वन्याधिकारी और पथेर पांचाली के विभूति बाबू
अशोक अग्रवाल
झारखंड राज्य के पश्चिम सिंहभूम जिले का एक हिस्सा– घाटशिला. प्राकृतिक संपदा और सौंदर्य से भरपूर अभ्यारण्य.
यह वर्ष 1940 रहा होगा. योगेंद्रनाथ सिन्हा वन विभाग के सर्वोच्च अधिकारी थे. एक दिन विभाग का एक बाबू उनके घर आया और संकोच से बोला, ‘उसके एक भाई कोलकाता से आए हुए हैं और वह उनसे मुलाकात करना चाहते हैं.’
अनमने भाव से वन्य अधिकारी ने उन्हें घर लाने की अनुमति दे दी.
बाबू ने बताया कि उनके भाई का नाम विभूतिभूषण बंधोपाध्याय है और वह बांग्ला में गल्प लिखते हैं. वन्य अधिकारी ने उस समय तक टैगोर, शरत् और बंकिम के सिवाय किसी चौथे का नाम तक नहीं सुना था. टैगोर ही उसके हीरो थे और उन्हीं की किताबें उसने पढ़ रखी थीं. कुछ उपन्यास शरत् और बंकिम के भी हिंदी भाषा में.
आगामी दिन विभूति बाबू उनके घर आए. नाश्ता चाय के बाद वात्सल्य भरी आँखों आँखों से उनकी ओर देखते हुए पूछा– ‘आप कहानी क्यों नहीं लिखते?’
वन्याधिकारी को हँसी आ गई. कुछ-कुछ विरक्ति भी, जो फ़िज़ूल की बकवास से होती है. कहानी लिखने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी. उत्तर में उसने कहा–
‘मैं कहानी लिखना नहीं जानता. लिखना चाहता भी नहीं हूँ. कहानी लिखने के मानी–झूठ बोलना. मैं एक ईमानदार आदमी हूँ. अगर वन विभाग की सड़क पर 20 मजदूर काम कर रहे हैं तो कैसे कह दूँ कि 30 काम कर रहे हैं? अगर कहानी लिखना होगा तो यही तो कहना होगा.’
विभूति बाबू मुस्कराए और बोले, ‘कहानी लिखना इस तरह का झूठ बोलना नहीं है. उसकी एक टेकनीक है, मैं बता दूंगा.’
विभूति बाबू ने घाटशिला के दाहीगोड़ा मोहल्ले में एक अपना मकान बनवा लिया था. इस घर का नाम उन्होंने अपनी स्वर्गीय पत्नी के नाम पर रखा– गौरी कुंज.
घाटशिला आना विभूति बाबू को बेहद प्रिय था. जब कभी उनका मन कलकत्ते या अपने गाँव बैरकपुर से उचटता तो प्रकृति के सानिध्य में विचरण करने के लिए घाटशिला चले आते.
घाटशिला में रहते हुए अपना अधिकांश समय आसपास के पहाड़ों और जंगलों में बिताया करते. उन दिनों के अनेक दिलचस्प संस्मरणों में एक–
एक दिन विभूति बाबू सुबह-सुबह निकल गए यह कहकर कि खाने के वक्त तक लौट आएंगे, लेकिन शाम हो गई और देखते-देखते अंधेरा भी. परिवार के साथ-साथ आसपास के पड़ोसी भी चिंतित हो आए. अंत में करीब रात्रि के 11:00 बजे शांत भाव से घर में दाख़िल हुए. हाथी की लीद का विशालकाय गोला धोती में बांधकर रखा था. उस विशालकाय गोले को जमीन पर रखते हुए बोले— ‘की अद्भुत!’
दो)

सुबोध कुमार घोष नाम के एक एग्जीक्यूटिव इंजीनियर वन्य अधिकारी के परम मित्र थे. उनके निवास चाईबासा में था. अक्सर घाटशिला आया करते. विरोधाभास यह कि जहाँ वन्य अधिकारी विभूति बाबू को कोई महत्व नहीं देता था, उनका वही मित्र विभूति बाबू का गहन प्रशंसक था. उसका मानना था की विभूति बाबू ने ‘आरण्यक’ लिखकर अरण्य को ही साहित्य में रूपांतरित कर दिया है.
एक दिन सुबोध कुमार घोष चाईबासा से घाटशिला आए. उनका उद्देश्य विभूति बाबू और उनकी पत्नी को एक साहित्यिक गोष्ठी के लिए अपने साथ लाना था.
कार चलाते हुए वन्य अधिकारी को स्मरण आया कि विभूति बाबू ने उनसे कहानी लिखने की कला के बारे में बताने के लिए कहा था. वक्त काटने के लिए उसने यूँ ही विभूति बाबू से सवाल किया,’आपने मुझसे कहानी लिखने की टेकनीक बताने के लिए कहा था? इस समय बतलाइए न!’
विभूति बाबू ने तत्काल कहा– ‘हाँ, बोलबो, किंतु एखाने नय. जायगाय चाई. (हाँ कहा था, किंतु यहाँ नहीं, उसके लिए सही जगह चाहिए)
वन्य अधिकारी ने मन में सोचा, विभूति बाबू सिर्फ़ टालने के लिए ऐसा कह रहे हैं.
रास्ते में सराइकेला का निर्जन और शुष्क अरण्य आया, जिसने वन्य अधिकारी को वेदना से भर दिया कि मनुष्य ने कितनी निर्दयता के साथ वन का विनाश कर दिया है!
‘What beauty of space!’ उसने विभूति बाबू को कहते सुना. विभूति बाबू की आँखें जैसे सुदूर में कुछ अन्वेषित कर रही थीं. विभूति बाबू ने मुग्ध होते हुए कहा– प्रकृति के हर पहलू का अपना निराला सौंदर्य रहता है और खासकर बंगाल में हमें यह सीमाहीन मुक्त प्रसार कहाँ देखने को मिलता है?
