कथाकार, उपन्यासकार, निबंधकार शिवदयाल कविताएँ भी लिखते हैं. उनकी कुछ कविताएँ प्रस्तुत हैं. अलग शिल्प और आस्वाद की ये कविताएँ प्रभावित करती हैं.
शिवदयाल की कविताएँ
दक्षिणावर्त्त
उगने के बाद
सूर्य अपना पूर्ण तेज
उधर ही बिखेरता है
अस्त होने तक लगातार
और देवता बसते हैं
ठीक उल्टी दिशा में
उत्तर, वामहस्त
तथपि देखते उसी ओर
दक्षिणाभिमुख!
अजब रहस्य
और जुगुप्सा से घिरी है
वह दिशा जिसे दक्खिन कहते हैं
जिस ओर मुंह करके ग्रास लेना मना
पाँव करके सोना वर्जित
कोई भी मंगल काज
संपन्न नहीं होता दक्षिणावर्त्त
लेकिन क्यों,
क्यों ऐसी जाज्वल्य मान दिशा
इतने अशुभ संकेतों से भरी ?
क्यों आखिर गाँवों में
उत्तर में नहीं बसते दक्खिन टोले ?
सबसे प्रकाशमान दिशा में
बसती है सबसे अंधेरी दुनिया
क्या बात है आखिर
कि जीवन में जो कुछ
बरजा जाने लायक समझते
कर देते वह सब दक्षिण के हिस्से?
दक्षिण मुक्ति पाने की दिशा है!
जिन्हें उत्तर में स्थापित होना चाहिए
कर दिए जाते दक्खिन के हवाले
बड़े-बड़े ज्ञानी-ध्यानी भी
ठेल दिये जाते हैं
’दक्खिन टोले’ में
बताकर – दक्षिणपंथी!
किराएदार
किराए का मकान
एक दिन छोड़ना होगा
छोड़ना ही होगा
मकान भाड़ा
पहले बहुत ज्यादा लगा था
रहते-रहते लेकिन
आदमी रहना सीख जाता है
पराई कमाई की तरह हर महीने
रख देता हूँ मालिक मकान के हाथ पर किराया
और अब तो यह बुरा भी नहीं लगता.
भले इसके धूसर
छोटे-से छज्जे पर ही सही
कँपकँपी सर्दी में
शर्माई-लजाई-सी धूप
जाते-जाते कुछ घड़ी को
ठहर जाती है
लगातार कम पड़ती जाती
बरसात का नजारा भी
चनकी काँच वाली खिड़की से
मनोरम ही लगता है
लेकिन छोड़ना तो होगा ही
सामने के दो उठते हुए मकानों के बीच
हर दिन दबते जा रहे जामुन के पेड़ पर
बसेरा बनाए पंछी भी तो
मेरी ही तरह सोचते होंगे
कि एक दिन छोड़ना ही होगा घोंसला
ऐसा ही कुछ ख्याल
बिन पलस्तर की दीवाल में
छोड़ी गई जगह को भरती गिलहरियों
और पंडुकों के मन में भी आता ही होगा
आस-पड़ोस के मकानदार
भले मुझे समझते रहें किराएदार,
यानी कभी निकल जाने वाला
या निकाल दिया जाने वाला
एक अस्थाई बाशिंदा, लेकिन
कोई भी कब तक अपने मकान में
आखिर रह सकता है!
जाना तो पड़ता ही है
फिर क्या फर्क पड़ता है
यह अपना था कि किराए का
ठीक ही किया पिता ने
जो नहीं बनवाया कहीं मकान
किराएदार ही गए .
यूँ देखिए तो
सब कुछ किराए पर ही चल रहा है
सब बनिक-व्यापारी
किराए का ही कारोबार कर रहे है
धरती पर मकान-दुकान ही नहीं
पानी के बड़े-बड़े जहाज से लेकर
अंतरिक्ष में स्टेशन तक
किराए पर उठाए गए हैं
एक बार खर्चकर
मालिक बनने से तो अच्छा है
किश्तों में खर्चकर किराएदार बने रहना
मकान उनका
एक दिन भसेगा-गिरेगा
मेरी बला से
अपनी तो रिहायश भर है
जब जी करेगा, खाली कर दूंगा
आखिर तो मकान नहीं, रिहायश ही बड़ी चीज है
आखिर एक
मालिक मकान की दुनिया के मुकाबले
किराएदार की दुनिया
कहीं बड़ी, और फैली हुई होती है
एक मकान से अनेक मकानों,
एक मुहल्ले से अनेक मुहल्लों,
नगरों-नगरों तक.
किराएदार हूँ, तो
दुनिया में आबाद रहने की उम्मीद
बची हुई है
छोड़ दूंगा
यह किराए का मकान एक दिन
आखिर तो एक दिन
छोड़ना ही पड़ता है सब कुछ
लेकिन जब तक हूँ
धन्य किए हुए हूँ
इस मकान को
इस दुनिया को.
तुपकाडीह टीसन पर दो औरतें
एक झलक भर दिखी थी
धीमी रफ्तार से गुजरती ट्रेन की खिड़की से.
पास-पास बैठीं वे दो अल्पवयस औरतें
दीन-दुनिया से बेखबर
बस एक-दूसरे को अपने वृत्त में लिए
जाने क्या कह-सुन रही थीं
रफ्तार में रहते हुए
मैंने समय को ठहरते देखा था
विस्मय से, नहीं, मानो अस्वीकार के भाव से .
उन दो औरतों के अस्तित्व-वलय में
बंधा, ठहरा समय!
उनकी पीठ पीछे
कुछ धीमे गुजर रही थी पटना रांची जन शताब्दी
जाने क्यों धीमी हो जाती हैं रेलगाड़ियां
तुपकाडीह स्टेशन से गुजरते
और सामने उनके थोड़ी दाहिनी ओर
महाकाय बोकारो इस्पात संयंत्र
और उसके ऊपर धुंआया क्षितिज
सद्य-दोपहरी का
उन दो औरतों के लिए मानो बेमतलब!
वह प्रणय प्रसंग था या
नैहर-सासुर का अंतहीन आख्यान
बेमुरव्वत, लापरवाह मरद की कारस्तानियां
मौके की टोह में लगे मनचलों की करतूतें
बीमारी-हेमारी, महंगाई, तंगी
आसन्न जाड़े की तैयारी
आखिर क्या रहा होगा?
उन दो औरतों के बीच
कितना सुख बिछा होगा
कितना दुःख पसरा होगा
आजतक सोचता हूं.
और यह भी सच लगता है कि
दुनिया के रहस्य खुलते हैं
दो औरतों की बातचीत में
जाने क्या खुला था
तुपकाडीह स्टेशन पर
उन दो किन्तु मानो एकमेव
स्थितप्रज्ञ, अंतर-लीन औरतों के बीच
कि समय आज तक वहीं ठिठका खड़ा है
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शिवदयाल
(१ जनवरी १९६०)
‘छिनते पल छिन\’ (उपन्यास) तथा ‘बिहार की विरासत\’ प्रकाशित.
‘सहयात्री\’ के सम्पादन से सम्बद्ध
पंचायत राज, गवर्नेस एवं विकास आदि विषयों पर पुस्तकों/प्रशिक्षण सामग्री का निर्माण एवं सम्पादन-कार्य.
सम्पर्क :
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