सत्यजित राय (সত্যজিৎ রায়- २ मई १९२१–२३ अप्रैल १९९२) का आज स्मृति दिवस है. आज ही के दिन १९९२ में उन्होंने हम सबसे विदा ले लिया था. उनके पीछे उनकी चलचित्रों की दुनिया है. जब तक यह धरती रहेगी और फिल्में रहेंगी सत्यजित राय रहेंगे. उनकी फिल्म पथेर पाँचाली रहेगी. इस फिल्म पर विस्तार से चर्चा कर रहीं हैं कवयित्री और अनुवादक रंजना मिश्रा.
सत्यजित राय और पथेर पाँचाली
रंजना मिश्रा
वे सच कह रहे थे. बच्चे ने कवि ठाकुर के सूत्र वाक्य को जाने अनजानें इस तरह आत्मसात किया, अपने आस पास के जीवन की कथा अपनी फिल्मों में इस तरह कही कि उन फिल्मों की वजह से वह विश्व सिनेमा के दस महत्वपूर्ण लोगों में गिना जाने लगा. उस बच्चे का नाम माणिक था जिसे दुनिया सत्यजीत राय (०२ मई १९२१ – २३ अप्रैल १९९२) के नाम से जानती है.
पंडित रविशंकर कई बार दृश्यों के लिए राय की 15 या 25 सेकेंड की माँग से परेशान हो जाते थे. पंडित जी फिल्मों में संगीत देने के अभ्यस्त नहीं थे, वे अपना संगीत घंटों के हिसाब से बजाने के, उसके अलाप विस्तार और पारंपरिक चलन के तरीके से बजाने के आदी थे. वे कहते ‘मैं तीन मिनट का एक टुकड़ा आपको दे सकता हूँ, पर कुछ सेकेंड्स के लिए बजाना मेरे बस की बात नहीं’. ऐसी स्थिति में राय संगीत की एडिटिंग करके उसे दृश्यों के हिसाब से उपयुक्त बना लेते. यहाँ उनकी संगीत की समझ काम आती थी और बाद में तो उन्होंने अपनी कई फिल्मों का संगीत भी खुद ही दिया ! हरफ़नमौला राय के व्यक्तित्व का यह बड़ा ही रोचक पहलू था.
‘For many a year,
I have travelled many a mile
To lands far away
I have gone to see the mountains,
The oceans I have been to view
But I failed to see that lay not two steps from my home
On a sheaf of paddy grain
A glistering drop of dew”
बांगला में छोटी सी यह कविता रविन्द्रनाथ टैगोर नें छह बरस के उस बच्चे की नोट बुक में लिखी जब वह अपनी मां के साथ उनसे मिलने शान्तिनिकेतन आया.
कवि गुरु ने उस बच्चे की माँ से कहा – “जब वह बड़ा हो जाएगा तो इन शब्दों का अर्थ समझेगा\”.
वे सच कह रहे थे. बच्चे ने कवि ठाकुर के सूत्र वाक्य को जाने अनजानें इस तरह आत्मसात किया, अपने आस पास के जीवन की कथा अपनी फिल्मों में इस तरह कही कि उन फिल्मों की वजह से वह विश्व सिनेमा के दस महत्वपूर्ण लोगों में गिना जाने लगा. उस बच्चे का नाम माणिक था जिसे दुनिया सत्यजीत राय (०२ मई १९२१ – २३ अप्रैल १९९२) के नाम से जानती है.
‘पथेर पाँचाली’ सत्यजित राय की पहली फिल्म थी जो धारावाहिक की तरह बांग्ला पत्रिकाओं में छपकर काफ़ी लोकप्रिय हो चुकी थी और इस उपन्यास के कई संस्करण आ चुके थे. उन दिनों वे सिग्नेट प्रेस में बतौर जूनियर विजुवलाइज़र काम करते थे और पुस्तक के नए संस्करण के कवर डिज़ाइन का काम उन्हें सौंपा गया था. अपनी समृद्ध सांस्कृतिक और कलात्मक पृष्ठभूमि के साथ पहली बार सत्यजीत राय ने ‘पाथेर पांचाली’ पढ़ी तो इस उपन्यास की मानवीयता, लयात्मकता, ग्रामीण बंगाल का सहज जीवन, इससे जुड़े सुख दुख, उनसे इतर सपने देखने की खूबसूरती ने उन्हें अपनी गिरफ़्त में ले लिया और उन्होंने अपनी पहली फिल्म इसी उपन्यास पर बनाने का निश्चय किया.