विभूति बाबू ने अपना एक संस्मरण भी सुनाया. उस समय का जब वह राखा माइन्स पिकनिक के लिए गए हुए थे. वह उन उजड़ी अध- उजड़ी पहाड़ियों के सौंदर्य का मुग्ध मन से वर्णन कर रहे थे तो एक बंग महिला ने उन्हें टोकते हुए कहा कि ऐसी कोई विशेष बात नहीं. हमने कश्मीर को देखा है.’ विभूति बाबू ने प्रत्युत्तर में कहा,
‘कश्मीर भी सुंदर है और राखामाइन्स भी. अगर कश्मीर देखने से कोई ऐसा अंधा हो जाए कि उसे और जगह की अपनी विशेष सुंदरता दीख न पड़े तो उसे कश्मीर नहीं जाना चाहिए.’
विभूति बाबू और उनकी पत्नी उसी अधिकारी के घर रात्रि निवास के लिए ठहरे. वन्य अधिकारी के मन में जिज्ञासा के साथ-साथ एक जिद्द भी उत्पन्न हो गई थी कि यह सज्जन कहानी लेखन के बारे में पूछने पर बार-बार टाल देते हैं. नाश्ते की मेज पर उसने फिर वही सवाल किया तो विभूति बाबू ने फिर पहले की तरह कहा– ‘बोलबो, किंतु एखाने नय.जायगाय चाई.’(बताऊंगा, किंतु यहाँ नहीं. सही जगह होनी चाहिए)
हताश और पराजित सा महसूस करते हुए वह चुप हो गया और मन ही मन सोचने लगा, जिस जगह के बारे में यह महाशय बात कर रहे हैं, पता नहीं वह जगह होगी भी या नहीं!
नाश्ता करने के बाद वन्य अधिकारी, उनके एक मित्र और विभूति बाबू भ्रमण के लिए निकले. टूंगरी की ढलान पर झील के किनारे टहलने लगे. वृक्षों के बीच ग्रेनाइट पत्थर के विविध प्रकार के प्रस्तर खंड, झुकी डालियों पर सुहावने हरे पत्ते और सम्मोहक नैसर्गिक परिवेश. एक पेड़ के नीचे चबूतरानुमा पत्थर ढूंढ कर विभूति बाबू बैठ गए और एक सिगरेट पीने के बाद बोले, ‘यहाँ मैं आपको कहानी लिखने की टेकनीक बताऊंगा.’
विभूति बाबू ने कहानी लिखने के लिए जो अनिवार्य सूत्र बताए वह कुछ इस प्रकार थे :
१. जिस विषय को आप पूरी तरह नहीं जानते, उसे सांप समझिए और उससे अलग रहिए.
२. कहानी किसी लक्ष्य सिद्धि के लिए आप नहीं लिख सकते.
३. जिस भावना से प्रेरित होकर लेखक कहानी लिखने के लिए बैठता है, उसे मोमेंट या चरम अनुभूति कहते हैं. इसलिए यह आवश्यक है कि हर कहानी का एक मोमेंट होना चाहिए.
४. मोमेंट ही अपने कहानी जगत का सृष्टा है. यही अपने पात्रों को जन्म देता है और उसी के अनुसार घटनाओं का आविष्कार करता है.
इसके साथ-साथ उन्होंने कहानी लेखन के कुछ अन्य जरूरी पाठ सिखाये. मसलन, जितना प्यार आप अपने चरित्रों को करते हैं उतना ही प्यार पाठक भी उन चरित्रों को करेगा. छोटी कहानी में कोई भी घटना, दृश्य या शब्द फालतू नहीं होना चाहिए. लेखक को कांट- छांट करने या अपने लिखे को पूरी तरह ख़ारिज करने में निर्मम होना चाहिए.
विषय की जानकारी सबसे जरूरी है. यदि पाठक ताड़ जाए कि विषय आपका अपना नहीं है और आप भाड़े पर लिख रहे हैं तो वह आपकी कहानी को तुरंत फेंक देगा और आपके प्रति उसके मन में सदा के लिए अरुचि उत्पन्न हो जाएगी.
‘पाठक किसी भी श्रेणी का हो, लेखक को उस तरह पहचान जाता है, जैसे घोड़ा सवार को रकाब पर पैर देते ही नाप लेता है.’
विभूति बाबू ने अपनी दो कहानियों का सारांश भी उदाहरण देते हुए सुनाया. विभूति बाबू के इस आख्यान के बाद वन्याधिकारी को पहली बार विश्वास हुआ कि वह भी कहानी लिख सकता है. उसे रास्ता साफ़ दिखाई देने लगा और दूसरे ही दिन उसने अपनी पहली कहानी लिखना प्रारंभ किया.
तीन)
यह वन्य अधिकारी थे योगेन्द्रनाथ सिन्हा. उनका विभूति बाबू से वर्ष 1940 में सहज जिज्ञासा से बना संबंध, विभूति बाबू के देहावसान नवंबर 1950 तक अंतरंग प्रगाढ़ता में तब्दील हो गया था. अपने एक पत्र में विभूति बाबू ने लिखा है–
’यहाँ कलकत्ते में बहुत आदमी है, बहुत से मित्र और साहित्य संगी.आते-जाते हैं या साथ भी रहते हैं, लेकिन मुझे अकेला-अकेला लगता है. आप ही के पास आने का हमेशा मन करता रहता है. यहीं जैसे मुझे पूर्णता मिलती है.’
यह संबंध एक वन्य अधिकारी और प्रकृति प्रेमी प्रसिद्ध लेखक के बीच बना सामान्य संबंध नहीं था. यह प्राचीन गुरुकुल परंपरा के गुरु और शिष्य का भी संबंध था. अपने आसपास के दृश्य, वस्तुओं, ध्वनि, परिवेश और घटनाओं को किस कोण से और किस प्रकार देखा और समझा जाए और उसका रचनात्मक प्रयोग कैसे किया जाए, इसका प्रारंभिक पाठ भी इस जिज्ञासु वन्य अधिकारी को उसके विलक्षण गुरु विभूति बाबू ने वनांचल का भ्रमण करते हुए अत्यंत सहज भाव से सिखाया.
वन्य अधिकारी का झारखंड के जिस वनांचल में स्थानांतरण होता रहा वह विभूति बाबू को संग साथ और अरण्य के अंदरूनी क्षेत्रों के रोमांचक भ्रमण के लिए लिए आमंत्रित करता. विभूति बाबू तो जैसे इसके लिए सदैव लालायित रहते.
