीह नहीं देते. कवि अपने ‘अन्य’ को और अधिक दयनीय बनाता हुआ लिखता है–
हाँ, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं
…जिनमें वह फँसने नहीं आतीं,
जैसे हवाएँ मेरे सीने से करती हैं
जिसको वह गहराई तक दबा नहीं पातीं,
तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ.
आईनो, मैं तुम्हारी ज़िन्दगी हूँ.
एक पूरी टेक्चुअल स्ट्रेटजी के तहत कवि अब एक विश्वसनीय पात्र है. और उसका ‘अन्य’ एक संदिग्ध अर्द्ध विकसित छाया (क्योंकि वह कवि की परिपक्वता और उसके विचारों के परिष्कार को नहीं समझ रही है.) एक संवेदनशील पात्र के रूप में कवि आराम से अपने अर्थ में स्थिर हो जाता है. कवि के लिए अब उतना ख़तरनाक या नुकसानदेह नहीं है सपाटबयानी करना–अपने कहे के अर्थ को बिना नियंत्रित किये वह अब अपने प्रेम की विफलता से उपजी पीड़ा से बिना किसी शैलीगत आचरण के, नग्न ढंग से, निपट सकता है, वह सुरक्षित है अपने प्रहार में. अब वह क्रूर होकर भी वैसा नहीं दिखेगा- वह दूसरे को क्रूर और नृशंस दिखा सकेगा और लोग उसका विश्वास करेंगे. स्त्री होती ही है ऐसी. और अब यह पितृसत्तात्मक सत्य संपूर्ण सत्य की तरह दिखेगा.
दरअसल ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ के भीतर एक पूरी दूसरी कविता निम्नलिखित पंक्तियों से शुरू होती है जो ज्यादा ईमानदार और कम चालाकी से भरी हुई है:
एक फूल ऊषा की खिलखिलाहट पहनकर
रात का गड़ता हुआ काला कंबल उतारता हुआ
उसमें काँटें नहीं थे- सिर्फ़ एक बहुत
काली, बहुत लंबी ज़ुल्फ़ थी जो ज़मीन तक
साया किए हुए थी…जहाँ मेरे पाँव
जब तुम मुझे मिले, एक खुला फटा हुआ लिफ़ाफ़ा
बहुत, उसे उलटा-पलटा- उसमें कुछ न था-
तुमने उसे फेंक दिया: तभी जाकर मैं नीचे
पड़ा हुआ तुम्हें ‘मैं’ लगा. तुम उसे
उठाने के लिए झुके भी, पर फिर कुछ सोचकर
मुझे वहीं छोड़ दिया. मैं तुमसे
यह ज्यादा सीधा सरल बयान है अपने हाल का, आत्म पीड़ा से ज्यादा आत्म-दया यहाँ है. अभिव्यक्ति में कोई ताज़गी या विलक्षणता पैदा करने की कलात्मक कोशिश नहीं, शुरू की जो पंक्तियाँ है, वहां जो पोजिशनिंग है, वह यहाँ ढीली सी एक चाल भर लगती है. अपने कोसने, धमकाने, कटाक्ष करने में भी कवि ज्यादा प्रत्यक्ष है, वहदिखता ज्यादा है ऐसा करता हुआ-
मेरी याददाश्त को तुमने गुनाहगार बनाया- और उसका
सूद बहुत बढ़ाकर मुझसे वसूल किया. और तब
फिर अचानक जैसे इसका आभास कवि को होता है कि उसने अपने को कुछ ज्यादा ही सुगम बना दिया, अपने मन की बात कुछ ज्यादा ही साफ़ ढ़ंग से कह दी, नियंत्रण जैसे अपने ही टैक्स्ट पर कम हो गया, वह तुरन्त दो बेहतरीन वाक्य यहां जोड़ता जो उसकी कलात्मकता पर दाद देने के लिए विवश करता है:
मैंने कहा- अगले जनम में. मैं इस
तरह मुस्कराया जैसे शाम के पानी में
डूबते पहाड़ ग़मगीन मुस्कराते हैं.
मेरी कविता की तुमने ख़ूब दाद दी- मैंने समझा
तुम अपनी ही बातें सुना रहे हो. तुमने मेरी
किसी वेवफ़ा की बेवफ़ाई का बयान करने का यह ज्यादा असरदार तरीक़ा है–व्यंग्य में उसे कहो कि वह कितनी झूठी और मक्कार है. कविता को लेकर कितनी कमख़याल, वास्तव में असंवेदनशील और क्रूर-
तुमने मुझे जिस रंग में लपेटा, मैं लिपटता गया:
और जब लपेट न खुले–तुमने मुझे जला दिया.