अपने 1957 के लेख \’अ लांग टाइम ऑन द लिट्ल रोड‘ में वे कहते हैं – \’ग्रामीण परिवेश के उस ढाँचे, उस वातावरण के मूल में अपू का परिवार था जिसे लेखक ने इतनी कुशलता से बुना था. उनके अंतर्सबंधों की बुनावट में भावनाओं का विलोम और जुड़ाव बड़ी ही सघनता से चित्रित हुआ था और उनके माध्यम से जीवन के चरित्र में विलोम और समन्वय का भी उतना ही सुंदर चित्रण था.’ पर फिल्म बनाने के पहले 13 बरस उन्हें विश्व के महान फिल्म कारों जैसे रेनुआ, डी सिका, बर्गमैन की फिल्में देखते, उनका अध्ययन करते, फिल्मों के बारे लिखते उसके शिल्प को समझते बूझते और अपने ग्राफ़िक डिज़ायनर के काम से उबते हुए गुज़ारने थे, जब तक कि 1950 में वे आर्ट डाइरेक्टर होकर लंदन किसी प्रॉजेक्ट के सिलसिले में कुछ समय बिताने नही चले गए. प्रसिद्ध फ्रेंच फिल्मकार रेनुआ के संपर्क में वे कलकत्ता के दिनों में ही आ चुके थे और पथेर पाँचाली के फ़िल्मांकन की रूपरेखा और फिल्म निर्माण के विभिन्न पहलुओं पर गंभीर विमर्श की भी शुरुआत हो चुकी थी. रेनुआ अपनी फिल्म \’द रिवर\’ की शूटिंग के सिलसिले में उन दिनों कलकत्ता आते रहते थे.
लंदन में बिताए उन दिनों ने सत्यजीत राय उर्फ माणिक दा की दुनिया बदल दी. छः महीनों में उन्होने 100 से ज़्यादा फिल्में देखीं. पाश्चात्य फिल्मों, फोटोग्राफी, संगीत और कला की दुनिया से उनका परिचय तो काफ़ी पहले से था अब वे इनकी दुनिया में गहरे उतर गए. ऐसे समय में जब भारतीय और बांगला फिल्में अतिरंजना और अति नाटकीयता का शिकार थीं, राय ने सिनेमा के माध्यम को अत्यंत व्यापक दृष्टि से देखना शुरू किया.
पथेर पाँचाली (1955) ग्रामीण बंगाल के एक छोटे से गाँव में जीवन का सजीव और मानवीय चित्रण है जिसमें गरीबी के चंगुल में फँसा कवि पिता है, जो सपने देखता है किसी दिन उसकी कविताओं की किताब छपेगी और उनके अच्छे दिन आएँगे. उसकी पत्नी सर्बोजया है जो अपने किशोरावस्था के सुखी जीवन के सपनों को नष्ट होते देखती है, थोड़ी चिड़चिड़ी थोड़ी कुंठित थोड़ी उदार थोड़ी सहृदय है और अपनी ज़िंदगी की कठिनाइयों से जूझते हुए उम्मीद करती है किसी दिन वे बेटी दुर्गा के लिए सुपात्र ढूँढ पाएँगे और बेटे अपू को अच्छी शिक्षा दे पाएँगे. दुर्गा और अपू हैं उनकी बालसुलभ दुनिया है, उसका सौंदर्य और अभाव है और जीवन को प्रत्याशा से देखने का, उसकी विडंबनाओं को अपनी सरलता और जिजीविषा से जी जाने का जज़्बा है. हरिहर की बूढी बुआ इंदिर ठाकुरान की स्नेहमयी और कई बार अवांछित उपस्थिति है जो दुर्गा को हर दुख से बचा ले जाने तो तत्पर है.
