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Home » बांग्ला स्त्री-आत्मकथाएं: गरिमा श्रीवास्तव

बांग्ला स्त्री-आत्मकथाएं: गरिमा श्रीवास्तव

ब्रिटिश काल में बंगाल राष्ट्रवाद के उदय और सामाजिक-धार्मिक सुधारों का महत्वपूर्ण स्रोत था, उसका गहरा असर हिंदी प्रदेशों पर भी पड़ा. ऐसे में उस समय की बांग्ला स्त्रियाँ किस तरह से इनमें अपनी सक्रियता दिखा रहीं थीं, हो रहे बदलावों से किस तरह अपने को जोड़ रहीं थीं और स्त्री मुद्दों पर उनकी क्या राय थी तथा उनके अंतर्मन में क्या चल रहा था आदि की विवेचना स्त्री-अध्ययन के लिए आवश्यक है. आलोचक प्रो. गरिमा श्रीवास्तव ने ज्योतिर्मयी देवी(आमार लेखार गोड़ार था), सरलादेवी चौधरानी (जीबनेर झरापाता), शांतिसुधा घोष(जिबोनेर रंगमंचे) तथा मणिकुंतला सेन(शे दिनेर कथा) की आत्मकथाओं की गहरी विवेचना की है और औपनिवेशिक काल के स्त्री प्रश्नों को यहाँ विवेचित किया है.

by arun dev
August 4, 2021
in आलेख
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बांग्ला स्त्री-आत्मकथाएं: गरिमा श्रीवास्तव
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बांग्ला स्त्री-आत्मकथाएं
गरिमा श्रीवास्तव

 

राष्ट्रवाद के उभार ने बंगाल में स्त्रियों को राजनीति में शिरकत करने के लिए उत्प्रेरक का कार्य किया.1885 में कांग्रेस की स्थापना के समय तक स्त्रियों की शिरकत बहुत कम थी “केवल पंडिता रमाबाई ,कादम्बिनी देवी और स्वर्णकुमारी घोषाल को कांग्रेस के अधिवेशन में शामिल होने का अवसर मिला लेकिन उन्हें वोट देने या अपना मंतव्य प्रकट करने का अवसर नहीं दिया गया”[i].सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने ‘कांग्रेस के प्रति महिलाओं के कर्तव्य ‘लिखकर कांग्रेस में शिरकत करने के लिए स्त्रियों का आह्वान किया था”[ii]

सन 1905 में बंग-भंग और स्वदेशी आन्दोलन मध्यवर्गीय स्त्रियों  को एकजुट कर घर के दायरे से बाहर लाने का कारण बन गया. आगे चलकर गांधी के साथ काम करने वाली बहुत- सी स्त्रियाँ ऐसी थीं जिनके लिए स्वदेशी-आन्दोलन ने पाठशाला की भूमिका निभायी थी. ये वे स्त्रियाँ थीं जो अन्तःपुर की दीवारों को लांघ कर राष्ट्रीय राजनीति और स्वदेशी आन्दोलन से जुड़ीं. इसके बाद राष्ट्रव्यापी सविनय अवज्ञा आन्दोलन ने अगले दशकों में बहुत सी राजनैतिक कार्यकर्ता तैयार कीं. इस तरह राजनीति में स्त्रियों की शिरकत के मसले पर तमाम आपत्तियों और आशंकाओं को ध्वस्त करते हुए स्त्रियों ने बहु-आयामी भूमिकाएं अर्थात घर और बाहर दोनों में अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज करनी  शुरू की.

बंगाली गृहस्थ भद्रलोक में परिवर्तन तब आया जब भद्र महिलाओं ने आगे बढ़ कर देश के राजनीतिक संघर्ष में अपना योगदान दिया. अधिकांश को उनके परिवार का समर्थन था, उन्होंने प्रहार भी झेले और जेल भी गयीं. सामाजिक स्थितियों और  भारतीय माहौल में पश्चिमी शिक्षा से परिचय ने उनके विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, अब वे राजनीतिक परिदृश्य पर अपना चुनाव भी करती दिखाई देने लगीं,  साथ ही जेल और सार्वजनिक जीवन ने उनके अनुभव-संसार के साथ- साथ साहित्यिक रुचियों का भी उन्नयन किया. इन स्त्रियों ने यात्राओं के साथ-साथ कारावास- जीवन के अनुभव लिखे, यद्यपि उनके द्वारा लिखी हुई आत्मकथाओं की संख्या कम है परन्तु औपनिवेशिक बंगाल के उत्तरार्ध के कुछ दशकों को समझने के लिए ये आत्मकथाएं दस्तावेज़ का काम कर सकती हैं. साहित्येतिहास में स्त्रियों की आत्मकथाओं का ज़िक्र न के बराबर है. प्रकाशकों और आलोचकों द्वारा इन्हें उपेक्षित किया गया, लेकिन हाल के वर्षों में लैंगिक अध्ययन केन्द्रों में आत्मकथ्यों के शोध और विवेचन के  कार्य ने गति पकड़ी. फलत: बहुत सी उपेक्षित और धूल खायी हुई सामग्री इतिहास और समाज अध्ययन की अनिवार्य स्रोत-सामग्री के रूप में पहचानी गयी.

