‘उन्नीसवीं सदी का भारतीय पुनर्जागरण : यथार्थ या मिथक’ नामवर सिंह के इस व्याख्यान ने जहाँ पर्याप्त ध्यान खींचा है वहीं इसने कई प्रश्न भी खड़े कर दिए हैं. यह नामवर सिंह की बौद्धिक उपस्थिति का भी प्रमाण है.
पुनर्जागरण समाज और राजनीति को समझने की केन्द्रीय परिघटना है. इसे इतिहास, साहित्य और दीगर अनुशासन अपने–अपने ढंग से देखते –परखते हैं. आलोचक आशुतोष इस बहस को आगे बढ़ा रहे हैं, और एक वाज़िब सवाल यहाँ उठा रहे हैं कि दमित समुदायों का समानता और स्वाधीनता के लिए उनका संघर्ष मिथक कैसे हो सकता हैं? हाँ शासक वर्ग ऐसे यथार्थ को अक्सर मिथक समझ लेता हैं.
नामवर सिंह और भारतीय पुनर्जागरण
आशुतोष कुमार
भक्ति आन्दोलन का समय जनभाषाओं के उत्थान का समय था. इन जनभाषाओं में रचे गये साहित्य में पुरानी आस्थाओं पर कुछ कठोर सवाल उठाये गए. नयी सोच, सम्वेदना और शिल्प का उदय हुआ. इसलिए यह एक प्रकार का जन जागरण और जातीय जागरण था. यह स्थापना रामविलास शर्मा की है. पहले अनुच्छेद में गुरुदेव नामवर जी ने इसी को पुनः स्थापित किया है. लेकिन रामविलास जी को श्रेय देने से परहेज करते हुए. दूसरे अनुच्छेद में उन्होंने रामविलास जी के योगदान की तरफ संकेत किया है. लेकिन यह संकेत भी कुछ मजाक –सा उड़ाते हुए किया गया है. यानी अनेक जागरणों की कल्पना को अनेक बच्चों को एक ही नाम देने की जिद के समतुल्य बताते हुए. गोया इतिहास में किसी जाति का जागरण एक से अधिक बार होना मना हो. १९वीं सदी को ‘जागरण\’ करार देने में संकोच का यह भी एक कारण प्रतीत होता है. जागरण तो १४वीं सदी में हो गया. अब एक और जागरण कैसा? गुरुदेव का आदेश यह है कि इसे कोई नाम न दिया जाए, सीधे १९वीं सदी कहा जाय. नाम देना ही हो तो \’अभिज्ञान\’ कहे, जागरण नहीं. अभिज्ञान इसलिए कि १९वीं सदी एक तरह से खोयी हुई राष्ट्रीय स्मृति को दुबारा हासिल करने की कोशिश सरीखे थी. जैसे कालिदासीय दुष्यंत को शकुन्तला का अभिज्ञान हुआ था. \’अभिज्ञान\’ की सार्थकता \’अभिज्ञान शाकुंतलम\’ से भी सहज ही जुड़ जाती है. आखिर अभिज्ञान शाकुंतलम एक ऐसा टेक्स्ट है, जो १९वी सदी के समूचे बौद्धिक उपक्रम के केंद्र में है.
लेकिन अगले अनुच्छेदों में नामवर जी स्वयं स्थापित करते हैं कि १९ वीं सदी में जिस स्मृति को हासिल किया गया था, वह असल में कोई स्मृति नहीं बल्कि एक कल्पना थी. गल्प था. अगर. कल्पना थी, तो इसे अभिज्ञान कैसे कहा जाय.स्मृति का स्वप्न से जैसा सम्बन्ध है, वैसा ही कल्पना का जागृति से है. कल्पना की उड़ान ही मनुष्य और मनुष्यता की जागृति का संकेत है. लेकिन इस पर ज़रा रुक कर लौटते हैं.
