उन्नीसवीं सदी का भारतीय पुनर्जागरण: यथार्थ या मिथकनामवर सिंह |
पिछले पच्चीस-तीस वर्षों से मैं इस पर सोचता रहा हूं और इस विषय पर कुछ खंड लिख भी चुका हूं. 19वीं सदी के गुजराती साहित्य में और विशेष रूप से नवलराम और गोवर्धनराम के लेखन में मेरी रूचि है. मगर दुर्भाग्य से गोवर्धनराम का सरस्वतीचंद्र हिंदी में उपलब्ध नहीं है. यहां मैं गोवर्धनराम के उस भाषण का खास तौर पर उल्लेख करना चाहता हूं, जो उन्होंने 1892 में विल्सन कॉलेज की लिटरेरी सोसाइटी में अंग्रेजी में दिया था. विषय था-क्लासिकल पोयट्स ऑफ गुजरात. नरसी मेहता, अखो और प्रेमानंद पर वहां उन्होंने भाषण दिया था. 17वीं शताब्दी के दो प्रसिद्ध कवियों प्रेमानंद और शामल भट्ट पर विशेष रूप से उन्होंने टीका प्रस्तुत की थी. मैं यह देखकर आश्चर्यचकित था कि केवल पचास वर्षों के अंतराल के बाद ही कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने अपनी किताब गुजराती साहित्य का इतिहास में उनके विचारों का खंडन किया. बाद में मनसुखलाल झावेरी ने अपने गुजराती साहित्य के इतिहास में इसकी ठीक विपरीत व्याख्या की. इस प्रकार शामल भट्ट का यह मूल्यांकन स्पष्ट रूप से तीन परिवर्तनों से गुजर चुका है.
गोवर्धनराम का काम मुझे यह सोचने के लिए विवश करता है कि कितनी खूबसूरती से उन्होंने 15वीं और 17वीं शताब्दी के साहित्यिक परंपराओं का निर्धारण किया. वे खुद भी 19वीं और 20वीं शताब्दी के बीच की कड़ी रहे हैं. उनका जन्म 1855 में हुआ था और मृत्यु 1907 में हुई थी. वे केवल सरस्वतीचंद्र के लेखक के रूप में ही नहीं, बल्कि एक विचारक के रूप में भी याद किये जाते हैं. जो लोग गुजराती भाषी नहीं, मेरी तरह हिंदी भाषी हैं, उनको ध्यान में रखकर मैं यहां 19वीं सदी के गुजराती लेखकों पर पड़े प्रभावों के संदर्भ में कुछ चर्चा करना चाहता हूं. गुजराती साहित्य की आज की यह यात्रा मेरे लिए भी बिल्कुल नई यात्रा होगी.
मैं बात उस प्रश्न से शुरू करना चाहता हूं, जो प्रश्नों की जननी है कि- ‘प्रश्न क्या है?’ क्या हम 19 सदी के साहित्य या रेनेसां जैसे शब्द पर ठीक से विचार-विमर्श करते हैं? समस्या तब उत्पन्न होती है, जब साहित्य का कोई विद्वान इतिहास और समाजविज्ञान पर विचार-विमर्श करता हैं. बहुत कम लोग आधुनिक भारत के इतिहास पर लिख रहे हैं. महाराष्ट्र, बंगाल और तमिलनाडु के इतिहासकार साहित्य की अपेक्षा आधुनिक भारतीय इतिहास के संदर्भ में अधिक सफल हैं. इसलिए आज फिर से हम एक ऐसी रंगभूमि में खड़े हैं जहां साहित्य के लोगों को अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए मजबूती से पैर जमाना होगा. इस विषय में जो कुछ लिखा गया है पहले उसका हमें गभीरता से अध्ययन करना चाहिए, फिर इस पर कुछ बात करनी चाहिए.
पहला सवाल यह है कि इस कालखंड को 19वीं शताब्दी कहने की शुरूआत कब हुई? क्या कभी हमने इस विषय पर सोचा है? कुछ समय पहले मैंने एरिक हॉब्सबाम की एक किताब पढ़ी थी जिसमें वे फ्रांसीसी क्रांति के बारे में प्रचलित कहानियों का वर्णन करते हैं और समाजवाद को चार हिस्सों में बांटते हैं. इन चार कालों को वे क्रमशः ‘क्रांति युग’, ‘पूंजी युग’, ‘सम्राटों का युग’ और अंतिम 20वीं सदी को वे ‘अतिरेकों का युग’ कहते हैं. हॉब्सबाम कहते हैं कि सन् 1900 में उन्नीसवीं शताब्दी समाप्त नहीं हुई, बल्कि प्रथम विश्वयुद्ध के बाद वर्ष 1919 में 19वीं शताब्दी का अंत हुआ. इसी तरह 20वीं शताब्दी 1999 में समाप्त नहीं हुई. इसका क्या मतलब हुआ? यहां मैं भारतीय संदर्भ में कुछ बातें आपके सामने रखता हूं. हमारी 19वीं शताब्दी की शुरुआत कब हुई, सन् 1800 में या 1857 में? दूसरी बात, क्या हमारी 19वीं शताब्दी का अंत 1900 में या 1920 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की मृत्यु के बाद हुआ जब गांधीजी राजनीतिक परिदृश्य में आए? 19वीं शताब्दी के प्रारंभ और अंत को यदि हम गौर से देखें, तो पाएंगे कि इसी समय से हमारे देश का इतिहास नये सिरे से दिखाई देने लगता है.
एक इतिहासकार जब इस दौर को देखेगा तो वह सबसे पहले उस दौरान हुए मुख्य परिवर्तनों को देखेगा और तब कुछ कहेगा. इसलिए साहित्यिक वाद-विवाद पर बात करने से पहले हमें उपर्युक्त प्रश्नों के ऊपर विचार कर लेना चाहिए. जैसे 19वीं शताब्दी वस्तुतः कब शुरु हुई? हिंदी साहित्य में 19वीं शताब्दी सन् 1800 से शुरू नहीं होती है. इसलिए गुजराती के विद्यार्थियों को भी खुद निर्णय लेने दिया जाए कि उनके यहां 19वीं शताब्दी कब से शुरू हुई? वास्तव में हिंदी में 19वीं शताब्दी की शुरूआत 1857 के बाद मानी जाती है. 1850 में भारतेंदु का जन्म हुआ. 1857 के ठीक बाद से उन्होंने लिखना शुरू किया. 19वीं शताब्दी के विकास तक मैथिलीशरण गुप्त अपना भारत-भारती पूरा कर चुके थे. यद्यपि यह खड़ी बोली में लिखी गई थी और इसका अंत 1917-18 के आसपास हुआ, जब छायावादी कवि और प्रेमचंद साहित्य के ऊंचे शिखर पर पहुंचे. गुजराती साहित्य के अध्येता 20वीं शताब्दी का प्रारंभ 1900 के अंत में निर्धारण करते हैं. मैं समझता हूं कि 20वीं शताब्दी के गुजराती साहित्य का वह सुधार युग था, जो इस युग में अधिक विकसित हुआ. इससे यह स्पष्ट होता है कि 20वीं शताब्दी वर्ष 1900 के बाद शुरू होती है.
अब बचा यह प्रश्न के उस दौर के साहित्य क्या नाम दें? क्या हम इसे रेनेसां कहेंगे? अंग्रेजी के अध्यापक जानते हैं कि अंग्रेजी साहित्य में रेनेसां पर विचार-विमर्श स्टीफेन ग्रीनबेल्ट के लेख के बाद शुरू हुआ. नये इतिहासवाद में ग्रीनबेल्ट कहते हैं कि क्या सभ्य बनाने की परंपरा रेनेसां के बाद शेक्सपीयर के समय में शुरू हुई थी? क्या आपको रेनेसां शब्द हिस्ट्री ऑफ इंग्लिश लिटरेचर में मिलता है? इसके लिए हमें लगोइस और केजेमियां के विश्वसनीय हिस्ट्री ऑफ इंग्लिश लिटरेचर को देखना चाहिए. इंग्लैंड में सुधार शब्द ने अपना स्थान प्राप्त कर लिया, लेकिन ‘पुनर्जागरण’को सदैव ‘इटालियन पुनर्जागरण’ माना गया. फ्रेंच रेनेसां की तरह वहां ऐसी कोई चीज नहीं है. इसलिए रेनेसां ऐसा कोई सार्वभौम विचार नहीं है जिसे आसानी से ग्रहण किया जा सके. जब विश्व साहित्य से संबंधित इतिहास लिखा गया, तो इटालियन रेनेसां उपयुक्त शब्द रहा होगा. यह शब्द दंतकथाओं के युग में उपयुक्त रहा. जैकब बर्चर्ड द्वारा रेनेसां की संस्कृति और सभ्यता लिखने के बाद जर्मन लोगों ने इसे इटालियन रेनेसां की तरह संवारा. कभी-कभी ऐसा होता है कि बच्चा पहले पैदा हो जाता है और जन्म-संस्कार जन्म के लंबे समय बाद होता है. उन दिनों इटली में जो कुछ हुआ उसे इटालियन जागरण की तरह नहीं जाना गया. जैकब बर्चर्ड के पहले किसी ने इस नाम से नहीं पुकारा था. 19वीं शताब्दी में उन्हें इसे रेनेसां कहना पड़ा, क्योंकि जर्मन ज्ञान पहले से स्थान ग्रहण कर चुका था और दोनों के बीच एक अंतर मौजूद था. 14वीं शताब्दी में इटली में क्या हुआ और कांट तथा हीगेल के समय जो कुछ हुआ, उन दोनों में बहुत अंतर था. इसलिए पहले वाले को तो रेनेसां कहा गया और बाद वाले को ज्ञान.
रेनेसां के दो अर्थ हैं. अंग्रेजी में एक अर्थ है और फ्रेंच में दूसरा. इन दोनों शब्दों की उत्पत्ति के दो स्थान होने चाहिए, क्योंकि रेनेसां इंग्लैंड में नहीं हुआ. हेनरी अष्टम ने इंग्लैंड को ईसाईयों से पृथक बताया और इस प्रकार रेनेसां का मार्ग प्रशस्त किया. तब जाकर शेक्सपीयर आए. इसलिए मैं अनुरोध करूंगा कि हमारे विद्वान पहले अंग्रेजी का इतिहास पढ़ें, तब हमें हमारा इतिहास बताएं. तथ्य यह है कि जागरण एक सार्वभौम नाम नहीं है.