हिरनी जलप्रपात, बामियाबुरु, बहरागोड़ा, झाड़ग्राम, टुबलाबेड़ा, सारंडा वन, मानभूम और हजारीबाग के वनांचल की यात्राएं, उनसे उत्पन्न अनुभूतियाँ और अनुभव वन्य अधिकारी के मन और मस्तिष्क में अपनी स्थायी जगह बनाते रहे.
उनकी उन असंख्य अविस्मरणीय यात्राओं में से एक यात्रा का सारांश:
‘विभूति बाबू के साथ वन्य अधिकारी थोलकोबाद से तिरिलपोसी होते हुए दीघा गए. उनके लौटने का कार्यक्रम बना हेंदेकुली के रास्ते. उन दिनों यह रास्ता निहायत निर्जन था. वन्य प्राणियों विशेष कर हाथियों और बाघों ने इस क्षेत्र की किलेबंदी कर अपना सुरक्षित क्षेत्र निर्मित कर लिया था. वन्य अधिकारी ने सोचा था कि वह इस रास्ते विभूति बाबू को जीप से बाघ या हाथियों के दर्शन सहजता से करा सकेगा.
जीप जैसे-जैसे आगे बढ़ी रास्ता उतना ही दुर्गम और भयावह होता गया. घनी वन गुफाएं, पतली घुमावदार सड़क, एक ओर खड़ा पहाड़, दूसरी ओर पाताल की तरह खाई. मन में भय कि सामने मार्ग पर कोई हाथी दिखाई दे जाए तो न आगे जा सकेंगे और न ही पीछे. मार्ग पर जगह-जगह हाथी की ताज़ी लीद भी दिखाई देने लगी. वन्य अधिकारी को पछतावा हुआ कि वह अपने साथ-साथ विभूति बाबू के भी प्राण संकट में डालने की भूल कर चुका है. जीप में सवार कोई एक दूसरे से बातचीत नहीं कर रहा था. जब एक मोड़ पार हो जाता और हाथी से मुठभेड़ न होती तो उन्हें किसी विराट संकट के गुज़रने जैसा एहसास होता. किसी तरह वन्य अधिकारी अपने साथियों और विभूति बाबू के साथ हेंदेकुली पहुंचे.
हेंदेकुली में भी कोई जन आबादी नहीं थी. वन्य अधिकारी को सिर्फ़ इस बात की जानकारी थी कि कुछ साल पहले जब इस वन अंचल में काम हो रहा था तो कुछ मजदूरों ने वहाँ अपनी झोपड़ियाँ बना ली थीं. सड़क से ऊपर कर्मचारियों के लिए एक फॉरेस्ट रेस्ट हाउस का निर्माण भी करवाया था. रेस्ट हाउस के बरामदे में हाथी के बच्चे के पाँव के निशान चारों तरफ़ मौजूद थे. तोड़फोड़ के निशान इस बात को भी बयान कर रहे थे कि उसने बरामदे से कमरों के भीतर भी जाने का प्रयास किया था.
वापस लौटकर जीप में बैठे तो देखा कि कच्चे मार्ग पर बाघ के बड़े-बड़े पंजों के ताज़ा छाप स्पष्ट रूप से अंकित थे. कुछ देर पहले बूंदाबांदी हो गई थी, जिसके कारण पंजों के चिन्ह जीप की हेडलाइट में चमक रहे थे. वन्य अधिकारी के साथ सभी जीप से उतरकर उन पदचिन्हों के आधार पर उसके नर या मादा होने का अनुमान लगने लगे. पदचिह्न सड़क के दूसरी पार एक झाड़ी के पास पहुँचकर लुप्त हो गए थे. इस बात की भी बहुत अधिक संभावना थी कि बाघ अभी भी उस झाड़ी के पीछे छिपा हुआ है जो कुछ समय पहले इसी पगडंडी पर विचरण कर रहा था और उनकी आहट पाकर सहसा लुप्त हो गया. सभी जीप में वापस लौट आए.
उनकी यात्रा फिर प्रारंभ हुई. ताज़ा टूटी हुई वृक्षों की डालियाँ मार्ग पर अधिक और अधिक दिखाई देने लगीं. स्पष्ट था कि हाथियों का कोई समूह इसी रास्ते अभी कुछ देर पहले गुज़रा है. हर मोड़ पर यही एहसास होता कि हाथियों से मुठभेड़ होने ही वाली है. कुछ दूर जाने पर पगडंडी के किनारे बड़े-बड़े शाल वृक्षों के बीच पत्तों से निर्मित कुछ झोंपड़ियाँ नज़र आईं. चारों तरफ सन्नाटा था और झोपड़ियाँ निर्जन. कोई भी प्राणी दृश्यमान नहीं था. फिर भी, उन्हें अनुभूति हुई कि जैसे कोई छोटा बच्चा उत्सुकता और कौतूहल से भरा उचक-उचक कर उनकी ओर ताक रहा है.
विभूति बाबू ने कहा कि हमें अवश्य कोई भी भ्रम हो रहा है, फिर भी उन्होंने जोर-जोर से चिल्ला कर पुकारा कि कोई है! आवाज़ सुनकर एक दस-बारह साल का लड़का झोंपड़ी से निकला. विभूति बाबू विस्मय से आँखें मलते हुए उसकी ओर देखने लगे. साथ चल रहे ‘हो’ आदिवासी मूल के फॉरेस्ट गार्ड के माध्यम से उस बच्चे से पूछा, ’यहाँ और कौन है?’
लड़के ने उत्तर दिया– कोई नहीं.
विभूति बाबू विस्मित हो आए. उन्हें जैसे यकीन ही नहीं हो पा रहा था. उन्होंने फिर पूछा– कोई नहीं? लड़के ने फिर वही उत्तर दिया.
और तुम इस घोर जंगल में अकेले इन झोपड़ियों में हो? तुम्हारे मां-बाप कहाँ हैं? तुम्हें यहाँ अकेला क्यों छोड़ गए हैं?
छोटा लड़का निर्मल हँसी हँसने लगा –’वह काम पर गए हैं. पीछे झोंपड़ी की देखभाल के लिए मुझे छोड़ गए हैं.’