पुनर्जागरण के बाद के उस दूरस्थ बंगाली गाँव निश्चिँदिपुर में आधुनिकता की आहट अभी क्षीण थी. यह भाप वाली रेल गाड़ी के गाँव के पास से गुज़रने और टेलिग्राफ के खंभों पर कान लगाने से ही सुनाई पड़ती और दुर्गा और अपू के लिए नई दुनिया का संकेत लाती. ट्रेन के दृश्य इस फिल्म त्रयी ‘पथेर पाँचाली’, ‘अपराजितो’ और ‘अपुर संसार’ में प्रतीक की तरह उभर कर सामने आए हैं. वे अलग अलग समय की पात्रों की मानसिक स्थितियों, उनके जीवन में आते परिवर्तनों और उस कालखंड का बिंब बनकर उभरते हैं.
फिल्म पर बात करने से पहले पथेर पाँचाली के लेखक श्री बिभूतिभूषण बन्दोपाध्याय ((12 सेप्टेंबर 1894 – 1 नवम्बर 1950) पर बात करना बेहद ज़रूरी हो जाता है क्योंकि उन्होने अपने लेखन मे जिस ग्रामीण बंगाल का जीवन प्रस्तुत किया वही इस फिल्म का आधार था. ‘पाथेर पांचाली’ बिभूति बाबू का आत्मकथात्मक उपन्यास है. यह बात इसलिए भी मायने रखती है क्योंकि सत्यजीत राय की शिक्षा दीक्षा में ग्रामीण जीवन् का प्रभाव नहीं था, वे कलकत्ता के अत्यधिक सुसंस्कृत परिवार और वातावरण में बड़े हुए थे. राय की आगामी उपलब्धियों की बात न भी करें तो भी यह फिल्म उन्हें विश्व के महान फिल्मकारों में अग्रणी पंक्ति में शामिल करने के लिए काफी थी, जिनके बारे अकिरो कुरोसोवा ने कहा था– ‘सत्यजीत राय की फिल्मों के बारे न जानने का मतलब सूरज और चाँद विहीन दुनिया में रहना है\’..
इस फिल्म में रोज़मर्रा के कई दृश्य हैं, जिनमें करुणा, मानवीयता, दुख का बिना प्रतिकार और दुर्भावना के गरिमापूर्वक सामना और पात्रों के संघर्ष की अंतर्धारा है जो बिना अतिरंजित हुए दर्शकों को छू जाती है. हर दृश्य वस्तुतः एक कोलाज़ है जिसमें गहन संवेदना भरी लयात्मक कथा जीवंत है, जिसमें हर पात्र अपनी जगह अपनी स्थितियों से जूझता है, जीवन में आशा ढूंढता है उसे जीने लायक बनाता चलता है. सुख और आशा बार बार दुख के पर्दों के पार से अपनी चमक दिखाते हैं और दुख, सुख के रास्तों पर अक्सर घात लगाए बैठा होता है और इन सबसे परे मनुष्य की जिजीविषा, संघर्ष और अपनी परिस्थितियों के परे जाकर फिर से जीने की कोशिश एक महागाथा बुनती है. चाहे वे हरिहर हों जो अपनी कविताओं में आशा तलाशते हैं या सर्बोजया जो बनारस जाकर बेहतर ज़िंदगी ढूँढना चाहती है चाहे वह इंदिर ठाकुरान हो जो दुर्गा पर अपने स्नेह लुटाती है और रोज़मर्रा के झगड़ों से तंग आकर घर छोड़ जाती है पर अपू के जन्म की खबर पाकर हुलसती हुई घर वापस लौट आती है. या दुर्गा, जो ग़रीबी और अभाव में कई अपमान झेलती है फिर भी सहज होकर अपनी वय की लड़कियों की तरह भविष्य के सपने सजाती है, सारे अभावों को खेल कूद और शैतानी में भूलती रहती है या फिर नन्हा अपू जो दुर्गा दीदी का भक्त है और उसके पीछे साए की तरह घूमता रहता है. उनका प्रिय खेल है कास के फूलों से लहलहाते जंगलों के बीच छुपकर दूर जा रही भाप वाली रेलगाड़ी को देखना. कितनी बालसुलभ कल्पनाओं को अपने में समेटे वह रेल रोज उनके गाँव के करीब से गुज़रती है जिसपर सवार कितने ही सपने दुर्गा और अपु के अभावग्रस्त बचपन की भरपाई करते हैं. शुरूआती दृश्यों में वह उस जीवन का बिम्ब है जो अभी उनकी पहुँच से परे है..