रेनेसां शब्द अमेरिका में कब पैदा हुआ ? यह 1776 में अमेरिका को स्वतंत्रता मिलने के बाद अस्तित्व में आया. जेफर्सन के समय में जब बोस्टन टी पार्टी हुई थी, वही अमेरिकी जागरण का समय है. अब अगला सवाल यह है कि क्या रेनेसां चीन में हुआ था? क्या यह कभी रूस में हुआ था? चीनी लोगों का विश्वास है कि रेनेसां चींग राजवंश के काल में हुआ, जब वहां मई की चौथी क्रांति हुई. यह सनयात सेन के समय हुआ, मगर चीन इसके पीछे इतिहास में नहीं जाता, क्योंकि वहां इसका प्रवेश ही देर से हुआ. जापान में रेनेसां मैची के समय शुरू हुआ. जहां यह कायदे से चीन से पहले शुरू हुआ. इसलिए हम बेकार में इस पर वक्त जाया न करें, क्योंकि रेनेसां एक प्रक्रिया है. बंगाली, हिंदी, गुजराती या मराठी में इसे क्या कहा गया यह महत्वपूर्ण नहीं है. मराठी में यह प्रबोधन काल के रूप में जाना जाता है, परंतु इसका अर्थ जागरण है.
दूसरा विंदु जिसे मैं उठाना चाहता हूं, वह मात्र नामकरण की समस्या नहीं है. यह राष्ट्रीय या क्षेत्रीय विचारों पर पर निर्भर करता है. अलग-अलग जातियों और सभ्यता से संबंधित होने के कारण लोगों ने इसको विभिन्न नामों से अभिहित किया. मेरा विश्वास है कि संपूर्ण समस्या का संबंध इसके प्रत्यक्ष होने से है. क्योंकि, एडवर्ड सईद ने कहा कि यह एशियावासियों का मृत्यु पत्र द्वारा प्राप्त धन था. जब पाश्चात्य विद्वानों ने पुरातन सभ्यता का अध्ययन किया तो भारत उनमें से एक था. उन लोगों ने अपने विचारों का प्रभाव हमारे ऊपर डालने का प्रयास किया, क्योंकि वे पूरे मानव इतिहास को अपने हाथों में जकड़कर प्रभावी होना चाहते थे, जिसे उन्होंने ‘ज्ञान की शक्ति’ के नाम से पुकारा और इस प्रयत्न का सबसे अधिक मनोरंजक उदाहरण स्वयं रेनेसां नाम था. इसका प्रयोग सबसे पहले बंगाल में अंग्रेजी लेखन में हुआ और ऐसा कहा जाता है कि इसका प्रयोग सबसे पहले एक अंग्रेज अलेक्जेंडर डेफ ने किया. बाद में राजा राममोहन राय ने इसे स्वीकार कर लिया. इसके बाद बंगाल के लोग इस शब्द का प्रयोग करने लगे.
ईस्ट इंडिया कंपनी का केंद्र कलकत्ता था. इसलिए कलकत्ता भारत की प्रथम संघीय राजधानी हुई. औपनिवेशीकरण का सर्वाधिक प्रभाव बंगाल में था और पुनः बंगाल ही इसको रोकने के लिए मजबूत प्रयास करने का गवाह भी बना. केवल बंगाल में ही बंकिम और रवींद्रनाथ हो सके. रेनेसां शब्द बंगाली भद्रलोक द्वारा औपनिवेशिक प्रभाव के अंतर्गत आए हुए शब्द के रूप में ग्रहण किया गया. यह औपनिवेशिक विचार उस समय तक मस्तिष्क में बना रहा और किसी ने इस पर नहीं सोचा. फिर लोग भूल गए, जैसे कोई मरने के बाद भुला दिया जाता है. इसका सबसे ताजा और नया उदाहरण है दीपेश चक्रवर्ती की किताब प्रोविंसियल योरोप. बंगाल के बारे में यह काफी परिश्रमपूर्वक लिखी गई किताब है. मुझे यह किताब पसंद आई. प्रोविंसियल योरोप में जो अर्थ सन्निहित है, वह ये कि विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताओं में भारत की सभ्यता सबसे पुरानी सभ्यता है. हड़प्पा की सभ्यता भारत में ही फली-फूली. विश्व की पहली पुस्तक ऋगवेद भारत में ही लिखी गई. इसलिए भारत इसका केंद्र हो सकता था. चीन और पश्चिम एशिया भी इसका केंद्र हो सकता था, लेकिन आधुनिक समय में इसका केंद्र न तो भारत है और न चीन. ‘विकास’ और ‘गतिशास्त्र’ का केंद्र योरोप है, इसलिए सभी देशों को योरोप के अनुसार चलना पड़ेगा.
औपनिवेशिक विचार क्या है? अभी इस उत्तर औपनिवेशिक समय में बंगाली भद्रलोक पूरी तरह से यूरो-एशियाई हो गये हैं. वह बंकिमऔर रवींद्रनाथ को पूरी तरह भूल चुके हैं. यह संगोष्ठी भारतीय भाषाओं, जैसे गुजराती और हिंदी की जागृति के विषय में नये सिरे से विचार करने का एक प्रयास है. 19वीं शताब्दी के बारे में मैंने जो कुछ सोचा है उस पर पहले जरा विचार कर लें. यदि यह जागरण है, तो वह क्या है जो कबीर और नामदेव के समय हुआ था? इटली की तरह उसी समय स्पष्ट रूप से हमारे देश में भी जागृति फैली. यह बात मैं इटली के साथ समानता का दावा करने के लिए नहीं कह रहा हूं, लेकिन तथ्य यह है कि आधुनिक भारतीय भाषाएं दसवीं –ग्यारहवीं शताब्दी से ही जन्म लेने लगी थी. प्राकृत पहले ही अस्तित्व में थी. संस्कृत की संस्कृति अपनी अवनति के दौर से गुजर रही थी और यह वह समय था जब जनभाषा साहित्यिक भाषाओं की ओर उन्मुख हो रही थी. जैसे गुजराती, हिंदी, मराठी, बंगाली आदि.
उन दिनों आर्थिक हालत बेहद खराब थी. विद्वानों, पंडितों और रियासती राजाओं के बुरे दिन आ गए थे. इस युग के बाद एक नया वास्तुशिल्प, संगीत का एक नया ढंग जो हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत कहलाया, की शुरुआत हुई. ध्रुपद का स्थान खयाल गायकी ने ले लिया. यह एक परिवर्तन था, जिसके परिणामस्वरूप संस्कृति मध्य एशिया का संगम हो गई. घर के दरवाजे कलात्मक होने लगे. इमारतों में गुंबद बनने लगे. रंग-रोगन में परिवर्तन हुआ. वास्तुशिल्प में बिल्कुल नये तरीके से बदलाव होने लगा. अगर अजंता और एलोरा की पेंटिंग देखें और उसकी तुलना छोटे चित्रों से करें, तो एक बड़ा फर्क दिखाई देगा. साहित्य का ढंग भी परिवर्तित हुआ. प्रांतीय कहानियों का मुख्य केंद्र प्रेम था, जिसके प्रभाव से नई परंपरा के अनुसार प्रेमाख्यान हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में लिखा जाने लगा. ध्यान से देखें तो ‘इश्क’, ‘श्रृंगार’ रस के समान नहीं है. ‘इश्क’ एक नया दर्शन था-सूफी-संतों और स्वदेशी परंपरा के समझौते के फलस्वरूप यह क्रांतिकारी विचार विकसित हुआ. यह श्रीमदभागवतगीता की भक्ति गीता में नहीं मिलता है. यद्यपि गीता में भक्ति योग है फिर भी इश्क का यह रूप भागवत् की भक्ति गीता में नहीं मिलता. मीरा की भक्ति ‘आर्याशप्तसती’ या ‘गाथाशप्तसती’ दोनों में नहीं पायी जाती है. इसलिए संगीत की नई शैली, वास्तुशिल्प, पेंटिग और साहित्य में साथ-साथ- एक नयी संस्कृति विकसिति हुई. जिन लोगों ने इसे संभव बनाया वे निम्न श्रेणी के लोग थे. नाई, धोबी, दर्जी इत्यादि. ये लोग हिंदू और मुस्लिम दोनों की नजर में निम्न श्रेणी के थे. इसलिए शिल्पकार, मजदूर और किसानों का एक समूह सामने आया, जिन लोगों ने भारत को एक नया स्वरूप दिया.
यह साधारण लोगों का जागरण इटली के जागरण से कहीं अधिक महान था. ये धनी और शक्तिशाली लोगों द्वारा नहीं चलाया गया, बल्कि मजदूर वर्ग के लोगों ने यह अनोखा कार्य किया. विश्व-साहित्य में यह पहला आश्चर्यजनक प्रभाव था. इसलिए मैं इसे पुनर्जन्म या जागरण कह रहा हूं. यह वह युग है जब संस्कृति, दर्शन और उपनिषद पर चर्चा की गई. पहली बार उपनिषद, ब्रह्म समाज के सदस्यों द्वारा पुनर्जीवित नहीं हुआ था. सच तो यह है कि शंकराचार्य के बाद रामानुजन ने इस क्रांति को नई दिशा दी थी. उन्होंने मंदिरों के शिखर पर लिखे मंत्रों को आम लोगों के लिए प्रकाशित किया. यह सब उन्होंने कुछ विशेष लोगों के लिए नहीं किया था. इसी युग में वल्लभाचार्य और विशिष्टाद्वैतवाद सामने आया. यह रेनेसां उन लोगों ने लाया, जो प्राचीन परंपरा का सम्मान करते थे. वे आज के दलितों की तरह नहीं थे, जो ब्राह्मण की बुराई करते हैं और यह मानकर चलते हैं कि ऐसा करके वे सामाजिक क्रांति ले आएंगे.
दो |
दक्षिण में भक्ति आंदोलन शुरू हो चुका था. आलवार और नमनार ने इसकी शुरूआत की थी. जिसमें शैवऔर वैष्णव दोनों मतों के लोग शामिल थे. निर्गुणवादियों का एक पृथक समूह भी था, इसलिए बौद्ध-युग के बाद हमारी सभ्यता में एक बड़ा परिवर्तन हुआ. इतिहासकारों ने इस सामाजिक परिवर्तन को रेखांकित किया है. वास्तव में 13वीं -14वीं शताब्दी में क्या हुआ? डॉ. रामविलासशर्मा ने अपनी आलोचना में उल्लेख किया है कि उसी दौर में हिंदी में एक नया जागरण पैदा हुआ. बकौल डॉ. शर्मा, आधे दर्जन से अधिक सुधार हुए. वह प्रत्येक घटना को एक रेनेसां का नाम देते हैं. क्या कोई अपनी बेटियों का नाम इस तरह रखता है कि पहली पुत्री का नाम सावित्री नं.1 और दूसरी का सावित्री नं.2 हो? यह इंग्लैंड में एक परंपरा हो सकती है, जहां हेनरी-I, हेनरी-II और हेनरी-VIII होते हैं. हम उनकी नकल क्यों करें? केवल एक ही रेनेसां या पुनर्जन्म ने यह स्थान लिया है और वह रेनेसां 13वीं-14वीं शताब्दी का था. जो कुछ बाद में हुआ उसे हमें दूसरा नाम देना पड़ा. अब यह आप पर निर्भर करता है कि मेरे इस विचार से आप सहमत हैं या नहीं हैं, और यदि आप इस ओर जाने के लिए सहमत हैं तो इसे खोजिये और सुधारने की कोशिश कीजिये.