विभूति बाबू दंग रह गए. हम इतने सारे और बड़े आदमी हैं जो एक साथ जीप में बैठकर चल रहे हैं, फिर भी डर के मारे हमारे प्राण निकल जा रहे हैं. इतने छोटे लड़के को झोपड़ियों की देखरेख के लिए छोड़ दिया है, जहाँ चप्पे-चप्पे पर बाघ और हाथियों का खतरा मौजूद है. उन्होंने बच्चे से पूछा, क्या तुम्हें डर नहीं लगता?
बच्चा मुसकुरा कर चुप रह गया.
तुम्हारा नाम क्या है?
टुम्बी हो.
यहाँ हाथी बाघ नहीं आते?
आते हैं. इन्हीं हाथियों ने बगल वाली झोपड़ी को तोड़ डाला है.
इसके बाद विभूति बाबू बिना कुछ बोले आगे बढ़ चले. वन्य अधिकारी और उसके साथियों ने उनसे जीप में बैठने का आग्रह किया, जिसे नकारते हुए वह तेज गति से से थलकोबाद कैंप के मार्ग पर चलते रहे. देखते-देखते वह काफी दूर निकल गए. यहाँ तक कि अगले मोड़ से आगे उन्हें देख पाना भी मुश्किल हो गया.
वन्य अधिकारी और उनके साथियों को यह सब अकल्पनीय लग रहा था, जो विभूति बाबू कुछ देर पहले तक जीप में साथियों के बीच दबे डर से भयभीत हो रहे थे, वह अब बाघ, हाथी और अन्य हिंसक पशुओं के खौफ से मुक्त होकर एकाकी उसी रास्ते पर चलते जा रहे थे.
जीप में बैठे उनके साथी जब उनके करीब पहुंचे तब तक वह दो किलोमीटर की दूरी पार कर चुके थे. विभूति बाबू से उन्होंने जीप में बैठने का आग्रह किया तो उनकी ओर देखे बिना आगे बढ़ते हुए बोले,
‘हाथी मुझे और आपको मार दे, बाघ और हाथी मिलकर सारी दुनिया को शून्य कर दें, तब भी जब तक इस संसार में एक भी ‘टुम्बी हो’ बचा रहेगा, तब तक मनुष्य अमर रहेगा!’
चार)
विभूति बाबू के संग-साथ उन नालों का भ्रमण करते हुए वन्य अधिकारी ने उन स्थलों का और वहाँ के रहवासी आदिवासियों का अन्वेषण नई दृष्टि से करना सीखा. उसके परंपरागत सोच को विभूति बाबू ने पूर्णतया परिवर्तित कर दिया. उसके समक्ष जैसे एक नई सृष्टि पल-पल जन्म ले रही थी.
लिपूकोचा की जन आबादी से बहुत दूर, वन के बहुत अंदरूनी क्षेत्र के भीतर चार-छह पत्तों की झोंपड़ियाँ बनाकर ‘हो’ आदिवासी परिवार रहा करते. यह एक अलग ही दुनिया थी. उनका पूरा संसार उसी एक उपत्यका तक सीमित था.
वन्य अधिकारी ने जहाँ अपना तंबू लगाया उसी के नजदीक लकड़ी के दो मोटे बल्लों को लीवर बनाकर कुछ हो आदिवासी औरतें पुष्पों का तेल पेर रही थीं. तेल की धार तो कांसे के बर्तन में गिर रही थी, लेकिन कुछ बूंदें छिटककर इधर-उधर भागने लगतीं तो इसी ताक में मुस्तैद वे औरतें उसे अंजुरी में भरती अपने केशों या गालों में लगा लेतीं. यही शायद उनके परिश्रम का निशुल्क बोनस था.
वन्य अधिकारी और विभूति बाबू ने उस तेल को सूंघकर देखा. उसमें से सड़े हुए पुआल जैसी गंध आ रही थी. वन्य अधिकारी को ऐसा कुछ विशेष प्रतीत नहीं हुआ जिसे वह औरतें इतना प्रमुदित होते हुए अपनी देह पर इस्तेमाल कर रही थीं. विभूति बाबू कुछ देर सोचते रहे और फिर बोले, ‘अहा! इसी तेल की कमी से प्रेमिकाएं अपने प्रेमियों से कतराती आयी होंगी. हाट में भी सूखे बाल जाते इन्हें संकोच होता होगा.’
विभूति बाबू ने वन्य अधिकारी से पूछा, ‘आजकल तुम क्या लिख रहे हो?’
उत्तर में उसने कहा कि वह लिखना तो बहुत चाहता है , लेकिन उसे कोई प्लॉट ही नहीं मिल रहा.
विभूति बाबू हँसते हुए बोले,
’हम लोग प्लाटों की गठरी लिए बैठे रहते हैं पर समय के अभाव में उसके एक अंश का भी उपयोग नहीं कर पाते. और एक आप हैं जिनके पास समय की कोई कमी नहीं लेकिन प्लॉट नहीं मिलता. प्लॉट तो इतने हैं जितने हवा में बैक्टीरिया होंगे. जहाँ चाहिए वहीं प्लॉट मिलेगा.’
वन्य अधिकारी ने जब कहा कि कहानी लिखने का मूड ही नहीं बनता तो विभूति बाबू ने हँसते हुए उन्हें बताया कि आप लिखने बैठ जाएं तो मूड खुद आपके पास चलकर आ जाएगा. आलसी लेखक ही मूड को अपनी छत्रछाया बनाते हैं.
विभूति बाबू खुद नियमित रूप से लिखते थे. दिन पर घूमने के बाद भी अपनी साहित्यिक डायरी तो अवश्य लिखा करते. उनकी कई डायरियाँ आज उनकी महत्वपूर्ण किताबों का रूप ले चुकी हैं. ‘हे अरण्य! कथा कहो’ और ‘तृणांकुर’ इसी श्रेणी में आती हैं.
थलकोबाद कैंप में रहते हुए विभूति बाबू अपना आध्यात्मिक उपन्यास ‘देवयान’ लिख रहे थे. विभूति बाबू का कहना भी था कि ‘देवयान’ का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा वह थलकोबाद कैंप में ही लिख सके.
पाँच)
चाईबासा के रवीन्द्र पुस्तकालय में एक साहित्यिक गोष्ठी में कुछ युवाओं ने विभूति बापू से पूछा,
‘सर, आप मजदूर समस्या पर क्यों नहीं लिखते?’