जिसे १९ वीं सदी का नवजागरण कहते हैं, वह कम से कम हिन्दी प्रदेश में प्रतिक्रिया का जागरण अधिक प्रतीत होता है, यह स्थापना थी वीर भारत तलवार की. उनकी चर्चित पुस्तक \’रस्साकशी\’ में. इसी बात को नामवर जी \’विपरीत जागरण\’ कह रहे हैं. भारतीय नवजागरण हकीकत नहीं, कल्पना है. यह बात एडवर्ड सईद की पुस्तक \’ओरिएनटलिज़्म\’ और बेनेडिक्ट एंडर्सन की \’इमैजिंड कम्युनिटीज़\’ में प्रस्तावित विचारों को भारतीय प्रसंग में लागू करने का सुफल है. सुफल इसलिए कि बात अपनी जगह सही है.
समस्या वहाँ शुरू होती है जहां १८५७ को नवजागरण के औपनिवेशिक गल्प के बरक्श एक दूसरे गल्प के रूप में पेश किया जाता है. एक तो ऐसा लगता नहीं कि रामविलास जी ने १८५७ को फ्रांसीसी क्रांति का मूल बताया होगा, जैसाकि गुरुदेव इस व्याख्यान में कह गये हैं. क्योंकि फ्रांसीसी क्रांति तो हो चुकी थी १७८९ में. रामविलास जी ने अधिक से अधिक १८५७ को फ्रांसीसी और रूसी क्रांतियों के समक्ष ठहराया गया होगा. मजेदार बात यह है कि नामवर जी इस बात पर जोर देते हैं कि १८५७ केवल बिहार और उत्तरप्रदेश में हुआ. गोया यह कोई छोटा मोटा इलाका हो. क्या फ्रांसीसी और रूसी क्रांतियाँ भी मुख्य रूप से दो एक शहरों में ही केन्द्रित नहीं थी ? किसी क्रांतिकारी घटना का असली महत्व उसके द्वारा प्रचलन में लाये गये विचारों की महत्ता पर निर्भर करता है. हश्र तो फ्रांसीसी और रूसी क्रांतियों का भी गौरवशाली न रहा. लेकिन फ्रांसीसी क्रांति उदारता, समानता और बंधुत्व के विचार के कारण और रूसी क्रांति समाजवाद के कारण महत्वपूर्ण है. १८५७ दुनिया का पहला महत्वपूर्ण उपनिवेश विरोधी जन विद्रोह या स्वतन्त्रता संग्राम है. विचार के स्तर पर इसके महत्व को कम कर के आंकना भी एक तरह का यूरोकेंद्र्वाद है. अगर यह कम महत्वपूर्ण लगता है तो सिर्फ इसलिए कि यूरोप के बाहर घटित हुआ.
१८५७ का आख्यान एक दमित आख्यान है. इसे दबाने का काम मुख्य रूप से यूरोपीय इतिहासकारों ने किया. कार्ल मार्क्स ने इस दमन का प्रतिकार करते हुए १८५७ के साम्राज्यवाद विरोधी चरित्र के महत्व को रेखांकित किया. रामविलास जी ने इसी काम को आगे बढाया. यह प्रतिरोधी इतिहास लेखन है. इसमें यहाँ वहाँ सुधार की सम्भावनाएं जरूर होंगी, लेकिन इसे एक समांतर गल्प के रूप में पेश करना तर्कसंगत नहीं है. सचाई तो यह है कि १८५७ के जिस चरित्र को मार्क्स, सावरकर (हिंदुत्व–वादी होने के पहले) और रामविलास शर्मा जैसे गैर पेशेवर इतिहासकारों ने उद्घाटित किया था, उसे लम्बे विरोध के बाद अब इरफ़ान हबीब जैसे स्थापित इतिहासकारों ने भी स्वीकार कर लिया है.