ग़रीबी हर दृश्य में उभरकर सामने आती है पर उसके साथ ही सामने आता है जीवन के प्रति गहरा विश्वास. इंदिर ठकुरान की मौत दुर्गा और अपू का मृत्यु से प्रथम साक्षात्कार है. इसका फ़िल्मांकन राय ने बड़ी ही संवेदनशीलता से किया है. सर्बोजया से नाराज़ हो इंदिर ठाकुरान गाँव के पोखर के पास बनी बांसवाडी में आ बैठती है और भूखी मर जाती है, उसके खाने का बर्तन पोखर के तालाब में डूबता उतराता नज़र आता है और उसके चेहरे पर मक्खियाँ नज़र आती हैं. पार्श्व में वैष्णव भजन की आवाज़ आती है जो इंदिर ठकुरान अक्सर अपू को सुलाते हुए गाया करती थी. छोटी सी मटकी के गाँव के पोखर में डूबने उतराने का दृश्य कुछ सेकेंड्स का है पर गहरा प्रभाव छोड़ता है. चाहे वे मिठाई बेचनेवाले पाठशाला के मास्टर हों या उनसे छुपकर कोई खेल खेलते बच्चे, गाँव में आने वाली जात्रा (बंगाल के लोक नाटक) का विवरण सुनाता कोई आगंतुक जो सरसों का थोड़ा तेल मुफ़्त में मास्टर से ले जाता है और मास्टर जी उसका गुस्सा बच्चो की हथेली पर डंडा बरसा कर निकालते हैं. राय ने ऐसे कई दृश्य इतनी संवेदनशीलता से फिल्माएँ हैं कि वे बरसों बाद भी स्मृति का हिस्सा बने रहते हैं.
ग़रीबी और अवसर की तलाश हरिहर को घर छोड़ने पर मज़बूर करती है और वह परिवार को गाँव में छोड़कर सार्थक जीवन यापन के बंदोबस्त में परदेस जाता है. इसी बीच बारिश में भीगने से दुर्गा को निमोनिया हो जाता है. बीमार दुर्गा को देखने आया डॉक्टर दुर्गा की जीभ देखता है तो दुर्गा मुस्कुराती है, वह अपू से कहती है – \”ए बार ज्वोर छाडले एक बार रेलगाड़ी देखते जाबो\” ( इस बार जब बुखार उतरेगा तो रेलगाड़ी देखने जाएँगे ), अपू जवाब में कहता है – जाबी तो? (जाओगी ना?). उसे आने वाली मृत्य की आहट अभी नहीं सुनाई दे रही. उस रात घर तेज़ बारिश में ढह जाता है और समुचित इलाज़ के अभाव में दुर्गा की भी मृत्यु हो जाती है, एक सहज सुंदर जीवन का, जिसमें भविष्य के लिए छोटी छोटी आशाएं थीं, बिना किसी कारण अंत हो जाता है. दुर्गा जो प्रकृति के उत्सव में सब कुछ भूल कर उसका हिस्सा हो जाना चाहती थी, उससे एकरंग हो जाना चाहती थी वह असमय प्रकृति की क्रूरता और गरीबी का शिकार हो जाती है.
इस दृश्य में राय मृत्यु के पूर्वाभास को दिए के काँपने और थरथराने से दिखाते हैं. और तेज़ हवा से हिलते डुलते हुए घर के दरवाजे मृत्यु की पूर्व सूचना की तरह दिखाई देते हैं. दुर्गा की बीमारी के दृश्यों में कैमरा उसकी बंद आँखों पर केंद्रित होता है और बीतते समय को आँखों के पास बढ़ते काले धब्बों से दर्शित करता है, शब्दों की कोई ज़रूरत नहीं होती और असमय मृत्यु की ओर जाती वे आँखें एक सुंदर जीवन के निकट अवसान का चित्र प्रस्तुत करती हैं. कुछ क्षणों के इस दृश्य में फिल्म अपना रस और स्वर पूरी तरह बदल देती है पर राय अपनी सधी हुई शैली के कारण कथा और दर्शकों के बीच कहीं नज़र नहीं आते. यह दर्शकों और कथा के बीच निजी आलाप के क्षण में तब्दील हो जाती है.
