पार्श्व में हजारीप्रसाद द्विवेदी : समालोचन |
नामवर सिंह की आलोचना–पुस्तक ‘कहानी नयी कहानी’, हिंदी कहानी को समझने के लिए आधार-ग्रन्थ की तरह है. नामवर सिंह ने इसे एक दशक (१९५६-१९६५) की चिन्तन यात्रा की पगडंडी कहा है. आज जब ५० साल बाद कहानी का युवा आलोचक इस कृति को पढ़ता है तब उसके समक्ष कुछ नए प्रश्न भी उठते हैं. साहित्य में संवाद का यही तरीका है. ऐसे संवाद कृति को आलोकित करते हैं, परम्परा को प्रशस्त करते हैं.
राकेश बिहारी का आलेख.
कथालोचना की सैद्धांतिकी
(संदर्भ: नामवर सिंह की पुस्तक ‘कहानी नई कहानी’)
राकेश बिहारी
समीक्षा की समीक्षा या आलोचना की आलोचना एक कठिन काम है. यह काम और कठिन हो जाता है जब समीक्षा या आलोचना के घेरे में उपस्थित आलोचक नामवर सिंह जैसा जीवित ही किंवदंति बन चुका कोई व्यक्ति हो. एक ऐसा व्यक्ति जिसने साहित्यिक आलोचना के समानान्तर रचना और समाज के बीच एक संवाद–सेतु का निर्माण कर आलोचना शब्द को एक नई अर्थवत्ता प्रदान की है. यह कठिन काम दुविधापूर्ण भी हो जाता है जब उसे अंजाम देने वाला व्यक्ति कोई नौसिखुआ हो. इस कठिनाई और दुविधा के बीच नामवर जी की कथालोचना पर लिखते हुये मेरे मन में कुछ संशय भी हैं. यदि नामवर जी के शब्द ही उधार लूं तो कहीं ‘छोटे मुंह बड़ी बात’ तो नहीं हो जायेगी…? नामवर जी की कथालोचना को पढ़ते हुये मेरी जो पाठकीय निष्पत्तियां हैं वह कितनी जायज हैं..? इस ‘आलोचना-आइडल’ को पढ़ने में मुझ से कोई चूक तो नहीं हो गई..? मन अपने ही निष्कर्षों पर तरह-तरह से संशय कर रहा है. इस कश्मकश के बीच अचानक नामवर जी की ही एक पंक्ति मेरे भीतर कौंधती हैं – ‘रस ग्रहण के कार्य में हर पाठक अकेला है और अपनी नियति का पथ उसे अकेले ही तय करना है’ इन पंक्तियों ने जैसे मुझमें अपनी पाठकीय नियतियों को सबसे साझा करने का अपार साहस भर दिया है. पाठकीय संशय को आश्वस्ति में बदलने का यही कौशल नामवर जी के आलोचक की सबसे बड़ी विशेषता है.
हिन्दी कहानी की कोई ठोस आलोचना पद्धति यदि नहीं बन सकी तो इसके पीछे एक खास तरह की आलोचकीय अवधारणा रही है कि ‘कहानी इस लायक है ही नहीं कि उसे गम्भीर समीक्षा का विषय माना जाये.’. यह दुविधा नामवर जी के मन में भी थी. ‘कहानी नयी कहानी’ की भूमिका में उन्होंने इसे स्वीकार भी किया है. बावजूद इस दुविधा के यदि नामवर जी ने कहानियों पर ‘सैद्धान्तिक ढंग से सामान्य बातें न कहते हुये भी सिद्धांतों के निर्माण’ में जो योगदान किया है उसके ऐतिहासिक महत्व हैं. ‘कहानी नयी कहानी’ किताब में नामवर जी के दो रूप हैं. एक सिद्धांतकार का जो कदम-कदम कहानी पढ़ने के तरीके बताता हुआ पाठ-प्रक्रिया के कई महत्वपूर्ण ‘टूल्स’ का इजाद करता है. और दूसरा रूप उस आलोचक का है जो कुछ चुनिंदा कहानियों की पाठ प्रक्रिया से गुजरता हुआ पाठकों को उस कहानी की लेखन-प्रक्रिया तक पहुंचाने की कोशिश करता है. एक ऐसी कोशिश जिसमें कहानी के रेशे-रेशे का पुनर्मूल्यांकन और पुनरान्वेषण सन्निहित है. बात पहले उनके सिद्धांतकार पर.