बंगाल में मध्य वर्ग के उत्थान ने स्त्री लेखन विशेषकर आत्मकथात्मक लेखन के लिए अनुकूल भावभूमि प्रदान की. इन स्त्री आत्मकथाओं में स्वर वैविध्य मिलता है. कहीं तो वे पितृसत्ता की आलोचना करती हैं कहीं वे उसके प्रति मानसिक अनुकूलन दिखाती हैं, कहीं समाज और परिवार से छूट लेती हैं तो कहीं सामाजिक नियम-मर्यादा-पालन की मिसाल भी बनती हैं. वस्तुतः मनुष्य की किसी गतिविधि को एक रैखीय ढंग से नहीं विश्लेषित किया जा सकता. किसी सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को बेहतर ढंग से समझने के लिए किसी घटना को क्रिया या क्रियाओं की प्रतिक्रिया के रूप में विश्लेषित करने से बेहतर है उसे नदी की परस्पर एक-दूसरे को काटती आवर्तित लहरों की तर्ज़ पर समझा जाए. भले ही मध्यवर्ग का उत्थान औपनिवेशिक शासन के सहयोग के लिए हुआ हो लेकिन फिर उसकी अपनी गतिकी रही होगी. जिस तरह संतान  पिता से जन्म लेकर भी अपना स्वतंत्र विकास कर लेती  है, उसी तरह अंग्रेजी शिक्षा और पाश्चात्य जीवन-पद्धति से आमना-सामना होते ही घर और बाहर की दुनिया अलग-अलग  हो गयी होगी. इस बात के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं कि इस नयी सांस्कृतिक स्थिति  से सामंजस्य पैदा करने के कई गुर अपनाये गए. उसके भीतर से कई चीजें निकलीं. स्त्रियों के लिए भले आचरण पुस्तकें तजवीज़ की गयीं लेकिन जीवित घटनाओं के साक्ष्य  ये बताते हैं कि कभी अपने आन्तरिक प्रशिक्षण से, कभी पुरुष की निगाह से खुद को तौलने, कभी पितृसत्तात्मक समाज के अलिखित जड़ कायदों से  मुक्त होने की इच्छा से-स्त्रियाँ अपने लेखन में मौजूद हैं.

बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में शिक्षा संपन्न जागरूक स्त्रियों के आत्मकथ्यों को देखने पर इनमें सबसे पहले अस्मितामूलक राजनीति के सूत्र मिलते हैं. ये आत्म कथ्य यह बताते हैं कि पढ़ी–लिखी, सुशिक्षित और राजनैतिक तौर पर जागरूक मध्य वर्गीय हिन्दू स्त्री जो औपनिवेशिक बंगाल में राष्ट्रीय चेतना की लहर के साथ न सिर्फ बहना सीख रही थी, बल्कि उन्नीसवीं सदी के समाज-सुधारकों के कतिपय रूढ़-दृष्टिकोण से टकरा भी रही थी. सुतनुका घोष के अनुसार यह नहीं भूलना चाहिए कि

“यह वही समय है जब बंगाल की स्त्रियाँ, लड़कियों को शिक्षा का कानूनी अधिकार  दिलाने का प्रयास कर रही थीं. बहुत से समाज सुधारकों के साथ मिलकर शारदा एक्ट के पक्ष में जनसमर्थन जुटा रही थीं.”[iii]