दुर्गा की मौत अपू के अब तक के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण सच्चाई है, वह एकाएक अकेला हो गया है. इस अकेलेपन का सामना वह बड़ी ही गरिमा से करता है. वह माँ की तरह शोक स्तब्ध नहीं, वह अपने रोज़मर्रा के जीवन में वापस लौटने की कोशिश करता है, उसने बालसुलभ जिद छोड़ दी है, खुद तालाब में नहा कर आता है, अपने बालों को कंघी करता है और खुद ही स्कूल चला जाता है. बस इस बार स्कूल के रास्तों पर वह अकेला है और बारिश से खुद को बचाने के लिए छाता ले जाना उसकी ही ज़िम्मेदारी है. उसने जीवन में दुख और दुख के स्वीकार को पूरी समग्रता और गहनता से पहली बार जाना है. सहज सा यह दृश्य अपनी पूरी भव्यता से जीवन की निरंतरता, लाइफ गोज़ ऑन का प्रतीक बन जाता है.
हरिहर अपने परिवार के साथ गाँव छोड़ देता है. कैमरे की दृष्टि से बारामदा सूना नज़र आता है और घर के आँगन में दूसरे ही दिन साँप रेंगते दिख जाते हैं. गाँव छोड़ने के दिन अपू को दुर्गा की चुराई हुई माला मिलती है जिसकी वजह से दुर्गा ने माँ से मार खाई थी और अपू के पूछने पर उसे भी नहीं बताया था. अपू उसे तालाब में फेंक देता है. इतनी गरिमा से मृत दुर्गा के झूठ की रक्षा करते हुए अपू अपनी उम्र से कहीं बड़ा नज़र आता है. माला धीरे-धीरे तालाब में डूबती है और शैवाल उसे ढँक लेते हैं.
दुर्गा की स्मृति उस परिवार और गाँव के मानस में इसी तरह रहेगी, तालाब के तल पर बैठी उस माला की तरह और ऊपर तैरते शैवाल उसके छोटे से बालसुलभ झूठ की गरिमापूर्वक रक्षा करेंगे.
फिल्म का अंतिम दृश्य बचे हुए परिवार को बैलगाड़ी में बैठकर गाँव छोड़ने का है, जिसमें हरिहर, सर्बोजया और अपू तीनो पात्रों के चेहरे दुख का विभिन्न तरीके से चित्रण है. वे उस गाँव को हमेशा के लिए छोड़कर जा रहे हैं जहाँ उन्होने संघर्ष देखा, ग़रीबी देखी मृत्यु देखी पर आशा नहीं छोड़ी और वही आशा अब उसें उनके पैतृक गाँव से दूर लिए जा रही है. दुख हर किसी के चहरे पर अलग अलग भाव लेकर आता है और फिल्म समाप्त हो जाती है.
नैपथ्य से अब भी रेल की आवाज़ आती है पर इस बार वह प्रत्याशा नहीं दुखद विदा और अनिश्चित भविष्य का प्रतीक बनकर उभरती है.
इस फिल्म के सारे कलाकार (सिर्फ़ बुआ इंदिर ठाकुरान) को छोड़कर शौकिया थे. उन्हें कैमरे के सामने अभिनय का कोई अनुभव नहीं था. बुआ श्रीमती चुन्नी बाला देवी जो करीब ८० वर्ष की थीं, उस फिल्म की एकमात्र कलाकार थीं जिन्हें कैमरे के सामने अभिनय का अनुभव था. हरिहर(पिता) के रूप में कानू बैनर्जी, सर्बोजया (माँ) के रूप में करुणा बैनर्जी, उमा दासगुप्ता ने दुर्गा और बचपन के अपू की भूमिका में पिनाकी सेन गुप्ता ने शानदार अभिनय किया.
फिल्म में संगीत पंडित रविशंकर, कैमरा संचालन (सिनेमैटोग्राफी) सुब्रोतो मित्रा, और संपादन दुलाल दत्ता का था.