विशुद्ध कहानी का पाठक आलोचना का नाम सुन कर ही शायद घबरा उठे. लेकिन नामवर जी जिस सहज-सरल और तरल भाषा में कहानी पढ़ने की सैद्धांतिकी गढ़ते और उसे विकसित करते हैं उसे पढ़ना किसी रचना पढ़ने जैसा ही प्रीतिकर है, कई बार इतना सम्मोहक कि कई रचनायें भी अपने पाठकों को उस दुनिया तक न ले जा पायें. कविता और कहानी की आलोचना के ‘टूल्स’ बिल्कुल एक से नहीं हो सकते. हालांकि कथालोचना की तरफ अपना पहला कदम बढ़ाते हुये उन्हें कहानी में आलोचना की वही विश्लेषण पद्धति कारगर दिखती है जो प्राय: छोटी कविताओं के लिये प्रयुक्त होती रही हैं. लेकिन ‘नयी कहानी’ पाठ-प्रक्रिया का व्याकरण निर्मित करने के क्रम में अपनी इस शुरुआती धारणा से बहुत हद तक मुक्त होते हुये वे कहानी पढ़ने के कुछ ऐसे औजार हमारे हाथों में थमा जाते हैं जो हर भाषा और हर समय के कथा-पाठ के लिये जरूरी और उपयुक्त हैं.
भाषा-शिल्प और रूप से ज्यादा अन्तर्वस्तु और यथार्थ पर जोर ही कथोचित समीक्षा पद्धति की खोज है. जागरूक चिंतन तथा पैनी सामाजिक दृष्टि की जरूरत को रेखांकित करते हुये वे कहते हैं – ‘घटना-प्रसंग जितना ही वास्तविक होगा, कहानी उतनी ही जोरदार होगी.’ नामवर जी की कथालोचना में कहानी की समीक्षा को मनोरंजन और शिल्प के कैद से मुक्त करने की पुरजोर कोशिश को सहज ही रेखांकित किया जा सकता है. कहानी, अच्छी कहानी, नई कहानी जैसे पदों की व्याख्या करते हुए वे कहानी की सोद्देश्यता और सामाजिकता के तहों तक प्रवेश करते हैं. एक उद्धरण यहां द्रष्टव्य है – \”आज इतना ही कहना काफी नहीं है कि अमुक कहानी बहुत अच्छी है या अमुक कहानी सफल है, बल्कि इस ‘अच्छेपन’ को और ‘सफलता’ को अधिक ठोस और युक्तिसंगत रूप में उपस्थित करने की आवश्यकता है. दूसरे शब्दों में, आज की कहानी की ‘सफलता’ का अर्थ है, कहानी की सार्थकता. आज किसी कहानी का शिल्प की दृष्टि से सफल होना ही काफी नहीं है बल्कि वर्तमान वास्तविकता के सम्मुख उसकी सार्थकता भी परखी जानी चाहिये.\” वर्तमान वास्तविकता के सम्मुख कहानी की जिस सार्थकता की बात यहां नामवर जी कह रहे हैं उसे हम यथार्थ के पुन:सृजन और पुनर्विश्लेषण के माध्यम से उसके भीतर गहरे पैठे अन्त:सत्यों की पुनर्स्थापना भी कह सकते हैं.