नये बनते हुए मध्यवर्ग में बंगाली स्त्री का अपनी पहचान की खोज को  इन आत्मकथाओं में देखा जा सकता है. ये आत्मकथाकार अपने-अपने ढंग से आधुनिक बनने का प्रयास कर रही थीं, फिर भी जिस आधुनिकता की कल्पना इन्होंने की थी वह फलीभूत होती नहीं दिखती. दरअसल वह आधुनिकता खंडित आधुनिकता है जिसे देखने के लिए अलग-अलग आत्मकथाओं को देखना दिलचस्प होगा. बंगाली समाज विशेषकर हिन्दू और ब्राह्मो समाज में मध्यवर्गीय स्त्री की स्थिति का पता ये आत्मकथाएं दे सकती हैं. ज्योतिर्मयी देवी(1894-1988),सरलादेवी चौधरानी (1872-1945), मणिकुंतला सेन(1911-1987) और शांतिसुधा घोष(1907 -1992) की आत्मकथाओं को इस नज़रिए से देखने की वकालत सुतनुका घोष ने की है.

इन आत्मकथाओं में आधुनिक बंगाली स्त्री के निर्माण की प्रक्रिया का नैरन्तर्य नहीं दीख पड़ता. कहीं भी वैश्विक स्त्रीवाद या भगिनीवाद या आगे आने वाली स्त्रियों की पीढ़ी में आधुनिकता की प्रक्रिया का संधान पूरा होता हुआ नहीं दीखता, यह  स्वयं में बहुत सारे सवालों को जन्म देता है. पहला तो यही कि क्या आत्मकथा लेखन में प्रवृत्त स्त्रियाँ अगली पीढ़ी को प्रेरणा देने में अक्षम थीं, या उन्हें स्वयं ही आधुनिकता की प्रक्रिया समझ नहीं आई थी, जिसे वे आगे की पीढ़ी तक पहुंचा सकें. जहाँ राशसुन्दरी की आत्मकथा को पाठकों का ध्यान इसलिए मिला क्योंकि वह किसी बंगाली स्त्री द्वारा लिखी पहली आत्मकथा थी और उसका अपना ऐतिहासिक महत्व था जिसमें साक्षरता के लिए जद्दोजहद व्यक्त थी जो ‘आमार जीबन’ को बीबी अशरफ से जोड़ती थी जिसने विधवा होने के बाद चूल्हे की राख़ से अपने-आप अक्षराभ्यास  किया था, क्योंकि उसे अक्षर ज्ञान कराने वाला कोई नहीं था. सरलादेवी चौधरानी, शांतिसुधा घोष और मणिकुंतला सेन समकालीन थीं. इन तीनों स्त्रियों के लेखन में अपने-अपने ढंग से प्रतिरोध के स्वरों की अभिव्यक्ति होती दिखती है. इनके आत्मकथ्य शोषित वर्ग की संरचना को व्यक्त करते हैं.

बीसवीं सदी के पूर्वार्ध का समय मध्य वर्गीय बंगाली हिन्दू और ब्राह्मो समाज की अधीनता का समय है. ऊपर से देखने पर ऐसा लग सकता है कि राजनैतिक उथल–पुथल के इस दौर में लैंगिक-विभेद जैसी बातों को तरजीह नहीं दी जा रही होगी, लेकिन इन आत्मकथाओं  को निकट से देखने पर कुछ मध्यवर्गीय बंगाली स्त्रियाँ –अपने वर्ग के अस्तित्व के प्रश्न पर डिबेट करती दिखाई देती हैं. इस सन्दर्भ में ज्योतिर्मयी देवी (1894-1988) का ‘आमार लेखार गोड़ार कथा’ देखना दिलचस्प है जिसकी भूमिका में लिखा गया है –

“इस संसार में स्त्री का जीवन व्यर्थ है. उसके पास मस्तिष्क है लेकिन अभ्यंतर को व्यक्त करने का कोई साधन नहीं है. उसके पास ह्रदय है लेकिन ऐसा ह्रदय  जिसमें कोई उत्साह नहीं . ऐसा जैसे संगीत-विहीन धुन हो, भाव है, भाषा नहीं. उसका जीवन ऐसा ही है. यदि वह ऋषि-मुनि होती तो उसकी आवाज़ चीख नहीं बल्कि वाल्मीकि की कविता, कालिदास का मेघदूत और रवि ठाकुर के गीत बन जाती”.[iv]

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Tags: गरिमा श्रीवास्तवनारीवादबांग्ला स्त्री आत्मकथाएंराष्ट्रवाद
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Comments 7

  1. Garima Srivastava says:
    4 years ago

    धन्यवाद अरुण जी ,लेख को समालोचन पर स्थान देने के लिए .इतनी कलात्मकता के साथ बहुत कम ही पटल, लेखों का प्रस्तुतीकरण करते हैं .बहुत बहुत आभार

    Reply
  2. Madhav Hada says:
    4 years ago

    बहुत महत्त्वपूर्ण लेख और उसकी सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति ! गरिमा जी और आप को बधाई !

