अगन जल
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‘अगन जल’ संकलन में विनोद पदरज की वर्ष २००२ से २०१३ तक की कविताएँ संकलित हैं. ये कविताएँ अपने कथ्य, शिल्प और भाषा में विविधरंगी हैं और जिस तरह ये विषयों और शिल्प के साथ प्रयोग करती नज़र आती हैं, एक रचनात्मक बेचैनी इनमें साफ़ झलकती है. हर कवि की यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव अपना मुहावरा, अपनी शैली, भाषा और ज़मीन हासिल करना है, हम साफ़ देख पाते हैं जिस मुहावरे, शैली और शिल्प को आज विनोद पदरज की पहचान मान सकते हैं उसकी यात्रा ‘अगन जल’ की कविताओं में स्पष्ट होने लगी थी इस तरह ये कविताएँ विनोद पदरज के अन्य संग्रहों की भूमि जान पड़ती हैं.
विनोद पदरज को लोक का कवि कहा जाता है. इसका कारण संभवतः उनकी कविताओं के बिम्ब और कथ्य हैं पर इस संग्रह से गुज़रने के बाद लगता है वे सिर्फ लोक जीवन के कवि नहीं.
लोक-जीवन एक माध्यम है जो वे चुनते हैं अपनी बात कहने के लिए पर इसके माध्यम से वे जीवन के विभिन्न पक्षों के वृहत्तर चरित्र की बात करते हैं.
लोक यहाँ प्रकट और प्रखर है पर मानव जीवन उन्हीं विसंगतियों से बार-बार जूझता है शहर हो या गाँव. कविताओं का लोकेल बदल दें तो भी कविताओं की मूल संवेदना उस जीवन में धंसी है जो शहर और गाँव हर जगह ज़रा सी दृष्टि घुमाते ही नज़र आता है.
माया एंजेलो कहती हैं, ‘मैं उस समय का इंतज़ार करती हूँ जब यह पढ़ाया जाएगा कि मानव सभ्यता का इतिहास हर जगह एक जैसा है, क्योंकि दरअसल यह एक ही इतिहास है.’
इस तरह देखें तो ग्राम्य या नागर जीवन की परिस्थितियां अलग हैं पर उनका मूल संताप जीवन के सौंदर्य से विलगाव, संवेदना की नमी की कमी, स्मृतियों का लोप और जीवन के हर हिस्से में बाजार की घुसपैठ जैसी चीज़ें ही हैं, उनकी दुखने वाली रगें एक ही हैं और एक सी त्रासदियाँ उनके जीवन में चिन्हित की जा सकती हैं.
कुछ कविताएँ जाहिर अर्थों में प्रतिरोध की कविताएँ होती हैं, प्रतिरोध को वे बोल्ड, इटालिक और अंडरलाइन में दर्ज़ करती हैं. ये अपनी सामयिकता में दृढ़ और कई बार इसी कारण अपने सन्दर्भों में रूढ़ हो जाती हैं. अगर उन्हें उनकी सामयिकता से विलग कर दिया जाए तो कई बार वे शब्दों का ढांचा रह जाती हैं जिनकी आत्मा अनुपस्थित होती है.
विमर्शों से जुड़े लेखन के साथ यह खतरा बराबर बना रहता है हालांकि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विश्व कविता में कुछ सबसे सुन्दर कविताएँ प्रतिरोध की कविताएँ हैं पर उनमें मुद्दों का रूढ़ अस्तित्व नहीं वे मुद्दों को छूते हुए उनके माध्यम से जीवन के समग्र, अखंडित चरित्र की बात करती हैं, वे उन मूल्यों की बात करती हैं जो श्रेष्ठ और सुन्दर हैं, वे कतिपय प्रवृतियों, तत्वों के नकार और अंततः करुणा में समाप्त होती हैं. नकार की अगर बात करें तो फिर से हमें यह याद रखना होगा कि यह नकार जो श्रेष्ठ और सुन्दर है उसके स्वीकार को इंगित करता है अर्थात वे जीवन की कुरूपताओं, विसंगतियों और विडंबनाओं को रेखांकित करती हुए श्रेष्ठ मूल्यों के स्वीकार की बात करती हैं. इस दृष्टि से जांचने पर विनोद पदरज की कविताओं का तेवर विशिष्ट नज़र आता है.
