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Home » नारीवाद बनाम पितृसत्ता : रूबल

नारीवाद बनाम पितृसत्ता : रूबल

नारीवाद आधुनिक विश्व के कुछ महत्वपूर्ण विचारों में से एक है, यह जनांदोलन भी है और राजनीति भी. समानता, स्वतंत्रता और व्यक्ति की गरिमा जैसे मूल्यों से उपजे इसी नारीवाद के कुछ प्रकारों ने अतिवाद का स्पर्श किया है. क्या नारीवाद पितृसत्ता का अंत चाहता है यह उसका स्थानापन्न बनने की उसकी इच्छा है? जैसे प्रश्नों से समाज विज्ञान की गम्भीर अध्येता रूबल का यह आलेख उलझता है. प्रस्तुत है.

by arun dev
December 5, 2022
in आलेख, समाज
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नारीवाद बनाम पितृसत्ता : रूबल
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नारीवाद बनाम पितृसत्ता
रूबल

सामाजिक विज्ञान में द्विभाजन (Dichotomy) कोई अपरिचित  शब्द नहीं है. समाज-शास्त्र में समाज का अध्ययन करने के लिए सामाजिक द्विभाजन का प्रयोग किया जाता है. इसमें किसी भी विषय के दो  भाग निर्धारित किये जाते हैं, जिनका आपस में सीमित रूप से विपरीतार्थक सम्बन्ध हो सकता है. वैश्विक बनाम स्थानीय या सिद्धांत बनाम व्यवहार इसके कुछ उदाहरण के रूप में दिये जा सकते हैं. इन्हें पूर्ण रूप से विपरीत न भी कहें, तो भी ये एक ही विषय के दो उलट बिंदु  हैं, जिनकी सामाजिक स्थिति और सन्दर्भ उन्हें अपने-अपने अनुसार परिभाषित करती हैं. इसी क्रम में  सेक्स और जेंडर भी द्विभाजन के अंतर्गत पढ़े और पढ़ाये जाते रहे हैं.

इस लेख के लिखने के पीछे की मंशा सेक्स और जेंडर के महत्वपूर्ण द्विभाजन संबंधों का एक बार फिर पुनर्पाठ करने की नहीं हैं. न ही ये  लेख इन दोनों के द्विभाजन के सन्दर्भ में अत्यंत  प्रसिद्ध और व्यापक विमर्श को फिर से यहाँ रखने की कोई कोशिश करता है.

वास्तव में इस लेख के लिखने का उद्देश्य इसी से एक मिलती जुलती द्विभाजन सम्बन्ध की तरफ ध्यान आकर्षित करने का है, जिसके दो भाग या तंतुओं को स्त्री अध्ययन और सांस्कृतिक अध्ययन में बहुत ही महत्वपूर्ण व गंभीर दृष्टि से देखा जाता रहा है. या यह कह लें कि स्त्री अध्ययन में ये दोनों ही भाग सबसे महत्वपूर्ण और केन्द्रीय रहते हैं. जिनमें से एक नारीवाद है तो दूसरा पितृसत्ता.

ये लेख इसी नारीवाद बनाम पितृसत्ता को द्विभाजन  के रूप में समझने का एक प्रयास भर है. ऐसा नहीं है कि जिस पितृसत्ता और नारीवाद का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है उसपर अध्ययन और विमर्शों की कोई कमी है. दोनों ही पर  शैक्षिक-बौद्धिक दुनिया में गंभीरता से विचार होता रहा है. परन्तु इस लेख में इन दोनों को द्वंद्व में देखने की कोशिश गयी है. ये इन दोनों के द्विभाजन सम्बन्ध को लेकर है, जहाँ अभी भी कई बातें कही जा सकती हैं.

1.
अलगाव बनाम सापेक्षता

ध्यान से देखने पर आप समझ सकते हैं कि किसी भी द्विभाजन सम्बन्ध के दो बिंदु अकेले या आइसोलेटेड (अलगाव) रूप से उस तरह सम्प्रेषित नहीं हो सकते जैसे कि उनकी सरंचना का बुनियादी स्वरूप उनकी रिलेटिविटी (सापेक्षता) तय करती है. इसे उदाहरण देकर बेहतर समझाया जा सकता है. वैश्विक दुनिया या उससे जुड़ा कोई भी विचार तब ही भाषा और उसके विखंडन में आकार लेता है, जब आप उसी के बरक्स स्थानीय या किसी छोटी इकाई को साथ में रखते हैं. ये साथ में रख समझने की प्रक्रिया जितनी बाहरी और सक्रिय रूप में दिखाई पड़ती है उतना ही इसका विस्तार पैसिव (निष्क्रिय) रूप से मानव बोध के अंतर्जगत में भी है.