मुझे, जलते हुए को भी तुम देखते रहे: और वह
उसकी क्रूरता को और उभारने के लिए ऊपर की अंतिम पंक्तियाँ कितनी कामयाब साबित होती हैं, यानी इसके बावजूद मैं अपने प्रेम में निष्ठावान, दर्द से परे तुम्हें प्रेम करता रहा और तुम अपनी क्रूरता में इंसान तक जैसे नहीं बचे थे, हैवान हो चले थे, मुझे यूँ तिरस्कृत कर. बाकी कविता अपने क्लाइमेक्स पर इन्हीं अर्थों को गहराती हुई तब पहुंचती है जब कवि के लिए यह चोट एक बेशक़ीमती सुखद याद का मेटाफर बन जाती है, जिसमें से क्रूरता, नृशंसता और मूर्खता निकाली जा चुकी है–गंदे तालाब से जैसे कमल चुन लिये गये हों–
आह, तुम्हारे दाँतों से जो दूब के तिनके की नोक
उस पिकनिक में चिपकी रह गई थी,
आज तक मेरी नींद में गड़ती है.
बाद की पंक्तियों में कवि तो अपनी उद्दाम गरिमा में बचता है, इस पीड़ा से ख़ुद को जैसे छान लिया हो. उसे जो पीड़ा देने वाला है, उसे अपनी पवित्र कविता से बाहर कर देता है, सिर्फ़ उसकी यादों को बचा लेता है–यह ज्यादा कवितामय है–अंत तक कवित्व की रक्षा करता है, अपनी रक्षा करता है–लेकिन उसको नष्ट कर देता है–जिसे वह प्रेम करता है–
अगर मुझे किसी से ईर्ष्या होती तो मैं
दूसरा जन्म बार-बार हर घंटे लेता जाता:
पर मैं तो जैसे इसी शरीर से अमर हूँ–
(कितना सही), अब तो वह हो भी नहीं सकती —
बहुत-से तीर बहुत-सी नावें, बहुत-से पर इधर
उड़ते हुए आए, घूमते हुए गुज़र गए
मुझको लिये, सबके सब. तुमने समझा
कि उनमें तुम थे. नहीं, नहीं, नहीं.
उनमें कोई न था. सिर्फ़ बीती हुई
स्थिति बहुत साफ़ है अब. परन्तु ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ यहीं समाप्त नहीं होती–यह कविता कितनी ही कविताओं में जाती है, जैसे कोई गोरिल्ला युद्ध कर रही हो, उसमें और अर्थ भरने के लिए, जो नहीं कही जा सकी बात यहां उसे कहने के लिए. यह कहने के बाद कि वह कहीं नहीं है उसके लिए, कवि उसका लगातार पीछा करता रहता है, उसे अपने नियंत्रण से मुक्त नहीं करता, उसे उसकी यादों में जब्त कर रखा है, और मन की आंखों को लगातार उसपर गड़ाए हुए हैं, निगाह उस पर से हटती नहीं, सदा केंद्रित है. कवि इस स्त्री की ‘मेंटल स्टाकिंग’ करता रहता है-
कोई परदेशी प्रियतम की मानो रति
(भावुक)
तुम्हें तो आसान था जाना कहीं भी
मैं ही दोषी था: तुम्हें उन्मुक्तता थी
तुम जिसे चाहो, वरो, फिर क्यों ढहर कर
तुम्हें हेरा मौन अपनी ओर मैंने,
तुम, कि थी उन्मुक्त वातायन हृदय की
देखता था मैं तुम्हें अभिसार करते
इन पंक्तियों के ज़रिये, कवि लगातार उसकी यौनिकता पर अधिकार बनाए हुए है. उसको दूसरे संग अभिसार करते देखता है. यह लगभग एक बीमार पुरुष मानसिकता की ओर इंगित करती स्थिति है. यहां सौंदर्य से कहीं ज्यादा कुरूपता उपजती दिखती है. यहां कोई जादू नहीं. शमशेर के यहाँ सौंदर्य का रंग कैसा है फिर? आत्मा में दुर्भाव जैसा! स्त्री के प्रति प्रेम यहां भी उसकी यौनिकता पर एकाधिकार की पिपासा है, हालांकि कवि यहां तड़पता, लथपथ हारे हुए सा दिखता है ऐसा करता हुआ भी. असहाय. हाय की आवाज़ से भरा, गिरावट तक जाता. यह शाप भी तभी समझ में आता जो वह दे रहा उसे जिसे वह प्रेम करता है–