यथार्थ को संवेदना से जोड़ने के लिये जिस रचनात्मक संघर्ष की जरूरत होती है उसे नामवर जी केवल युद्ध या कोई स्थूल लड़ाई नहीं मान कर व्यक्ति और समुदाय के आपसी संबंधों की प्रतिक्रिया मानते हैं. व्यक्ति और समुदाय का यह संवाद एक सफल कहानी में रूपयित हो इसके लिये सामाजिक स्थिति, पारिवारिक संस्कार, जीवन दृष्टि तथा अनुभव सीमा को भेदने की जरूरत है, जो सिर्फ भाषा या शिल्प से संभव नहीं है. सायास और चौकन्ने भाषाई रचाव को तो नामवर जी कहानीकार की चालाकी के रूप में देखते हैं जो पाठक को भरमाने का एक उपक्रम है. \”कहानी में जहां भाषा को अधिक कवित्व-पूर्ण, ललित, सुन्दर या उदात्त बनाने की कोशिश दिखाई पड़े वहां समझ लेना चाहिये कि वस्तु सत्य की पूंजी के अभाव में शब्दों के व्यापार के सहारे कामयाबी हासिल करने की कोशिश है.\” नामवर जी भाषा-शिल्प बनाम अन्तर्वस्तु की इस बहस को और स्पष्ट करते हुये कहते हैं कि प्रभावोन्विति का असली कारण कहानी में अन्तर्निहित विचार और अनुभूतियों की विशेषता ही होती है. इसलिये भाषा शैली के आधार पर ही कहानियों के मूल्यांकन को वे आलोचनात्मक असामर्थ्य और पाठकीय भोलापन का सूचक मानते हैं.
नामवर जी ने कथालोचना के जो औजार विकसित किये हैं वे सर्वकालिक हैं इसलिये उनकी उपयोगिता और प्रासंगिकता आज भी उतनी ही बनी हुई है. ‘कहानी नयी कहानी’ को पढ़ते हुये कोई पाठक सहज ही आज के कथा परिदृश्य में तब के यानी नयी कहानी के दौर के कथा-समय की कई-कई प्रतिछवियां देख सकता है. नामवर जी की आलोचना सिर्फ रचना और उसके रसास्वादन तक ही सीमित नहीं होती. उनकी दृष्टि कहानी और कहानीकार के साथ-साथ पाठक, पत्रिका, बाजार और बृहत्तर समाज के आचार-व्यव्हार से भी लगातार संवाद बनाती और उसका जरूरी मूल्यांकन करती चलती है. वे रचना-सजग से कहीं ज्यादा समय-सजग आलोचक हैं. तभी तो वे जितनी बारीकी से अपने दौर की कहानियों पर बात करते हैं उतनी ही सचेत और सजग निगाही से पत्रिकाओं के बाजारू टोटके और पाठकीय समझ पर डोरे डाल रहे विज्ञापनबाज संपादकों की तरफ भी इशारा करते चलते हैं. और इस तरह उनकी आलोचना लेखक, पाठक और संपादक तीनों के लिये बराबर रूप से जरूरी हो जाती है. कुछ पंक्तियां आप भी देखिये –
\” जो बाजारू पत्रिकायें विषयाश्रयी वर्गीकृत कहानियों के द्वारा ‘अपने’ पाठकों की भूख मिटाती हैं वे उन्हें सम्पूर्ण जीवन से विछन्न करती हैं. वे परोक्ष ढंग से अपने पाठक समुदाय की कहानी सम्बन्धी प्राथमिक दिल्चस्पी को कुंठित करती हैं. इस प्रकार उनकी रुचि सीमित होती है, समझ संकुचित होती है और आकांक्षा अन्य कहानियों से वंचित होती है. एक ओर कहानियों के वर्ग बनते हैं तो दूसरी ओर पाठकों के. फलस्वरूप कहानीकार ‘टाइप’ कहानियां लिखने लगते हैं. देखते-देखते घटिया ढंग के ‘टाईप’ कहानीकारों से बाजार पट जाता है\”.
आज जब बाजार और मुनाफे का गणित समझा रहे संपादक समय के बृहत्तर और जरूरी सवालों से मुंह फेर कर प्रेम और बेवफाई के बाजारू मर्दोत्सव में तल्लीन हैं, लगता है नामवर जी साठ वर्ष की दूरी से इसमें सार्थक हस्तक्षेप कर रहे हैं.