राय पश्चिम की नियो रियलिज़्म फिल्म निर्माण की शैली से प्रभावित थे. इस शैली में अधिकतर शौकिया कलाकार अभिनय करते हैं, फिल्में कहानी के वातावरण के लिए समुचित लोकेशन पर शूट की जाती हैं, और इसमें करीब करीब डॉक्युमेंटरी जैसी सिनिमॅटिक भाषा का प्रयोग होता है. इस प्रभाव के लिए उन्हें निश्चित ही ऐसे सिनेमेटोग्राफर की ज़रूरत थी जो गाँव में उपलब्ध प्रकाश के साथ शूट करने में सक्षम हो. करीब करीब सभी सिनेमेटोग्राफर इसे मुश्किल बता रहे थे सिवा सुब्रोतो मित्रा के. सुब्रोतो को वे रेनुआ की फिल्म \’द रिवर\’ की कलकत्ता शूटिंग के दिनों से जानते थे पर सुब्रोतो मित्रा को फिल्म कैमेरे के साथ काम करने का कोई अनुभव नहीं था. उस समय तक वे स्टिल फोटोग्राफी ही करते थे. राय ने मशहूर फोटोग्राफर हेनरी कार्टिया ब्रेसों जो सामान्य जीवन में उपलब्ध लाइट में काम करने के लिए प्रसिद्ध थे और जिनकी ‘स्ट्रीट फोटोग्राफी’ ने नए तरह की फोटोग्राफी के कीर्तिमान स्थापित किए थे, के खींचे गए चित्र सुब्रोतो को दिखाकर कहा कि उन्हें ऐसा ही प्रभाव चाहिए पथेर पाँचाली की सिनेमाटोग्राफी के लिए. 21 बरस के सुब्रोतो मित्रा ने बाउन्स लाइटिंग की मदद से हर दृश्य को ऐसा ही प्रभाव दिया. ‘पाथेर पांचाली’ श्वेत श्याम फिल्म थी और इसका हर दृश्य एक खूबसूरत पेंटिंग या फोटोग्राफी की मिसाल है. इसकी सिनेमैटोग्राफी में वही लयात्मकता उभरकर सामने आई जो मूल उपन्यास में राय ने महसूस की थी. जिस बाउन्स लाइटिंग का प्रयोग आज इतना प्रचलित है वह पहली बार इसी फिल्म में सुब्रोतो मित्रा और सत्यजीत राय के कई प्रयोगों के बाद की उपलब्धि थी. इस कैमरा तकनीक में रोशनी को छत या दीवार के माध्यम से परावर्तित कर दृश्यों और पात्रों पर आने दिया जाता है. जिससे पात्रों के चेहरे, भंगिमा और देह रेखाएँ अधिक स्वाभाविक और गीतात्मक होकर उभरती हैं. इनडोर शूटिंग के सारे दृश्य इसी तरह फिल्माए गए और आउटडोर शूट दिन के प्रकाश में की गई. सुब्रोतो मित्रा बाद में देश के सबसे अच्छे सिनेमैटोग्राफेरों में गिने गए.
राय जब पथेर पाँचाली के संगीत के लिए पंडित रविशंकर से कलकत्ता में मिले तो पंडित जी ने कोई लोक धुन गुनगुनाई जो बाद में फिल्म का थीम सॉन्ग बनी. यह एक सामान्य सी लोक धुन थी पर जिसमें उस समय का ग्रामीण बंगाल बेहद खूबसूरती से प्रतिध्वनित हुआ. तबला, सितार और अंत में बाँसुरी से सजी यह धुन बड़ी सहजता से सुनने वालों को धान के उन हरे भरे खेतों, बाँस के घने वनों और गाँवों- के बीच बने पोखर तालाबों की याद दिला सकती है, इस धुन में हर ग्रामीण समाज की सरलता प्रतिध्वनित हुई जो देश और संस्कृति की सीमाएँ लाँघकर अमेरिकी और योरोपीय देशों में भी उतनी ही लोकप्रिय हुई. यह स्मृति में रह जाने वाली धुन थी.