नामवर जी के इस प्रस्ताव में सचाई का अंश है कि १९ वीं सदी का भारतीय नवजागरण विक्टोरियाई ब्रिटिश परिकल्पना की निर्मिति है. उस नवजागरण की सीमाएं अब अत्यधिक स्पस्ट हैं. अंतर्विरोध भी. लेकिन प्रत्येक युग में प्रगति और प्रतिक्रिया का उत्थान साथ साथ होता है. प्रतिक्रिया के तूफ़ान के सामने प्रगति के दिए की लौ हमेशा बहुत कमजोर और कांपती हुई –सी दिखती है. इतिहास का हर वृत्तांत आधी हकीकत आधा फ़साना होता है , लेकिन १९ वीं सदी में बहुत कुछ ऐसा हुआ जो युगांतरकारी था, इसे पूरी तरह नकार देना जायज न होगा. १८५७ की क्रांति विदेशी राज के खिलाफ हिन्दुस्तानियों की राष्ट्रीय बगावत का उद्घोष है, उसे गाय और सूअर के मांस के खिलाफ एक धार्मिक प्रतिक्रिया के रूप में पेश करना उपनिवेशी मिथक– रचना को अंतिम सत्य की तरह स्वीकार कर लेने के सिवा और कुछ नहीं है. लोकचेतना के निर्माण में १८५७ के भूमिका को समझने के लिए सम्बद्ध लोक– गीतों, लोक– कथाओं, लोक– स्मृतियों और लोक –परम्पराओं को देखना चाहिए. शास्त्रों में जिस परिघटना को चंद सिपाहियों के गदर के रूप में अवमूल्यित किया गया है, उसे जनता ने विद्रोह और बलिदान के आख्यान के रूप में सहेज रखा है. आगे चलकर भारत में जिस राष्ट्रीय चेतना का विकास हुआ, उसे १८५७ और पहले के भी किसान–आदिवासी विद्रोहों से काट कर रखना इतिहास लेखन की औपनिवेशिक परियोजना का एक हिस्सा है. इस स्थापना के पुष्टि के लिए मैं सिर्फ एक साहित्यिक उदाहरण पेश करना चाहूँगा.
क्या ग़ालिब की शायरी को १८५७ से अलगा कर पढ़ा जा सकता है ? ग़ालिब के एक उत्तराधिकारी फैज़ अहमद फैज़ ने \’मुद्दत हुई है यार को मेहमा किये हुए\’ वाली ग़ज़ल का जो पाठ पेश किया है, उसमें साफ़ दिखता है कि ग़ालिब की संवेदना का उत्स फारसी शायरी और सूफी दर्शन में न हो कर उनके समय की राजनीतिक परिस्थितियों में था. \’ना गुले नगमा हूँ, न परदा–ए–साज/मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज़\” उनकी प्रसिद्ध ग़ज़ल है. मैं इसे ग़ालिब के अत्यंत प्रातिनिधिक गजल मानता हूँ. ग़ालिब की शायरी जिस शिकस्त की आवाज़ है, क्या वह एक व्यक्ति या प्रेमी की शिकस्त है ? या वह एक समूची सभ्यता और संस्कृति की शिकस्त है ? क्या इसमें १८५७ के शिकस्त की आवाज़ शामिल नहीं है?
क्या ग़ालिब की शायरी को १८५७ से अलगा कर पढ़ा जा सकता है ? ग़ालिब के एक उत्तराधिकारी फैज़ अहमद फैज़ ने \’मुद्दत हुई है यार को मेहमा किये हुए\’ वाली ग़ज़ल का जो पाठ पेश किया है, उसमें साफ़ दिखता है कि ग़ालिब की संवेदना का उत्स फारसी शायरी और सूफी दर्शन में न हो कर उनके समय की राजनीतिक परिस्थितियों में था. \’ना गुले नगमा हूँ, न परदा–ए–साज/मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज़\” उनकी प्रसिद्ध ग़ज़ल है. मैं इसे ग़ालिब के अत्यंत प्रातिनिधिक गजल मानता हूँ. ग़ालिब की शायरी जिस शिकस्त की आवाज़ है, क्या वह एक व्यक्ति या प्रेमी की शिकस्त है ? या वह एक समूची सभ्यता और संस्कृति की शिकस्त है ? क्या इसमें १८५७ के शिकस्त की आवाज़ शामिल नहीं है?