ऊपर वर्णित कथालोचना की नामवारी अवधारणायें अपने पहले पाठ में हमें शब्द-दर-शब्द सम्मोहित करती हैं. लेकिन जैसे ही कुछ थम कर हम इन सिद्धान्तों के कुछ भिन्न पहलुओं पर देखते हैं अन्तर्विरोधों की कई स्पष्ट दरारें कालीन के भीतर से झांकने लगती हैं. यहां नामवर जी की स्थापनाओं की दो परस्पर विरोधी मान्यताओं पर गौर करना जरूरी है. पहला प्रश्न है कहानी और उसकी नियति के लिये जिम्मेवार कौन है कहानीकार या कि पाठक? इस प्रश्न पर अपनी तरफ से कुछ कहने की बजाय मैं नामवर जी के शब्द ही आगे करना उचित समझता हूं.
“आज की हिन्दी कहानी के विकसित तत्वों के रसास्वादन के लिये यथोचित अभिरुचि का वातावरण बनाने की जिम्मेदारी सबसे पहले आज के जागरूक कहानीकारों की है. अभिरुचि के द्वारा ही सुरुचिसम्पन्न पाठकों का समुदाय तैयार किया जा सकता है, जो कि आज की ‘हिन्दी कहानी’ के जीवन्त तत्व के विकास की खास शर्त है. \”
अब एक दूसरा उद्धरण देखिये – \”कहते हैं जैसे पाठक वैसा साहित्य; लेकिन सिर्फ कहते हैं. इसके मूल में क्या यह तथ्य नहीं है कि साहित्य का स्तर नीचा है तो इसकी बहुत कुछ जिम्मेदारी पाठकों पर है? अगर अच्छी या बुरी सरकार की जिम्मेदारी किसी देश की जनता पर है तो अच्छे या बुरे साहित्य की जिम्मेदारी पाठकों पर है.\”
कहने की जरूरत नहीं है कि अच्छी कहानी की जिम्मेवारी तय करने के क्रम में नामवर जी खुद उलझ गये हैं.
दूसर प्रश्न है – क्या कथा लेखन एक पेशा है? यदि हां तो कथाकार प्रोफेशनल क्यों न हो? मुझे लगता है नामवर जी इस प्रश्न पर भी अन्तर्विरोध के शिकार हैं. या यूं कहें कि अपनी बात मजबूत करने के लिये इस संदर्भ में परस्पर विरोधी तर्कों का इस्तेमाल कर जाते हैं. एक बार फिर उन्हीं कि कुछ पंक्तियां –
“कहानी के अंदर बहुत सी बारीकियां हो सकती हैं जिन्हें रचनाकार होने की कारण केवल कहानी-लेखक ही जानता है. वह जानता है कि कौन सा ‘टच’ क्या ‘इफेक्ट्स’ पैदा कर सकता है और इस तरह एक विशेष प्रकार का ‘प्रभाव’ उत्पन्न करने के लिये जहां-तहां कुछ ‘विन्दु-विसर्ग’ रख देता है. कभी-कभी हमपेशा कलाकार इन बारीकियों को भांप लेते हैं क्योंकि वे पेशे के अन्दरुनी आपसी रहस्यों से परिचित होते हैं.\”
अब एक दूसरा उद्धरण –
\”जैसा कि सितंबर ‘६४ की ‘कल्पना’ में ‘किनारे से किनारे तक’ की कहानियों के बारे में लिखा गया है कि राजेन्द्र यादव में ‘कुशल व्यवसायिक लेखन’ के सारे गुण-दोष मौजूद हैं.’ कहना न होगा कि जहां व्यावसायिकता आ गई वहां नये सर्जन की संभावना समाप्त.\”
यह अन्तर्विरोध कई प्रश्नों को जन्म देता है. पहला यह कि लेखन प्रोफेशन है या नहीं? यदि लेखन प्रोफेशन है तो लेखक बिना प्रोफेशनल हुये कैसे रह सकता है? और फिर यदि लेखन प्रोफेशन है तो क्या दूसरे प्रोफेशन की तरह इस पेशे के भी कुछ अंदरुनी रहस्य यानी ‘ट्रेड-सेक्रेट्स’ भी होते हैं? जिस तरह अपनी पाठकीय नियति के साथ हर पाठक अकेला होता है उसी तरह लेखकीय नियति भी रचना प्रक्रिया के स्तर पर नितांत अकेली या निजी होती हैं. मुझे लगता है कि पाठकीय और लेखकीय नियति की अलग-अलग और स्वतन्त्र उपस्थिति ही किसी रचना के कई-कई पाठ और उस पाठ के कई-कई अन्तर्पाठ रचती है. ऐसे में यह कहना कि कहानी की बारीकियां सिर्फ कहानी-लेखक ही समझ सकता है कथालोचना और उसकी सैद्धांतिकी गढ़ने के औचित्य पर ही प्रश्नचिह्न खड़े कर देता है.