यह निश्चेष्टता हर जगह, हर समय भाषा, और उसके अर्थ के विखंडन में संचालित होती है. उसी तरह स्थानीय  होने का अर्थ और उससे जुड़ी सीमाएं भी वैश्विक के  सन्दर्भ में ही अपना भाषाई आकार लेती है.

कहने का अर्थ है कि किसी भी विषय के दो ध्रुव सापेक्षिक होने पर जो अर्थ और सामाजिकता का प्रभाव डाल सकते हैं, वो अलग-अलग उतने  प्रभावशाली नहीं हो सकते. दूसरे शब्दों में कहें तो, किसी भी द्विभाजन संबंधों के आधारभूत बिंदु  अपने अलगाव में भी सापेक्षिक की तरह प्रकट होते हैं, उनके अलगाव में भी द्वंद्व का  सम्बन्ध आपस  में बुना रहता है.

लेकिन साथ ही में एक बात जो थोड़ी गौर करने लायक है, वो ये है कि किसी भी द्विभाजन  में जुड़े हुए एक ही विचार के बिंदु बहुत जरूरी नहीं कि सरल अर्थ और भाषाई विन्यास में विपरीतार्थक अर्थ ही लिए रहे. ऐसा इसीलिए क्योंकि उन दोनों के बीच का सम्बन्ध सामाजिक द्वंद्व और भाषाई संरचना पर ज्यादा निर्भर करता है, और ये ही इनके सामाजिक और व्यक्तिगत बोध बनाने के बीच के पुल का काम करता है. इसीलिए सिर्फ विपरीत अर्थ तक इन दोनों की संरचना को सीमित नहीं किया जा सकता है.

सामान्य अर्थों में कहें तो किसी भी सामाजिक सम्बन्ध को आप प्रकृति विज्ञान  की तरह व्यवहार में उपयोग नहीं कर सकते हैं, क्योंकि हर सम्बन्ध की प्रमुख इकाई मनुष्य और उसका सामाजिक चरित्र  है. इसीलिए द्विभाजन  जैसे दिखने वाले वैज्ञानिक शब्दों में सामाजिक संबंधों को विश्लेषित करना, जटिल और द्वंद्वात्मक  प्रयास है. यहाँ कोई भी सम्बन्ध एकायामी न होकर अपने समय और स्थान से भी उतना ही प्रभावित होता है. इसीलिए केन्द्रीय विचार के दो भिन्न मगर जुड़े हुए से दिखने वाले ध्रुवीय शब्दों के बीच की सापेक्षता के द्विभाजन  का रूप कैसा होगा, इसका कोई एक रेखीय उत्तर नहीं हो सकता है.

कई बार सापेक्ष दिखने वाले ये बिंदु  hierarchy (पदानुक्रम) से भी उतने ही प्रभावित दिखते हैं. ये पदानुक्रम इनके शाब्दिक अर्थ के साथ-साथ सामाजिक अर्थ में भी अपनी पैठ बनाती दिखती है. एक को दूसरे से कमतर सिद्ध करना, या किसी एक को सामाजिक, आर्थिक,व्यवहारिक अर्थों में दूसरे से बेहतर सिद्ध करना इस hierarchial (पदानुक्रमित) सम्बन्ध को और भी जटिल बना देता है. जिसकी  चर्चा आगे की जाएगी.

२.
स्त्रीवाद बनाम पुरूषवाद / ‘नारीवाद’ बनाम
‘पितृसत्ता’

किसी भी गैर बराबरी और असमान समाज का मुख्य चरित्र वहां के लोगों के बीच असमानता का होना होता है. जिसमें से सबसे आधारभूत स्तर पर  स्त्री और पुरुष के बीच की असमानता है. अगर इस असमान सामाजिक चरित्र को एक केंद्रीय विचार की तरह देखें तो उसके दो छोर पर जो स्थिति दिखती है, उसमें एक ओर स्त्री की प्रधानता है, उससे जुड़ा विमर्श है  और दूसरे छोर पर पुरुष प्रधानता है जिसे पुरुषवाद के तौर  पर देखा जा सकता है. ये दोनों ही बिंदु एक गैर बराबर समाज के सबसे न्यूनतम पक्ष हैं जिसमें स्त्री और पुरुष अपनी और सिर्फ एक की दावेदारी प्रस्तुत करते दिखाई दे सकते हैं. दोनों ही की एकल सत्ता का विस्तार इन दोनों ध्रुवों पर दिखाई देता है,जो कि इतिहास और शास्त्रों में  अपनी सत्ता और उससे जुड़े विमर्श और सामाजिक मूल्यों के साथ दर्ज हैं. मातृसत्तात्मक समाज जहां स्त्रियों के सत्ता की बात करता है वहीं पुरुषसत्तात्मक समाज पुरुषों को केंद्र में रखता दिखाई देता है.