उत्तर में विभूति बाबू ने कहा,
‘मैं चाहते हुए भी इस समस्या पर कुछ नहीं लिख सकता. मैं मजदूरों को नहीं जानता. उनके बारे में अखबार में कुछ पढ़ लेना या किसी कारखाने में पर्यवेक्षक की तरह देखने या उनकी बस्ती का भ्रमण कर आने से मजदूर को जानना नहीं हुआ. उनके आंतरिक जीवन से परिचित होने के लिए उनके भीतर पैंठना होगा. उनकी भावनाओं के स्रोत में बहना होगा. उनके सुख -दुख में हँसना- रोना भी होगा. इतनी सामर्थ्य तो है कि जितनी जानकारी है उसके आधार पर, और उसमें कुछ काल्पनिक घटनाओं का घालमेल करके ऐसी कहानी रच दी जाए जो पाठकों की पर्याप्त प्रशंसा भी हासिल कर ले, लेकिन यह अपने साहित्यिक ईमान के प्रति विश्वासघात होगा. कोई भी लेखक मांग की पूर्ति के लिए नहीं लिख सकता. वह लिखेगा तभी जब उसमें भावनाओं का उद्रेक होगा और भावनाओं के उद्रेक के लिए विषय के अंतरंग परिचय की मौलिक आवश्यकता है. भाड़े पर लिखे साहित्य का सुंदर शरीर हो सकता है लेकिन उसमें आत्मा निवास नहीं कर सकती.’
इन्हीं यात्राओं के दौरान विभूति बाबू ने वन्य अधिकारी को अपनी रचनात्मक प्रक्रिया के बारे में अंतरंग जानकारियाँ सहज रूप से दीं. मसलन यह कि लेखन की दुनिया में उनका प्रवेश कैसे संभव हुआ? वन्य अधिकारी को विभूति बाबू ने सीख दी कि अगर आप किसी घटना की रिपोर्ट लिख रहे हैं तो तत्काल लिख डालिए, अगर उपन्यास लिख रहे हैं तो एक साल तक की प्रतीक्षा कीजिए.
‘वे बातें जो आज महत्व की लगती है लेकिन जिनका स्थायी मूल्य नहीं है वे घड़े के में पानी में मिट्टी की तरह नीचे बैठ जाएंगी.- – – कुछ ऐसी बातें जो वर्तमान समय में अनावश्यक या महत्वहीन प्रतीत हो रही हैं वह आगे चलकर समय के साथ उनमें इतनी अर्थवत्ता और रूमानियत भर देती हैं कि आप उन्हें विस्मृत नहीं कर सकते, और वे ही साहित्य का सृजन करती हैं.’
चाईबासा में एक मित्र के यहाँ हुई गोष्ठी में विभूति बाबू ने अपनी लिखी छोटी सी कहानी पढ़ कर सुनाई. कहानी का सारांश कुछ इस तरह था–
जिस काल में ग्रीक आक्रमणकारी भारतवर्ष में थे, उस समय एक ग्रीक सैनिक ने भारतीय महिला से विवाह कर लिया था. जब उस महिला की मृत्यु हो गई तो उस ग्रीक सैनिक ने उसकी स्मृति में एक स्मारक बनाया, जिसमें पति-पत्नी के नाम और निर्माण काल का उल्लेख था.
विभूति बाबू ने बताया कि कहानी में इसके अतिरिक्त कुछ नहीं है. ऐसा स्मारक उन्होंने उत्तर प्रदेश के एक नगर में देखा था. इन तीन पृष्ठों की कहानी के लिए उन्हें छह माह का परिश्रम करना पड़ा. उस युग के इतिहास के अध्ययन के लिए वह रोज इंपीरियल लाइब्रेरी जाते रहे. कहानी एक ग्रीक सैनिक और भारतीय महिला के भावुक और प्रगाढ़ प्रेम से भरी थी. कहानी बना देना तो आसान था लेकिन उस युग में नाम कैसे होते थे, लोगों के मकान और बगीचे कैसे होते थे, किस तरह के परिधान, आभूषण और श्रृंगार करने के तरीके हुआ करते थे, इसकी पूरी और सच्ची जानकारी कहानी के लिए अत्यंत आवश्यक थी.
इस तरह की कहानी के प्राण समकालीन परिदृश्य, आचार- विचार और भाव- धारा का चित्रांकन ही तो है. यदि आप इसे आधुनिक नाम दे दें या आधुनिक परिधान पहना दें तो कहानी कूड़ेदान में पहुंचा दी जाएगी. सफल कहानी बनाने के लिए लेखक को इतना परिश्रम तो करना ही पड़ेगा.
छह)
उनके महत्वपूर्ण उपन्यास ‘आदर्श हिंदू होटल’, ‘पथेर पांचाली’, ‘आरण्यक’ आदि के रचनात्मक स्रोत किन घटनाओं से कैसे और किन परिस्थितियों में उत्पन्न हुए! इसके दिलचस्प वृतांत वन्य अधिकारी को विभूति बाबू ने समय-समय पर इन यात्राओं के दौरान सुनाये. इन वृतांतों को वन्य अधिकारी ने अपनी स्मृतियों में संजो लिया.
विभूति बाबू किसी काम से अपने देहात जा रहे थे. रेलवे स्टेशन छह-सात कोस की दूरी पर था. पैदल चलने के सिवाय कोई उपाय भी नहीं था. साधारण जूते, धोती और कमीज़ पहने और बगल में पोटली दबाये स्टेशन की दिशा में जा रहे थे. उन्होंने पीछे से आवाज़ सुनी. कोई आदमी उसी दिशा में आ रहा था. पास आते हुए उसने कहा, आप भी स्टेशन की तरफ जा रहे हैं. मुझे भी वहीं जाना है. साथ चलेंगे तो बातें करते रास्ता आसानी से कट जाएगा.
आगंतुक विभूति बाबू के साथ-साथ चलने लगा. रास्ते में विभूति बाबू के प्रशंसक एक रिटायर्ड जज की कोठी पड़ती थी. उनका बहुत दिनों से आग्रह था विभूति बाबू से भेंट करने का. ट्रेन के आने में काफी देरी थी. उन्होंने सोचा अच्छा अवसर है जज साहब की शिकायत दूर करता चलूं. वह सहयात्री से बोले-
‘मुझे कुछ देर यहाँ किसी से मिलना है. आपको देरी होगी.’