अब बात नामवर जी के उस कथालोचक रूप की जो कहानियों को अपने विशिष्ट पाठ प्रक्रिया से सरल और सरलतर बनाते हुये पाठकों तक पहुंचाता है. किसी कहानी के अन्तर्वस्तु के विभिन्न प्रभावों को नामवर जी जिस बारीकी और सहजता से हमारे सामने रख देते हैं वह दुर्लभ है. आलोचना की कठिन शब्दावली और बोझिल पारिभाषिकताओं से मुक्त हो कर आलोचना को एक सहजग्राही रचना में परिवर्तित कर देना नामवर जी की बहुत बड़ी विशेषता है. नामवर जी न सिर्फ कहानी पढ़ने की सैद्धांतिकी रचते हैं बल्कि उन सिद्धांतों के आधार पर कहानियों का विश्लेषण भी कर के बताते हैं. अच्छी और कम अच्छी कहानी या भावुक और भावप्रवण कहानियों में कैसे अंतर किया जाय इसे स्पष्ट करने के लिये उन्होंने जिस तरह कहानियों की व्याख्या की है वह पाठकों की आंखें खोल देने वाला है.
द्विजेन्द्रनाथ मिश्र ‘निर्गुण’ की ‘एक शिल्पहीन कहानी’ और उषा प्रियंवदा की ‘वापसी’ की तुलनात्मक व्याख्या के बहाने नामवर जी ने जिस तरह तथाकथित ‘अच्छी कहानी’ को नई कहानी के बरक्स रख कर देखने की कोशिश की है उससे कई बातें साफ हो जाती हैं. एक अच्छी कहानी पाठकों को सिर्फ अश्रुविगलित ही नहीं करती बल्कि उसकी आंखों में समय और समाज को देखने-समझने की नई दृष्टि भी पैदा करती है. इन कहानियों की बहुस्तरीय पाठ-प्रक्रिया में जिस तरह वे दो कहानियों के बहाने दो कथाकारों और उससे भी आगे जाकर दो युगों का अंतर रेखांकित करते हैं वह सहज हो कर भी आसान नहीं है.
कहानी के रेशे-रेशे में छुपे विशिष्ट प्रभावों को उजागर करने में नामवर जी बेजोड़ हैं, लेकिन उनकी दिक्कतें तब शुरु होती हैं जब वे अपनी समीक्षा-प्रक्रिया में खुद अपने ही द्वारा निर्मित सिद्धान्तों की जाने-अनजाने अनदेखी करने लगते हैं. उनका कथालोचक जैसे उनके काव्यालोचक की शरण में चला जाता हैं. नतीजतन वे यथार्थ, अन्तर्वस्तु, सामाजिक सोद्देश्यता आदि की जगह संगीत, रूप, ध्वनि और लय आदि के टूल्स से कहानियों को जांचने-परखने लगते हैं. नामवर जी के कथालोचक के भीतर काव्यालोचक की यह घुसपैठ निर्मल वर्मा की ‘परिन्दे’ की समीक्षा में सहज ही देखी जा सकती है. कई बार ऐसा भी लगता है कि कहानी और कविता की आलोचना की टूल्स के घालमेल के कारण नामवर जी किसी कथाकार की कमियों को भी अनदेखा कर जाते हैं वहीं किसी कथाकार की उपलब्धियां भी उन्हें नहीं छू पाती हैं. निर्मल वर्मा के प्रति आसक्ति के हद तक का मोह और मोहन राकेश और राजेन्द्र यादव के प्रति अतिशय निर्ममता के शायद यही कारण हैं. तभी तो ‘एक शिल्पहीन कहानी’, ‘वापसी’ और ‘धरती अब भी घूम रही है’ (विष्णु प्रभाकर) पर अपनी स्पष्ट राय जाहिर करने वाले नामवर जी राजेन्द्र यादव की ‘एक कमजोर लड़की की कहानी’ के बारे में अपना एक मत नहीं रख पाते हैं और मोहन राकेश को यात्रा के दौरान कहानी बटोरने वाला लेखक भर बता कर काम चला लेते हैं.