गौर करने पर आप पायेंगे कि समय के साथ-साथ पुरुष की केंद्रीय भूमिका उसी गैर बराबर समाज को अविचल बनाने में लग गई, और पुरुष सत्ता एक कट्टर दावेदारी के रूप में पितृसत्ता में तब्दील हो गई. मातृसत्तात्मक और उससे जुड़ा संदर्भ इतिहास के पन्नों में ही सिमट गया. ये एक अलग जाँच का विषय है जिसका सिर्फ यहाँ उल्लेख भर ही किया गया है.

महत्वपूर्ण बात ये है कि दोनों ही सत्ता के रूप थे, दोनों ही गैर बराबरी के सिद्धांत पर विकसित हुए थे. एकल सत्ता के मूल्यों का विकास कम या ज्यादा दोनों में ही अपनी जगह बनाता दिखता है. आधुनिक युग में नारीवाद ने अपना विकास मातृसत्ता के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से नहीं, बल्कि आधुनिक समय के स्वतंत्रता और बराबरी के सिद्धांत से किया. लेकिन पुरुषवाद की जड़ता ने पितृसत्ता को और भी जड़ बना दिया था. उसे समानता और बराबरी के किसी भी विचार से कोई मतलब नहीं था क्योंकि उसकी जड़ें वर्चस्व और दंभ में दबी हुई थीं. नारीवाद ने अपने उदार पक्ष के साथ इस गैर बराबरी के सामाजिक चरित्र पर दस्तक दी .

अब अगर इसे आधुनिक समय के गैर बराबर समाज के उसी दो बिंदुओं में रख कर विमर्श किया जाए तो ?

वहां जहां एक ओर पुराना और जड़ता से भरा हुए पितृसत्ता है, जो कि पुरुषवाद का ही एक दूसरा रूप है वहीं दूसरी ओर नारीवाद है जो कि किसी भी सत्ता को नकारता है और खुले तौर पर बराबरी की वकालत करता है. इस तरह आधुनिक युग में नारीवाद पितृसत्ता के द्विभाजन सम्बन्ध में जब रखा जाता है, तो वहां वह केन्द्रीय विचार (असमान समाज) के एक ओर शोधन (RECTIFICATION) के तौर पर देखा जा सकता है, जो पुराने किसी भी सत्ता की रूढ़ियों से मुक्त होकर विकसित हो बाहर  आया है, लेकिन जिसके सामने  वही मध्य काल का पुरातन पितृसत्ता का स्वरूप है.

इस तरह आधुनिक समय में विकसित हुआ स्त्री का पाठ, नारीवाद किसी भी सत्ता को मानने से इंकार करता है. उसके वृहत आकाश में बराबरी के सिद्धांत  की अवधारणा है. वह सत्ता के प्रयोग और उसके परिणामों  की भी जानकारी रखता है.

अब जो सबसे महत्वपूर्ण बात आती है कि इस आधुनिक नारीवाद के सभी स्वर एक जैसे नहीं पनपें. नारीवाद के विभिन्न चरणों और विकास के  रास्ते में  एक से ज्यादा विचारों का समावेश हुआ है. इसी बीच में कुछ के विचार नारीवाद के आधुनिक समानता के प्रति प्रतिबद्धता को एकायामी होकर देखने लगे. इन घटकों में सत्ता के प्रति अनुराग या एक भारी उलझन दिखाई देने लगी जिसके अनुसार नारीवाद का सफल अर्थ स्त्री द्वारा स्त्री-सत्ता हासिल करना है.

