श्रुति गौतमकी कविताओं के प्रकाशन का यह आरम्भिक चरण है, हालाँकि वह वर्षों से कविताएँ पढ़-लिख रहीं हैं. हर कवि भाषा और संवेदना के संसार में कुछ जोड़ता है, जैसे शिशु में उसके परिवेश-परिवार के चिह्न तो रहते हैं पर धीरे-धीरे वह अपना रूप और व्यक्तित्व भी निर्मित करता चलता है. इसी तरह कवि भी अपना मुहावरा विकसित कर लेते हैं.
इन कविताओं में ऐसा बहुत कुछ है जिनसे उम्मीद की जा सकती है.
श्रुति गौतम की कविताएँ
१.
मरम्मत
तब रोज कोस भर चलने से
गिरते, संभलते और उठते हुए
सोल घिसी थीं जूतों की
और फिर दिसम्बर था
साल का सबसे सर्द महीना
नये जूते जुलाई में मिलने थे
कि अव्वल आने के वजीफे में
स्वेटर और जूते ही मिलते थे
और यहीं सबसे ज्यादा ज़रूरी भी था
बाकी पड़ा था आधा साल
और नये जूतो की आहट तक न थी
तो स्कूल के नुक्कड़ पर
एक जूते ठीक करने वाले से
करवा ली थी मरम्मत
सबसे सस्ती जो संभव थी
पेच दूर से ही दिखता था लेकिन
तलवे बचे रह गये उस मुफ़लिसी में भी
और वही सबसे ज्यादा ज़रूरी भी था
अब वक्त की घड़ी की रेत
गिर चुकी नीचे आधी
अब घिसने लगे हैं तलवे
उम्र का सबसे सर्द साल है
और बाकी पड़ी है आधी उम्र
कोई बतायेगा
इनकी मरम्मत कौन करता है ?
२.
विस्मृति
जैसे भूल जाती थी दोहराते हुए हर बार
उन्नीस के पहाडे मे छह का गुणज,
या दक्षिणी अमेरिका के देशों की
राजधानियों के मिलते जुलते नाम
जैसे अक्सर याद नहीं रहते थे मुझे
पर्फेक्ट टेंस के उबा देने वाले नियम,
और नरेशन में भूल जाती थी हमेशा
पास्ट वाली रिपोर्टेड स्पीच को बदलना
नुक्कड़ की परचूनी की दुकान पर पहुंच
भूल जाती थी कि \’क्या लाना था सौदा\’
जैसे आज भी सब्जी में नमक याद नहीं रहता
चाय में चीनी एक चम्मच एक्स्ट्रा होती है
जैसे कोई मनपसंद ग़ज़ल भूल गई
पुराने रजिस्टर के आखिरी पन्ने पर लिख
या कोई धुन बची रही अब तक स्मृति में
किसी गीत के शब्दों की विस्मृति पर
हरबार नया रूमाल भूल जाती हूं
अलमारी, दराज़ों, आलो मे रख,
और आखिरी तारीख याद नहीं रहती
सिलेंडर बुकिंग, बिजली के बिल की
जैसे भूल जाता है कोई बुजुर्ग
अपनी नाक पर चढ़ाकर ऐनक,
या कोई नादान बच्चा भूल जाता है
जोर से रोते-रोते रोने की वजह
जैसे बेमानी बातों में खो जाती है
कोई अर्थपूर्ण कथनीय बात हर बार
जैसे अक्सर कोई नई टीस उठने पर
अपने पुराने दर्द भूल जाता है आदमी
मैं बिल्कुल वैसे ही भूलना चाहती हूं तुम्हें
जैसे तुम भुला चुके हो मुझे.
३.
स्वप्न
मैं वहां हूँ जहां तुमने बेवजह
प्रार्थना में जोड़ लिए हैं अपने हाथ
तुम वहां हो जहां अभी-अभी
मैंने चिड़ियों के लिए पानी रखा है
इतनी सी हमारी दुनिया है
विश्वास और करुणा से भरी
इतना सा स्वप्न है अधूरा.
४.
प्रेम
काजल की डिबिया पर चढ़ी
धूल की परत थी
प्रतीक्षा
दो सौ सीढ़ियां चढ़
पसीने से लथपथ
देवीमंदिर में शीश नवा
ली एक वह शपथ
नहीं लगेगी इस आँख में
काजल की रेख
जब तक नहीं लौटता वह
जाती हुई राह देख
साँझ लौट आती गौएँ
उतरता सागर का फेन
चाँद उग आता खिड़की पर
बुझ जाती लालटेन
झलकता बाहर कभी
सूनी आँखों में डबडबाता
रूखी अंगुलियों की पोर से
बारहा लिपट जाता
चूनर से उघड़ी गोटे की किनार में
अटक के रह जाता था
प्रेम.