वे जाहिर अर्थ में प्रतिरोध की कविताएँ नहीं लिखते, उनकी कविताओं में तात्कालिक राजनीतिक उठापटक, पार्टी आधारित राजनीति की छाया, विमर्शों की आपाधापी, निश्चित गंतव्य पर पहुँचने की हड़बड़ी नज़र नहीं आती. सामयिकता उनका प्रस्थान बिंदु हो सकता है पर अंततः वे श्रेष्ठ मूल्यों की ओर जाती हैं.
जिसे बाढ़ में बहकर मरते देखा
जिसे ठण्ड में ठिठुर कर मरते देखा
जिसे लू में झुलसकर मरते देखा
वही आदमी बैठा था सामने– अधनंगा
नागार्जुन जैसी बढ़ी हुई दाढ़ी
मुक्तिबोध जैसी उभरी हुई हड्डियाँ
वह प्रेमचंद के जूते पहने था
और रेणु की भाषा में बोलते-बतियाते
खिल-खिल खिलखिलाता था
कितना तो चाहा था सबने कि मर जाए
पर मरता ही नहीं था कमबख़्त.
ये पंक्तियाँ किसी सरल किस्म की रूमानी आशावादिता नहीं वरन उस जिजीविषा का बयान हैं जिसे अपने माथे पर पगड़ी सा पहने हाशिये में रहनेवाला हर बाशिंदा जीता है. अंतिम दो पंक्तियाँ कविता को जैसे नई ही रोशनी में खोलती हैं. यह बिना हो हल्ला, जीवन के मूल को सिंचित करता प्रतिरोध का स्वरूप है.
उत्तर आधुनिक काव्यालोचना कई बार कविता की भाषा में छिपे जादू, शब्दों के बीच सार्थक मौन, ठहराव की उपेक्षा करती चलती है यह कहना पूरी तरह से अगर सच न भी हो तो भी इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि इसका कुछ अंश सत्य अवश्य है. विनोद पदरज की कविताओं में मौन, अंतराल अपने निहित अर्थों में व्यक्त होता है, थोड़ा सा कहकर अधिक बचा लेने के साहस के बावजूद ये कविताएँ अपनी सम्पूर्णतता में पूरा प्रभाव डालती हैं.
ये कविताएँ चाक्षुष हैं, दृश्यों में खुलती हैं, इन्हें पढ़ते हुए आप इनके बनने की प्रक्रिया से भी गुज़रते हैं, ये कोई फिनिश्ड प्रोडक्ट की तरह सामने नहीं आतीं, शब्दश: खुलते हुए ये अपने अर्थ और भाव ग्रहण करती जाती हैं और अंतिम पंक्ति तक पहुँचते ही वे सूक्ष्मता से अपनी बात कह निकलती हैं.
इसे इस तरह भी कह सकते हैं, कि विनोद पदरज अपने पाठकों का हाथ थामकर उन्हें रोज़मर्रा के जीवन के किसी दृश्य के आगे खड़ा कर स्वयं नेपथ्य में चले जाते हैं, शब्दों और भावों से गुज़रता हुआ पाठक जब कविता के अंत तक पहुँचता है तो वह पाता है कि उसकी और कवि की आवाज़ दरअसल एक है.
यह समन्वय का सौंदर्य है. इस पूरी प्रक्रिया में वे उतना ही कहती हैं जितना कहे जाने की ज़रुरत है. यह मानों उस दृश्य सा है जिसे दर्शक देख रहा है अतः उसे कम से कम शब्दों में कहना ही उनके साथ न्याय करना है. आग अगर जल रही है तो वह दृश्य में स्पष्ट हो, न कि शब्दों की बहुलता में. यह कविता का क्लासिकी शिल्प है जो न्यूनतम में अधिकतम की अभिव्यक्ति करता है.