(चार)
दो शब्द यहां मैं उस स्त्री की तरफ़ से कहना चाहती हूं, जो (क्योंकि वह तो कुछ बोल ही नहीं सकती थी, उसकी आवाज़ को कवि ने ग़ायब कर दिया है अपनी कविता में) यूं सबके समक्ष लांछित, नामित लाई गई है. यह क्या असभ्यता नहीं, क्रूरता नहीं कि जिसे आप प्रेम करते हैं, उसको यूँ उघार देते हैं. प्रेम तो चीज़ों को ढक लेता है, जैसे नदी रेत को, पत्थर कंकड़ों को (प्रेम में एक स्त्री यह भी कहती हुई पायी जा सकती है: यह कैसा आईना है जो मेरी झुर्रियों को छिपा लेता है) , यह मनुष्योचित प्रेम नहीं जो मनुष्य मनुष्य से करता है, यह एक तरह का पुरातन संघर्ष है जिमसें पुरुष ने प्रकृति को (स्त्री ) को पराजित किया, फिर उसके दमन के (नित नवीन होते, करते) अप्रतिम तंत्र विकसित किये (पितृसत्ता), उससे उबरने की उसकी हर कोशिश को नाकाम किया. उसे घृणा और प्रेम दोनों से ही मारा. उसे उसके सौंदर्य से वंचित किया, उस सौंदर्य में ही उसे कुरूप बनाया, उसकी देह को लगाकर एक युद्धस्थल बनाए रखा. अहर्निश, बिना किसी अंतराल के.
अंत में, शमशेर बहादुर सिंह को पढ़ते हुए लगता है उनका सौंदर्यबोध कितना लैंगिक है और स्त्रीवादी चिंतन जो सौंदर्यबोध के पार, उसके खिलाफ़ भी जाना चाहता है, अपने आप में कितना जरूरी है स्त्री मुक्ति के लिए. हमें तमाम सुनहरे पिंजरे, तमाम झिलमिल किरणों से रची गयी धाराएँ त्यागनी होंगी. हमें उसके भी पार उतरना होगा. इस संदर्भ में मुझे सल्वादोर डाली का एक चित्र याद आ रहा है जिसमें उनकी प्रेमिका उनकी तरफ़ अपनी नग्न पीठ किये बैठी दिखाई दे रही है, और थोड़ी और आगे, हठकर, जैसे सच्चाई का कोई अप्रत्यक्ष आइना रखा हो, जिसमें उसकी सुंदर मांसल देह मात्र एक ढांचे सी दिख रही है. हड्डियों से बना एक ढांचा. यह सूरयलिज्म का एक विशेष क्षण है जिसपर ठहरना स्त्री के लिए भी आवश्यक है, यह क्षण न सिर्फ कला और सौंदर्य विरोध (एंटी आर्ट) की अवधारणा को स्थापित करने के लिए ही महत्वपूर्ण है बल्कि सौंदर्य को उसकी कुरूपता में दिखाता है, और तमाम तरह की काराओं से स्त्री देह से मुक्ति पा सकती है इसकी संभावना भी पैदा करता है.
वह कम से कम सदियों से चली आ रही स्त्री पराधीनता, जो उसके शरीर को कमनीय और वासना तथा सुख की वस्तु बताकर पैदा की गयी है उससे उसका मोहभंग तो कर ही देती है. चिंतन के लिए यह विचारणीय क्षण शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं को पढ़ते हुए कितने मूल्यवान लगे, कितने अपने!
क्या शमशेर बहादुर सिंह के सौंदर्य विधान को स्त्री इसी तरह भग्न कर उनकी कविताओं में ट्रैप्ड अपनी देह छुड़ा सकती है?