और कुछ इस तरह एक विशेष यांत्रिक नारीवाद की परिभाषा पितृसत्ता को चुनौती देने के अलावा उससे कभी आगे का नहीं सोच पाई. इस चुनौती में पितृसत्ता का रटंत था, लेकिन उसको चुनौती देने के मानस का स्वयं से ही कोई संपर्क न था. वो पितृसत्ता का बार-बार प्रयोग करते हैं, लेकिन उस सत्ता के चरित्र को समझने से इंकार कर देते हैं. इस तरह नारीवाद और पितृसत्ता ये दोनों द्विभाजन संबंध में एक बार फिर विपरीत अर्थों में  आ गए. इस सीमा से बाधित इस विशिष्ट  नारीवाद ने पितृसत्ता  को अपना एक मात्र निशाना बनाया. और फिर केवल बाइनरी में समाधान निकालने की कोशिशें की जाने लगी.

इस तरह के विचारों ने नारीवाद के समग्र और वृहत  अध्याय को विभाजित कर उसके कुछ घटकों को संकीर्ण श्रेणी में ला खड़ा किया. जहाँ नारीवाद के आधुनिक स्वरूप के विकास के चरण और उससे उपजी सत्ता की वर्चस्व में तब्दील होती चेतना को दरकिनार कर दिया गया. ऐसा नहीं है कि इन घटकों की आलोचना नहीं हुई. इस तरह की प्रवृत्ति व ज्ञान के रास्ते की सतत आलोचना नारीवाद के विमर्श के भीतर से होती रही. नारीवाद के विशाल और बौद्धिक रचना कर्म में  इस तरह के नारीवाद के विशेष घटकों  को लेकर चिंताएं जतायीं जाती रहीं हैं. समय-समय पर नारीवाद  के वृहत विमर्श, उनके पाठ सामने लाये जाते रहे हैं जो इस तरह के सत्ता के एकायामी विचार की श्रेणी को ख़ारिज करते आये हैं.

3.
बनाम का संकट

जहाँ एक ओर नारीवाद एक आधुनिक विचार की तरह विकसित हुआ था, जिसमें किसी भी सत्ता को वर्चस्व में बदलने की और उसके परिणामों की सुचिंतित सोच थी. वही उसके कुछ घटकों में उसी सत्ता के प्रति आग्रह के आभास की गंभीर प्रवृत्ति के प्रति आगाह करते हैं. इन विशेष घटकों में कुछ हद तक स्त्री बनाम पुरुष करके देखा जाने लगा.

नारीवाद के वृहत विमर्श को कुछ विचारकों ने स्त्री बनाम पुरुष की लड़ाई बना दिया. पितृसत्ता का बार-बार उपयोग ऐसे किया जाने लगा जैसे बनाम के प्रश्न को सुलझा लेने से नारीवाद की विजय गाथा पूरी हो जाएगी. इस प्रकार की विशिष्ट संकीर्ण वैचारिकता ने नारीवाद के अत्यंत गूढ़ विमर्श को पितृ सत्ता की चौखटों में लाकर समेट दिया.

और इस प्रकार का विमर्श नारीवाद बनाम पितृसत्ता के बीच ही सिमट गया. ये वर्चस्व के लिए लड़ी गयी लड़ाई बन गया, और बाकी सभी गैर बराबरी के घटक जिसके विरुद्ध नारीवाद ने इतनी लम्बी लड़ाई लड़ी थी, और यहाँ तक पहुंचा था, वो सभी इस सीमा से आबद्ध नारीवाद में ग़ैर जरूरी हो गए.

4.
समग्रता का प्रश्न

‘नारीवाद’ के इस तरह की विशिष्ट एकल सत्ता की वैचारिकता के विखंडन करने पर  संवाद और समग्रता का अभाव साफ दिखता है. संवाद से मेरा तात्पर्य दो विपरीत ध्रुवों का आपस में पुल की तरह भाषा में उपयोग लाना है. जहां वे दोनों सिर्फ भाषाई तौर पर एक होकर न बात कर सकें बल्कि सामाजिक स्तर पर उनका विखंडन किसी अखंड रूप में ही प्रतीत हो.

नारीवाद का उत्थान एक ऐसे ही विचार के तहत हुआ था, जहां सामाजिक तौर पर बराबरी के सिद्धांत की मान्यता थी. यहाँ पुरुष या उसकी सत्ता से कोई स्थानान्तरण की संकुचित योजना नहीं थी, बल्कि समाज में सत्ता से उपजी असमानता के खिलाफ खड़ा होना था. इस असमानता का स्रोत पुरुष दंभ तो था ही अन्य दूसरे कारण भी थे. नारीवाद की समग्रता इन सबके सामने चुनौती लिए खड़ी थी.