ग़ालिब पर ध्यान देना इसलिए जरूरी है कि ग़ालिब समूची बीसवीं सदी पर छाये हुए हैं. क्या ग़ालिब के बिना इकबाल हो सकते थे ? क्या इकबाल और ग़ालिब के बिना प्रेमचन्द हो सकते थे ? क्या वही खुद्दारी, स्वाभिमान और निर्भीकता रवीन्द्रनाथ और निराला में भी ध्वनित नहीं हो रही, जो ग़ालिब और इकबाल की शायरी की का मर्म है ? क्या ग़ालिब के बिना फैज़ हो सकते थे? फ़िराक हो सकते थे, जिनके एक संग्रह का नाम ही गुले नगमा है? क्या हबीब जालिब हो सकते थे ? १९ वीं या बीसवीं सदी पर भी क्या बात की जाए, अगर ग़ालिब का ज़िक्र न हो.
क्या ग़ालिब औपनिवेशिक गल्प थे? क्या सारा राष्ट्रीय आन्दोलन औपनिवेशिक गल्प था, जो भले बीसवीं सदी में परवान चढा, लेकिन जिसकी जड़ें उन्नीसवीं सदी में थीं? क्या प्रेस का प्रसार, पत्र–पत्रिकाओं का विस्तार, देसी जनक्षेत्र का निर्माण, उपन्यास का जन्म, आधुनिक कविता, सुधार, स्वतन्त्रता और समानता की आकंक्षा यह सब गल्प है ? क्या राष्ट्रीय चेतना नाम की कोई चीज विकसित नहीं हुई ? क्या ग़ालिब के समकालीन फुले भी एक ऐतिहासिक गल्प हैं ? क्या यह सब कुछ उधार में मिला था ? क्या ये सब परिघटनाएं हिन्दुस्तान में विकसित नहीं हुईं ? क्या ये हिन्दुस्तानी लोगों की उपलब्धियां नहीं थी ? खुद गुरुदेव कह रहे हैं कि शेक्सपीयर तक को हमने अंग्रेजों से नहीं पाया, खुद खोजा. अँगरेज़ शेक्सपीयर को ले कर आये, ऐसा कहने के लिए वे नेहरू की निंदा करते हैं. भारतीय अगर शेक्सपीयर को खोज सकते तो, तो क्या राष्ट्रीय चेतना का विकास नहीं कर सकते थे ? १८५७ का स्वातन्त्र्य समर भारत में हो ही नहीं सकता था ?
इतिहास का हर वृत्तांत आधी हक़ीकत आधा फसाना होता है. हक़ीकत और फ़साने के अनुपात को ठीक से समझने की जरूरत बनी रहती है. इसी अनुपात में समय के सब से बड़े रहस्य छुपे होते हैं. लेकिन उसे पूरी हक़ीकत या पूरा फ़साना बना देना सरलीकरण है, वैसा ही जैसा इस वाक्य में दिखता है —\’वे आज के दलितों की तरह नहीं थे, जो ब्राह्मण की बुराई करते हैं और यह मानकर चलते हैं कि ऐसा करके वे सामाजिक क्रांति ले आएंगे.\”
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आशुतोष कुमार
प्रोफेसर (हिंदी विभाग)/दिल्ली विश्वविद्यालय
ashuvandana@gmail.com
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प्रोफेसर (हिंदी विभाग)/दिल्ली विश्वविद्यालय
ashuvandana@gmail.com
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(व्याख्यान यहाँ पढ़ें / उन्नीसवीं सदी का भारतीय पुनर्जागरण : यथार्थ या मिथक :: नामवर सिंह)