क्या वह कह सकती है कि वह किसी की छाती नहीं पिसना चाहती, नहीं किसी के दुख पर हंसना, किसी को जलते हुए देखना और उसे बचाने का कोई प्रयत्न नहीं करने की नृशंसता से लांछित होना. वह तो बस होना चाहती है, जैसी वह है- एक मनुष्य, एक नागरिक, अपनी प्रकृति में स्नेहिल, प्रेम करती हुई- जो प्रेम को छल में नहीं बदलती. ‘काल तुझसे होड़ मेरी’ कविता यहां पर ऊपर कही जा रही बातों के संदर्भ में पढूं तो स्पष्ट है यह कविता ‘न्याय और सुन्दर’ को एक युग्म अवधारणा बनाने की कोशिश है जिसका यथार्थवादी (समाजवादी) फार्म इसे एक अतिक्रमण की कविता भी बनाता है. काल से होड़ इस अर्थ में है कि उससे परे जाकर सौंदर्य की अवधारणा को स्थापित किया जा सके जो साम्यवादी समय का अपना रूप हो.यह वही सौंदर्य अवधारणा है जिसे हम अपनी आलोचना के केंद्र में रखे रहे हैं–
तुझसे होड़ है मेरी: अपराजित तू–
तुझमें अपराजित मैं वास करूँ.
इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूँ
…..मैं–तेरे भी, ओ ‘काल’ उपर !
सौंदर्य यही तो है, जो तू नहीं है, ओ काल!
अपने समय के अतिक्रमण का यह एक साहसी कलात्मक चित्रण है, परन्तु स्त्री तो उस सौंदर्य समय का भी अतिक्रमण चाहती है, वह इस सुन्दर की रचयिता की दुनिया में भी आश्वस्त नहीं. भले ही कवि अपनी चेतना में एक कम्युनिस्ट है, सारी क्रांतियां, कम्यून, कम्युनिस्ट समाज नाना कला-विज्ञान और दर्शन उसके भीतर है, लेकिन 21वीं सदी की स्त्री ने तो सब कुछ देख और समझ लिया है.
कम्यून में भी जब उससे अपेक्षा घरेलू काम करने, यानी खाने बनाने से लेकर दूसरों की देखभाल करने की हो, तब वह इस कम्यून की परिकल्पना पर आलोचनात्मक दृष्टि डालेगी ही. वह इस यूटोपिया की कल्पना में भी कैसे शामिल हो सकेगी, किस आश्वस्ती के साथ? यहां स्तालिन और ट्राट्स्की के बीच हुई उस बहस पर भी निगाह डालने की आवश्यकता है जिसमें समाजवाद में स्त्री की भूमिका और जगह को लेकर अंतर्विरोध पैदा हुए थे. स्त्री के ‘घरेलू जीवन’ की अवधारणा में ही उसकी पराधीनता अवस्थित रही है. आज भी सारे समाजवादी देशों में श्रम का विभाजन बुर्जुआ समाजोंवाला रहा है. आज भी बच्चों को पालने पोसने, घरेलू कामों में लगते श्रम, अवमूल्यित है. समाजवादी राज्य व्यवस्था स्त्री के श्रम का उतना ही शोषण करती है जितना पूंजीवादी व्यवस्था. घरेलू श्रम की जैसे एक ही परिभाषा हो हर व्यवस्था में. इससे एक बात साफ़ होती है, कोई एक और व्यवस्था है जो स्त्री का शोषण और दमन करती है, जो सारी व्यवस्थाओं के भीतर की एक व्यवस्था है–पितृसत्ता.
यह समाजवादी अवधारणाओं पर आधारित उस ‘यूरोपिया’ ‘कम्यून’ में भी बची रहती है. जब तक स्त्री के श्रम को मूल्यवान नहीं बनाया जाएगा, उससे किसी तरह का कल्पित अतिक्रमण बेमानी है. इन सारी स्थितियों को देखते समझते हुए ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ कविता का पुनर्पाठ ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ के संदर्भ में करने से शमशेर बहादुर सिंह की सौंदर्य रचना का जादू टूटता-सा प्रतीत होता है. उससे स्त्री का मोह भंग होता है. स्त्री काल से होड़ करते पुरुषों से अपनी दसता और दमन का अलग से हिसाब करना चाहती है. सुनहरे स्वप्नों को वह एक जाल की तरह देखती है, आंख मूंद कर वह उसकी तरफ़ बढ़ना नहीं चाहती.
हज़ार सुनहरी किरणों को बुनने वाले कवि शमशेर बहादुर सिंह हिंदी के ही नहीं, दुनिया के किसी भी बड़े कवि के समकक्ष रखे जा सकते हैं और उनकी कविता ‘पीली एक शाम’ दुनिया की सुंदरतम कविताओं में शामिल की जा सकती है मगर हाय! यह फिर भी स्त्री के लिए कितनी कम सुन्दर है.
उनकी एक कविता ‘सीता’ का उल्लेख यहां करना शायद प्रासंगिक हो, यह एक तरह का दूसरा अतिक्रमण है जिसकी वह कल्पना करते हैं, जो अपनी बनावट में ज्यादा बेठोस है, कम संरचित, स्त्रियोचित है. सीता की तरफ़ से जो कही गयी है यह बात!