जो बात यहाँ कही जा सकती है, कि ये बराबरी और समानता कोई शुद्ध विचार नहीं हैं, इनका समाज और उसके विज्ञान के साथ सापेक्षिक रिश्ता है. कहने का अर्थ है कि नारीवाद के सिद्धांत जिस बराबरी और समानता की बात करते हैं उन्हें सिद्धांत से व्यवहार  में लाने के रास्ते में जो सबसे बड़ी चुनौती थी, उसे पितृसत्ता के नाम से पहचाना जाता है. लेकिन ये पितृसत्ता कोई शुद्ध तत्व नहीं है, ये कोई सत्ता का ऐसा सम्बन्ध नहीं है जिसे हासिल करके सामाजिक भेद को समाप्त किया जा सके.

पितृसत्ता एक ऐसा ताकत का संबंध हैं, जो सामाजिक चरित्र को कई पायदानों में विभाजित कर देता है. यहां पिता का चरित्र सिर्फ वह नहीं होता जो परिभाषित किया जा सके, इसमें सत्ता और पौरुष का ऐसा घालमेल होता है, जो सामाजिक संरचना में स्वाभाविक रूप से ईंट और सीमेंट की तरह काम करता है.

नारीवाद इसी मजबूत दीवार पर चोट करने के लिए रचा गया है. ये न सिर्फ वर्षों से बने हुए सत्ता के चरित्र पर आक्रमण करता है, साथ ही साथ इस को पोषण करने वाले ज्ञान और सत्ता की दोस्ती को भी कटघरे में ला खड़ा करता है.

नारीवाद के बुनियादी सिद्धांत को हर उस चुनौती से लोहा लेना था जो मनुष्य को उसके होने के बोध तक से महरूम करता है. साथ ही साथ उसको स्त्रियों के आत्म को भी रचने की चुनौती है. ये आत्म किसी एक का नहीं है,ये पूरे समाज का आत्म है जो हर प्रकार की विषमता के खिलाफ खड़ा है. इसे न सिर्फ बाहरी सत्ता का विरोध करना है जो समाज को पदानुक्रम में विभाजित करती है, साथ ही साथ आत्म के उलझे तारों को भी सुलझाना है,जिसमें वर्षों से गांठे पड़ी हुई हैं.

5.
भारत के सन्दर्भ में

यहां मेरा नारीवाद को किसी भी अर्थ में खराब या गलत बताना कोई मकसद नहीं है, बात सिर्फ ये है कि भारत में नारीवाद के विशिष्ट सन्दर्भ से जब स्त्री की बात की जाती है तब वह एक स्त्री और उसकी सामाजिक स्थिति तक ही सीमित रह जाती है. अगर समूह में स्त्री पर बात की भी जाए, तब भी उसकी सामूहिकता को समरूप कर (homogenise) उस पर नारीवाद आरोपित किया जाता है, जिसका कोई अर्थ नहीं रह जाता.

यह बात तो विशेष है ही कि भारत में जिस तरह की जटिल सामाजिक संरचना हैं, वहां किसी भी सिद्धांत को एकरूपता में रखकर नहीं देखा जा सकता है. जाति, धर्म और जेंडर की गुत्थी वर्ग के साथ मिलजुलकर भारतीय सामाजिक विमर्श को बहुत ही कठिन बना देती है. ऐसे में नारीवाद या उससे जुड़ा सिद्धांत भी भारतीय परिस्थितियों में पुनर्मूल्यांकन की मांग करता है.

इस पुनर्मूल्यांकन में  नारीवाद के विमर्श के सिद्धांतों को समझना, उसकी उत्पत्ति और विकास किस तरह से किसी विशिष्ट देश और समय की सीमा से बाहर आकर पूरी दुनिया पर एक समान लगने की बात करता है, इसको पढ़ने से की जा सकती है.

भारत में जिस तरह से नारीवाद ने अपना विकास किया है उसे पितृसत्ता के बरक्स करके ही विमर्शों का आधार बना दिया गया है. इसका एक बड़ा कारण आधुनिक भारतीय व्यवस्था में उपनिवेश और साम्राज्य का गठजोड़ रहा जिसमें स्त्रियों के अनुभवों से भरे इतिहास को उनके जीये गए समय और इतिहास से हटाकर एक नया वर्तमान आरोपित कर दिया गया. यहां देने की प्रक्रिया महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि भारतीय उपमहाद्वीप में स्त्रियों को आधुनिकता उनके अपने अनुभव के आधार पर नहीं, बल्कि यूरोपियन और भारतीय तनाव के अनुभवों में पैवस्त कर ताकत के द्वारा उन्हें प्रदान की गई, बाइनरी में चीजों का समाधान ढूंढा गया. स्त्री की स्वतंत्रता को कुछ विशिष्ट अर्थों में पुरुषों से सीधे मुठभेड़ से जोड़ा जाने लगा.