५.
अगस्त
खूँटी पर टंगे
जर्जर छाते की तरह
सुकून नहीं
दुःख है
दिलासा है
इलाज़ नहीं
नमक की डिबिया में
पसर आई नमी
किस दिशा से
किस समय
किसलिए
अज्ञात है
वक़्त की पगडंडी पर
अकेले पदचिन्ह
कोहरे में
कांपते हैं
सालती है
अनुपस्थिति
नाखून पर ठहरा हुआ
हिना का रंग
धीरे-धीरे
धुंधलाता
छोड़ जाता
मगर निशां
बारिशो की अलगनी
अटके हुए
धूप टोहते
जोहते बाट
अनवरत
प्रतीक्षारत
अगस्त के दिन.
६.
जाने कितनी बार
इतनी बार पुकारा था तुम्हारा नाम
कि लौटती प्रतिध्वनियों के पाखियो से
भर गया हो आश्विन का आकाश
इतनी बार लिखी थी तुम्हें चिट्ठियां
कि समय की शाखाओं पे
पीली पड़ झर गई थी सारी स्मृतियाँ
इतनी बार छूटे थे आंख की सीप से मोती
कि मौसमी नदियों के स्वप्न में सिहरती थी
कार्तिक नहाती नवोढाएँ
इतनी बार थामा था तुम्हारा हाथ कि
तुम्हारी जीवनरेखा में उलझ कर रह गई थी
मेरी टूटी हुई भाग्य रेखा
इतनी बार लिखी थी तुम्हारे नाम कविताएं
कि चुक गई कलम की सारी स्याही
भरी हुई डायरियों में खाली रहा मन
इतनी बार कि बीते दिनों में मेरी याददाश्त
गिनते-गिनते भूल चुकी है कि गिने है ये सब दिन
जाने कितनी बार.
७.
\’क्वार\’ में बारिश
इतना नीला है आसमान
कि भय लगता है
मैंने देखी है तुम्हारी नीली आंखें
इतनी ही गहरी हो जाती थी
रोने से पहले
ओह!
फिर से क्वार में बारिश.
8.
इतना भर ही
तुम्हारे होने में तुम्हारा होना
बस इतना भर तो नहीं था
कि ज़ेहन में एक नाम भर हो
और धीरे-धीरे चेहरा धुंधला जाए
या कि जब मिलो बरसों बाद तुम
अक्स झिलमिलाये लेकिन नाम नहीं
(नहीं, इतना भर ही तो नहीं था)
उम्र की किताब के किसी पन्ने पर तुम्हारा होना
तमाम मसरूफियतों के बीच
फुरसत के नीले फूलों का खिलना भी था
चुप की लंबी कच्ची सड़क पर
बेवजह की बातों की कोलतार का
चुपके से पिघलना भी था
दुश्वारियों को मुस्कुराहटों के लिहाफ में छिपा
क्या वो एक कहकहा नहीं था
वक़्त की तल्ख उदासियों के खिलाफ़
उम्मीद का एक उजला रतजगा था
हथेली में थामे हुए यकीन का ध्रुव तारा
रात के स्याह अकेलेपन के साथ
समन्दर की विशालता को चुनौती देती
एक काठ की कश्ती थी
किन्तु अनवरत गतिमान
आसमान के नील में नहाई हुई
थकी दुपहरियों को परों से झटकती
वह थी गोरैया की उड़ान
जैसे कोई कठिन कविता थी
अपने संदर्भो के अपार में
झिलमिलाते थे अर्थ
या कि कोई सादी सी कहानी थी
किसी गुमनाम लेखक की
कुरेदते हुए आत्मा की राख
जैसे गुलदाउदी के खिले हुए फूल थे
और साँझ की चिकनी मुँडेर पे
अटके हुए परिंदो के ख्वाब
या कि कोई झरना था,कुछ बेखबर सा
बेपरवाह बहता हुआ, दायरों को तोड़ता
रास्तों को मोड़ता, ज्यों लाता हो इंकलाब
तुम्हारा होना
एक छोटा सा खत था
ज़िन्दगी के नाम
और बाकी उम्र
उसका पता ढूंढने की
कोशिश भर
इतना काफी था ना
दुनिया के बचे रहने के लिए
कुछ खिले हुए पीले फूल थे
कुछ बेमौसम की बारिशें थीं
कुछ दोस्त थे जिनपर बेवजह नाराज़ हो सकें
कुछ किताबें थी जिनमें बस यूँ ही खो सकें
थोड़ी संजीदगी थी, थोड़ा दीवानापन
थोड़ा प्रेम था, थोड़ी शिकायतें.