अब हम यह समझने का प्रयत्न करें कि वास्तव में 19वीं शताब्दी में क्या हुआ. 1893 में ‘बांग्ला साहित्य परिषद्’ का गठन हुआ और ‘बंगला जातीय साहित्य’ पर पहला भाषण रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने दिया. जो बाद में उनके निबंध संग्रह के रूप में छपा. रवींद्रनाथ ठाकुर ने लक्षित किया कि 19वीं शताब्दी में हमारी संस्कृति का संबंध अतीत से अलग हो गया है. हम फिर भी अतीत के बारे में बात करते हैं, जो सांसारिक अधिक है. यह बिना अभिप्राय के एक मृत संस्कृति बन चुकी है. यह हमारी धमनियों, नसों में नहीं बहती और न हमारे हृदय तक पहुंचती है. इसका संबंध टूट चुका है, हमारे बंधन अलग हो गए हैं. आखिर कैसे और क्यों हमारा संबंध टूटा? हमें इस प्रश्न पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए. इसके कारणों के खोजने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है.
19वीं शताब्दी के लोग नहीं जानते थे कि एक राजा अशोक था, जिसने अपने शासन काल में खंभों पर कुछ अंकित करवाया था. जेम्स प्रिंसेप-I ने अशोक द्वारा खुदवाए गए अक्षरों को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया और ऐसे विद्वानों की खोज आरंभ की, जो इस नेक काम में उनकी सहायता कर सके. लेकिन भारत में कोई ऐसा पंडित उन्हें नहीं मिला. लोग ब्राह्मी लिपि को भूल चुके थे. इसी काल में बहुत-सी जगहों की खुदाई आरंभ हुई. हम इतने अनभिज्ञ थे कि हड़प्पा के बारे में भी कुछ नहीं जानते थे. सायण के बाद किसी ने वेद पर टीका लिखने के बारे में नहीं सोचा. बाद में दयानंद ने कुछ लिखा. उपनिषद या स्मृत्ति पर इस लंबे अंतराल में क्या आपने किसी का लिखा कुछ देखा या सुना है? हम अपने बीते हुए पांच-छह सौ सालों की पैतृक संपत्ति को भूल चुके थे.
रवींद्रनाथ ठाकुर ने बहुत उचित बात कही कि हमें अपने अतीत को स्थापित करना चाहिए. तब मैंने इस तथ्य पर विश्वास किया कि यह वही समय था जब अभिज्ञानशाकुंतलम् पहली बार आधुनिक भारतीय भाषा में अनूदित होकर आया. सन् 1855-56 के आसपास इस कृति का हिंदी में अनुवाद हुआ. गोविंदचंद्रपांडेय के मुताबिक अभिज्ञानशाकुंतलम् का मराठी अनुवाद बाद में हुआ. हस्तलिखित प्रति तो उपलब्ध नहीं थी. भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इसकी हस्तलिपि की नकल ईश्वरचंद्रविद्यासागर को दे दी. जिन्होंने बाद में इसे बांग्ला में रूपांतरित किया. आप जानना चाहेंगे कि मैंने खास तौर पर शकुंतला पर ही क्यों ध्यान दिया? उस समय लोगों को यह बताया गया कि शकुंतला एक रूपक है. वह खोयी हुई स्मृत्ति की कोई कहानी है. सच तो यह है कि भारत भी अपनी स्मृत्ति खो चुका था. भारत भी कुछ-कुछ दुष्यंत की ही तरह है. यह विचित्र बात है कि दुर्वासा शाप तो शकुंतला को देते हैं, लेकिन शापग्रस्त दुष्यंत होता है. दुर्वासा ने उसे शाप दिया था कि तुम जिसकी स्मृत्ति में खोई हो और अपने अतिथि का सत्कार नहीं कर रही हो, तुम्हे वही भूल जाएगा. अभिज्ञानशाकुंतलम् में अपनी याददाश्त खोने के ग़म में राजा दुष्यंत कहते हैः
“गच्छति पुरः शरीरं धावति पश्चाद्संस्थितं चेतःl
चीनांशुकमिव केतोः प्रतिवातं नीयमानस्य ll”
आश्रम से रथ पर चढ़कर जाते समय उसके ऊपर का ध्वज हवा में पीछे लहरा रहा है. राजा कहते हैं शरीर तो आगे जा रहा है, लेकिन हवा में पीछे लहराते झंडे की मानिंद मेरा मन पीछे छूटा जा रहा है.
ब्रिटिश शासन काल में भारत भी आगे बढ़ रहा था, लेकिन उसका हृदय उसके अतीत में कहीं पीछे छूटा जा रहा था. शकुंतला जब पंचम दृश्य में मिलने आती है तो कालिदास लिखते हैः
“रम्याणि वीक्ष्य मधुरांश्च निशम्य शब्दान्
पर्युत्सुकीभवति यत्सुखितोपि जंतुःl
तच्चेतसा स्मरति नूनमबोधपूर्व
भावस्थिराणि जननांतरसौहृदानि ll”
यह जननांतर सौहृदानिअभिनवगुप्त द्वारा रस के आधार पर बना है. 19वीं शताब्दी में भारत स्मृत्ति-भ्रंश के दौर से गुजर रहा था. शकुंतला स्मृत्तियों की कहानी है, यह विस्मृत परंतु महत्वपूर्ण तथ्य है कि इस लंबे अंतराल में कालिदास के साहित्य को हमने विस्मृत कर दिया था. ऐसा क्यों है कि 19वीं शताब्दी से पहले लोगों की कालिदास में कभी कोई रुचि नहीं जगी?मैं नहीं समझता हूं कि रामचरितमानस में तुलसीदास कहीं से भी कालिदास से परिचित लगते हैं. नानक और कबीर भी कालिदास को नहीं जानते थे. कालिदास ने क्यों इस युग में अपनी ओर लोगों का ध्यान इतना आकर्षित किया? इसलिए हमें ‘नवजागरण’, ‘प्रबोधन’, ‘सुधार’ या ‘किसने समाज सुधार किया?’- ऐसे प्रश्नों पर अधिक ध्यानपूर्वक और लंबे समय तक विचार नहीं करना चाहिए? क्या इस पर भी पुनर्विचार नहीं करना चाहिए कि किसने ‘विधवा विवाह’ को प्रश्रय देने का निर्णय लिया? इस पर विचार इतिहासकार और समाजशास्त्री करें, परंतु साहित्यिक लोगों को क्या यह देखने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि कहानी, उपन्यास, नाटक और कविता में क्या-क्या परिवर्तन हुए? किसी घटना का प्रभाव उस समय के लेखकों की बुद्धि और चेतना पर कैसा पड़ा? ‘सौंदर्यशास्त्र’ में क्या-क्या बदलाव आए? हमें इन चीजों पर अधिक गौर करना चाहिए. इतिहासकारों को ग्रंथरक्षागृह के सहयोग से शोध करना चाहिए. वे सुधारों और जातीयता के विषय में लिखेंगे. उन्हें विवेकानंद और दयानंद के विषय में अपने विचारों को प्रकट करना चाहिए. हमारी रुचि लेखकों और उनके कार्यों से संबंधित होना चाहिए. हम देखने का प्रयत्न करेंगे कि उनकी बुद्धि और चेतना में क्या परिवर्तन आया और तब हमें देखना चाहिए कि ‘अंग्रेजी’ और अन्य उत्प्रेरकों की क्या भूमिका थी.
अंग्रेजी साहित्य का लगाव हिंदी के साथ बेहद रोचक है. उन दिनों शेक्सपीयर का ‘मर्चेंट ऑफ वेनिस’ बहुत प्रसिद्ध था. इसका अनुवाद भी हुआ, लेकिन उस समय तक किसी ने ‘किंगलियर’ या ‘हैमलेट’ नहीं पढ़ा था. ‘मैकबेथ’ मुख्य था. ये सारे अनुवाद अपरिपक्व और बेस्वाद थे. तत्कालीन अनुवादकों को इससे अधिक और कुछ नहीं मिला. वास्तव में जो अंग्रेज यहां आए थे, वे शेक्सपीयर को भारत लेकर नहीं आए. ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में नेहरू जी ने लिखा है कि भारत में अंग्रेज दो रूपों में आए. एक ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ के रूप में और दूसरे‘शेक्सपीयर’ के रूप में. नेहरू का यह विचार बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है और अपने देश को शत्रुओं के हाथ में बेचने जैसा है. यह दर्शाता है कि उनका इतिहास का ज्ञान कितना उथला था. वे जो कह रहे हैं वह बिल्कुल तथ्यों से परे है. शेक्सपीयर को भारत कौन लेकर आया?शेक्सपीयर के पहले किये गये अनुवादों और बच्चन तथा दूसरे लोगों द्वारा किये गये अनुवादों के बीच भिन्नताओं का एक संसार है. अंग्रेजी के अस्सी वर्षों के अध्ययन के बाद अंग्रेजी के विद्वान पैदा हुए और उन्होंने शेक्सपीयर को एक अलग रूप में जानने का प्रयास किया. विक्टोरियन इंग्लैंड वाले हमारे ऊपर विक्टोरियन नैतिकता डालने चाहते थे. वे अंग्रेजी कविताओं के सार को नहीं हटा सके और महान रोमांटिक चीजों को संग्रहित किया. 20वीं शताब्दी में हमने स्वयं रोमांटिक कवियों को खोजा. रवींद्रनाथऔर निराला जैसे कवियों ने यह काम किया.
अंग्रेजी शिक्षा हमें केवल भाषा ही सिखलाती है और वह भी एक भ्रष्ट भाषा. जिसके फलस्वरूप आज बहुत से लोग उसी प्रकार की अंग्रेजी लिखने की कोशिश करते हैं और दावा करते हैं कि यही वास्तविक अंग्रेजी है. हाल ही में हमें अमेरिकियों ने एक नई तरह की अंग्रेजी सिखाई. इसलिए मैं कहना चाहता हूं कि अंग्रेजी शिक्षा का कोई महत्व नहीं है. जब मैं यह कहता हूं, तो लोग कह सकते हैं कि आप इसे नहीं समझ सकते, क्योंकि आप अंग्रेजी नहीं जानते हैं. यह विद्वानों तथा अंग्रेजी के अध्यापकों का उत्तरदायित्व है कि वे न्याय करें कि आज स्वतंत्र भारत में वैसी ही अंग्रेजी है जैसी 19वीं शताब्दी में थी?