ब्रेख्त कहते हैं
‘विलाप, ध्वनियों या शब्दों में व्यक्त, बहुत बड़ी आज़ादी है क्योंकि इसका मतलब है पीड़ा में भी कुछ रचने की प्रक्रिया जारी है, निरीक्षण की शुरुआत हो चुकी है.’
विनोद पदरज की कविताएँ निरीक्षण और परीक्षण की प्रक्रिया में अपना अस्तित्व बनाती, अपनी उपस्थिति व्यक्त करती हैं. कविता सिर्फ भाषा का खेल नहीं. धूमिल इसे इस तरह कहते हैं-
‘कविता भाषा में आदमी होने की तमीज़ है’.
यहाँ हर भाव को व्यक्त करने का औदात्य है. कविता की भाषा इतिहास और व्यापार जगत की भाषा नहीं हालांकि कविताएँ इतिहास और व्यापार दोनों में उपस्थित हो सकती हैं, होती हैं पर इतिहास या व्यापार जब कविता में आता है तो भिन्न कलेवर के साथ न कि अपने रूढ़ पारम्परिक चलन में. यह मानों उन्हीं शब्दों और उनकी अंतरध्वनियों में रौशनी डालने सा है, ताकि हर शब्द यथासंभव अपने पूरे अर्थों के चमकता, नए अर्थ खोलता, अपने पहले और बाद के शब्दों के साथ तारतम्यता में चलता अपनी काव्य यात्रा में होता है.
विनोद पदरज की कविताओं का सौंदर्य उनकी भाषा में अपने उत्कृष्ट रूप में नज़र आता है. उनकी भाषा तत्सम और तद्भव का सम्मिलन है. वे सहजता से एक दूसरे का हाथ थामे चलती हैं, किसी उलझाव या बनावटीपन के बिना वे सरलता से अपनी बात कहती हुईं. भाषा का यह सहज प्रवाह उनकी हर कविता में स्पष्ट है, पर यह सहजता से आई हुई सरलता तो निश्चय ही नहीं है, यह रियाज़ और अभ्यास से पाई हुई भाषा का मुखर सौंदर्य है जो बरबस ही अपनी ओर खींचता है. इसके साथ लोक का सामंजस्य इसे और भी प्रवहमान करता अपनी मिट्टी अपने पर्यावरण से जोड़ता है. कविताओं को पढ़ते ही जो चित्र उभरते हैं उनमें लोक जीवन के हर्ष विषाद, सौंदर्य, विडंबनाएं, स्त्रियां, प्रकृति, पशु पक्षी पेड़, प्रेम, जीवन और दर्शन सभी प्रमुखता से स्थान पाते हैं. यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि इन कविताओं में अपने परिवेश से गहरा जुड़ाव स्पष्ट नज़र आता है.
ये कविताएँ अपने कथ्य में विविध, शिल्प में सुगठित और लयात्मक है और यह सधाव उन्हें निश्चय ही अपने समय के विशिष्ट कवियों की श्रेणी में रखता है. उनके कवि को
धूप अंगड़ाइयां लेती है सद्य विवाहिता सी
चांदनी अभिसार को जाती हुई नायिका सी नज़र आती है
या
फिर हर सुबह से शाम तक मैं लोहा हूँ
हर शाम से सुबह तक मैं मोम हूँ
यह सांध्य वेला है
सूर्य ढलने-ढलने को है
चाँद- उगने- उगने को है
टिमकने लगे हैं सितारे यहाँ-वहाँ
इस समय मुझे मत देखना
इस समय में लोहे से मोम में बदलता हूँ
का अनुभव कोमल और नम्र बनाता है. यह प्रकृति और मानव मन के बीच का सुंदर और अन्योनाश्रित सम्बन्ध है जिसे इतने सुगठित शिल्प और लय में व्यक्त करना निश्चय ही इसे विशिष्ट कविताओं के श्रेणी में रखता है. कुछ अन्य कविताओं की बात करूँ जिनमें लोक और प्रकृति जीवन रस में अभूतपूर्व ढंग से निमज्जित अपने सौंदर्य में अनोखी हैं, जहाँ दृश्यों में कविता बहती चलती है, जहाँ प्रकृति, मनुष्य, उत्सवधर्मिता, पीड़ा सबकुछ एक ही सूत्र में बंधे जीवन की विलक्षणता को शब्दों में बांधते हैं.