एक स्त्री भी यही कहती है, ‘चलो उधर जिधर स्वप्न जाग रहे हैं जिधर समुद्र लहरा रहा है’ जिधर एक स्त्री दिखती है लांघती हुई प्यास. शायद यहां मिलेगी जीवन की नयी घाटियां, जहां फूल खिले होंगे (वे अमर फूल जो स्त्री के हृदय में खिलते हैं) जिसमें से एक फूल तुम्हें भी प्लावित करेगा अपनी अद्भुत सुगंध से. तब तुम शायद अपनी बाकी कविताएँ लिख सकोगे, स्त्री से सचमुच प्रेम करते हुए, वही स्त्री जिसे तुम कभी जान नहीं पाए, उसकी ‘अपरिचितता’ में ही तुम उसे संबोधित करते रहे हो. हालांकि यह सत्य है कि, उसके रहस्य को जान पाना इतना आसान नहीं. परन्तु आसानी की ख़ातिर उसे उसके आत्म-विस्तार में समझो, आत्मा के विस्तार में. तब शायद तुम्हें ही क्यों, किसी कवि या पुरुष को यह कहना न पड़ेगा प्रेम में–‘‘आईनों मुझे मार डालो’. जीवनदायिनी वह क्यों किसी की मृत्यु का कारण बनेगी, बल्कि स्वयं ऐसा कहती हुई मिलेगी और इस संदर्भ में ये पंक्तियाँ ज़्यादा सच होंगी अपने कहे में–
जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं’
यहां कोई किसी को नहीं खाएगा, ना दूसरे का जाल बनेगा. दोनों को यहां फूलों की तरह ही होना होगा हवा जिन्हें एक कर रही होगी. अंत में कहना चाहती हूं, यह एक स्त्री-पाठ है टूटी हुई बिखरी हुई का, पाठक इसमें शामिल हों, अपने अर्थ फिर से तलाशें, गढ़ें, मेरे पाठ से मुतास्सिर हुए बगै़र.
(उद्भावना में भी प्रकाशित)
सविता सिंह
आरा (बिहार)
पी-एच.डी. (दिल्ली विश्वविद्यालय), मांट्रियाल (कनाडा) स्थित मैक्गिल विश्वविद्यालय में साढ़े चार वर्ष तक शोध व अध्यापन,
सेंट स्टीफेन्स कॉलेज से अध्यापन का आरम्भ करके डेढ़ दशक तक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाया.
इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) में प्रोफेसर, स्कूल ऑव जेन्डर एंड डेवलेपमेंट स्टडीज़ की संस्थापक निदेशक रहीं.
पहला कविता संग्रह ‘अपने जैसा जीवन’ (2001) हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा पुरस्कृत, दूसरे कविता संग्रह ‘नींद थी और रात थी’ (2005) पर रज़ा सम्मान तथा स्वप्न समय. द्विभाषिक काव्य-संग्रह ‘रोविंग टुगेदर’ (अंग्रेज़ी-हिन्दी) तथा ‘ज़ स्वी ला मेजों दे जेत्वाल (फ्रेंच-हिन्दी) 2008 में प्रकाशित. अंग्रेज़ी में कवयित्रियों के अन्तरराष्ट्रीय चयन ‘सेवेन लीव्स, वन ऑटम’ (2011) का सम्पादन जिसमें प्रतिनिधि कविताएँ शामिल, 2012 में प्रतिनिधि कविताओं का चयन ‘पचास कविताएँ : नयी सदी के लिए चयन’ शृंखला में प्रकाशित.
फाउंडेशन ऑव सार्क राइटर्स ऐंड लिटरेचर के मुखपत्र ‘बियांड बोर्डर्स’ का अतिथि सम्पादन.
भास्कर रॉय के साथ सविता सिंह की बातचीत की किताब –Reality and its Depths स्प्रिंगर से २०२० में प्रकाशित.
कनाडा में रिहाइश के बाद दो वर्ष का ब्रिटेन प्रवास. फ्रांस, जर्मनी, बेल्जियम, हॉलैंड और मध्यपूर्व तथा अफ्रीका के देशों की यात्राएँ जिस दौरान विशेष व्याख्यान दिये.
महादेवी वर्मा काव्य सम्मान, हिंदी एकादेमी काव्य सम्मान आदि प्राप्त
savitasingh@ignou.ac.in