सहयात्री ने कहा,
‘कोई बात नहीं. आपको दिक्कत नहीं हो तो मैं भी आपके साथ चलता हूँ.’
सूचना पाते ही जज साहब, उनकी पत्नी और बेटी दौड़े-दौड़े बाहर आए. उन सभी ने विभूति बाबू के चरणों का स्पर्श किया और उन्हें आदर पूर्वक कोठी के भीतर ले आए. चाय नाश्ता करने के बाद विभूति बाबू ने उनसे विदा ली.
सहयात्री यह सब देखकर विस्मित था. उसने विभूति बाबू से कहा, ‘
यह तो बहुत बड़े आदमी लगते हैं. आपका जो सम्मान किया उससे लगता है आप भी कोई बड़े आदमी हैं. आपनी निजेर परिचय तो मोटेइ देन नि.’
विभूति बाबू ने अपना परिचय दिया. सहयात्री कुछ देर तो चुप रहा फिर बोला,
‘आमार नाम हाजारी ठाकुर. रानीघाट स्टेशनेर सामनेइ आमार होटल. आपकी तरह मेरा नाम भी दूर-दूर तक फैला है.’
विभूति बाबू ने वन्य अधिकारी को बताया कि पहले तो यह सुनकर उन्हें हँसी आ गई. सब कुछ देख सुनकर भी यह अदना होटल वाला अपनी तुलना मुझसे कर रहा है. फिर हँसते हुए सहयात्री से बोले,
‘ओफ्फो! भूल हो गई. आपको पहचान नहीं सका. आप ही हाजारी ठाकुर. आपका खूब नाम सुना है. एतो दिन देखबार पाकर सौभाग्य घटेनि.’
विभूति बाबू अपनी बात कहते रहे,
‘मैं सोचने लगा, इस आदमी का अपनी व्यवसाय के प्रति कितना गर्व है! वह अपने को किसी से कम नहीं समझता. हम हज़ार लेखक हों, लाख हमारी ख्याति हो, हाजारी ठाकुर भी अपने को इस श्रेणी में गिनते हैं. बस उसके इसी आदर्श गर्व से अभिभूत होकर मैंने ‘आदर्श हिंदू होटल’ की रचना की.’
बी. ए. पास करने के बाद विभूति बाबू ने कुछ दिन मास्टरी की, फिर एक बड़े जमींदार के यहाँ नौकरी करने लगे. जमींदारी का बड़ा हिस्सा भागलपुर जिले के वनांचल में पड़ता था. जमींदार ने उन्हें मैनेजर बनकर वहाँ भेज दिया.
विभूति बाबू चले तो आए लेकिन उस उजाड़ वनांचल में खुद को निहायत अकेला पाया. जशोर जिले की अपनी शस्य श्यामला जन्मभूमि और वहाँ की स्मृतियों ने व्याकुल करना प्रारंभ कर दिया. इनसे निजात पाने के लिए उन्होंने एक उपन्यास लिखना प्रारंभ कर दिया. यही उपन्यास ‘पथेर पांचाली’ के रूप में साहित्य संसार में अवतरित हुआ.
विभूति बाबू ने वन्य अधिकारी को बताया कि वह लगभग 500 पृष्ठ के उस उपन्यास को पूरा कर चुके थे. छपवाने से पहले उस पांडुलिपि पर रवि बाबू का आशीर्वाद लेने का विचार आया. रास्ते में एक दिन के लिए भागलपुर ठहरना हुआ. शाम के समय एक निर्जन सड़क पर अकेले टहल रहे थे. उनकी दृष्टि उस सुनसान रास्ते पर एक किनारे खड़ी आठ-दस साल की लड़की पर पड़ी. बाल बिखरे हुए, सूरत पर कुछ उदासी, आँखों में व्याकुलता के साथ-साथ कुछ शरारत की चमक. लगता था जैसे स्कूल से भागी हो या घर से पिट कर भगाई गई हो और इस समय कुछ नए षड्यंत्र रच रही हो. उसकी आँखों में एक अवर्णनीय संदेश था, एक अजीब पुकार, मीठे-मीठे दर्द की एक अनदेखी दुनिया.
अनायास विभूति बाबू के मन में आया कि जब तक यह लड़की मेरी कहानी में नहीं आती तब तक मेरी रचना व्यर्थ है, निर्जीव है. वह रवि ठाकुर के यहाँ न जाकर अपने जंगल के डेरे पर लौट आए. लिखी हुई 500 पृष्ठ की वह पांडुलिपि फाड़ डाली और उस लड़की को आधार बनाकर फिर से लिखने लगे. यही लड़की ‘पथेर पांचाली’ की अविस्मरणीय पात्र दुर्गा के रूप में अवतरित हुई.
विभूति बाबू ने बताया कि उनका उपन्यास आरण्यक भी कुछ ऐसी ही परिस्थितियों में लिखा गया.
जब तक वह उस वनांचल में जमींदार के मैनेजर के रूप में कार्य कर रहे थे, उनके मन में कांटे चुभते रहते थे. लगता कि जैसे वह किसी कारावास की सज़ा भुगत रहे हैं. उन्हें जैसे किसी जेल में जबरदस्ती बंद कर दिया गया है.
जब वह सेवानिवृत्ति के बाद घर चले आए तो उस वनांचल की स्मृतियाँ मधुर होती चली गईं. वहाँ के पत्थरों से जैसे संगीत फूटने लगा और मुझे अनुभूति होने लगी कि जैसे वहाँ के वृक्ष और वनस्पतियाँ मेरे चले आने से शोकातुर हो आए हैं. वहाँ के आदिवासियों की भाषा मुझे बांग्ला से अधिक मीठी लगने लगी. इन स्मृतियों ने मुझे व्याकुल करना प्रारंभ कर दिया. भावनाओं को अग्नि देती हुई कल्पनाएं उमड़ने लगीं. शरीर का ताप बढ़ता गया और इसी ताप से परित्राण पाने के लिए ‘आरण्यक’ को लिखना जरूरी हो आया.
सात)
1 नवंबर 1950 को विभूति बाबू का हृदयाघात से आकस्मिक निधन हो गया. उन दिनों वह घाटशिला में ही निवास कर रहे थे.