ये बेहद तरल भाषा और कथ्य में जीवन के सौंदर्य और उस सौंदर्य में छिपी कुरूपता को व्यक्त करने से नहीं चूकतीं. नाचते कालबेलिया, कांच के ढेर पर नाचती लड़की, संपेरों के सांप और विदेशी युवक युवतियां सभी नाचते हैं अपने विरोधाभासी जीवन के बाद भी वे एक ही लय में नृत्यमग्न हैं यहाँ तक कि कवि की कल्पना में बकाइन का पेड़ भी नाचता है. दृश्यों, विसंगतियों, कल्पनाओं का अद्भुत संयोजन अंततः जीवन रस और सौंदर्य के बखान का लयात्मक विवरण बन जाता है. यह लोक और प्रकृति के मेल की भावभूमि पर रची सुंदरता है. पर कवि विडंबनाओं और कड़वी सच्चाइयों में भी अपनी भाषा और रचाव में सौंदर्यबोध को न नकारते हुए लोक की पीड़ा को उजागर करता है. यहाँ टूटे कांच पर नाचती हुई लड़की उस मेले में सौंदर्य और पीड़ा दोनों की सृष्टि करती है.
यह विचार कि कड़वी सच्चाइयों को व्यक्त करने के लिए भाषा के सौंदर्य की उपेक्षा की जा सकती है, इन पंक्तियों को पढ़ते निर्मूल सिद्ध होती है. न यहाँ लय में कृपणता है न भाषा के वैभव से इनकार, न यहाँ जीवन रस की कमी है न जीवन की मूल और निर्मित प्रकृति में विडंबना के तत्व की अनदेखी. ऐसी कविताएँ बार बार अपनी और खींचती हैं और यही उनका अभिप्रेत है.
हर कवि अपनी काव्य यात्रा में एक समय मृत्यु के बारे अवश्य विचारता है पर मृत्यु को वह कैसे अपनी कविता में लाता है यह उसके परिपक्व कवि व्यक्तित्व और यात्रा को इंगित करता है. जब वे कहते हैं
क्या मैं वही आग का फूल हूँ /जिसकी लपटों से लहक गई थी तुम तो जीवन और मृत्यु के दो विपरीत सिरों के बीच पनपे जीवन और प्रेम की सुन्दरता स्पष्ट हो उठती है, यहाँ मृत्यु है पर जीवन से इनकार नहीं और जीवन अंततः राख है जैसे विरोधाभासी दर्शन को इतने कम शब्दों में व्यक्त करना यह बताता है कि कवि की काव्य और जीवन यात्रा में वह पड़ाव आ चुका जब जीवन से जुड़े गंभीर विषय उसकी कलम के माध्यम से बोल रहे हैं. मृत्यु की राख़ पर उगे जीवन की संस्तुति का इतना तरल सम्प्रेषण निश्चय ही उनकी कविताओं को विशेष बनाता है.
ये कविताएँ आस्वाद और गंध मे अलग से पहचानी जा सकती हैं और यह एक कवि की तरह उनकी सबसे बड़ी सफलता है. निश्चय ही यह यात्रा कई पड़ावों के बाद इस मुकाम तक पहुंची होगी. खास कर ऐसे समय में यह मार्के की बात है जब अधिकतर कविताएँ एक सी भाषा, अनुभव के कैनवास, विषयवस्तु, भावबोध और शिल्प में कमोबेश एक सी नज़र आती हैं. उनमें से अधिकतर कविताएँ कवि के एकालाप की जटिलता का शिकार होकर अपने और पाठक के बीच अवरोध उत्पन्न करती हैं. कवि दर्प इससे संभवतः संतुष्ट होता हो पर पाठक इससे वंचित रह जाते हैं. इस दृष्टि से वे कविताएँ सार्थक हैं जो मनुष्य की खुद से खुद तक की यात्रा होती हैं और इस यात्रा में उसे समाज, प्रकृति, परिवेश, चिड़िया, ऊँट, नदियां और मोर मिलते हों. मनुष्य अंततः समष्टि में ही सार्थक है. भाषा यहाँ उसका उपकरण बन जाती है, कविता जटिल भाषा के बोझ में न दबकर एक आह, एक विलाप, एक अव्यक्त पीड़ा को व्यक्त करने का जरिया होती है. एक संतुलन उसके कथ्य और शिल्प को साधता है.