हमारे विद्वान जिन संस्कृत नाटकों को भुला चुके थे, 19वीं शताब्दी में उसकी पुनर्प्राप्ति में उस समय के संस्कृत कालेजों के योगदान पर ध्यान देना चाहिए. हालांकि वे विद्वान ब्रिटिश लोगों से प्रभावित थे. उस समय संस्कृत कालेज बनारस, मद्रास, कलकत्ता और पुणे में स्थापित हो चुके थे. संस्कृत विद्वानों द्वारा नाटकों के महत्व को पहचानना और अभिनय द्वारा लोकप्रिय बनाना, उल्लेखनीय कार्य है. हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि हमारे यहां के अधिकांश पुराने लेखक, चाहे वे हिंदी के हों या गुजराती के- आज के लेखकों से अच्छी संस्कृत जानते थे. केरल और गुजरात में संस्कृत पांडित्य की संपन्न परंपरा थी. गोवर्धनम् संस्कृत के अच्छे विद्वान थे और शायद नरमद भी. उस युग के हिंदी लेखक भारतेंदु, बालकृष्ण भट्ट और महावीरप्रसाद द्विवेदी भी संस्कृत के विद्वान थे. विभिन्न आधुनिक भारतीय भाषाओं के विकास में संस्कृत लेखकों द्वारा किये गये योगदान का हमें सही-सही मूल्यांकन करना चाहिए. कालिदास के शब्दों में कहना हो तो मैं इसे ‘अभिज्ञानकाल’ कहना पसंद करूंगा. आप इसे ‘प्रत्यभिज्ञान’ युग भी कह सकते हैं. यह युग हमारे लंबे अवधि के भूल को सुधारने का युग है. हम नहीं कह सकते कि पहले हम विस्मृतियों में खोए हुए थे. वस्तुतः हम अज्ञानी थे. ‘नूनम् अबोधपूर्वम् तत् चेतसाः स्मृत्ति’. हम अपनी अज्ञानता से व्याकुल थे. ‘अभिज्ञान’ एक विपरीत नाम है. इस शब्द का अंग्रेजी में एक निश्चित शाब्दिक अर्थ नहीं हो सकता है. यह अस्मिता नहीं है. मैं एक बार फिर कहता हूं कि यह निश्चित रूप से अस्मिता नहीं है, बल्कि ‘अभिज्ञान’ है. क्योंकि 19वीं शताब्दी वह रंगभूमि है जहां स्मृत्ति की चेतना प्राप्ति का नाटक अनेक तरीके से अनेक विभिन्न भारतीय भाषाओं में प्रस्तुत किया गया.
तीन |
अब तक मैंने जो कुछ कहा उससे एक बात तो अब तक स्पष्ट हो गई होगी कि भारतीय संदर्भ में जिसे हम रेनेसां कहते हैं, वह विशुद्ध कोरी कल्पना है. आगे यह और स्पष्ट होगा कि 19वीं शताब्दी का रेनेसां भारतीय साहित्य में विचारपूर्वक उत्पन्न एक मिथ्या है, जिससे कभी-कभी हमें वास्तविकता का संदेह हो जाता है. आज जरूरत इस बात की है हम झूठी गाथाओं की इस प्रक्रिया का सूक्ष्म विश्लेषण करें और फिर इसके पीछे छिपे इतिहास को देखने का प्रयत्न करें. हमें यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारतीय साहित्य के इतिहास का एक अध्याय 19वीं शताब्दी- जिसे हम भारतीय जागरण का इतिहास मानकर पढ़ते हैं, वह पूर्णतः एक कल्पना है. इस कल्पना को यथार्थ का शक्ल देने में किन-किन लोगों की भूमिका रही? दूसरा प्रश्न यह है कि भारतीय संदर्भ में हम जागृति को काल्पनिक क्यों कह रहे हैं? यदि मैं इसके लिए एक उदाहरण प्रस्तुत करूं तो आप स्वतः समझ जाएंगे.
आजकल लोग गुजरात के गौरव और सम्मान की बात करते हैं और बहुत सारे लोग इस पर गर्व करते हैं. हमें विचार करना चाहिए कि गुजरात का जो इतिहास हमें गर्व करने का विचार देता है, वह उपन्यास संबंधी विवेचनाओं से पैदा हुआ है. जैसे कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी का ‘गुजरातनो नाथ’, ‘जय सोमनाथ’, ‘पृथ्वीवल्लभ’ ने हमारे संस्कारों में धीरे-धीरे प्रवेश पा लिया. इस इतिहास के निर्माण में उपन्यासों की बड़ी भूमिका रही है. क्या गुजरात सचमुच वैसा ही है जैसे उसके उपन्यासों के ऐतिहासिक शब्दों में कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के नवलकथा में है?हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वह उपन्यास द्वारा लिखित इतिहास है, जो कुछ नहीं कोरी कल्पना है. हालांकि यह एक सुंदर कल्पना है, जो वास्तविकता जैसी प्रतीत होती है. हम इसमें इस प्रकार मध्यस्थ हैं कि कल्पना एक वास्तविकता हो चुकी है. हम यह भूल जाते हैं कि यह एक कल्पना है और कल्पना प्रत्येक व्यक्ति को बहुत अधिक मोहित करती है. आज इस कल्पना का लोगों के समूह द्वारा आदान-प्रदान किया जा रहा है. हम गलती से इस काल्पनिक रचना और विद्वता को वैज्ञानिक समझते हैं, लेकिन यह सदैव सौंदर्यरूपक नहीं होता है.
साहित्यिक आलोचना भी उपन्यास हो सकता है. उदारण के लिए शेक्सपीयर ने साहित्यिक आलोचना के फार्म में लिखा है. शेक्सपीयर ने इसे किस सीमा तक बदला और यह अब भी बदल रहा है, यह अंग्रेजी के अध्येता जानते हैं. इसलिए 19वीं शताब्दी में जो उपन्यास गुजरात में लिखा गया, वह बंगाल और महाराष्ट्र में भी लिखा गया. बंगाल के लेखकों ने अपना उपन्यास महाराष्ट्र और राजस्थान के आधार पर लिखा. ‘एन्नाल एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान’ 19वीं शताब्दी में कर्नल टोड ने लिखा. रमेश चंद्र दत्त अपनी पुस्तक ‘इकॉनामिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ के लिए भी विख्यात हैं. जिन्होंने रामायण और महाभारत के दोहों का संक्षिप्त अनुवाद किया. उनकी दो और किताबें हैं, जिसका बाद में अनेक भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ. एक पुस्तक है ‘महाराष्ट्र जीवन प्रभात’ और दूसरी है ‘राजपुर जीवन-संध्या’. रमेश चंद्र दत्त बंगाल के थे. उसी समय बंकिमचंद्र भी उपन्यास लिख रहे थे. ‘दुर्गेशनंदिनी’ की तरह उनके अधिकांश उपन्यासों में बंगाल की कहानियां नहीं है. ये उपन्यास लिखे तो गए बंगाल में लेकिन इसकी कहानियां राजस्थान से संबंधित हैं. ‘आनंदमठ’ और ‘कपाल-कुंडला’ बांग्ला भाषा का उपन्यास है, परंतु उनके ऐतिहासिक उपन्यास राजस्थान और महाराष्ट्र से प्रेरित हैं.
‘महाराष्ट्र जीवन प्रभात’ और ‘राजपुर जीवन-संध्या’ में ‘प्रभात’ और ‘संध्या’ अर्थपूर्ण है. वे शिवाजी के नेतृत्व में मराठों की बढ़ती शक्ति की घटना को नये जीवन प्रभात की तरह देख रहे थे. राजस्थान की आगामी घटनाएं उन्हें राजपुर के इतिहास की गोधूलि-बेला के समान प्रतीत हुई. आप इसे ‘मराठा शक्ति’ का उदय और राजपुर शक्ति का पतन कह सकते हैं. इस तरह का इतिहास उसी युग के दौरान लिखा गया. इस तरह का इतिहास हिंदी में भी लिखा गया. इस संदर्भ में किशोरीलाल गोस्वामी के कामों को देखना समीचीन होगा. मराठी में भी इस तरह के इतिहास लिखे गए. मलयालम में ‘मार्तण्डवर्मा’ का इसी प्रकार का इतिहास है. 19वीं शताब्दी का ‘पुनर्जागरण’ फिर से लिखा गया इतिहास है, जो वास्तव में इतिहास नहीं, कल्पना है. इसलिए जैसा कि मैंने पहले कहा कि इटली के जागरण ने वास्तविक स्थान नहीं ग्रहण किया था, यह जैकब बर्चर्ड की एक कल्पना थी और इसके बाद हम स्वयं कल्पनाओं की सुंदर दुनिया में खो गए.
आजकल लोग ग्रैब्रियल गार्सिया मार्क्वेज के उपन्यास ‘एकांत के सौ वर्ष’ में जादुई यथार्थवाद देख रहे हैं. वे भूल गए हैं कि हमारे ऐतिहासिक उपन्यासों में इतिहास की उत्पत्ति जादुई यथार्थवाद के रूप में की गई है. अब हम 19वीं शताब्दी के ऐतिहासिक कार्यों को इतिहास के रूप में देखते हैं. परंतु वास्तव में 19वीं शताब्दी एक सुंदर कल्पना है और यह प्रायः सभी भारतीय भाषाओं की कल्पना है. साहित्यिक इतिहासकार तथा आलोचकों ने उपन्यासों की सहायता से इस कल्पना को उत्पन्न किया. कल्पना सदैव वास्तविकता की अपेक्षा अधिक आकर्षक और शक्तिशाली होती है. एक पुस्तक है ‘पावर एंड मिथ’, जिसका शीर्षक मेरे तर्क को बल प्रदान करता है. सवाल यह है कि इस कल्पना को उत्पन्न किसने किया? कौन लोग थे इसके पीछे? ब्रिटिश एशियाईयों ने सबसे पहले इस पर विचार किया था. हममें से अधिकांश लोगों ने डेविड कोप्ट की पुस्तक ‘ब्रिटिश ओरियेंटलिज्म एंड द बंगाल रेनेसां’ पढ़ी है. इस पुस्तक में उन्होंने कल्पना करने वाले उन लोगों के बारे में बताया है. उन्होंने बताया है कि इस तरह की कल्पना की शुरुआत बंगाल के ‘एशियाटिक सोसाइटी’ से प्रारंभ हुई थी. यह एक ऐसे व्यक्ति ने किया जिसने ब्रिटिश शासन की शुरुआत की और भारतीय अर्थव्यवस्था को विध्वंस किया. इस व्यक्ति का नाम वारेन हेस्टिंग्स था.