मोहन राकेश की कहानियों के बारे में उनका यह मत कि ‘यात्रा में प्राप्त कहानियों की तरह ही इनमें गहरी मानवीय संवेदना का अभाव मिलता है’ गले नहें उतरता. यहां मुझे राजेन्द्र यादव की एक आत्मस्वीकारोक्ति याद आ रही है कि ‘पहले जब मैं बस-ट्राम और रेलवे के साधारण दर्जे में यात्रा करता था तो कहानियां मिलती थीं अब कार, ए. सी. ट्रेन और हवाई जहाज से यात्रा करते हुये सिर्फ दूरियां तय होती है.’ यात्रा चाहे मन से मन की हो या फिर एक जगह से दूसरी जगह की, है तो यायावरी ही न. बिना यायावरी के भी कहानी लिखी जा सकती है क्या? मुझे लगता है यायावरी कहानी के लिये एक अनिवार्य गुण है. बेशक यात्रा में मिले सत्यों को जबतक लेखक एक दृष्टिसंपन्न संवेदनशील स्पर्श नहीं देता एक अच्छी कहानी नहीं बन सकती. मोहन राकेश ने ऐसी कई कहानियां लिखी है. ‘अपरिचित’ मोहन राकेश की एक ऐसी ही कहानी है.
नामावर जी अद्भुत तर्क शक्ति के धनी आलोचक हैं. वे कहानी के साथ लगातार एक जिरह करते हैं. जिरह आलोचना का एक अनिवार्य गुण-धर्म भी है. लेकिन वकील की तरह जिरह करना और वकील हो जाना दोनों में अंतर है. कहानियों से जिरह करते नामवर जी कब आलोचक से वकील और वकील से न्यायाधीश बन जाते है पता ही नहीं चलता है. आलोचक वकील नहीं हो सकता क्योंकि वकील को सिर्फ अपने क्लाइंट का हित देखना होता है, वह भी हर कीमत पर. इससे उसे कोई वास्ता नहीं होता कि उसका क्लाइंट दोषी है या निर्दोष. मेरी दृष्टि में आलोचना और वकालत के बीच की यही विभाजक रेखा है. नामवर जी का आलोचक कई बार इस विभाजक रेखा का अतिक्रमण करता है. यही कारण है कि ‘परिन्दे’की प्रतीक्षा तो उन्हें बहुस्तरीय और बहुलार्थी लगती है लेकिन संबंधों की कई-कई परतों के उघड़ने के बावजूद यंत्रणा और विडंबना के बीच ‘नंदा’ के लिये ‘गीता’ की ‘प्रतीक्षा’ (राजेन्द्र यादव) में उन्हें कुछ भी नजर नहीं आता.
मैं ने अब तक जिसे नामवर जी का अन्तर्विरोध कहा है हो सकता है यह मेरा ‘मीन-मेख’ या कि मेरी शंकायें भर हों. इससे कथालोचना के क्षेत्र में किये उनके ऐतिहासिक अवदान का महत्व किंचित मात्र भी कम नहीं होता, कारण कि वे पहले आलोचक हैं जिन्होंने कहानी विधा को भी गंभीर आलोचना-समीक्षा के लायक माना. ‘छोटा मुंह बड़ी बात’ जैसी इस टिप्पणी में व्यक्त अपनी आशंकाओं को मैं नामवर जी की कथालोचना की सीमाओं से ज्यादा समकालीन कथालोचना की चुनौतियां मानता हूं, क्या आपको भी ऐसा ही नहीं लगता?
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