भारत में नारीवाद का वास्ता जिस सत्ता और ताकत से पड़ा था उसमें ताकत को ज्ञान और आजादी का खाका पहनाने का गजब का आत्मविश्वास था. वहां हिंसात्मक आधुनिकता और उसकी कठोर और रूढ़िगत सीमाएं इतनी गहरे तक विन्यस्त थीं कि उससे बाहर का रास्ता सीधे पिछड़ेपन की तरफ ही ले जाता प्रतीत होता है. ऐसे में नारीवाद को पुरुष बनाम स्त्री के तौर पर देखा जाने लगा.

इसी नारीवाद के बौद्धिक शगल में कई बार जिसकी बात हो रही है, वो ही वहां से गायब हुआ होता है.

बात ये नहीं है कि नारीवाद कितना अच्छा या बुरा है, या हम इसके पक्ष में या विरोध में हैं. विरोध में होना कोई समझदारी की बात है भी नहीं क्योंकि ऐसे में मोटे तौर पर आप न्याय के विरोध में खड़े होंगे.

नारीवाद का कोई विरोध होना भी नहीं चाहिए लेकिन उसकी परिभाषाएं, मूल्य और उसको भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखने की दृष्टि का एक बार पुनर्मूल्यांकन होना चाहिए.

तीसरी दुनिया का नारीवाद साम्राज्यवाद और उसके संबंधों से गहरे से प्रभावित है,जहां औपनिवेशिक आख्यान भी हिंदू मुस्लिम, भारतीय यूरोपियन, आदमी औरत की बाइनरी में सोचने पर बल देते हैं.

महात्मा गांधी ने अनेक बार बाइनरी में सोचने पर प्रश्न खड़े किए थे. लेकिन स्त्री मुक्ति का प्रश्न आधुनिक भारत में बाइनरी में ही सीमित रह गया, जिसको एक बार दोबारा देखने की जरूरत तो है.

उत्तराखंड के देहरादून में जन्मी रूबल हिंदी और अंग्रेजी में समान रूप से लिखती हैं. उनके लेखन के केंद्र में गांधी और साम्राज्यवाद है. इन दिनों वे गांधी के चिंतन में स्त्री दृष्टि की पड़ताल कर रही है. फिलिस्तीन पर इजरायली उपनिवेशवाद की प्रक्रिया विषय पर उन्होंने जेएनयू से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है. फिलहाल केरल के एक कस्बे में रहते हुए वे स्वतंत्र लेखन कर रही हैं.
rubeljnu21@gmail.com
mob- 9013286896.

Tags: 20222022 आलेखfeminismpatriarchyनारीवादपितृसत्तारूबल
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Comments 6

  1. Anonymous says:
    3 years ago

    बहुत स्पष्ट समझ के साथ बेहद स्पष्टता से यहआलेख अपनी बात रखता है। समालोचन पर इसे प्रकाशित करने के लिए साधुवाद।

    Reply
  2. पूनम सिन्हा says:
    3 years ago

    नारीवाद का अर्थ स्त्रीकोमनुष्य के रूप में देखा जाना है न कि पितृसत्ता का स्थानापन्न होना । जिस पितृसत्ताक व्यवस्था से विरोध है प्रतिक्रिया में उसी के जैसा बन जाने में पितृ सत्ताक व्यवस्था के विरोध का कोई अर्थ नहीं रहजाता |

    Reply
  3. राज गोपाल सिंह वर्मा says:
    3 years ago

    समालोचना में प्रकाशित एक गम्भीर विमर्श पर प्रकाश डालते विस्तृत लेख के लिए Rubel को बधाई। इस विषय में रुचि रखने वालों को यह नए आयाम प्रस्तुत करता है।

    Reply
  4. दया शंकर शरण says:
    3 years ago

    जहाँ तक मुझे याद है,इस विषय पर ही रूबल जी का एक अन्य आलेख गाँधी के नारीवादी विचारों को लेकर समालोचन पर कभी प्रकाशित हुआ था। उसमें जो स्पष्टता और गहराई थी,यहाँ कम है।

    Reply
  5. Kamlnand Jha says:
    3 years ago

    सुचिंतित और विचारोत्तेजक आलेख।

    Reply
  6. Dr.Deepa Gupta says:
    3 years ago

    गम्भीर आलेख

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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