उदय प्रकाश ने ‘वारेन हेस्टिंग्स का सांढ़’ नाम से एक कहानी लिखी है. इस कहानी को पढ़कर पता लगाया जा सकता है कि जादुई यथार्थवाद कैसे उत्पन्न हुआ. वारेन हेस्टिंग्स वही शासक था जिसने भारत के ऊपरी प्रांत को जीत लिया था. वास्तव में वारेन हेस्टिंग्स ने लार्ड क्लाइव के बाद भारत के अधिकांश भागों पर जीत हासिल की थी. वह ज्ञान का संरक्षक भी था. उसी के समय में विलियम जॉन ने बंगाल में एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की थी. उसने वहां से ‘एशियाटिक सोसाइटी जर्नल’ प्रकाशित किया और कालिदास के ‘अभिज्ञानशाकुंतलम्’ का अनुवाद किया. विलियम जॉन ने मनुस्मृति का भी अनुवाद किया. चूंकि वह एक वकील था इसलिए वह यह बात जानता था कि इसका अनुवाद क्यों महत्वपूर्ण है. इस लिहाज से भी यह गौर करने लायक बात है कि बाद में महाराष्ट्र में डॉ. अंबेडकर के अनुयायियों द्वारा जलाया गया. इस प्रकार एक तरफ वारेन हेस्टिंग्स ने विध्वंसात्मक कार्य किये, तो दूसरी ओर पश्चिमी एशिया को जानने का मार्ग प्रशस्त किया. एशियाई विद्वानों का एक समुदाय जिसमें विल्सन, कोलब्रुक आदि शामिल थे, ने आगे चलकर ‘वेद’, ‘मनुस्मृति’, और ‘अभिज्ञानशाकुंतलम्’आदि हमारे प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन किया. फिर उसकी सहायता से मिथकों को गढ़ा. उन्होंने पूर्वी भारत का एक रहस्यवादी बिंब गढ़ा, जो पहले से ही पश्चिमी आंखों को जादूगर, सपेरों तथा साधुओं की भूमि प्रतीत होती थी. पश्चिमी लोग अभी भी भारत को साधु, भिखारी, सपेरों और जादूगरी की धरती मानते हैं.
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भारत की रचना एक कल्पना की तरह की जा रही थी और काल्पनिक भारत के प्रतिबिंब का निर्माण हमारी आंखों के सामने किया जा रहा था. एडवर्ड सईद ने अपना ओरियंटलिज्म बाद में लिखा, जिसमें उन्होंने पूर्वी रहस्यवाद का जो सावधा नी से निर्माण किया गया था, उसे खुले रूप में पेश किया. ये पौराणिक कथाएं, ये मिथक बिल्कुल निर्दोष हों, ऐसा भी नही है. हमारे शासक, हमारे देश का सुंदर व जादुई चित्र बना रहे थे. परंतु इन सुंदर चित्रों के नीचे शोषण की जमीन तैयार हो रही थी. एक नई मिथकीय कहानियां गढ़ी जा रही थी और इसकी आड़ में वारेन हेस्टिंग्स ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारियों की सहायता से नील के व्यापार पर पकड़ जमा रहा था. इतना ही नहीं बंगाल और बिहार के बाद वह उत्तर को जीतने के लिए आगे बढ़ रहा था. दक्षिण में आक्रमण की तैयारी करके पश्चिमी भाग तथा बंदरगाहों पर कब्जा करने के लिए बंबई और मद्रास से पैदल गया. इस तरह हमें मानसिक रूप से दास बनाया जा रहा था. विडंबना देखिये कि हम लोग इसके बाद भी प्रसन्न थे और यह सोचकर गर्व का अनुभव करते थे कि देखो, हम इतने महान हैं कि हमारी महानता का अध्ययन करके ब्रिटिश लोग हमारी कीर्ति गा रहे हैं.
प्रेमचंद की एक कहानी है- ‘मंगनी का सुखसाज’. प्रतिष्ठा का यह भाव भी उधार लिया गया था और इसकी उत्पत्ति ओरियंटलिज्म द्वारा की गई थी. उन्होंने अकेले इसे पैदा नहीं किया था. सबसे निचली श्रेणी थी दासता, जिसमें दास मालिक के लिए काम करता था. पहला काम उन्होंने यह किया कि बनारस में संस्कृत कालेज की स्थापना की. जिसमें उन दिनों प्रिंसिपल ब्रिटिश लोग ही हुआ करते थे. उन्हीं दिनों ग्रिफिन ने ऋगवेद का अंग्रेजी में अनुवाद किया और यह अनुवाद आज भी सबसे अच्छा अनुवाद माना जाता है. इसमें उन्होंने संस्कृत के पंडितों की सहायता ली. इसका प्रयोग वे विधि एवं न्याय में करना चाहते थे. आज कहा जाता है कि ब्रिटिश ने कानून का राज स्थापित करके एक अविस्मरणीय कार्य किया. आखिर कानून का अर्थ क्या है? जहांगीर के दरबार में एक घंटा लगा रहता था. लोग रस्सी खींचते थे तो घंटा बज उठता था. इसके बाद बादशाह खुद आकर शिकायत सुनता था. इस प्रकार बादशाह के पास न्यायिक शक्ति भी थी. वास्तविक शक्ति राजा के पास नहीं होती थी. राजा तो मुकुट धारण करके राजनीतिक शक्तियों का लाभ उठाता था. सेना का संचालन वह कर सकता था, लेकिन नियम के सम्मान में और धर्मशास्त्र के अनुसार न्याय राज-पुरोहित करता था.
याद करिये, जब शकुंतला आयी और उसे पहचानने की बात जब अधूरी रह गई, तो पंडितों की एक सभा हुई और वहां यह विचार किया गया कि क्या न्यायसंगत क्या है ? न्याय की शक्ति राजा के हाथ में नहीं होती थी, मगर वह धर्मशास्त्रऔर न्यायसंहिता की मदद से निर्णय लेता था. वह अपना निर्णय स्वयं नहीं कर सकता था. ऐसे मामलों में तो उसका न्याय स्वीकार नहीं किया जाता था. पंरतु मुगलकाल में स्थितियां बदल चुकी थी. जरूरत पड़ने पर राजा, पंडित को बुलाता था. यह माना जाता है कि अंग्रेजों ने समानता के आधार पर कानून बनाए. कानून की नजर हर व्यक्ति समान है, चाहे उसका संबंध किसी जाति, धर्म या लिंग से हो. आज के इतिहासकार गर्व से लिखते हैं कि 19वीं शताब्दी में पहली बार आदमी को समानता का अधिकार मिला. चाहे संपत्ति विवाद हो, हत्या या कोई अन्य अपराध, न्याय आईपीसी यानी भारतीय दंड सहिता के अनुसार होता था. जो आज भी उसी रूप में विद्यमान और उसमें आजादी के बाद भी कोई खास परिवर्तन नहीं आया है. यह सब अंग्रेजों की देन है.
इस प्रक्रिया में हम यह भूल गए कि पहले पंडित और मौलवी मुकद्दमा सुनने के लिए हाजिर होते थे और एक पंच चुनते थे. यह सिद्ध करने के लिए कि वे न्याय धर्मशास्त्र और हदीस के अनुसार कर रहे हैं. ब्रिटिश लोगों ने भारतीय परंपरा को पुनर्जीवित किया. उपनिवेशवादियों ने जो कुछ किया, उसकी परंपरा हमारे यहां पहले से मौजूद थी. हमारे लोग जो न्याय और दंड देने के मामले में कुशल थे. वारेन हेस्टिंग्स के समय में इसी लिए कानून बनाने के मामले में पंडितों और मौलवियों की सहायता ली गई. अंग्रेजों ने उनकी सहायता ज्यादा ली. आज जो ‘पद्म पुरस्कार’ दिये जाते हैं, वह पुरानी परंपरा के अनुसार ही है. उन दिनों भी ऐसे ही पुरस्कार दिये जाते थे, बस उनके नाम अलग-अलग हैं. संस्कृत के पंडित और हिंदी के विद्वान ‘महामहोपाध्याय’ के नाम से सम्मानित किये जाते थे. ‘शम्स-उल-उलेमा’ का बहुत गहरा अर्थ है. शम्स का मतलब होता है सूर्य और उलेमा का अर्थ होता है विद्वान. इस प्रकार शम्स-उल-उलमा का अर्थ होता है ‘विद्वानों के बीच सूर्य’ है.
कुछ मिथक मदरसों और संस्कृत कालेजों में भी बने. संस्कृत कालेजों की स्थापना तीन महाप्रांतों में हुई-कलकत्ता, बंबई और मद्रास. बाद में बनारस में भी संस्कृत कालेज स्थापित किया गया. पौराणिक कथाओं को बनाने वाले एशियाईयों ने शिक्षा की एक नई शाखा शुरू की, जिसे ‘ओरियंटलिज्म’ या ‘ओरियंटल लर्निंग’ के नाम से जाना गया. यह उस ‘ओरियंटलिज्म’ के विरुद्ध था, जिस ‘ओरियंटलिज्म’ को लेकर एडवर्ड सईद ने लिखा है. तत्कालीन संस्कृत कालेजों में अंग्रेजों ने ऐसे मिथक इसलिए गढ़े गए, ताकि सैनिक विजय को स्थायी विजय में बदला जा सके.
असल में ओरियंट शब्द इतना प्रचलित हुआ कि कुछ संस्थाओं के नाम ही ओरियंट के नाम से रखा गया. मसलन ‘स्कूल ऑफ ओरियंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज’ (SOAS). इंडोलाजी और ओरियंटलिज्म शब्द 19वीं शताब्दी की कल्पना है. यद्यपि ऑक्सीडेंटल, ओरियंटल शब्द का विलोम है, फिर भी यह नहीं सुना गया न उपयोग किया गया. हममें से कोई ऑक्सीडेंटल कालेज से नहीं आया है. लेकिन कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के एशियाई विभाग में हिंदी और संस्कृत पढाई जाती है. लंदन यूनिवर्सिटी में ‘स्कूल ऑफ ओरियंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज’ (SOAS) है, जिसमें उन्होंने अफ्रीका को ओरियंट से दूर रखा हुआ है. ओरियंट में एशिया और केवल भारत ही शामिल है. उपनिवेशी शासकों ने भारत को तो अपना उपनिवेश बनाया, मगर वे चीन को अपना उपनिवेश नहीं बना सके. वस्तुतः अफीम युद्ध के दौरान वे व्यापार में आए, इसलिए चीन को अपना उपनिवेश नहीं बना सके. सिनो-जापान युद्ध के बाद 1935 के आसपास चीन केवल कुछ ही समय के लिए जापान का उपनिवेश बना था. ओरियंटल, ओरियंटलिज्म और ओरियंट शब्द इतने विख्यात हुए कि इनके नाम पर दुकान, बैंक, पत्रिका और प्रकाशन गृहों तक के नाम रखे गए. अंग्रेजी में ओरियंट इतना प्रसिद्ध हुआ कि आज भी हमारे देश के विभागों और अकादमिक प्रशिक्षण कालेजों में ओरियेंटेशन प्रोग्राम करवाया जाता है. ओरियंट और ओरियंटलिस्ट के द्वारा अंग्रेजों ने प्रस्ताव रखने की कोशिश की, कि हमारे आगमन के साथ ही यहां नये युग का आरंभ हुआ.