गौरतलब है कि राय में भारतीय और पाश्चात्य दोनो शैली के संगीत का गहन प्रभाव था पर किस संगीत या वाद्य को किस तरह फिल्मों में लाना है यह उनसे बेहतर कम ही लोग जानते थे और हैं. मिसाल के तौर पर वे कहते थे – ‘हमारी जीवन शैली, रहन सहन और खानपान, कुछ भी अब पाश्चात्य प्रभाव से अछूता नहीं रहा, इसलिए अगर समकालीन विषयों पर फिल्म बने और उसके संगीत में सिर्फ़ भारतीय प्रभाव दिखे तो यह सही नहीं होगा’. इस कथन के परिप्रेक्ष्य में \’पथेर पाँचाली\’ और उनकी आनेवाली सभी फिल्मों का संगीत पूरी तरह खरा उतरता है. पथेर पाँचाली के संगीत में तबला, सितार और बाँसुरी के छोटे छोटे टुकड़े बजते हैं जो उन दृश्यों की अंतर्धारा हैं और दृश्यों को मायने देते चलते हैं जो बात शब्दों में नहीं व्यक्त हुई वह संगीत से व्यक्त हुई.
पंडित रविशंकर कई बार दृश्यों के लिए राय की 15 या 25 सेकेंड की माँग से परेशान हो जाते थे. पंडित जी फिल्मों में संगीत देने के अभ्यस्त नहीं थे, वे अपना संगीत घंटों के हिसाब से बजाने के, उसके अलाप विस्तार और पारंपरिक चलन के तरीके से बजाने के आदी थे. वे कहते ‘मैं तीन मिनट का एक टुकड़ा आपको दे सकता हूँ, पर कुछ सेकेंड्स के लिए बजाना मेरे बस की बात नहीं’. ऐसी स्थिति में राय संगीत की एडिटिंग करके उसे दृश्यों के हिसाब से उपयुक्त बना लेते. यहाँ उनकी संगीत की समझ काम आती थी और बाद में तो उन्होंने अपनी कई फिल्मों का संगीत भी खुद ही दिया ! हरफ़नमौला राय के व्यक्तित्व का यह बड़ा ही रोचक पहलू था.
पथेर पाँचाली (१९५५) जब पहली बार \’कान फिल्म समारोह में प्रदर्शित की गई तो मशहूर फ़्रांसिसी फिल्म निर्माता, अभिनेता और फ्रेंच न्यू वेव सिनेमा के अग्रणी फ्रैंकोइस त्रुफो कहते हुए सिनेमा हाल से निकल गए कि वे \’किसानों को हाथ से खाते हुए नहीं देखना चाहते\’. न्यूयार्क की टाइम्स मैगज़ीन के कला समीक्षक बोस्ले काउदर ने इसे \’आकर्षक\’ फिल्म कहा और कहा राय फिल्में बनाना नहीं जानते. ये दोनो पहली बार ऐसी कोई फिल्म देख रहे थे, जैसी इसके पहले उन्होने नहीं देखी थी. इनकी ऐसी राय के बावजूद \’पथेर पाँचाली\’ (१९५५), ने राय को विश्व सिनेमा के इतिहास में अगली पंक्ति के फिल्मकारों में ला बिठाया. यह विश्व सिनेमा उत्कृष्टतम फिल्मों में गिनी जाती है और इसने अलग अलग श्रेणियों में ११ अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीते.
राय अपने पीछे फिल्मों के बारे ऐसी सोच ऐसी दृष्टि छोड़ गए कि भारतीय और विदेशी दोनो ही फिल्मकार उनके सिनेमा से आज भी दृष्टि पाते हैं. श्याम बेनेगल, रितुपर्णो घोष, गौतम घोष और अगर विदेशी फिल्मकारों की बात करें तो माइक ली, मार्टिन स्कोरसेस्स, वेस एनडरसन (\’द दार्जलिंग अनलिमिटेड\’ फिल्म उन्होने राय को सपर्पित की थी). टेरेन्स मलिक जैसे फिल्मकार आज जैसी सिनिमॅटिक भाषा अपनी फिल्मों के बोलते दिखाई पड़ते हैं वह राय ने दशकों पहले अपनी फिल्मों में सीमित साधनों के माध्यम से कर दिखाया था. फिल्मों से जुडा उनका लेखन वृहत और बेमिसाल है जिसमें फिल्म निर्माण के हर पहलू की उन्होने खुलकर चर्चा की है.
सत्यजीत राय विश्व सिनेमा में उन लोगों में हमेशा शुमार किए जाएँगे जिन्होने सिनेमा को पुनः परिभाषित किया, इसे ज़्यादा मानवीय स्वर, भाषा और विषय प्रदान किये.
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ranjanamisra4@gmail.com
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