इस समाचार ने योगेन्द्र कुमार सिन्हा को मानसिक रूप से गहरा आघात पहुँचाया. विभूति बाबू को वह अपना साहित्यिक गुरु मानते थे. उन्हीं के प्रोत्साहन और प्रेरणा से उन्होंने कहानी लिखना प्रारंभ किया. विभूति बाबू की मृत्यु के बाद उनके साहित्यिक मित्रों का बहुत गहरा दबाव था कि वह अपने और विभूति बाबू के अंतरंग संबंधों के बारे में कुछ लिखें.
‘पथेर पांचाली के विभूति बाबू’ किताब उसी का परिणाम है. इसकी प्रस्तावना में उन्होंने लिखा है कि
‘इस संस्मरण के लिख पाने पर मुझे वही तृप्ति और शांति मिली है जो अपने आराध्य देव के मंदिर में फूल चढ़ा आने पर भक्त को मिलती है.’
‘यह संस्मरण तो सिर्फ़ राह चलते की कहानी है. इसे लिखते समय मैंने किसी ग्रंथ या व्यक्ति से पूछताछ नहीं की, जो कुछ भी याद था वही लिख दिया. संभव है जहाँ याद ने धोखा दिया वहाँ विवरण में वास्तविकता से कुछ भेद आ गया हो. फिर भी मुझे अपनी याद प्यारी है.’
पथेर पांचाली के विभूति बाबू किताब को समर्पित करते हुए योगेन्द्र नाथ सिन्हा ने लिखा है:
मित्रवर काशीनाथ पांडेय को
जिन्होंने एक दिन अचानक आकर,
तप रहे बीज में
पानी डाला
और इस पुस्तक का पौधा
अंकुरित हो उठा
इस किताब का प्रकाशन विभूति बाबू की मृत्यु के 14 साल बाद रांची के अभिज्ञान प्रकाशन ने वर्ष 1964 में किया.
मुझे यह अमूल्य पोथी कर्मेन्दु शिशिर ने वर्ष 1989 में पटना यात्रा के दौरान भेंट स्वरूप प्रदान की, जो उन कुछ चुनिंदा किताबों में है जो आज तक साथ हैं.
वरिष्ठ कथाकार अशोक अग्रवाल की सम्पूर्ण कहानियों का संग्रह ‘आधी सदी का कोरस’ तथा ‘किसी वक्त किसी जगह’ शीर्षक से यात्रा वृतांत‘ तथा संस्मरणों की पुस्तक संग साथ’ संभावना प्रकाशन’ हापुड़ से प्रकाशित है. मोब.-८२६५८७४१८6 |
वाह!
समृद्ध करनेवाला स्मृति लेखा।
अब किताब खोजता हूँ।
संस्मरण को पढ़ते हुए एक ही बात का ख्याल आया- इसे हम सब को पढना चाहिए. यह संस्मरण हम बेचैन लेखकों के लिए आँख खोलने वाला है. आत्म निरीक्षण करना होगा. विभूति बाबू ने जो लेखन के सूत्र दिए हैं,उससे परे जाकर कोई भी सफल लेखक नहीं बन सकता.
ससंस्मरणों को इस तरह संजो कर रखना भी एक ऐसी साहित्यिक अभिव्यक्ति है जो हर किसी से सम्भव नहीं हो पाता है। अशोक अग्रवाल जी एक ऐसे लेखक हैं जो न केवल अपनी कहानियों में, यात्रा वृतान्तों में वरन् संस्मरणों में भी स्मृतियों के साथ-साथ उस दौर को भी पूरी तरह से चित्रित कर देते हैं जिसे बीते हुए अरसा हो चुका है।
विभूति बाबू और वन्य अधिकारी के बीच पनपे गुरु शिष्य के इस भाव को उन्होंने ऐसे रचा है कि हम पढ़ते हुए सहसा यह कल्पना करने लग जाते हैं कि कैसे विभूति बाबू ने वन्य अधिकारी को अच्छी जगह की तलाश में कहानी लिखने की कला के प्रति उन्हें उत्साहित कर रखा था और आखिर उनको वो अच्छी जगह मिल गई। एक लेखक दूसरे में लिखने की कला का बीज बो दे यह बहुत कम ही सम्भव हो पाता है। विभूति बाबू के रचना संसार और लोगों से मिलने की जो उनकी दृष्टि थी वह सच में हम पाठकों को चौंकाती है।
इसी तरह अशोक अग्रवाल जी अपने लिखे इस संस्मरण में उस समय को भी जीवंत कर देते हैं और पढ़ते हुए सहसा यह लगता है जैसे कोई चलचित्र हमारी आंखों के समाने चल रहा हो।
विभूति बाबू और वन्य अधिकारी पर लिखा अशोक अग्रवाल जी का यह संस्मरण बहुत स्मरणीय है और मेरे लिए तो यह अनुरणीय भी है कि हमें अपनी यात्राओं और संस्मरणों को हमेशा के लिए अपनी स्मृतियों में संजो कर रखना चाहिए।
इस सुंदर संस्मरण के लिए समालोचन और अशोक अग्रवाल जी को बहुत बधाई।
सुबह सुबह लेख या कहानी पढ़ना कठिन होता है, लेकिन यह मेरे बहुत प्रिय विभूतिभूषण वंद्योपाध्याय के बारे में था, इसलिए इसे तत्काल पढ़ना ही था। योगेन्द्रनाथ सिन्हा की किताब के माध्यम से अशोक जी ने विभूति बाबू की सृजनयात्रा को सारगर्भित ढंग से प्रस्तुत किया है। विभूति बाबू के लेखन में जो सघनता है, प्रकृति और मनुष्य के सहसम्बन्धों का जैसा स्पन्दन है, अपनी अद्वितीय शैली में पाठक को जिस तरह बाँधना है, उसके सूत्र इस पुस्तकचर्चा में आ गए हैं। यह अद्भुत है कि एक लड़की को देख कर उन्होंने पाथेर पांचाली का पुनर्लेखन किया और उसमें दुर्गा जैसे अविस्मरणीय पात्र को रचा जिसके बिना इस कृति की कल्पना भी सम्भव नहीं है। मुझे उनका ‘आरण्यक’ विकास बनाम पर्यावरण बनाम विस्थापन के साम्प्रतिक विमर्श से बहुत पहले इसे अनूठी मार्मिकता और संलग्नता के साथ उठाने वाली कृति लगता है।