    Reply
  3. अशोक अग्रवाल says:
    4 years ago

    हमेशा की तरह गरिमाजी का यह आलेख भी उतना ही महत्वपूर्ण और संवेदनशील भी। उनका लेखन हमारे लिए नए क्षितिज खोलता है।

    Reply
  4. Daya Shanker Sharan says:
    4 years ago

    हर आत्मकथा अपने समय का एक जीवित इतिहास होती है। खासकर कोई जीवन अगर घटनाओं से भरा हो, तो उसे पढ़ते हुए मन पर फ्लैश बैक में दिखाई जा रही एक इतिवृत्तात्मक फिल्म जैसा प्रभाव महसूस होता है। भारतीय पुनर्जागरण में बंगाल के तत्कालीन समाज सुधार आंदोलन की ऐतिहासिक भूमिका रही है।इसका प्रभाव पूरे भारतीय समाज पर पड़ा।सदियों से दबी हुई स्त्री-चेतना में विद्रोह की सुगबुगाहट भी इसके बाद जगह-जगह से फूटती दिखायी पड़ी। बंगाल के सामंती समाज की स्त्रियों में तमाम रूढ़ मान्यताओं से मुक्ति की छटपटाहट इन आत्मकथाओं में देखी जा सकती है। सरला चौधरी की आत्मकथा में गाँधी जी के संस्मरण काफी रोचक हैं और अंतरंग भी।गरिमा जी एव समालोचन को बधाई !

    Reply
  5. Dr.Chaitali sinha says:
    4 years ago

    स्त्रियों का अपना निज और अपना संघर्ष , जिसका लेखा जोखा प्रस्तुत करती है उक्त आलेख। जो दबी और ढंकी रही उसका दायित्व कुछ स्वयं इन स्त्री आत्मकथाकारों के कंधों पर रहा और कुछ पितृसत्तात्मक समाज की सोच के कारण। परंतु निज की अभिव्यक्ति के लिए जो मार्ग सरलादेवी एवं मणिकुंतला सेन जैसी राजनीतिक , सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपनाया वह आगे की पीढ़ी के लिए आज भी कारगर है, प्रासंगिक है। उन्होंने आनेवाली पीढ़ी के लिए सारी बाधाओं से भरे रास्ते से कांटें को चुनकर सरल और सुगम बनाया। यही क्या कम है कि इतिहास में उनके नाम हमें आज भी दर्ज मिलते हैं। यदि वे अपने निज को कहने में कहीं मौन हैं तो हम सब जानते हैं कि उस समय का समाज कैसा था , जहां स्त्री का बोलना ही किसी अपराध से कम नहीं। इस बात का खण्डन भी किया है आपने अपने इस लेख में। इस लेख से यह भी स्पष्ट है कि चाहे तब का समय हो या अब का, स्त्रियां कितनी ही शिक्षित और सशक्त हो जाएं आज भी उन्हें और उनके कामों को देखने के लिए पुरुषवादी चश्में का ही अधिक प्रयोग किया जाता है। बहुत ही महत्वपूर्ण और संवेदनशील विषय पर आधारित है उक्त लेख मैम। आपको बहुत– बहुत बधाई। आप ऐसे ही अपनी सक्रियता बनाएं रखें मैम।

    Reply
  6. Dinesh Shrinet says:
    4 years ago

    मैंने इसे न सिर्फ पढ़ा बल्कि बहुत से मित्रों से भी पढ़ने को कहा। गरिमा श्रीवास्तव का यह एक शानदार काम है। यह पुस्तिका के रूप में भी आनी चाहिए। नई पीढ़ी के हिंदी आलोचकों में इतना परिश्रम, अध्ययन और दृष्टि अब कम ही दिखाई देता है।

    Reply
  7. Neelima says:
    4 years ago

    गरिमा जी का बेहतरीन लेख पढ़ा । शोधपरक लंबे लेख की इतनी सुव्यवस्थित प्रस्तुति के समालोचना पत्रिका को साधुवाद ।

    Reply

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