जैसा भी था
एक झूठा सच्चा ईश्वर था
एक तुम भी.
९.
चाहना
बस इतना सा चाहना
कि यह चाहना बनी रहे.
उजली रात में या धुँधली शाम में
या दिन की चमकीली उजेर में
प्रेम यह शब्द बार बार लौट आये
जैसे घोसलों में लौटते है पंछी
दुःख में, सुख में, हंसी में, रुदन में
झरते पत्तो के साथ, उगती कलियों में
वह ढूंढ निकाले ज़रा सी जगह
जैसे घास उग आती है कहीं भी
बारिशों की सीमी हुई सांसो में
या सर्दियों की ठिठुरन के संग
गर्मियों के सूनेपन के बीच
वह बना रहे पत्थर सा थिर
और यह यकीन रहे
कि और कुछ रहे न रहे
जैसे आँचल में बंधा बचा रह जाएगा कोई सिक्का
अलमारी की दराज़ में कोई बीस का नोट
आइनों पर कोई बिंदिया अटकी रहेगी
वैसे ही बचा रहेगा जीवन में प्रेम.
१०.
अनुपस्थितियाँ
उन जगह जहाँ तुम थी
आज तुम्हारी अनुपस्थितियाँ है
उन सीढ़ियों पर उतरते वक़्त
हाथ रख लेती थी तुम
उन पर हाथ रख छू लेता हूँ
तुम्हारा अनुपस्थित स्पर्श
उन सुराहियों में जिनसे किसी रोज
तुमने घूंट भर पानी पिया
उनमें चूम लेता हूँ
तुम्हारी अनुपस्थित प्यास
जिन डोरियों पर सुखाती थी
तुम सतरंगी दुपट्टे अपने
उनपर टिमकियों से अटका देता हूँ
तुम्हारे अनुपस्थित स्वप्न
ईमेल के ट्रेश फोल्डर के
उन डिलीटेड मेसेजेज में शेष
तुम्हारे अनुपस्थित पत्र
पढ़ लेता हूँ, समझ लेता हूँ
मेरी आँखों में अटका हुआ
एक अनुपस्थित रुदन है
जिसकी भाप से धुँधलाते है
भविष्य के सारे दृश्य
हवा के परों पर तैरता सा
वह उड़-उड़ आता है समय
स्नेह जिसमें उपस्थित था
जीवन का सत्य अनुपस्थित
यहां मैं कहना चाहता हूँ
कि विस्मृत नहीं कर सका
तुम्हारा अनुपस्थित प्रेम
लेकिन झूठ नहीं कह पाता
तुम्हारी अनुपस्थितियों में बहुत ज्यादा
उपस्थित पाता हूँ- हमारा प्रेम.
११.
स्त्री!
(जीवन यात्रा के अजाने, अनदेखे पथ पर
चलने से पहले)
अपनी वेणी में बांध लेना
सुगंधित कुसुमों के साथ
एक साहस का सुमन भी
अपनी हथेलियों पर उगाते हुए
मेहंदी के सुंदर फूल
प्रतिरोध के लिए मुट्ठी तानना न भूल जाना
रेशमी लिबास में लिपटी हुई
छूकर एक बार देख लेना
अंगुलियों की पोरो का खुरदरापन
स्वर्णाभूषणों की पीत आभा में
खो नहीं देना आंखों के डोरो में
उतरते हुए रक्त का स्वभाव
प्रसाधनों के आलेपन में
विस्मृत न कर देना
अपनी वाणी का सौंदर्य
माथे पे सूरज उगाना
लेकिन बुझने न देना
मन के चंद्रमा की हंसी
चूड़ियों की खनखनाहट में
कहीं खो कर न रह जाए
तुम्हारे होने की आवाज़
देखना, पैरों में सजी
चांदी की उजली पायलें
कहीं बेड़ियाँ न बन जाएं
किसी दहलीज के अंदर
निभाते हुए अपना किरदार
एक दुनिया बाहर भी है, ज़ेहन में रहे.
चौके चूल्हे को संवारते हुए
फीके न पड़े कैनवास के रंग
रचना एक दुनिया वहां भी
प्रिय,
गृह लक्ष्मी बनना
लेकिन संसार की शक्ति हो तुम
इतना याद रखना.
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श्रुति गौतम
सुमित्रालय, गली नं-2, रावतनगर, फॉयसागर रोड,अजमेर
shrutigautam1988@gmail.com