अरुण जी को और आपको इस आलेख के लिए बहुत धन्यवाद। यह किताब ज़रूर पढ़ना चाहूंगा।
पढ़ गया ,आपके हाथ चूमने का मन हो उठा।क्या तो प्रांजल भाषा है और कहन अपूर्व।
मैं संस्मरण अंक निकाल रहा हूं तो आपसे निवेदन के लिए ही सोच रहा था।आग्रह पर विचार करिए।
बाबूजी हजारीबाग के सिमरिया में अंचलाधिकारी थे, यह पचहत्तर की बात है. मैं पहली बार वन देख रहा था. सोमरा मांझी जंगल से लकड़ियां लाता था, आज भी उन्हीं लकड़ियों से बनी अलमारी में कुछ रखी किताबें हैं और वह अलमारी मुज़फ़्फ़रपुर में है…आपका यह संस्मरण पढ़ते हुए मैं उसी वन क्षेत्र की ओर चला गया…
दुर्भाग्य है कि आज हम तेजी से उन वन क्षेत्रों को नष्ट करने में लगे हैं…बचपन में सिन्हा जी की किताब देखा था… आपके संस्मरणों को पढ़ते हुए मेरे अंदर का पाठक पुनर्जीवित हो रहा है….आप खोये हुए पाठकों को वापस ला रहे हैं…समृद्ध हुआ…
एक उल्लेखनीय अंश :
जीप में बैठे उनके साथी जब उनके करीब पहुंचे तब तक वह दो किलोमीटर की दूरी पर कर चुके थे. विभूति बाबू से उन्होंने जीप में बैठने का आग्रह किया तो उनकी ओर देखे बिना आगे बढ़ते हुए बोले, हाथी मुझे और आपको मार दे, बाघ और हाथी मिलकर सारी दुनिया को शून्य कर दें, तब भी जब तक इस संसार में एक भी ‘टुम्बी हो’ बचा रहेगा, तब तक मनुष्य अमर रहेगा!’
विभूति बाबू, यह नाम कई बार अशोक सर से सुन लेने के बाद बेहद अपना हो ही गया था, मगर आज यह आत्मीय संस्मरण पढ़ कर लगा कि थोड़ा और जान लिया है अपने अंचल के इस लेखक को। प्रकृति से बना आदमी विभूति बाबू। योगेन्द्रनाथ ने अपने लिखे में जिस सघनता से याद किया है उन्हें कुछ ऐसा ही अनुभव मुझे अशोक सर के अपने समकालिक लेखकों के संस्मरण पढ़ते समय हुआ था। जैसे एक सहज सरल व्यक्तित्व को दूसरा वैसा ही रचनाकर अपने लिखे में सजीव कर दे। योगेन्द्रनाथ की किताब को बहुत सुरुचिपूर्ण ढंग से सामने लाया गया है। अशोक सर के अनेक संस्मरण पढ़ने के बाद मुझे विश्वास भी था कि यह विधा उनकी सबसे मज़बूत और बाँधने वाली है।
अरूण देव जी और अशोक सर का इस सुन्दर सामग्री को उपलब्ध करवाने का बहुत शुक्रिया।
पढ़ा है । अभाव के उस दौर में सबसे बड़ी संपदा वनाँचल थे । महानगरों के नाम जाने पहचाने हैं लेकिन दूरस्थ किसी राज्य की आब-ओ-हवा से वाक़िफ़ न हों तो गाँवों के नाम भी विस्मित करते हैं । कहानी लाजवाब है । विभूति नारायण जैसे अनेक सार्थक और साहित्यिक नामों पर अब बच्चों के नाम नहीं रखे जाते ।
एक ने अपनी पोती का नाम श्लेष्मा रख दिया । आधुनिक बनने की इच्छा ने हमारी सोच का स्खलन किया है ।
जंगल, हाथी, शेर, बाघ आदि जानवरों की दुनिया को आधुनिक समाज ने कंक्रीट के जंगलों की तरह ऊँचे टावर बना दिए । इनके निवासी एक-दूसरे को नाम से नहीं जानते । पहले कौन बोले भी अहंकार में छूट रहा है ।
वनाधिकारी सिन्हा साहब पर न के बराबर लिखा है ।
अमोल पालेकर मेरे सबसे प्रिय एक्टर हैं । इनकी कुछेक फिल्में टीवी पर देखीं । चितचोर दिल पर छा गई । विकिपीडिया पर देखा था कि इसका फिल्मांकन पंचगनी में हुआ था । वहाँ खेत थे । अनेक पेड़, नहर के किनारे पर खेत से आते किसान । पुराने ज़माने के ईंटों से बने पुल । उस फ़िल्म में ड्राइवर के बैठने की जगह बाईं तरफ़ थी । पहाड़ों से रास्ते गुज़रते थे ।
पता नहीं आधुनिकीकरण ने सब कुछ लील लिया हो ।
बेहद समृद्ध भाषा और प्रांजल संस्मरण.साधु साधु
मेरा इस बात पर पढ़ने के थोड़ी देर बाद ध्यान गया कि यह तो लेखक द्वारा पढ़े गए एक संस्मरण का संस्मरण है। लेकिन, इसे अशोक जी की प्रस्तुति और शैली का कमाल ही कहा जाएगा कि यह उनका अपना देखा हुआ/अनुभूत संस्मरण बन गया है।
इसके हर चप्पे पर लेखक के पैरों की छाप है— पढ़ते हुए हर क्षण यह लगता रहा कि लेखक विभूति बाबू और योगेन्द्रनाथ सिन्हा के आसपास मौजूद है!
दूसरे के अनुभवों में इस तरह प्रवेश करना कि वह अपना अनुभव बन जाए— आत्म का ऐसा रचनात्मक विलोपन एक विलक्षण योग्यता है।
आज भी आपके गद्य का जादू वैसा ही बना हुआ है।पढ़कर मन प्रसन्न हो गया।विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय जैसा खुला और आजाद लेखक कोई और नहीं। आरण्यक में कहीं कोई दीवार नहीं। चारो ओर से खुला।कोई परंपरित शिल्प नहीं।अंतर्वस्तु को सीधे प्रस्तुत कर देते हैं।