जो सत्य है और सुन्दर है उसके लिए नैतिक आग्रह कविता का मूल तत्व है, यही सारे कला माध्यमों का मूल है और सारी कला यात्राएं इसे धूरी पर घूमती है. सारे कला माध्यम इसे ही स्थापित करने की चेष्टा में अपना अर्थ ढूंढते हैं और कविता इसी प्रक्रिया की अन्यतम सीढ़ी है जो जीवन की विडम्बनाओं, अंतर और वाह्य के तनाव से उपजती तो है पर उस सुंदरता की उपेक्षा नहीं करती जो जीवन की विडंबनाओं के बाद भी कहीं न कहीं उजागर होता धूप छाँव सी लुका छिपी खेलता है. इन कविताओं का स्वर मद्धिम करुण और लयात्मक है और बार बार जीवन के त्रासद चरित्र को ही इंगित करता नज़र आता है पर कतिपय कविता पंक्तियाँ रह रह कर यह भ्रम तोड़ती है. ‘कचनार का पीत पात’ कविता में वे कहते हैं :
एक बूढा और एक बुढ़िया
बैठे हैं चबूतरे पर
जैसे वान गॉग की पेंटिंग के एक जोड़ी जूते
जिन्हें बदहवास ज़िन्दगी ने पहना बरसों बरस
कौन स्त्री है
जो कद्दावर पेड़ की शाखों से
लता की तरह लिपट जाती थी
कौन पुरुष है
जो पूनम का चाँद देखकर
समुद्र की तरह लहराता था
वासना के प्रश्न निरर्थक हैं
सूर्य ढल रहा है
जिसकी ढलती हुई धूप में
एक ही बीड़ी पीते हुए वे दोनों
एक जैसी पोपली हँसी हँसते हैं
जिससे दुधमुंही गंध आती है.
यहाँ एक दृश्य और उसकी अंतर्ध्वनियाँ हैं, दृश्य को देखती सहज संवेदित कवि दृष्टि, यहाँ कोई रहस्य नहीं. कविता को रहस्य बनाना उसे राजनीतिक सत्ता के पक्ष में खड़ा करना है. यह जीवन के पक्ष में बोलते दृश्य हैं जिनमें आभ्यंतर, मौन, ख़ाली जगहें तो हैं पर वे रहस्य की तरह उपस्थित नहीं होतीं, वे जीवन की तस्वीर का स्पष्ट सीधे शब्दों में बयान हैं जो अंततः मनुष्यता के पक्ष में खड़ी होती है. कविता जीवन की परतें उघाड़ने, उसकी चीर फाड़ करने और पूरी समग्रता से जीवन से जुड़कर उस विविध आयामों को जांचने का उपकरण भी है. कवि मित्र प्रभात को समर्पित कविता ‘खण्डिप, निवाजीपुरा, भालपुर की औरतें’ में वे कहते हैं …
जब वह निकलती है घर से
जैसे सैकड़ों औरतें निकलती हैं भिनसारे
चौका-चूल्हा निपटाकर
खेत-क्यार के लिए
बड़ीते न्यार के लिए
तो कोई गौर नहीं करता
पर कौए पहचान लेते हैं
कि आज उसने बेटे को छोड़ दिया है घर
और दृढ़ क़दमों से बढ़ी जा रही है
दूधमुँही को छाती से चिपटाए
वे आगे-आगे उड़ते हैं
और कदम्ब के उस अभागे पेड़ पर जाकर बैठ जाते हैं
जिसके तले की झाड़ियों में दुबककर
वह रेल की प्रतीक्षा करती है
अनंत यात्रा पर जाने के लिए
यह मार्मिक कविता है जिसमें चुप्पी अत्यंत मुखर है, जो न कहा गया वही कविता का ह्रदय है. इन पंक्तियों में चुप्पी एक षड्यंत्र की तरह बोलती है जो पूरे परिवेश में व्याप्त है, एक आत्महत्या करने को निकली स्त्री बेटी को सीने से चिपकाए घर से निकलती है, बेटे को घर छोड़ जाती है यह अपने आप में उस कटु सत्य का बयान है जहाँ स्त्री और भैंस में कोई भेद नहीं. घर में छोड़ी गई बच्ची का भविष्य वह जानती है इसलिए उसे साथ ले आई है. स्त्री दूसरी आ जाएगी पर भैंस के लिए रुपये गिनने पड़ेंगे यह सहज बातचीत में विदारक सत्य की तरह उभरता है और पाठक को स्तब्ध छोड़ जाता है. पूरे परिवेश की चुप्पी कविता में भी चुप्पी बनकर उभरती है.