उन्होंने बंगाल के स्वर्ण युग को खोजा. वास्तविकता यह है कि भारत को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था और अंग्रेज यहां सोने की चिड़िया पकड़ने आए थे. यह उनके आवश्यक था कि वे इस सोने की चिड़िया को अपने अधिकार में रखें. हम यह सुनकर खुश होते रहे कि हम सोने की चिड़िया हैं. जबकि यह सुंदर चिड़िया इस बात से अनजान थी कि धीरे-धीरे उसका गला रेता जाएगा. यह इसलिए कहा गया क्योंकि भारत का अतीत सुनहरा है. यह स्वर्ण युग कौन-सा युग था? इतिहास की किताबें हमें बताती हैं कि यह गुप्त काल था, लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि गुप्त काल ही क्यों स्वर्ण काल था, अशोक का काल क्यों नहीं? गुप्त काल सुधारों का काल था. दूसरी ओर अशोक ने धर्म का राज्य स्थापित किया, जो भारत से लेकर अफगानिस्तान, श्रीलंका तक छाया हुआ था. अशोक का राज्य पहला भारतीय साम्राज्य था. गुप्त मध्यदेश से बाहर कभी नहीं जा सके. अशोक का साम्राज्य चंद्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य से बड़ा था, लेकिन गुप्त काल को ही स्वर्ण काल कहा गया. क्योंकि इस काल में हिंदुओं का उत्थान हुआ. यह बौद्ध और जैन के विरुद्ध ब्राह्मणों का उद्धारक था. यह बहुत कुछ उसी के अनुरूप है, जैसे कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के ‘साम्राज्यों का युग’ में गुप्त वंश के युग को भारत के इतिहास में श्रेष्ठ बताया गया है.
अंग्रेजों ने अतीतकालीन भारत पर इसलिए लिखा कि वे ऐसा करके यह सिद्ध करना चाहते थे कि हमारे इतिहास का स्वर्ण युग विक्टोरियाकाल था. हममें से बहुत लोगों ने औपनिवेशिक युग के सोने और चांदी के सिक्के देखे होंगे, जिसमें रानी विक्टोरिया और जार्ज पंचम का एक राजा और रानी के रूप में चित्र अंकित है. इसका यह अभिप्राय है कि दोनों युनाइटेड किंगडम के राजा-रानी थे, लेकिन वे भारत के सम्राट और सम्राज्ञी थे. मुझे 1935 में जार्ज पंचम का वह चित्र याद है, जिसमें में वे सिंहासन पर बैठे हैं. उन दिनों हमलोग स्कूल में एक गीत गाते थे-‘चिरंजीवी राजा-रानी हमारे’. हमलोगों को राजा और रानी अंकित सिक्का दिया गया और यह महसूस कराया गया कि भारत में स्वर्ण युग इन्हीं के कारण आया. इस प्रकार 19वीं शताब्दी नया स्वर्ण युग था या हमलोग जिसे रेनेसां के नाम से जानते हैं?
स्पष्ट हो गया होगा कि रेनेसां चारों तरफ चेतना प्राप्ति के केंद्र रहा है. लेकिन प्रश्न है कि इस चेतना प्राप्ति का साधक या प्रतिनिधि कौन था? क्या यह ब्रिटिश सम्राट या ब्रिटिश राजा-रानी थे? इतिहास का प्रतिनिधि कौन था? मैंने संक्षेप में जागृति से संबंधित चीजों पर तर्क करने की कोशिश की है और अब आप समझ गये होंगे कि यह परियों की कहानी या काल्पनिक कथा थी. इसलिए मैंने इस रेनेसां को एक कल्पना कहा और यह कल्पना ब्रिटिश शासन काल के विद्वानों द्वारा गढ़ा गया, जिन्हें हम औपनिवेशिक कहते हैं. पहले यह बहुत चर्चित नहीं था, लेकिन आजकल यह बहुत प्रचलित है और हम इस प्रक्रिया में शामिल हैं. यदि हम इसमें शामिल नहीं होते तो यह कभी नहीं होता. हमने अपने आप मान लिया कि यह पुनर्जागरण, चेतना-प्राप्ति तथा जागरण था और 19वीं शताब्दी में हमने पुनः अपने सुनहरे अतीत को पाया. हमें लगा कि हम अपने अतीत को प्राप्त कर रहे थे, लेकिन हमारी स्मरण शक्ति बिल्कुल स्थिर अवस्था में थी और हमारा विवेक एक स्पष्ट दिशा की ओर अग्रसर था. इन सभी को किसने प्रभावित किया? यह तत्कालीन अध्यापकों द्वारा किया गया. इसलिए मैंने कहा पुनर्जागरण एक कल्पना है और यह ओरियंटलिज्म द्वारा रचा गया, जिसमें हम भी शामिल थे. रमेशचंद्र दत्त, बंकिम और कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी का ऐतिहासिक लेख इसके एक भाग हैं. ब्रिटिश लोग अकबर के समय को स्वर्ण युग कहें.
कुछ लोग हिंदू पुनर्जागरणपर बात करते हैं. हम यह न भूलें कि उस वक्त बहावी आंदोलन चल रहा था तथा मुसलमानों का स्वर्णिम अतीत के विषय में बिल्कुल अलग विचार थे और वे इसकी रचना फिर से कर रहे थे. इसी असाधारण विषय के महत्व पर कुछ विद्वान लिख चुके हैं. इसको लेकर इकबाल अहमद और एजाज अहमद ने थोड़ा-बहुत लिखा है. तारिक अली ने भी मुस्लिम इतिहास के विषय में लिखा है. उनकी एक किताब ‘जिहाद’ भी आ चुकी है. एडवर्ड सईद ने अपनी किताबों में मुख्य रूप से मिस्र और फिलिस्तीन के बारे में लिखा है. टामस मुनरो ने अपनी किताब में अकबर के बारे में जो लिखा है, उसका शीर्षक है- ‘इंडिया अंडर अकबर’.
उन्हीं दिनों एक नया शब्द गढ़ा गया-हिंदुइज्म. यह शब्द उसी युग की कल्पना है. मैं नहीं समझता कि ‘इज्म’ प्रत्यय द्वारा उन्होंने कुछ चीजों को एक विचारधारात्मक रूप दिया, जो केवल एक धर्म था. धर्म समान विचार नहीं रखता था. जैसाकि ‘रिलीजन’ रखा. लेकिन मैं इसके विस्तार में नहीं जाना चाहता. इसके साथ उन्होंने एक पद ‘हिंदू भारत’ का परिचय दिया. जो साफ तौर पर निर्दोष और हानिरहित प्रतीत होता है. यह ‘हिंदू भारत’ क्या है? वे दो पदों का परिचय देते हैं-‘हिंदू इंडिया’ और ‘हिंदुइज्म’. क्या ‘भारत’ अपने आप में पर्याप्त नहीं था? नयी कल्पना ने इतिहास को तीन बंद डिब्बों में बांट कर रख दिया- ‘हिंदू भारत’, ‘मुस्लिम भारत’ और ‘ईसाई भारत’. यह सभी नाम इतने निर्दोष और हानिरहित नहीं थे. इसी के फलस्वरूप वीर सावरकर ने ‘हिंदुइज्म’ का पक्ष लिया जो उन दिनों बहुत प्रसिद्ध हुआ. हमने सोचा कि हम स्वयं को एक नया नाम दे रहे थे, लेकिन वास्तविक तथ्य यह था कि हमने इसे दूसरों से उधार लिया. यहां यह गौरतलब है कि नाम देना एक खतरनाक प्रक्रिया है.
यदि कोई शासन करना चाहता है, तो उसे नया नाम देना चाहिए. बाईबिल में कहा गया कि ईश्वर ने संसार की रचना की और तब प्रत्येक चीजों को एक नया नाम दिया. सेंट जॉन्स के अनुसार गोस्पेल में कहा गया है- प्रारंभ में शब्द था और शब्द ईश्वर था. इसका क्या अर्थ है? जंगल में असंख्य पेड़ होते हैं, झाड़ियां होती हैं. वे सुरक्षित हैं. आप उन्हें पहचानकर उसे प्रयोग करना सीखते हैं, तो वे आपके अपने हो जाते हैं. आप उन्हें उगा सकते हैं. इसलिए जब लोग पालतू कुत्ता खरीदते हैं, तो उसे नया नाम देते हैं. जब एक बच्चा पैदा होता है, तो उसका नामकरण संस्कार करते हैं. तब तक वे सबके लिए ईश्वर का वरदान होता है. इसलिए हिंदू भारत जैसे एक काल्पनिक पद के द्वारा उन्होंने देश को दो भागों में विभाजित किया. वे यह परिभाषा देते हैं कि हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी धर्मों के लोग हिंदुओं की तरह ही हैं और यह ‘हिंदू भारत’ है. इस आधार पर रेनेसां स्वयं दो भागों में बंटा-हिंदू जागरण और मुस्लिम जागरण.
पांच |
हमें इस तरह के मिथकीय कार्यों और शब्द-निर्माण के पीछे छिपी राजनीति पर गौर करना चाहिए. जैसाकि हेनरी जेम्स ने अपने उपन्यास ‘हाउस ऑफ फिक्शन’ में कहा है कि हमें कालीन के पीछे देखने की कोशिश करनी चाहिए, बजाय उसकी सुंदरता की प्रशंसा करने के. पीछे देखने पर हमें यह पता चलेगा कि यह कालीन बना किस धागे से बना हुआ है. इसी प्रकार 19वीं शताब्दी के रेनेसां रुपी सुंदर कालीन के पीछे देखना चाहिए. हम केवल इसके एक पक्ष की सुंदरता को देखा है. इसलिए इस कल्पना की गहराई से परीक्षा करनी चाहिए और उन तथ्यों की भी, जो इसके लिए जिम्मेदार थे.
1857 का विद्रोह बहुत सारी कल्पनाओं में से एक है, जो उसी युग में हुआ था. कई ब्रिटिश विद्वान इस पर लिख चुके हैं. यह विद्रोह मुख्यतः भारत के उत्तरी भागों तक ही सीमित रहा. उत्तर प्रदेश और बिहार गायों की अधिकता के लिए जाना जाता था-सबसे गंभीर संघर्ष इन्हीं दो प्रांतों में हुआ. दिल्ली और कानपुर में जो कुछ हुआ उसके बारे में ब्रिटिश लोगों ने मिथ्या प्रचार किया. बाद में पता चला कि कुछ घटनाएं इतिहास में कभी घटित ही नहीं हुई. 1857 का विद्रोह हुआ, लेकिन यह विद्रोह कैसा था, जिसे उन्होंने राजद्रोह कहा और हमने इसे पहला स्वतंत्रता संग्राम ? वीर सावरकर ने 1857 को यह नाम दिया और कार्ल मार्क्स भी इससे सहमत थे. हमें भली-भांति यह परीक्षा करने का प्रयत्न करना चाहिए कि किस प्रकार 1857 की कल्पना की रचना हुई.