कविता वह सार्थक सकर्मक क्रिया है जो संकट के समय एक स्पर्श, एक आश्वस्ति भरी छुअन हो, जो ठहरकर उस मनुष्य को देखे जिसके कदम न उठते हों, जो मानो अब गिरा कि तब और ठीक उसी समय उसकी काँधे पर कुछ शब्द तितली सरीखे आकर बैठ जाएं, ‘अगन जल’ ऐसी ही कविताओं का संकलन है जिसमें पाठक अपने आस्वाद का स्वर निश्चित रूप से ढूँढ़ पाएंगे. अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता और दार्शनिक मननशीलता के साथ विनोद पदरज लोक, प्रकृति, सौंदर्य, जीवन, मनुष्य और मनुष्येतर परिवेश को इसी तरह रचते रहें, उनकी कविताओं में जीवन अपने विविध आयामों में इसी तरह समूचा और अखंडित प्रवेश करे ऐसी ही कामना, यही शुभकामना है.
रंजना मिश्रा |
प्रिय भाई, आप की कविताओं पर लिखा पढ़ा। जिस प्रकृति की आप की कविताएं हैं उनकी यह गहरी सामर्थ्य है कि वे खुद पर केंद्रित स्वर को भी अपनी प्रकृति अनुसार ढाल ले। यह बात दोनों पक्षों पर यानी आप के कवि व आलेखक पर लागू होती है। यह आप के काव्यानुराग का रंग व स्पर्श है। आप की कविता खाट पर पड़ते वृक्ष की छाया की तरह है। उन पर लिखते वक्त लेखक के कई आग्रह पहले से ही नितर जाते हैं, यह युगल मनन अपने राग में अवस्थित होने से रूप पाता है। श्रेय दोनों को है। अभी मुझे मेरे कमरे में अलमारी में किताबो की कतार में रखी आप की किताबों की जगह याद आ रही है, यह आश्वस्ति ही आप का काव्य है।
बहुत बढ़िया आलेख। लय और शिल्प को महत्व देती समीक्षा दुर्लभ होती जा रही है। केवल विषयवस्तु और कवि का नाम पर्याप्त माने जाते हैं, यहाँ कवि का विशिष्ट हस्ताक्षर, उसकी अपनी धुन, समझ, लय, प्रकृति और लोक में सहज पैठ सबको अच्छे से देखाभाला गया है। रंजना मिश्र की दृष्टि प्रखर और संवेदनशील है, भाषा में जीवन्तता और नयापन।
यह आलेख न केवल संग्रह की कविताओं के नए आयाम को खोलता है बल्कि पदरज की कविताओं सौन्दर्य और शिल्प को बताता हुआ, बहुत अच्छा आलेख है। इस संग्रह को जब मैंने पढ़ा और आज भी कुछ को कविताओं बार – बार पढ़ता हूं। हिंदी कविता में वे अलग स्थान रखती है।
जितनी सुन्दर कविताएँ हैं, उतनी ही सुचिंतित समीक्षा। संवेदना के एक ही लय पर युगलबंदी करती सी। रंजना जी को साधुवाद। ‘समालोचन’ को बहुत धन्यवाद।