हमारे देश में अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग पूरी तरह इन काल्पनिक बातों से सहमत हैं. यदि कोई लंदन की ‘इंडिया हाउस लाइब्रेरी’ में रखे उस युग के दस्तावेजों को पढ़े, तो उसकी राय यह बनेगी कि भारतीय बेहद असभ्य और क्रूर थे. उसकी गहराई में यदि कोई जाए तो पता चलेगा कि कानपुर में कई विद्रोही पकड़ लिए गए थे और वहां हुए संघर्ष में चार-पांच सौ अंग्रेज मारे गए थे. जिनमें औरतें और बच्चे भी शामिल थे, जिन्हें बाद में कुंए में फेंक दिया गया. जब वे पकड़े गए तो अंग्रेजों ने उन्हें खून चाटकर साफ करने को कहा. उसके बाद फांसी पर लटका दिया.
अंग्रेज भारतीय लोगों को फांसी देने से पहले उन्हें बुरी तरह अपमानित करते थे. अजीब बात यह है कि वे हमें असभ्य कहते हैं, जबकि वे स्वयं घोर अमानवीय और असभ्य थे. वे लोग भारतीयों के साथ जंगली जानवरों जैसा बर्ताव करते थे. सन् 1857 की मिथ्या बातों से यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया कि भारतीय इतने असभ्य और निर्दयी थे कि अंग्रेज औरतों और बच्चों तक के साथ निर्दयतापूर्ण व्यवहार किया. इस प्रकार उन्होंने 1857 के एक मिथक को पैदा किया जो कई नामों से आज जाना जाता है-‘गदर का विद्रोह’, ‘सिपाही विद्रोह’, ‘राजद्रोह’ और ‘स्वतंत्रता के लिए किया गया प्रथम संघर्ष’ इत्यादि.
यहां यह बात ध्यान देने लायक है कि जब एक कल्पना उत्पन्न हुई, तो उसके विपरीत एक-दूसरी कल्पना भी निर्मित हुई. दोनों कल्पनाओं के बीच जब टकराव हुआ, तो विश्वस्तर के बुद्धिमान भी प्रभावहीन हो गए. उदाहरण के लिए 1957 में जवाहरलाल नेहरू के शासन काल के दौरान जब ‘1857 का शताब्दी समारोह’ हुआ था. उस समय यह अनुभव किया गया कि इस पर एक पुस्तक लिखनी चाहिए और पुस्तक लिखने का जिम्मा इतिहासकार एस.एन.सेन को दिया गया. एक विमर्श इस बात को लेकर भी हुआ कि लिखने के बाद इस पुस्तक का शीर्षक क्या रखा जाएगा. इसे ‘विद्रोह’, ‘राजद्रोह’ कहना चाहिए या ‘प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’जैसाकि वीर सावरकर ने कहा था. जब एक विद्वान वैज्ञानिक भी बन जाए, तो बहुत समस्या पैदा होती है. कई अंग्रेजी के विद्वानों ने इस पर सोचा तो बहुत अच्छा, लेकिन शीर्षक नहीं सोच पाये. अंततः मिस्टर सेन ने सुझाव दिया कि इसे केवल ‘1857’ ही कहा जाय. इस प्रकार भारत सरकार द्वारा यह पुस्तक ‘1857’ नाम से प्रकाशित हुई.
19वीं शताब्दी के पुनर्जागरण साहित्य से संबंधित विचार-विमर्श में जब कोई भाग ले, तो वह इसे केवल 19वीं शताब्दी कह सकता है. इसी वजह से मैंने इशारा किया कि कल्पित बातों के बनाने की इस प्रक्रिया को समझना बहुत अहम है. तभी हम इसकी सही विवेचना कर पाएंगे. अंग्रेजों ने 19वीं शताब्दी की अपने ढंग से प्रशंसा की, तब हमने विपरीत रुख अख्तियार किया. जिसे आप राष्ट्रवादी सोच कह सकते हैं. इसके कारण हमने सोचा कि उन्होंने हमें अपमानित किया, नीचा दिखाया तो हमें 1857 की घटनाओं का ओजस्वी ढंग से वर्णन करना चाहिए.
हिंदी के सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ. रामविलासशर्मा ने 1857 पर एक मोटी पुस्तक लिखी है, जिसका संशोधित संस्करण भी प्रकाशित हो चुका है. आपको मालूम है उस पुस्तक में उन्होंने क्या लिखा है? उन्होंने लिखा है 1857 की क्रांति फ्रांस और रूसी क्रांति का मूल है. 1857 की क्रांति इतनी गौरवपूर्ण थी कि उस समय भारतीय इस प्रकार के महान आदर्श, जैसे स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व भूल गए. मानो वह समाजवादी या मार्क्सवादी हों. उन्होंने कहा है कि समाजवादी क्रांति का जो बीज 1917 में रूसी क्रांति में फूट पड़ा, उसका उत्स 1857 में भी मौजूद था. इसे उन्होंने सैद्धांतिक तरीके से सिद्ध भी किया है.
इसलिए मैंने कहा कि जब एक विद्वान वैज्ञानिक भी बन जाए और वकीलों की तरह किसी भी दलील से अपनी बात सिद्ध करने का प्रयत्न करे, तो वह किसी भी तरीके से यह बात मनवाना चाहेगा कि उसका मुवक्किल निर्दोष है. एक औसत वकील ऐसा करता है. वह यह दलील देता रहता है कि उसका मुवक्किल न केवल निर्दोष है, बल्कि वह एक अपूर्व प्राणी है. वह उसे देवतुल्य ठहराने का प्रयास करता है. ब्रिटिश विद्वानों ने 1857 की घटना को असभ्य कहकर विवेचना की, तो डॉ. रामविलास शर्मा ने आगे चलकर यह विचार प्रस्तुत किया कि 1857 की क्रांति एक ओजस्वी क्रांति थी फ्रांसीसी तथा रूसी क्रांति के मूल में थी. कभी-कभी चेला अपने गुरु से भी बहुत आगे चला जाता है. रामविलास जी का इससे तात्पर्य यह है कि रूसियों ने जो काम 1917 में किया, उसे भारतीयों ने 1857 में ही कर दिखाया. सवाल यह है कि तब 1857 में समाजवाद भारत में खुद क्यों नहीं आया? 1858 में यह प्रावधान पास हुआ कि अब हमें ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन नहीं रहना होगा. शासन की बागडोर अब सीधे रानी विक्टोरिया के पास होगी. मगर हमारी अधीनता अभी तक जारी है. इसका ये मतलब है कि हम अधिक समय तक व्यापारिक कंपनी के अधीन नहीं रहे, बल्कि खुद ही साम्राज्ञी के अधीन हो गए.
जैसाकि मैंने पहले कहा है, 19वीं शताब्दी में एक विपरीत जागरण हुआ. जो वास्तव में विपरीत रेनेसां नहीं, बल्कि समानांतर रेनेसां था. हमारे देश का एक अत्यंत प्रशंसनीय बिम्ब उपस्थित किया गया, यद्यपि उस भारत की दशा ऐसी प्रशंसा योग्य नहीं थी. हमने एक तरफ अपने साहित्यकारों को गौरवान्वित किया, तो दूसरी तरफ इंग्लैंड का सम्मान किया. उदाहरण के लिए यदि भारतेंदुने अच्छे नाटक लिखे, तो हमने उन्हें भारत का शेक्सपीयर कहना शुरू किया. ‘फसाना-ए-आजाद’ की तुलना ‘डॉन क्विकजोट’ से की गई. कई लोगों ने यह कहकर सरस्वतीचंद्र की प्रशंसा की, कि यह एक अच्छा उपन्यास है. परंतु यदि कोई कहे कि यह वार एंड पीस से महान है, तो यह अतिशयोक्ति होगी. संभव है कि कुछ लोग फिर भी इसे उसी के बराबर खड़ा करके देखें. कहना न होगा कि अतिशयोक्ति केवल अलंकार नहीं है, यह बुद्धिमान लोगों के समय काटने का एक साधन भी है. इस प्रकार वास्तविक पुनर्जागरण के उत्तर में हमने 19वीं शताब्दी के जागरण को गौरवान्वित किया.
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प्राचीन भारत के बारे में सबसे पहले लिखने वाले महान इतिहासकार दामोदर धर्मानंद कोसांबी की एक किताब है मिथ एंड रियलिटी. हालांकि वे विद्वान तो गणित एवं सांख्यिकी के थे, लेकिन इतिहास के भी महान ज्ञाता थे. उन्होंने हार्वर्ड में अध्ययन किया था. उनके पिता धर्मानंदजाने-माने मराठी लेखक और संस्कृत के ज्ञाता थे. उन्होंने अहमदाबाद में गांधीजी के साथ कुछ दिन बिताए थे. उन्होंने भी साहित्य की आलोचना के क्षेत्र में प्रशंसनीय कार्य किया है. उन्होंने भर्तृहरि के तीन शतकों का संपादन किया. वे कहा करते थे कि यदि कोई प्राचीन भारत के इतिहास को जानना और समझना चाहता है, तो आधुनिक भारत के गांवों में जाए. वह आज भी आर्य सभ्यता के जैसे हैं. उन्होंने निरंतरता के कुछ रूप को वैदिक काल के पांच हजार साल पुराने गांवों को आधुनिक गांवों में महसूस किया. महाराष्ट्र के गांवों में उन्होंने घूमकर देवी-देवताओं की मूर्तियों को देखा. फिर उसके तारतम्य को स्थापित करके समझने का प्रयास किया कि किस प्रकार खेतों को जोता और सींचा जाता था. उनका विश्वास था कि आधुनिक गांवों के अध्ययन से उनके पूर्वकाल के अवशेष और पांच हजार साल पुराने इतिहास को जाना जा सकता है. यद्यपि कोसांबी ने नृतत्वशास्त्र और पुरातत्वविज्ञान की नियमित शिक्षा प्राप्त नहीं की थी, इसके बावजूद ‘मिथ एंड रियलिटी’ में संकलित उनके निबंध वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर लिखे गए हैं.
यदि रेनेसां मिथ्या है तो इतिहास क्या है? जब हम इसके स्वाभाविक तत्वों को देखें तो क्या हम इस जागरण को इतिहास कहें? आप जानते हैं कि वास्तविक इतिहास को देखना इतना क्यों महत्वपूर्ण है. यदि इन दिनों इतना बहुत अधिक नारी उत्थान हो गया है, तो गुजरात, कश्मीर और दिल्ली में क्यों बलात्कार की इतनी अधिक घटनाएं घट रही हैं? यदि हम हिंदू-मुस्लिम के बीच भाईचारे को लेकर इतने अच्छे थे, तो क्यों आज दंगों में निर्दयतापूर्वक एक-दूसरे की जान लेते हैं? उन दिनों यदि हमने वास्तव में जातीयता को त्याग दिया था, तो दलितों पर अन्याय क्यों किये गये? यदि राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के विरुद्ध कठोर कानून पारित करवाया था, तो 20वीं शताब्दी में राजस्थान के देवराला में रुपकुंवर सती की घटना हुई? 19वीं शताब्दी में ही यदि हम सभी समस्याओं का समाधान कर चुके थे तो भारत जैसा था वैसा ही क्यों रह गया? गांधीजी को इतना कठिन परिश्रम क्यों करना पड़ा? यदि क्रांति के द्वारा हम अंग्रेजों को खदेड़ना चाहते थे, तो फिर से गुलाम क्यों बन गए? 1857 के बाद लंबे समय तक हम पराधीन रहे, यहां तक अपने अधिकारों की तरह 1947 में भी हम स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर सके और हमें मात्र शक्ति के स्थानांतरण मात्र पर संतोष करना पड़ा. यह सभी परिलक्षित करते हैं कि 1857 में हमने कोई असाधारण क्रांति नहीं की थी.
राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर के अलावा और जिन लोगों की हमारे इतिहास में प्रशंसा की गई है, असलियत यह है कि उन्हें बहुत अधिक सफलता नहीं मिली. इन आंदोलनों की शुरुआत में शहरी मध्यम वर्ग वास्तव में कुछ सुधार हुआ, लेकिन यह ऐसी क्रांति नहीं थी जिसे हम पुनर्जागरण कहें, प्रशंसा करें. इस प्रकार यदि कोसांबी की दृष्टि से बात करें, तो हमें साफ तौर पर लगेगा कि जो कुछ वर्तमान भारत में हम आज देख रहे हैं, वहे 19वीं शताब्दी में भी था. वर्तमान की सहायता से हम अतीत में जा सकते हैं. यदि हम पीछे देखें तो जो हमारी आंखों के सामने रहता है वह भाग हमें रंगीन और सुनहरा दिखाई देता है, तो कुछ ऐसी भी घटनाएं होती हैं जिनके बारे में हम बात नहीं करना चाहते. यानी मीठा-मीठा खा और कड़वा-कड़वा थू.
हमारे यहां के विद्वान पुनर्जागरण पर ही इतना अधिक ध्यान देते हैं कि यदि हम उसे पढ़ें तो अतीत के विषय में जानने की हमारी लालसा और बढ़ जाती है. हमें यह अनुभव कराया गया कि संपूर्ण भारत रामकृष्ण, विवेकानंद और दयानंद जैसे महापुरुषों की मंडली है. हमें यह भी अनुभव कराया गया कि औरतों की दशा बहुत अच्छी थी और जातीयता को प्राणघातक मान लिया गया था. इसके अलावा कुछ दूसरी चीजें भी उस दौरान घटित हुई, जिसके बारे में हम बात नहीं करते. एक हिंदी भाषी प्रांत में दयानंद को जूतों की माला से स्वागत किया गया था. जब ‘आर्यसमाज’ और ‘ब्रह्मसमाज’ मौजूद था, उसी समय ‘सनातन धर्म सभा’ और ‘भारत धर्मसभा’ भी स्थापित हुआ. दयानंद शास्त्रार्थ में हरा दिये गये. कट्टरपंथी और रुढिवादी लोगों ने नये विचारों का विरोध किया. बाद में ब्रह्मसमाज भी अत्यधिक पुरातनपंथी हो गया. राजा राममोहनराय के बारे में कहा जाता है कि जब वे मृत्युशय्या पर थे तो उन्हें भागीरथी के तट पर लाया गया. उनके चारों तरफ खड़े लोगों ने उनसे पूछा कि वे लोग उनके लिए क्या कर सकते हैं? तो उन्होंने अपने पूरे शरीर पर राधाकृष्ण लिखने को कहा. राधाकृष्ण लिखते समय जब उनके कान के पास थोड़ा स्थान छूट गया तो उन्होंने वहां भी लिखने के लिए कहा. जिन लोगों ने धार्मिक सुधार के लिए विद्रोह किया वे अत्यधिक पुरातनपंथी निकले. आंदोलन के अंतिम दिनों में ब्रह्मसमाज के अनुयायी हठधर्मी हो गये थे. बाद में बहुत सारे ब्रह्मसमाजी कम्युनिस्ट और मार्क्सवादी हो गए.
सन् 2002 हरियाणा में अनेक दलितों को जिंदा जला दिया गया. उन्हीं दिनों गाय की भी हत्या हुई. आज भी लोगों का मानना है कि गाय को पवित्र मानना चाहिए. 19वीं शताब्दी में गौ-हत्या पर वाद-विवाद इतना बढ़ गया कि हिंदी भाषी प्रांत में लोगों ने हिंदी का पक्ष लेते हुए गौ-हत्या का विरोध किया. उन्होंने नागरी लिपि और हिंदी का चित्रण बिल्कुल नम्र गऊ की तरह किया, तो उर्दू के पक्षधर ने गौ-हत्या का पक्ष लिया. हिंदी के पक्षधरों ने वाद-विवाद को गौ-हत्या के विरुद्ध और भाषा-साहित्य से संबंधित प्रश्नों से जोड़ा. यह सब इस सीमा तक बढ़ गया कि एक तरफ जहां शरतचंद्र वेश्याओं के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करने के लिए ‘श्रीकांत’ नाम से उपन्यास लिख रहे थे, वहीं दूसरी तरफ हिंदी-संसार में उर्दू को वेश्याओं की भाषा के रूप में देखा जा रहा था.
19वीं शताब्दी में जातिगत क्रांति हुई, लेकिन इसके विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप एक प्रतिक्रांति भी विकसित हो गई. यह एक विपरीत जागरण था. आधुनिक भारत में विभिन्न प्रकार की विचारधाराएं एक साथ रहती हैं. यदि कुछ धर्मनिरपेक्ष लोग हैं, तो कुछ सांप्रदायिक भी हैं. आपको क्या लगता है कि 19वीं शताब्दी में सांप्रदायिकता नहीं थी? विचारधाराओं का संघर्ष नहीं था? इसलिए रेनेसां के बारे में एकपक्षीय दृष्टिकोण नहीं रखना चाहिए. विद्वानों को संपूर्णता में इस जटिल मुद्दे को देखना चाहिए. प्रायः विद्वान अत्यधिक स्पष्टीकरण के दोष से मुक्त नहीं हो पाते. स्पष्टीकरण और अत्यधिक स्पष्टीकरण दोनों गलत है. रेनेसां को हमें अत्यधिक सरल बनाने का प्रयास नहीं करना चाहिए. इस घटना की जटिलता, आधुनिकता और अत्याधुनिकता बहुत हैं और प्रभावशाली भी हैं. वे केवल हिंदुत्व में ही नहीं, बल्कि इस्लाम और ईसाईयत में भी दिखाई देती हैं. ऐसे में हमें पुराने लेखों और ग्रंथों पर विश्वास करना चाहिए.
जॉक देरिदा ने एक मनोरंजक निबंध लिखा है, जिसका शीर्षक है ‘आर्काइव फीवर’. इस ‘आर्काइव फीवर’ का प्रयोग परतंत्रों के इतिहास लेखन में किया जाता है. इसलिए मैं कहता हूं कि हमें इतिहास को बहुत सावधानी से देखना चाहिए. हमें उन सुधारविरोधी तत्वों को देखने का भी प्रयत्न करना चाहिए जिसे हम ‘समाज सुधार’ कहते हैं. उन दिनों भी रुढ़िवादी लोग थे. भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने एक निबंध में इस शब्द का प्रयोग किया है. जब हम कुछ लोगों को कंजरवेटिव कहते हैं, तो हमें इंग्लैंड के इतिहास की रोशनी में एक बार देखना चाहिए. लेबर कंजरवेटिव और लिबरल जैसे शब्दों का प्रयोग हमारे देश में भी होता रहा है. आज जब हम अपने राजनीतिक दलों को परिभाषित करते हैं या जब किसी को कंजरवेटिव या लिबरल कहते हैं, तो ब्रिटिश संसदीय प्रणाली के शब्दकोश से शब्द उधार लेते हैं. सौभाग्य से टोरी शब्द जिसका बार-बार प्रयोग होता था, अब इसका प्रयोग बहुत कम हो गया है. जैसे लिबरल डेमोक्रेट और रिपब्लिकन जैसे शब्दों से अपने आप को दूर रखना चाहिए. स्वयं को परिभाषित करने के लिए हमें अपना शब्द प्रयोग करना चाहिए. कंजरवेटिव या लिबरल का हमारे संदर्भ में कोई प्रयोग नहीं है. मेजॉरिटी और माइनॉरिटी जैसे शब्दों का प्रयोग बिल्कुल अर्थहीन है, क्योंकि हमारे देश में यदि एक समुदाय एक स्थान पर बहुमत में है, तो दूसरे स्थान पर वह अल्पसंख्यक है. इसके साथ ही अब तो बहुमत का अर्थ भी काफी बदल चुका है. किसी चीज को परिभाषित करने के लिए जिन पारिभाषिक शब्दों का हम प्रयोग करते थे, इन दिनों उसका झुकाव सरलता से ज्यादा जटिलता की ओर है. कबीर कहा करते थेः
‘‘मेरा-तेरा मनुआं कैसे एक होई रे.
मैं कहता हौं आंखिन देखी,
तू कहता कागद की लेखी,
मैं कहता सुरझावनहारी,
तू राख्यौ उरझाई रे.’’
अभी 19वीं शताब्दी के लिए रेनेसां शब्द का प्रयोग करने के बजाय हम इसे सरलतम शब्दों में रखते हैं. मैं इसे ‘अभिज्ञान युग’ कहना पसंद करूंगा. मैं युवा विद्वानों से आह्वान करता हूं कि वे उन गलतियों को न दोहराएं जो हमारी पीढी ने किये हैं. चीजों को खुली आंखों से देखने, पुराने मिथकों को समाप्त करके इतिहास को नये तरीके समझने और नये इतिहास को रचने की जरूरत है. अंग्रेजी के विद्वानों को दूसरे की अपेक्षा अधिक सुविधा थी. उनके पास अंग्रेजी भाषा द्वारा प्राप्त ज्ञान का विशाल आकाश था. भारतीय भाषाओं के विद्वानों को गंवार हो जाने का डर ज्यादा था. आज की अंग्रेजी को पूरब और पश्चिम में नहीं बांटा गया है. इसकी अपेक्षा उत्तर औपनिवेशिक काल की अंग्रेजी अधिक लचीली है और उसमें खुलापन भी अधिक है. चूंकि मेरा संबंध हिंदी से है, इसलिए कह रहा हूं कि हिंदी और गुजराती के विद्वानों से मैं बहुत उम्मीद नहीं करता. लेकिन अंग्रेजी के भारतीय विद्वानों से मेरी बहुत उम्मीदें हैं. जब वे अपने साहित्य का अध्ययन करेंगे तो उन्हें भारतीय रेनेसां की वास्तविकता और मिथक के बहुत से नये अर्थ मिलेंगे. जो अब तक हिंदी और गुजराती के विद्वानों की जानकारी से दूर है.
पंकज पराशर
आलोचना की पुस्तक ‘रचना का सामाजिक पाठ’ प्रकाशित
सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग,
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय,
अलीगढ़-202002 (उ.प्र.)
फिर पढ़कर अच्छा लगा।
निश्चित ही संपन्नतादायक।
पंकज को धन्यवाद।
अरुण को भी।